जिस समय राजा परीक्षित को ऋषि के शाॅपवश तक्षक सर्प ने डसना था तो राजा परीक्षित जी के उद्धार के लिए श्रीमद् भागवत (सुधा सागर) की सात दिन की कथा करनी थी। पृथ्वी के सर्व ऋषियों तथा पंडितों से श्रीमद् भागवत की कथा परीक्षित को सुनाने का आग्रह किया गया। वे वास्तव में पंडित थे। वे परमात्मा के विधान को जानते थे। उनको यह भी पता था कि सातवें दिन परिणाम आएगा। विश्व के बुद्धिजीव व्यक्तियों की दृष्टि सातवें दिन परीक्षित का क्या होगा, इस पर टिकी थी। पृथ्वी के सर्व पंडितों ने श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने से मना कर दिया तथा कह दिया कि हम अधिकारी नहीं हैं। हम किसी के मानव जीवन के साथ खिलवाड़ करके पाप के भागी नहीं बनेंगे। जिस वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत को लिखा था, उसने भी कथा सुनाने से इंकार कर दिया। सब ऋषियों ने बताया कि स्वर्ग से ऋषि सुखदेव जी को इस कार्य के लिए बुलाया जाए। वे कथा सुनाने के अधिकारी हैं। राजा परीक्षित के लिए स्वर्ग से सुखदेव ऋषि को बुलाया गया। कुछ समय नरक भोगकर युद्धिष्ठिर स्वर्ग में पुण्य फल भोग रहा है। उसने वंश के मोहवश होकर अर्जुन के पौत्र परीक्षित के उद्धार के लिए अपने कुछ पुण्यों को सुखदेव (शुकदेव) ऋषि को दान किया। उस पुण्यों की कीमत से श्री शुकदेव ऋषि जी विमान में बैठकर पृथ्वी पर परीक्षित राजा को श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने आए। सात दिन कथा सुनाकर परीक्षित का राज तथा परिवार से मोह समाप्त किया। तक्षक सर्प ने परीक्षित को कथा के दौरान ही डसा। उसी समय राजा की मृत्यु हो गई। परंतु कथा सुनने से परीक्षित का ध्यान संसार से हटकर स्वर्ग के सुख में लीन था। राजा के पद पर रहते हुए परीक्षित जी ने बड़े-बड़े धर्म यज्ञ किए थे। जिस कारण से उनके पुण्यों का ढ़ेर लगा था। वाणी में परमात्मा का विधान बताया है कि:-
कबीर, जहाँ आशा तहाँ बासा होई। मन कर्म वचन सुमरियो सोई।।
शब्दार्थ: गीता अध्याय 8 श्लोक 6 में भी यही प्रमाण है कि ‘‘हे भारत! परमात्मा का यह विधान है कि जो अन्त समय में जिसमें भाव यानि आस्था रखकर स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त होता है।’’ इसी विधानानुसार राजा परीक्षित का जीव स्थूल शरीर त्यागकर (जो सर्प विष से मर गया था) सूक्ष्म शरीर युक्त शुकदेव ऋषि के साथ विमान में बैठकर स्वर्ग में चला गया।
संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर) ने मनीराम जी को बताया कि शुकदेव ऋषि के द्वारा सुनाई कथा से राजा परीक्षित का मन संसार से हटकर स्वर्ग की प्राप्ति के लिए प्रेरित हो गया था। जिस कारण से मृत्यु के उपरांत उस जन्म में राज के दौरान किए पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्ग चला गया। जन्म-मरण का चक्र अभी शेष है। काल ब्रह्म के लोक में स्वर्ग-महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) प्राप्ति को ही उद्धार हुआ मानते हैं जो सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान के टोटे का परिणाम है। काल ब्रह्म के लोक वाला उद्धार भी पृथ्वी के किसी ऋषि पंडित के स्तर का नहीं है क्योंकि इनका पाठ व कथा यानि सत्संग करने में मान-बड़ाई उद्देश्य रहता है। एक-दूसरे ऋषि के प्रति प्रसिद्धि की चाह में ईर्ष्या रोग भी लगा रहता है। शुकदेव जी एक संत जनक जी के शिष्य थे। राजा जनक को पूर्ण परमात्मा कबीर जी मिले थे। उनको सोहं नाम जाप दिया था। राजा जनक के प्रमुख तथा प्रिय शिष्य शुकदेव जी थे। जनक जी ने यह मंत्र केवल शुकदेव को दिया था। जिस कारण से शुकदेव का स्वर्ग समय अधिक है। राजा जनक के साथ काल ने धोखा किया था। उन्होंने अपने आधे पुण्य बारह करोड़ नरक भोग रहे जीवों को दान कर दिए थे। जिस कारण से उनका स्वर्ग समय कम रह गया था और वे सन् 1469 में पंजाब प्रान्त में (भारत देश में) श्री कालूराम महता (खत्री-अरोड़ा) के घर श्री नानक नाम से जन्मे थे। (वर्तमान में पाकिस्तान देश में है।) शुकदेव जी को पृथ्वी पर किसी से कोई द्वेष तथा इर्ष्या या मान-बड़ाई की चाह नहीं थी। उनके द्वारा सुनाई कथा का प्रभाव परीक्षित के मन पर पड़ा। जिस कारण से उनका स्वर्गवास हुआ। यदि अन्य ऋषि कथा करता तो राजा का मन राज व परिवार में रह जाता। उनका पुनः जन्म पृथ्वी पर होता। पुण्यों को राजा बनकर नष्ट करता।
संत गरीबदास जी ने बताया कि हे मनीराम! जब तक जीव का जन्म-मरण समाप्त नहीं होता तो उसको परम शांति नहीं होती। फिर राजा बनकर राज की हानि-लाभ की आग में जलता है। निर्धन बनकर कष्ट उठाता है। फिर पशु-पक्षी आदि-आदि के शरीरों में कष्ट उठाता है। आप श्री विष्णु उर्फ श्री कृष्ण जी के भक्त हो। (वैष्णव साधु श्री विष्णु जी को ईष्ट रूप में मानते हैं।) आप यह भी मानते हो कि श्री कृष्ण यानि श्री विष्णु जी ने श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान अर्जुन को सुनाया। गीता ज्ञान सुनाने वाला गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में स्पष्ट करता है कि मेरे से अन्य कोई परम ईश्वर है। हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।
गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि ‘‘जो साधक जरा (वृद्धावस्था) तथा मरण (मृत्यु) से छुटकारा यानि मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। (काल लोक के राज्य तथा स्वर्ग-महास्वर्ग तक की इच्छा नहीं रखते।) वे तत् ब्रह्म से सम्पूर्ण अध्यात्म से तथा सर्व कर्मों से परिचित हैं।
गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने गीता ज्ञान देने वाले से प्रश्न किया कि जिस तत् ब्रह्म के विषय में अध्याय 7 के श्लोक 29 में कहा है कि वह तत् ब्रह्म क्या है? इसका उत्तर गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 के श्लोक 3 में दिया है। बताया है कि वह परम अक्षर ब्रह्म है।
गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 5 तथा 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है जिससे मेरी प्राप्ति होगी और गीता के अध्याय 8 के श्लोक 8, 9, 10 में उस अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है जिससे उसकी प्राप्ति होती है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान बोलने वाले ने बताया है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी होते रहेंगे।
गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में जो अविनाशी परमात्मा कहा है तथा अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूष (प्रभु) बताए हैं। श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष का वर्णन है। दोनों नाशवान बताए हैं। फिर अध्याय 15 श्लोक 17 में अविनाशी परम अक्षर ब्रह्म की जानकारी बताई है। वह उत्तम पुरूष यानि सर्वश्रेष्ठ परमात्मा कहा है। वही तीनों लोकों का पालन-पोषण करता है, वास्तव में अविनाशी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता ज्ञान देने वाले ने स्पष्ट किया है कि तत्वदर्शी संत मिलने के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् फिर लौटकर साधक संसार में कभी नहीं आते। उस परमात्मा की ही भक्ति करनी चाहिए जिससे संसार रूपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमात्मा ने विश्व की रचना की है।(गीता का उल्लेख समाप्त)
संत गरीबदास जी ने मनीराम को बताया कि परम अक्षर ब्रह्म यानि तत् ब्रह्म की भक्ति मेरे (संत गरीबदास जी के) पास है। यदि आप जी को पूर्ण मोक्ष करवाना है तो दीक्षा लो और कल्याण करवा लो। मनीराज जी को गीता के सर्व श्लोक कण्ठस्थ थे। तुरंत समझ गए और दीक्षा लेकर पाखण्ड त्यागकर कल्याण करवाया।
FAQs : "राजा परीक्षित का उद्धार | जीने की राह"
Q.1 राजा परीक्षित कौन थे। उन्हें श्रीमद्भागवत कथा क्यों सुनाई गई थी?
राजा परीक्षित अर्जुन के पौत्र अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। एक ऋषि के श्राप के कारण उन्हें तक्षक सांप ने डस लिया था। फिर उनके मोक्ष के लिए उनकी उपस्थिति में सात दिनों तक श्रीमद्भागवत जी का पाठ करवाया गया। इस पाठ को करने के लिए स्वयं ऋषि सुखदेव जी स्वर्ग से बुलाए गए थे क्योंकि पृथ्वी पर कोई भी श्रीमद्भागवत जी के पाठ को करने का अधिकारी नहीं था।ऋषि सुखदेव जी द्वारा सुनाई गई भगवत कथा को सुनने से राजा परीक्षित का मन इस भौतिक संसार से हट गया था। जिससे उन्हें सांप द्वारा काटे जाने के बाद भी स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी।
Q.2 पृथ्वी पर उपस्थित सभी ऋषियों और पंडितों ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने से क्यों मना कर दिया था?
पृथ्वी पर उपस्थित सभी ऋषियों और पंडितों ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि वह श्रीमद्भागवत जी की कथा सुनाने के अधिकारी नहीं थे और वह परमात्मा के विधान से परिचित भी थे। फिर वह ऐसे पुण्य के कार्य में शामिल होकर पाप के भागी नहीं बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कहा था कि ऋषि सुखदेव जी ही श्रीमद्भागवत जी की कथा सुनाने के अधिकारी हैं और इसी कारण सुखदेव ऋषि को इस कार्य को करने के लिए स्वर्ग से बुलाया गया था।
Q. 3 ऋषि सुखदेव जी के द्वारा की गई श्रीमद्भागवत कथा का राजा परीक्षित पर क्या असर हुआ?
ऋषि सुखदेव जी को राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाने के लिए स्वर्ग से बुलाया गया था। ऋषि सुखदेव द्वारा कमाए पुण्यों के कारण ही वह लंबे समय तक स्वर्ग में रहे। उनके द्वारा सुनाई गई पवित्र श्रीमद्भागवत कथा से राजा परीक्षित जी का मन इस संसार से हट गया। इसके बाद ही उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
Q.4 संत गरीबदास जी ने परम शांति और परमपिता परमात्मा की शरण में जाने के बारे में क्या बताया था?
संत गरीबदास जी ने बताया था कि जब तक जन्म-मरण का चक्र समाप्त नहीं होता, तब तक परम शांति प्राप्त नहीं हो सकती। उन्होंने कहा था कि सर्वशक्तिमान ईश्वर की पूजा करने से ही परम शांति और सतलोक की प्राप्ति हो सकती है। इस का प्रमाण भगवद गीता जी में भी है।
Q.5 संत गरीबदास जी ने मनीराम जी को क्या कहा था?
संत गरीबदास जी ने मनीराम जी को कहा था कि वह पूर्ण परमात्मा की भक्ति करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके लिए उन्होंने मनीराम जी को उनसे नाम दीक्षा लेने के लिए कहा। लेकिन संत गरीबदास जी ने मनीराम से यह भी कहा कि इस दीक्षा को ग्रहण करने के लिए मनीराम जी को गलत साधना का त्याग करना होगा। उसके बाद ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि जो साधना संत गरीबदास जी ने बताई थी वो श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार थी। उसमें पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने पर ज़ोर दिया गया था।
Q.6 संत गरीबदास जी ने किस पाखंड को त्यागने की बात कही थी?
संत गरीबदास जी ने बताया था कि पाखंड त्यागने का मतलब है कि आध्यात्मिक मार्ग में शास्त्र आधारित भक्ति करना। फिर बिना किसी सांसारिक लाभ की इच्छा के पूर्ण परमात्मा की सच्चे मन और समर्पित भाव से भक्ति करना और मोक्ष प्राप्त करना।
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Savita Pandey
वर्तमान युग में भी गुरुओं की कमी नहीं है। इनमें से कुछ गुरु तो ऐसे हैं जो त्योहारों के दौरान बहुत से धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। इस तरह इन गुरुओं में से सच्चे गुरू की पहचान करना बहुत मुश्किल है। कृपया आप मुझे सही मार्ग बताएं।
Satlok Ashram
सविता जी, हमें बहुत अच्छा लगा कि आपने हमारे लेख को पढ़कर प्रतिक्रिया व्यक्त की। हम आपकी बात से पूरी तरह सहमत हैं कि वर्तमान समय में ऐसे गुरुओं की कोई कमी नहीं है जो अधिकारी संत न होने के बावजूद भी धार्मिक अनुष्ठान और लोगों को धन के लालच में गुमराह करते हैं। देखिए ऐसे अनुष्ठान करना ईश्वर के विधान के अनुसार पाप है क्योंकि इसमें नकली गुरू लोगों के मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। सच्चे गुरू की पहचान हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथों में भी बताई गई है। हमें अपने पवित्र धार्मिक ग्रंथों को अवश्य पढ़ना चाहिए।श्रीमदभगवद गीता जी में भी यह प्रमाण है कि सच्चे संत को उल्टे संसार रूपी लटके वृक्ष का पूर्ण ज्ञान होता है। इसके अलावा सूक्ष्म वेद में यह भी लिखा है कि एक पूर्ण गुरु को सभी पवित्र ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होता है। आप सच्चे संत की पहचान जानने के लिए "जीने की राह" पुस्तक पढ़िए। इतना ही नहीं आप संत रामपाल जी महाराज जी के आध्यात्मिक प्रवचनों को यूट्यूब चैनल पर भी सुन सकते हैं।