45. मनीराम कथा वाचक पंडित की करनी | जीने की राह


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मनीराम नाम का कथावाचक पंडित प्रसिद्ध था। हरियाणा के एक गाँव में रामायण की कथा का आयोजन किया। रामायण की कथा अधिक से अधिक ग्यारह (11) दिन में संपूर्ण हो जाती है। मनीराम पंडित जी ने तीस दिन में संपूर्ण की। विचार किया था कि अधिक दिन कथा चलेगी तो प्रतिदिन दान आएगा। इस प्रकार अधिक दक्षिणा प्राप्त होगी। तीस दिन की कथा में मनीराम पंडित जी को तीस रूपये ही प्राप्त हुए। गाँव के कुछ व्यक्तियों ने जिस दिन मनीराम ने कथा का समापन करना था, उस दिन उसी समय दिल्ली से नाचने-गाने वाली प्रसिद्ध नृतका चम्पाकली का नाच-गाना करा दिया। सारा गाँव नाच-गाना देखने-सुनने उमड़ पड़ा। दो घण्टे में चम्पाकली को पाँच सौ रूपये मिले। मनीराम जी को तीस दिन में कुल तीस रूपये प्राप्त हुए। पंडित जी के दुःख का कोई वार-पार नहीं रहा। रास्ते में गाँव छुड़ानी था। मनीराम जी को पता था कि यहाँ गरीबदास जी परम संत रहते हैं, उनसे मिलकर आगे चलूँगा। संत गरीबदास जी के पास गाँव तथा आसपास के गाँवों (गवांड) के दस-बारह भक्त बैठे थे। उसी समय पंडित मनीराम जी पहुँच गए। संत गरीबदास जी से राम-राम किया। संत गरीबदास जी ने भी राम-राम कहा तथा उचित आसन देकर बैठाया। कुशल-मंगल पूछा तो मनीराम बोले, हे महाराज! कलयुग का पहरा (समय) आ गया है। धर्म का नाश हो लिया है। जान गेड़ा आ लिया है अर्थात् जनता का धर्म के प्रति भाव समाप्त हो चुका है। धरती-आसमान फट जाऐं तो भी आश्चर्य की बात नहीं है। उपस्थित भक्तों ने पूछा कि हे पंडित जी! ऐसी क्या बात हो गई? मनीराम जी बोले कि क्या बताऊँ? संत गरीबदास जी तो सब जानते हैं। भक्तों ने पूछा कि हे महाराज जी! ऐसी क्या बात हो गई जिससे पंडित जी को ठेस लगी है? संत गरीबदास जी ने कहा कि:-

गरीब, फूटि आँख विवेक की, अंधा है जगदीश।
चम्पाकली को पाँच सौ, मनीराम को तीस।।

भावार्थ:- जिस जगदीश नाम के व्यक्ति ने जान-बूझकर शरारत करके मनीराम जी की कथा के भोग लगने वाले दिन नाचने-गाने वाली चम्पाकली का प्रोग्राम कराया था। वह ज्ञान नेत्रहीन अंधा है। गाँव के व्यक्तियों का भी विवेक (सोच-विचार) की आँखें फूटी हैं यानि उन्होंने भी विचार नहीं किया कि धर्म कथा चल रही है। उसका विरोध ऐसे अभद्र तरीके से नहीं करना चाहिए था। हे भक्तो! मनीराम जी ने ग्यारह दिन में संपूर्ण होने वाली कथा को अधिक दक्षिणा प्राप्त करने लालचवश तीस दिन तक खींचा। गाँव के कुछ शरारती व्यक्ति भी मनीराम जी के उद्देश्य से परिचित थे। जिस कारण से उन्होंने पंडित जी को सबक सिखाने के लिए नृतका को बुलाकर महापाप किया है। यह सच्चाई संत गरीबदास जी के मुख से सुनकर मनीराम जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। वह सोच रहा था कि आज 11:30 बजे सुबह भोग लगाकर मैं सीधा यहाँ पहुँचा हूँ। संत गरीबदास जी को कैसे पता चला? ये तो परमात्मा हैं। सब जानते हैं। मनीराम आसन से उठा और संत गरीबदास जी के चरणों में गिर गया और बोला, प्रभु! आपने सच कहा है कि मैंने भी लालचवश कथा को लंबा खींचा था। आप तो जानीजान हो। हे प्रभु! धर्म-कर्म तथा जीने की सच्ची राह दिखाएं। तब संत गरीबदास जी ने सत्संग करके उस पुण्यात्मा मनीराम जी को बताया कि:-

हे मनीराम जी! आप पाठ करके जनता से धन लेते हो। यह आप पर ऋण बनता है। इसको ब्याज समेत लौटाना पड़ता है। आपको यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है। आप कथा-पाठ तथा सत्संग करने के अधिकारी भी नहीं हो। आप ने लोगों को आकर्षित करने के लिए गले में कण्ठी (एक तुलसी के मनके को डोरे में डालकर गले में डालते हैं जो वैष्णव पंथ की पहचान होती है) डाल रखी है। एक माला 108 (एक सौ आठ) रूद्राक्ष के मणकों की डाल रखी है जो मंत्र जाप के लिए होती है जिसे संतजन सुमरणी कहते हैं। मस्तिक में तिलक लगाकर रखा है। पीले वस्त्र धारण कर रखे हैं। संत गरीबदास जी ने वाणी द्वारा समझाया कि:-

कण्ठी माला सुमरणी, पहरे से क्या होय। ऊपर डूंडा साध का, अन्तर राखा खोय।।

भावार्थ:- हे मनीराम जी! ऊपर के दिखावे से तो आप साधु लगते हो यानि बाहरी आडम्बर का तो डूंडा-ठा रखा है। आपकी वेशभूषा को देखकर तो भक्त समाज कटकर मर जाए। परंतु अंदर गुण साधु के बिल्कुल नहीं। लालच के कारण अंतःकरण मलीन बना रखा है। साधुता खो रखी है यानि संत भाव नहीं है। इसलिए कण्ठी-माला-सुमरणी को गले में डालने से साधु नहीं बनता। आत्म-कल्याण के लिए पूर्ण संत से दीक्षा लेकर आजीवन मर्यादा में रहकर भक्ति करने से कल्याण होता है। आप पाठ करने के अधिकारी नहीं हो। अधिकारी बिना पाठ करना यजमान के साथ धोखा है। आपके पूर्वज ऋषिजन वास्तव में पंडित थे। विद्वान पुरूष थे। वे ऐसी गलती नहीं करते थे। 


 

FAQs : "मनीराम कथा वाचक पंडित की करनी | जीने की राह"

Q.1 मनीराम पंडित जी कौन थे और इस लेख में किस घटना के बारे में बताया गया है?

मनीराम पंडित जी एक कथावाचक थे। उन्होंने हरियाणा के एक गांव में रामायण के पाठ की कथा की थी। इस लेख में इसी बात का वर्णन है कि उन्होंने धन के लालच में ग्यारह दिन के पाठ को तीस दिनों तक बढ़ा दिया था। उसके बाद उनको अपने कर्मों का दंड मिला।

Q.2 रामायण के पाठ के आखिरी दिन क्या हुआ था?

रामायण के पाठ के आखिरी दिन गांव के कुछ शरारती लोगों ने दिल्ली से चंपाकली नाम की एक डांसर के डांस का कार्यक्रम आयोजित कर दिया। फिर सभी गांव वाले रामायण के पाठ में जाने की जगह उस नृत्य कार्यक्रम को देखने में व्यस्त हो गए। चंपाकली ने अपने दो घंटे के नृत्य प्रदर्शन से पांच सौ रुपए कमाए। जबकि मनीराम जी को पूरे महीने कथा करने के बाद भी केवल तीस रुपए की ही कमाई हुई।

Q. 3 मनीराम पंडित जी ने रामायण के पाठ को ग्यारह से तीस दिन तक क्यों बढ़ाया था और उन्हें निराशा का सामना क्यों करना पड़ा?

मणिराम पंडित जी गांव वालों से ज़्यादा धन इकट्ठा करना चाहते थे। लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी क्योंकि उन्हें तीस दिनों के पाठ करने के लिए केवल तीस रुपए ही मिले।जबकि एक डांसर चंपाकली को केवल दो घंटे नृत्य करने पर 500 रुपए मिले। मणिराम पंडित जी बहुत निराश हुए क्योंकि उन्हें लगा कि कलयुग में लोगों की पुण्य के कामों में रूचि खत्म हो चुकी है।

Q.4 मनीराम पंडित जी की संत गरीबदास जी से क्या चर्चा हुई ?

मनीराम पंडित जी ने संत गरीबदास जी को अपनी निराशा के बारे में बताया। उन्होंने संत गरीबदास जी से यह भी चर्चा की कि दुनिया में लोग अच्छे कामों से ज्यादा बुरे कामों की ओर आकर्षित होते हैं। फिर संत गरीबदास जी ने उन्हें समझाया कि उनको उनके कार्यों का दंड इसलिए मिला क्योंकि वह "पाठ" करने का अधिकारी नहीं था। वह ईश्वर के नाम का सहारा लेकर लोगों को गुमराह कर रहा था और यह तो घोर पाप है। इसके अलावा संत गरीबदास जी ने मनीराम जी को पूर्ण संत से दीक्षा लेने की सलाह दी क्योंकि तत्वदर्शी संत से सही भक्ति विधि प्राप्त करने के बाद उसके अनुसार चलने से ही पूर्ण मोक्ष संभव है।

Q.5 संत गरीबदास जी ने जो कंठी माला, सुमरनी और बाहरी दिखावे के बारे में वर्णन किया है, इस कथन का मनीराम पंडित जी से क्या संबंध था?

संत गरीबदास जी के इस कथन से यह पता चलता है कि सच्चा संत कंठी माला और सुमरनी जैसी बाहरी चीजों का दिखावा नहीं करता। आध्यात्मिक मार्ग में दिखावे की झूठी धार्मिक प्रथाओं के बजाय आंतरिक मन की पवित्रता की ज़रूरत पड़ती है। ईश्वर के सच्चे आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर के प्रति सच्चे समर्पण की ज़रूरत होती है।

Q.6 इस लेख में राजा परीक्षित के दिए गए उदाहरण का क्या महत्त्व है?

राजा परीक्षित के उदाहरण से पता चलता है कि व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन की ज़रूरत पड़ती है। इस उदाहरण के द्वारा यह भी पता चलता है कि धार्मिक अनुष्ठान और पाठ करने का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है।


 

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वर्तमान में बहुत से आध्यात्मिक गुरु हैं। सब संत बहुत प्रसिद्ध हैं और उनके चाहने वालों की भी कमी नहीं है। देखिए ऐसे में सच्चे संत की पहचान करना बहुत कठिन काम है। इस स्थिति में हम सच्चे संत की पहचान कैसे करें?

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रवि जी, आपने हमारे लेख को पढ़ा इसके लिए हम आपके आभारी हैं। आपकी बात बिल्कुल सही है कि वर्तमान में गुरुओं की कमी नहीं है। इस तरह सच्चे गुरू की पहचान करना सच में चिंता का विष्य है। लेकिन हमारे पवित्र शास्त्रों में सच्चे गुरू की पहचान बताई गई है। उदाहरण के लिए, पवित्र गीता जी में कहा गया है कि जो संत उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष का पत्तों साहित विधिवत वर्णन कर देगा, केवल वह ही सच्चा संत होगा। इसका वर्णन सर्वशक्तिमान परमेश्वर कबीर जी ने भी अपनी अमृत वाणी में किया है। उन्होंने बताया है कि एक पूर्ण संत को हमारे सभी धर्मों के सभी पवित्र ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होता है। अधिक जानकारी के लिए आप "जीने की राह" पुस्तक पढ़िए और संत रामपाल जी महाराज जी के आध्यात्मिक प्रवचनों को सुनिए।

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मेरे मन में यह विचार बहुत बार आता है कि सभी धर्मों के गुरू अलग-अलग रंग के कपड़े क्यों पहनते हैं? उदाहरण के लिए हिंदू धर्म के भगवा, इस्लाम धर्म के हरा और ईसाई धर्म के सफेद कपड़े पहनते हैं। क्या ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए इन रंगों के वस्त्रों को पहनना ज़रूरी है? क्या ईश्वर सच में इन बाहरी चीजों से आकर्षित होता है?

Satlok Ashram

यह बहुत अच्छी बात है कि आपके मन में ईश्वर के बारे में जानने की जिज्ञासा है और आप आपके मन में आए प्रश्नों के उत्तर ढूंढ रही हैं। लेकिन आपको यह बात याद रखनी चाहिए कि ईश्वर से जुड़ने और उनसे लाभ प्राप्त करने के लिए बाहरी चीजों का दिखावा करने की जरूरत नहीं होती। इसके लिए हमारे मन को ईश्वर से जोड़ना चाहिए, न कि कोई बाहरी दिखावा करना चाहिए। देखिए आपको ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें ईश्वर को चाहने वाले व्यक्ति बहुत ही साधारण जीवन जीते हैं। इसके अलावा हमारे पांचवें वेद यानि कि सूक्ष्मवेद में भी यह प्रमाण है कि ईश्वर से लाभ प्राप्त करने के लिए पूर्ण संत के बताए मार्ग पर चलना चाहिए न की कोई विशेष रंग के वस्त्र धारण करने की ज़रूरत है। भगवान को प्राप्त करने और खुश करने के लिए किसी दिखावे की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि उनके बताए रास्ते पर चलना ज़रूरी होता है। अधिक जानकारी के लिए आप "जीने की राह" पुस्तक पढ़ सकते हैं और संत रामपाल जी महाराज जी के आध्यात्मिक प्रवचनों को भी सुन सकते हैं