सुख सागर अर्थात् अमर परमात्मा तथा उसकी राजधानी अमर लोक की संक्षिप्त परिभाषा बताई है:-
शंखों लहर मेहर की ऊपजैं, कहर नहीं जहाँ कोई।
दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।
भावार्थ:- जिस समय मैं (लेखक) अकेला होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसी हिलोर अंदर से उठती है, उस समय सब अपने-से लगते हैं। चाहे किसी ने मुझे कितना ही कष्ट दे रखा हो, उसके प्रति द्वेष भावना नहीं रहती। सब पर दया भाव बन जाता है। यह स्थिति कुछ मिनट ही रहती है। उसको मेहर की लहर कहा है। सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम में जाने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को इतना आनन्द आता है। वहाँ पर ऐसी असँख्यों लहरें आत्मा में उठती रहती हैं। जब वह लहर मेरी आत्मा से हट जाती है तो वही दुःखमय स्थिति प्रारम्भ हो जाती है। उसने ऐसा क्यों कहा?, वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, वो हानि हो गई, यह हो गया, वह हो गया। यह कहर (दुःख) की लहर कही जाती है।
उस सतलोक में असँख्य लहर मेहर (दया) की उठती हैं, वहाँ कोई कहर (भयँकर दुःख) नहीं है। वैसे तो सतलोक में कोई दुःख नहीं है। कहर का अर्थ भयँकर कष्ट होता है। जैसे एक गाँव में आपसी रंजिश के चलते विरोधियों ने दूसरे पक्ष के एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी, कहीं पर भूकंप के कारण हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उसे कहते हैं कहर टूट पड़ा या कहर कर दिया। ऊपर लिखी वाणी में सुख सागर की परिभाषा संक्षिप्त में बताई है। कहा है कि वह अमर लोक अचल अविनाशी अर्थात् कभी चलायमान अर्थात् ध्वंस नहीं होता तथा वहाँ रहने वाला परमेश्वर अविनाशी है। वह स्थान तथा परमेश्वर सुख का समुद्र है। जैसे समुद्री जहाज बंदरगाह के किनारे से 100 या 200 किमी. दूर चला जाता है तो जहाज के यात्रियों को जल अर्थात् समुद्र के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सब ओर जल ही जल नजर आता है। इसी प्रकार सतलोक (सत्यलोक) में सुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अर्थात् वहाँ कोई दुःख नहीं है।
अब पूर्व में लिखी वाणी का सरलार्थ किया जाता है:-
मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर।।(टेक)
कोटि जन्म तोहे भ्रमत होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर शुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।
परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अच्छी आत्मा संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद समझाया, उसको संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने आत्मा तथा मन को पात्र बनाकर विश्व के मानव को काल (ब्रह्म) के लोक का कष्ट तथा सतलोक का सुख बताकर उस परमधाम में चलने के लिए सत्य साधना जो शास्त्रोक्त है, करने की प्रेरणा की है। मन तू चल रे सुख के सागर अर्थात् सनातन परम धाम में चल जहाँ पर शब्द नष्ट नहीं होता। इसलिए शब्द का अर्थ अविनाशीपन से है कि वह स्थान अमरत्व का सिंधु अर्थात् सागर है और मोक्ष रूपी रत्न का सागर अर्थात् खान है। इस काल ब्रह्म के लोक में आप जी ने भक्ति भी की। परंतु शास्त्रानुकूल साधना बताने वाले तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण आप करोड़ों जन्मों से भटक रहे हो। करोड़ों-अरबों रूपये संग्रह करने में पूरा जीवन लगा देते हो, फिर मृत्यु हो जाती है। वह जोड़ा हुआ धन जो आपके पूर्व के संस्कारों से प्राप्त हुआ था, उसे छोड़कर संसार से चला गया। उस धन के संग्रह करने में जो पाप किए, वे आप जी के साथ गए। आप जी ने उस मानव जीवन में तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर शास्त्राविधि अनुसार भक्ति की साधना नहीं की। जिस कारण से आपको कुछ हाथ नहीं आया। पूर्व के पुण्यों के बदले धन ले लिया। वह धन यहीं रह गया, आपको कुछ भी नहीं मिला। आपको मिले धन संग्रह तथा भक्ति शास्त्रानुकूल न करने के पाप।
जिनके कारण आप कुकर = कुत्ता, खर = गधा, सुकर = सूअर, कौआ = एक पक्षी, हँस = एक पक्षी जो केवल सरोवर में मोती खाता है, बुगा = बुगला पक्षी आदि-आदि की योनियों को प्राप्त करके कष्ट उठाया।
कोटि जन्म तू राजा कीन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिला न निर्गुण रासा।।
सरलार्थ:- हे मानव! आप जी ने काल (ब्रह्म) की कठिन से कठिन साधना की। घर त्यागकर जंगल में निवास किया, फिर गाँव व नगर में घर-घर के द्वार पर हांड्या अर्थात् घूमा। भिक्षा प्राप्ति के लिए जंगल में साधनारत साधक निकट के गाँव या शहर में जाता है। एक घर से भिक्षा पूरी नहीं मिलती तो अन्य घरों से भोजन लेकर जंगल में चला जाता है। कभी-कभी तो साधक एक दिन भिक्षा माँगकर लाते हैं, उसी से दो-तीन दिन निर्वाह करते हैं। रोटियों को पतले कपड़े रूमाल जैसे कपड़े को छालना कहते हैं। छालने में लपेटकर वृक्ष की टहनियों से बाँध देते थे। वे रोटियाँ सूख जाती हैं। उनको पानी में भिगोकर नर्म करके खाते थे। वे प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाने में जो समय व्यर्थ होता था, उसकी बचत करके उस समय को काल ब्रह्म की साधना में लगाते थे। भावार्थ है कि जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों में वर्णित विधि तथा लोकवेद से घोर तप करते थे। उनको तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण निर्गुण रासा अर्थात् गुप्त ज्ञान जिसे तत्वज्ञान कहते हैं। वह नहीं मिला क्योंकि यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में तथा चारों वेदों का सारांश रूप श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है कि जो यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से बोलकर सुनाता है, वह तत्वज्ञान अर्थात् सूक्ष्मवेद है। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि उस तत्वज्ञान को तू तत्वज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भाँति जानने वाले तत्वदर्शी संत तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि तत्वज्ञान न वेदों में है और न ही गीता शास्त्र में। यदि होता तो एक अध्याय और बोल देता। कह देता कि तत्वज्ञान उस अध्याय में पढ़ें। संत गरीबदास जी ने मन के बहाने मानव शरीरधारी प्राणियों को समझाया है कि वह निर्गुण रासा अर्थात् तत्वज्ञान न मिलने के कारण काल ब्रह्म की साधना करके आप जी करोड़ों जन्मों में राजा बने। फिर भी मन की इच्छा समाप्त नहीं हुई क्योंकि राजा सोचता है कि स्वर्ग में सुख है, यहाँ राज में कोई सुख-चैन नहीं है, शान्ति नहीं है।
निर्गुण रासा का भावार्थ:- निर्गुण का अर्थ है कि वह वस्तु तो है परंतु उसका लाभ नहीं मिल रहा। वृक्ष के बीज में फल तथा वृक्ष निर्गुण रूप में है, उस बीज को मिट्टी में बीजकर सिंचाई करके वह सरगुण वस्तु (वृक्ष, वृक्ष को फल) प्राप्त की जाती है। यह ज्ञान न होने से आम के फल व छाया से वंचित रह जाते हैं। रासा = झंझट अर्थात् उलझा हुआ कार्य। सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
नौ मन (360 कि.ग्रा.) सूत = कच्चा धागा
कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक समय जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा। बिना सुलझे अध्यात्म ज्ञान के आधार से अर्थात् लोकवेद के अनुसार साधना करके स्वर्ग-नरक, चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन, पृथ्वी पर किसी टुकड़े का राज्य, स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया, पुनः फिर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट पर कष्ट उठाया। परंतु काल ब्रह्म की वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करने से वह परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हुआ जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है और न ही परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त हुआ जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। काल ब्रह्म की साधना से निम्न लाभ होता रहता है।
वाणी नं 3:- इन्द्र-कुबेर, ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।
सरलार्थ:- काल ब्रह्म की साधना करके साधक इन्द्र का पद भी प्राप्त करता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा का पद है। इसको देवराज अर्थात् देवताओं का राजा तथा सुरपति भी कहते हैं। यह सिंचाई विभाग अर्थात् वर्षा मंत्रालय भी अपने आधीन रखता है।
प्रश्न:- इन्द्र की पदवी कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर:- अधिक तप करने से तथा सौ मन (4 हजार कि.ग्रा.) गाय या भैंस के घी का प्रयोग करके धर्मयज्ञ करने से एक धर्मयज्ञ सम्पन्न होती है। ऐसी-ऐसी सौ धर्मयज्ञ निर्विघ्न करने से इन्द्र की पदवी साधक प्राप्त करता है। तप या यज्ञ के दौरान यज्ञ या तप की मर्यादा भंग हो जाती है तो नए सिरे से यज्ञ तथा तप करना पड़ता है। इस प्रकार इन्द्र की पदवी प्राप्त होती है।
प्रश्न:- इन्द्र का शासन काल कितना है? मृत्यु उपरांत इन्द्र के पद को छोड़कर प्राणी किस योनि को प्राप्त करता है?
उत्तर:- इन्द्र स्वर्ग के राजा के पद पर 72 चौकड़ी अर्थात् 72 चतुर्युग तक बना रहता है। एक चतुर्युग में सत्ययुग+त्रेतायुग+द्वापरयुग तथा कलयुग का समय होता है। जो 1728000़+1296000़+864000़+432000 क्रमशः सत्ययुग + त्रेतायुग+ द्वापरयुग + कलयुग का समय अर्थात् 43 लाख 20 हजार वर्ष का समय एक चतुर्युग में होता है। ऐसे बने 72 चतुर्युग तक वह साधक इन्द्र के पद पर स्वर्ग के राजा का सुख भोगता है। एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा जी के एक दिन में (जो एक हजार आठ (1008) चतुर्युग का होता है) 14 जीव इन्द्र के पद पर रहकर अपना किया पुण्य-कर्म भोगते हैं। इन्द्र के पद को भोगकर वे प्राणी गधे का जीवन प्राप्त करते हैं।
FAQs : "सुख सागर की संक्षिप्त परिभाषा | जीने की राह"
Q.1 सुख के सागर" का क्या अर्थ है?
"सुख के सागर" का अर्थ है अमरलोक और उस अमरलोक में सर्वशक्तिमान ईश्वर का मौजूद होना है। केवल सतलोक यानी कि अमरलोक में जाने के बाद ही आत्मा को असीम आनंद और परम सुख की प्राप्ति हो सकती है। सतलोक में दुख नहीं हैं और किसी चीज़ का अभाव नहीं है, वहां सदा दया और महर की लहर निरंतर चलती रहती है। इसके अलावा सतलोक में भय, ईर्ष्या और नकारात्मकता नहीं है। इतना ही नहीं वहां सभी आत्माएं प्रेम और खुशी से आपस में मिलकर रहते हैं।
Q.2 "सुख के सागर" को कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
"सुख के सागर" को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को पूर्ण मोक्ष प्राप्त करना होगा। लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब तत्वदर्शी संत से मोक्ष मंत्र प्राप्त करके उनके अनुसार बताई भक्ति विधि अपनाएंगे। उसके बाद व्यक्ति सतलोक प्राप्त कर सकता है। वहां केवल शांति और खुशियां हैं। इसी का प्रमाण पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता जी के अध्याय 18 श्लोक 62 में भी है।
Q. 3 कौन से स्थान को निरंतर "सुख का सागर" कहा जाता है?
"सुख का सागर" अमरलोक यानि कि सतलोक है। इसका वर्णन पवित्र श्रीमद्भागवत गीता जी के अध्याय 15 श्लोक 4 और अध्याय 18 श्लोक 62 में किया गया है। सतलोक में सुख ही सुख है और वहां जाने के बाद व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा लेते हैं।
Q.4 इस लेख में किस विशिष्ट स्थान की चर्चा की जा रही है?
इस लेख का मुख्य विषय सतलोक पर केंद्रित है। सतलोक एकमात्र ऐसा स्थान है जहां सर्वशक्तिमान ईश्वर कबीर साहेब जी निवास करते हैं तथा सतलोक के निवासी अमर हैं। पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के बाद ही सुख स्थान यानि कि सतलोक प्राप्त होता है। उसके बाद व्यक्ति दुःख, भय, दर्द, ईर्ष्या और नकारात्मकता से भी मुक्त हो जाता है।
Q.5 ईश्वर, मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने के लिए क्यों प्रेरित करते हैं?
सर्वशक्तिमान कबीर साहेब जी अपने प्रवचनों द्वारा मनुष्य को पूर्ण मोक्ष प्राप्त करके अमरलोक यानि कि सतलोक जाने की प्रेरणा देते हैं। जबकि मनुष्य और अन्य जीव इस पृथ्वी लोक में रहते हुए केवल दुख ही भोगते हैं। यहां व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसा रहता है और कष्ट पर कष्ट उठाता रहता है। हमारे इन्हीं कष्टों को देखते हुए दयालु भगवान कबीर साहेब जी ने हमें सतलोक जाने के लिए प्रेरित करते हैं। जीवात्मा को केवल सतलोक में ही शांति और सुख मिल सकता है कहीं और नहीं।