28. पिता बच्चों की हर संभव गलती क्षमा कर देता है | जीने की राह


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परमात्मा कबीर जी ने कहा है कि पिता अपने पुत्र-पुत्री के सर्व अपराध क्षमा कर देता है:-

अवगुण मेरे बाप जी, बक्शो गरीब नवाज।
जो मैं पूत-कपूत हूँ, तो भी पिता को लाज।।

रामभक्त की पत्नी का देहांत हो गया। उस समय उसका पुत्र तीन वर्ष का था। उस व्यक्ति की रिश्तेदारी में एक घटना ऐसी घटी थी जिसने उसको झंझोर कर रख दिया। कथा इस प्रकार है:-

उसके मामा जी अपनी बहन यानि रामभक्त की माता जी से लगभग दस वर्ष बड़े थे। मामा जी के दो पुत्र थे। रामभक्त की मामी जी का देहांत हो गया। मामा जी ने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी को पुत्र हुआ। दूसरी पत्नी पहले वाली के पुत्रों से ईर्ष्या करने लगी। यह विचार किया कि 15 एकड़ जमीन है। तीन जगह बँटेगी। उसने उन बच्चों को काँच पीसकर दूध तथा खाने में खिला-पिला दिया जिससे दोनों की धीरे-धीरे रोगी होकर मृत्यु हो गई। डाॅक्टर ने बताया कि बच्चे काँच खा गए हैं। जिस कारण से इनकी मृत्यु हो गई है। एक दिन उसकी पत्नी ने पड़ोसन से बताया कि मैंने ऐसे-ऐसे किया। मेरे बेटे को पन्द्रह एकड़ जमीन मिल गई। उस स्त्री ने मेरे मामा जी को बताया। मामा जी छोटी मामी को बहुत प्यार करते थे और उस पर विश्वास करते थे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। एक दिन छोटी मामी अपने भाई से बता रही थी कि मैंने ऐसे-ऐसे किया। तेरे भानजे को पन्द्रह एकड़ जमीन मिल गई। यह बात मेरा मामा भी सुन रहा था क्योंकि वह खिड़की से बाहर स्वाभाविक खड़ा था। मामी का भाई बोला कि बहन! तूने जुल्म कर दिया। इस पाप को कहाँ रखेगी? आज के बाद मैं तेरी शक्ल देखने भी नहीं आऊँगा। मामा जी का दिमाग फटने को हो गया। घर त्यागकर अपनी बहन के घर आ गया यानि हमारे (रामभक्त के) घर पर जीवन व्यतीत किया। कुछ वर्ष के पश्चात् छोटी मामी से जन्मा वह पुत्र भी मर गया। वह छोटी मामी किसी के साथ भाग गई। पता चला कि उस व्यक्ति ने उसके गहने छीनकर मारकर कुएं में डाल दिया। पुलिस को पता चला तो उस व्यक्ति को फाँसी लगाई गई। इस सर्वनाश महाभारत को याद करके रामभक्त ने दूसरा विवाह नहीं किया। लड़के को अपने साथ रखता। हल जोतता था तो पुत्र को कंधे पर बैठाकर रखता था। थक जाता तो वृक्ष के नीचे लेटा देता। स्वयं खाना बनाता, स्वयं स्नान कराता, कपड़े साफ करता। जैसे-तैसे लड़का जवान हुआ। विवाह कर दिया। फिर भी सब कार्य करता था। लड़का भी काम में हाथ बँटाता था, परंतु कठिन कार्य स्वयं ही करता था। वृद्धावस्था ने जोर दिया। कार्य कुछ नहीं कर पा रहा था। पुत्रवधु को व्यर्थ का खर्च लगने लगा। जिस कारण से अपने ससुर को रूखा-सूखा बासी भोजन देने लगी। फिर पेटभर भोजन भी नहीं देती थी। लड़का पूछता था कि पिता जी! सेवा ठीक हो रही है। पिता जी कहते कि बेटा! कोई कसर नहीं है। बड़ी भाग्यवान बहू आई है। मेरा विशेष ध्यान रखती है। यह बात बहू भी सुनती। और अधिक परेशान करती कि मेरे पति को पता नहीं है। वृद्ध भी मेरी चाल से अपरिचित है। एक दिन लड़के ने देखा कि पिता जी को भोजन ठीक नहीं मिला तो उसने पत्नी को कहा तो पाखण्ड करने लगी कि घर देखकर खाया जाता है। आपको घर की चिंता नहीं है। सारा घर मेरे से चल रहा है। मुझे पता है कि खर्च कैसे चलाना है। एक दिन वृद्ध को चक्कर आए और गिर गया। टाँग टूट गई। वैद्य ने बताया कि आहार पूरा न मिलने से शारीरिक कमजोरी है। दूध दो समय आधा-आधा सेर (किलो) पिलाओ। ताजा भोजन खिलाओ। वैद्य चला गया। पत्नी ने कहा कि ऐसे तो घर का दिवाला निकल जाएगा। पति यानि लड़के को भी बात पसंद आई। वृद्ध की कोई परवाह नहीं की। वृद्ध के ससुराल वाले चोट लगने की खबर सुनकर मिलने आए। उन्होंने पूछा कि बेटा-बहू ठीक सेवा कर रहे हैं क्या? रामभक्त ने कहा कि पूछो ना। ऐसे पुत्र तथा पुत्रवधू सबको दे भगवान। मेरे को कोई कष्ट नहीं होने देते। यह तो कोई कर्म की मार से चोट लग गई है। उसी गाँव में दो बहनों का विवाह हुआ था। एक का रामभक्त से, दूसरी का पड़ोस में। जब वे अपनी दूसरी लड़की के घर गए तो पता चला कि उस रामभक्त की कोई सेवा नहीं हो रही है। लड़का भी निकम्मा है। यह बात ससुराल वालों के गले नहीं उतरी क्योंकि वे रामभक्त के मुख से सुनकर आए थे कि सेवा में कोई कसर नहीं है। वे कुछ समय बाद पुनः रामभक्त के घर गए तो उस समय वह बासी रोटी पानी में भिगो-भिगोकर खा रहा था। यह देखकर उनको रोना आ गया। लड़के को बुलाया तथा कहा कि तेरे को शर्म नहीं आती। पता है तेरे को कैसे पाल-पोषकर बड़ा किया है। लड़के की बहू भी आ गई। दोनों बोले कि हम तो ऐसे ही सेवा करेंगे। रामभक्त बोला कि आप जाओ, घर में झगड़ा ना कराओ। मेरी किस्मत में जो लिखा है, वह मिल रहा है। मैं अपने पुत्र को दुःखी नहीं देख सकता। रामभक्त की बूआ का लड़का रामनिवास सत्संगी था। वह रामभक्त को बहुत कहता था कि आप कुछ समय भगवान की भक्ति किया करो। मेरे साथ संत के सत्संग सुनने चला करो तो रामभक्त कहता था कि मैं तो अपने बेटे की पूजा करूंगा, यह सुखी रहे, यही मेरी तमन्ना है। बूआ के लड़के ने कहा कि बेटे की पूजा पूरी हो चुकी हो तो अब भी बना ले कुछ कर्म। फिर भी यह कहा कि बेटे-बहू को देख-देखकर जी रहा हूँ। बहुत कहने के पश्चात् रामभक्त अपनी बूआ के लड़के रामनिवास के साथ सत्संग में गया। फिर रामनिवास अपने घर ले गया, उसकी दवा कराई। अच्छा खाना खिलाया। कई महीने अपने पास रखा। रामभक्त भक्ति पर पूरा दृढ़ हो गया। घर पर गया तो बच्चों से कहा बेटा-बेटी (पुत्रवधु)! आज तक मैंने आप से कुछ नहीं माँगा। आज एक भीख माँग रहा हूँ। आप मेरे साथ सत्संग में एक बार चलो। उन्होंने कहा कि पीछे से पशुओं तथा बच्चों को कौन संभालेगा? रामभक्त ने कहा कि बेटा घर पर रह जाएगा। बेटी तथा पोता-पोती मेरे साथ चलो। ऐसा ही किया। 

जब उस पुत्रवधु ने सत्संग के वचन सुने, वहाँ आने वाले सब भक्तों की सेवा पुराने भक्त-भक्तमति ऐसे कर रहे थे जैसे विशेष मेहमानों की घर पर करते हैं। वृद्ध, रोगी, अपंग श्रद्धालुओं की भी विशेष सेवा कर रहे थे। सत्संग में यह बताया जाता है कि जीव पर दया बनाए रखने से परमात्मा प्रसन्न होता है। दुःखियों-असहायों की सहायता करना मानव मात्र का परम कर्तव्य है।

दया-धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। कह कबीर दयावान के पास रहे भगवान।

भक्त रामभक्त की पुत्रवधु जिस भक्तमति के पास बैठी थी, वह बोली कि बहन! आप भी कुछ सेवा कर लो।

‘सत्संग वचन’’:- गुरूदेव जी बताते हैं कि जो सेवा-भक्ति करेगा, उसी को फल मिलेगा। मैं भोजन खाऊँगा तो मेरा पेट भरेगा। आप खाओगे तो आपका पेट भरेगा। सब प्राणी परमात्मा के बच्चे हैं। आप धनी के बच्चे समझकर सेवा करो। जैसे एक धनी की लड़की 8.9 वर्ष की थी। उसकी देखरेख के लिए एक नौकरानी रखी थी। वह उस लड़की को गर्मियों में स्कूल छोड़ने जाती थी तो उस लड़की के ऊपर छाते (छतरी) से छाया करके चलती थी, स्वयं धूप सहन करती थी जिससे धनी खुश रहता था और नौकरानी को तनख्वाह देता था। आप सब यह विचार करके अपने-परायों का ध्यान रखें। सास-ससुर की सेवा, छोटे-बड़े की सेवा, सबका सम्मान करना आप जी का परम कर्तव्य है। यदि आप-अपने सास-ससुर, माता-पिता या अन्य आश्रितों की सेवा करोगे तो परमात्मा आपकी सेवा का प्रबंध करेगा। आप अपने छोटे-बड़े बच्चों को भी सत्संग में साथ लाया करो। बच्चों में भी छोटे-बड़ों की सेवा करने, अच्छा व्यवहार करने के संस्कार पड़ेंगे। वे बच्चे बड़े होकर आपकी (वृद्ध हो जाओगे, तब) भी सेवा ऐसे ही करेंगे। जैसे बेटी एक बाप-माँ को छोड़कर नए माता (सास)-पिता (ससुर) के पास आती है। अब जन्म के माता-पिता तो इतने ही साथी थे। उन्होंने पाल-पोसकर नए माता-पिता को सौंप दिया। सास-ससुर का कर्तव्य है कि आने वाली बेटी को अपनी बेटी की तरह प्यार दे। भेदभाव स्वपन में भी नई बेटी व अपनी जन्म की बेटी में न करे जो झगड़े की जड़ है। पुत्रवधु को चाहिए कि नए घर की परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढ़ाले। माँ के घर वाले बर्ताव को कम प्रयोग करे। अब पुत्रवधु का घर-परिवार यही (ससुराल) है। 

शिक्षा कथा:- एक पुत्रवधु अपनी सास को बहुत दुःखी रखती थी। उसको फूटे हुए मिट्टी के घड़े के टुकड़े (ठीकरे) में भोजन खिलाती थी जैसे कुत्तों को खिलाते हैं। कभी-कभी साफ करती थी। उसके लड़के का विवाह हुआ। कुछ समय उपरांत सास की मृत्यु हो गई। तब वह अपनी पुत्रवधु से बोली कि इस ठीकरे को फोड़कर बाहर फैंक दो। वह पुत्रवधु बोली कि सास जी! आपको भी इसी ठीकरे में भोजन दिया करूंगी। आपने बड़े जुल्म वृद्धा के साथ किए हैं। तब वह अपनी गलती को समझकर बहुत रोई। पुत्रवधु बुद्धिमान थी। शाम तक उस ठीकरे को नहीं फोड़ा। उसकी सास को वह ठीकरा दुःश्मन दिखाई देने लगा। पुत्रवधु ने कहा कि माता जी! मैंने सत्संग सुने हैं। मैं अपने कर्म खराब नहीं करूंगी। यह कहकर ठीकरा फोड़ दिया। पाप कर्म के कारण सास को कैंसर का रोग हो गया। सारा-सारा दिन चिल्लाए। पुत्रवधु उसकी सेवा करे, कोई कसर नहीं छोड़ती थी। परंतु कहती थी कि सासु माँ! सेवा तो मैं दिलोजान से करूंगी, परंतु तेरे पाप को मैं नहीं बाँट पाऊँगी। यह कष्ट तो आपको ही भोगना पड़ेगा। यदि सत्संग सुने होते तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। तब उस जालिम औरत ने कहा कि बेटी! मैं महापापिनी हूँ। क्या मेरा भी उद्धार हो सकता है? मैं भी दीक्षा लेना चाहती हूँ? लड़की सत्संगी घर की थी। उसको पता था कि दीक्षा लेकर भक्ति करने से पाप कर्म नष्ट होते हैं। जिनके अधिक पाप हैं, भक्ति करने से लाभ ही होगा, पाप कम ही होंगे तथा भविष्य में मानव जन्म भी मिल जाता है यदि मर्यादा में रहकर अंतिम श्वांस तक साधना करता रहे। सत्संग में गुरूदेव जी उदाहरण देकर समझाते हैं कि जैसे किसी का वस्त्र कम मैला है तो थोड़े प्रयास से ही निर्मल हो जाता है। यदि अधिक मैला है तो दो-तीन बार साबुन-पानी से धोने से निर्मल हो जाता है। जिसने अधिक मैला कर रखा है तथा अन्य दाग भी लगाए हैं तो ड्राईक्लीन से साफ हो जाता है। यदि साफ करने का इरादा दृढ़ हो तो मिस्त्री का काला हुआ वस्त्र भी साफ हो सकता है। लड़की (पुत्रवधु) को पता था कि सास जी ने तो मिस्त्री वाली दशा कर ली। फिर भी परमात्मा की शरण से अवश्य लाभ ही होता है। इस उद्देश्य से अपनी सासू माँ को दीक्षा दिला दी। कुछ समय पश्चात् कैंसर में कुछ पीड़ा कम हो गई। सत्संग सुनकर उसे रोना आया कि माता-पिता की बहू-बेटों से क्या आकांक्षा होती है? मुझ पापिन ने अपनी सासू जी के साथ क्या बर्ताव किया। मुझे तो यह रोग होना ही था। यदि पहले यह ज्ञान सुनने को मिल जाता तो मैं क्यों यह पाप करती? निर्मल जीवन जीती। सासू माँ की आत्मा भी खुश करती। अपना जीवन सफल कर लेती। उपरोक्त वचन सुनकर रामभक्त जी की पुत्रवधु उस अपनी सहेली (पुरानी भक्तमति) से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी। आधा घंटे तो अपने को रोक नहीं सकी। अधिक सांत्वना के पश्चात् सुबकी रूकी और अपने ससुर पिता के साथ किए बर्ताव का उल्लेख रोते-रोते किया। अपने ससुर जी की इंसानियत भी बताई कि कभी अपने बेटे से भी नहीं बताया कि तेरी बहू मेरे साथ ऐसा बुरा बर्ताव कर रही है। बेटे के पूछने पर यही कहता था कि बेटा किसी प्रकार की सेवा में कमी नहीं है। बड़े अच्छे घर की बेटी है, समझदार है। हमारा सौभाग्य है कि यह अपने घर आ गई। हमारा तो इस बेटी ने घर बसा दिया है। मैं पापिन ये शब्द सुनकर भी नरम नहीं पड़ी क्योंकि मेरी आत्मा पर पाप कर्मों की परत चढ़ चुकी थी जो दो-तीन बार सत्संग सुनने के पश्चात् पाप की परत उतरी है। आत्मा में अच्छे संस्कार उठने लगे हैं। तीन दिन सत्संग सुनकर भक्त रामभक्त, पोता-पोती तथा पुत्रवधु के साथ घर पर आ गया। बच्चों ने भी वहाँ छोटे बच्चों को खाना खिलाने, पानी पिलाने की सेवा करते अन्य पुराने सत्संगी बच्चों को देखा तो वे भी सेवा करने लगे। घर पर आकर अपने दादा जी के लिए पानी की बाल्टी भरकर दोनों भाई-बहन लटका लाए और बोले, दादा जी! स्नान कर लो। रामभक्त जी ने कहा कि बच्चो! तुम्हारे पेट में दर्द हो जाएगा। इतना भार मत उठाओ। मैं अपने आप ले आऊँगा। बच्चे बोले कि दादा जी! सत्संग में गुरू जी ने बताया था कि सेवा करने से लाभ ही लाभ मिलता है, कोई कष्ट नहीं होता। हम रोटी खाऐंगे तो हमारा पेट भरेगा। हम सेवा करेंगे तो हमें पुण्य मिलेगा। यदि रोग भी हो तो भक्ति और सेवा से समाप्त हो जाता है। वहाँ आश्रम में अनेकों माई-भक्त बता रहे थे कि हम बीमार रहते थे। नाम लेने के पश्चात् जैसी सेवा कर सके, करने लगे। हम स्वस्थ हो गए। डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया था। देखो! हमारी दवाईयों की पर्चियाँ, चार वर्ष से उपचार चल रहा था। अब कोई दवाई नहीं खाते। (ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 161 मंत्र 2 में भी यही प्रमाण है कि यदि रोगी मृत्यु के निकट पहुँच गया है यानि उसको असाध्य रोग भी हो गया हो। यदि वह भक्ति पर लग जाए तो परमात्मा उसको मृत्यु के मुख से निकालकर ले आए। उसे स्वस्थ करके शत प्रतिशत यानि पूरी आयु जीवन दे देता है। -लेखक)

इतनी देर में पुत्रवधु आई और कहा, पिता जी! स्नान कर लो। धोती यहीं छोड़ देना। मैं आप साफ कर दूंगी। रामभक्त जी ने कहा कि बेटी! आपको घर का बहुत कार्य करना होता है, खाना बनाना, पानी लाना, पशु संभालना है। मैं आप धो लूंगा। मेरी टाँग भी अब ठीक हो गई है। बस थोड़ा-सा लंग रहता है। रामभक्त स्नान करके धोती बदलकर धोती धोने लगा। उसी समय बच्चों ने आकर धोती छीन ली और लेकर अंदर भाग गए और अपनी माता जी को दे दी। फिर कुर्ता भी ले गए। दूसरा कुर्ता लाकर दे दिया। लड़का खेत से पशुओं का चारा लेकर आया और पहले की तरह पिता को देखा और बिना बोले आगे घर में चला गया। उसने देखा कि पत्नी निर्मला हलवा बना रही थी। उसने सोचा कोई त्यौहार होगा। फिर सब्जी-रोटी बनाई। सर्वप्रथम गुरू भगवान को दो कटोरियों में भोग लगाया तथा फिर एक थाल में रोटी, कटोरियों में हलवा तथा सब्जी डालकर अपने ससुर जी के पास लेकर गई और बोली, पिता जी! भोजन खा लो। भूख लगी होगी, दूर से आए हैं। रामभक्त बोला, बेटी! मेरे को यह हजम नहीं होता। सूखी रोटियाँ ला दे, मैं बीमार हो जाऊँगा। रामभक्त जी ने सोचा था कि भावना में बहकर बेटी आज तो सब सेवा कर देगी, परंतु लड़का इसको धमकाएगा क्योंकि उसको सत्संग का ज्ञान नहीं है। कहीं घर में झगड़ा ना हो जाए। इतने में लड़का भी आ गया। अपनी पत्नी को बोला, पिता जी ठीक कह रहे हैं, ले चल अंदर। पिता का कमरा गली पर था। बच्चों का रहने का अंदर को था। पत्नी बोली, चुप रह, मैंने बहुत पाप इकट्ठे कर लिये। अब पिता जी की सेवा मैं स्वयं करूंगी। लड़का चुप हो गया। रामभक्त ने दोनों पोतों को थोड़ा-थोड़ा हलवा दिया। पुत्रवधु को देने लगा तो बोली कि आप क्या खाओगे? घर पर और भी बहुत सारा हलवा प्रसाद बचा है। पिता जी आप खाओ। नहीं खाओगे तो मेरी आत्मा रोएगी। भक्त रामभक्त जी ने गुरूदेव भगवान का स्मरण किया और भोजन खाया। प्रतिदिन पुत्रवधु स्वयं नरम-नरम रोटियाँ गर्म-गर्म लाकर अपने हाथों खिलाए। प्रतिदिन वस्त्र साफ करे और कहे, पिता जी! भजन कर लो।

एक दिन रामभक्त जी की बूआ का लड़का भक्त रामनिवास आया। रामभक्त जी ने उसको सीने से लगा लिया और बोला रै भाई! हमारा घर तो तेरी कृपा से स्वर्ग बन गया। भक्त रामनिवास बोला कि मामा के बेटे रामनिवास से कुछ ना हुआ, गुरूदेव जी की शब्द-शक्ति का करिश्मा है। आप और मैं तो पहले इकट्ठे न बत्ती-डण्डा खेला करते। मेरे करने से होता तो पहले ही हो जाता। गुरू जी कह रहे थे कि रामभक्त पिछले जन्मों में भक्त था। इससे घर के मोह के कारण मर्यादा में चूक बनी थी। उसके कारण इतना कष्ट उठाया है। अब यह महादुःखी हो चुका था। तब तेरे साथ आया है। नहीं तो आप कितनी बार रामभक्त से पहले कह चुके थे कि सत्संग में चल, परंतु मोह-माया में अन्धा हो चुका था। यह कष्ट और पुत्र-पुत्रवधु का व्यवहार इसके लिए वरदान बन गया है।

कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, सुख के माथे पत्थर पड़ो, जो नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुःख के, जो पल-पल राम रटाय।।

भावार्थ:- हे परमात्मा! इतना सुख भी ना देना जिससे तेरी भूल पड़े। जिस दुःख से परमात्मा की पल-पल याद बनी रहे, वैसे दुःख सदा देते रहना। मैं बलिहारी जाऊँ उस दुःख को जिसके कारण परमात्मा की शरण मिली। भक्त रामभक्त जी ने भक्त रामनिवास जी से कहा कि अब के सत्संग में बेटे प्रेम सिंह को ले जाना। इसका उद्धार हो जाएगा। अगले सत्संग में जो एक महीने पश्चात् होना था। भक्त रामनिवास जी आए और प्रेम सिंह को अपने घर ले जाने के बहाने ले गए। घर से सत्संग में ले गए। तीन दिन तक आश्रम में रहे, सत्संग सुना। अन्य पुराने भक्तों से उनकी आप-बीती सुनी तो सत्संग के रंग में रंग गया। भक्त रामभक्त जी का परिवार एकदम बदल गया। भक्ति-सेवा करके कल्याण को प्राप्त हुआ।


 

FAQs : "पिता बच्चों की हर संभव गलती क्षमा कर देता है | जीने की राह"

Q.1 इस लेख में मुख्य संदेश क्या है?

इस लेख का मुख्य संदेश यह है कि पिता अपने बच्चों को बिना किसी शर्त के माफ कर देता है।

Q.2 परिवार में पिता की क्या भूमिका होती है?

एक पिता अपने बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणास्रोत होता है। एक पिता ही अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा प्रदान करता है और उन्हें सद्गुणी व्यक्ति बनने के लिए उनका निरंतर मार्गदर्शन करता है। इसके अलावा एक पिता ही अपने बच्चों की गलतियों के लिए बिना शर्त के माफी देता है।

Q. 3 माफ कर देना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है?

माफ करना इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्ति को पिछली गलतियों से सीखकर आगे बढ़ने में मदद करता है। जब हम किसी को माफ कर देते हैं तो हम उन्हें यह मौका देते हैं कि वह वही गलती दोबारा न करें। माफ करके हम अपना गुस्सा और नाराज़गी दोनों छोड़ देते हैं क्योंकि यह स्वयं की आत्मा को भी सुकून देता है।

Q.4 सत्संग की किसी व्यक्ति के जीवन में क्या भूमिका है?

सत्संग किसी भी व्यक्ति के जीवन में भक्ति मार्ग को समझने में बहुत मददगार साबित होता है। सत्संग व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ता है जिससे व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ होते हैं। सत्संग सुनने से परमात्मा की पहचान होती है। मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य का ज्ञान होता है।

Q.5 सत्संग परिवार की स्थिति में कैसे सुधार करता है?

सत्संग परिवार में सद्भाव, सम्मान, विश्वास और आपसी प्रेम को बढ़ाता है। आध्यात्मिक शिक्षाओं और ईश्वर/सतगुरु के बताए मार्ग पर चलने से व्यक्ति का आचरण अच्छा रहता है। इससे परिवार की स्थिति में भी सुधार होता है।


 

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Ramswaroop Upadhyay

मैं आपके लेख से पूर्ण रूप से सहमत हूं। हम अपने गुरु जी के बताए नैतिक कर्त्तव्यों का भी पालन करते हैं। लेकिन फिर भी हमारी बहू, मेरी पत्नी और मेरे साथ दुर्व्यवहार करती है। यह बात मेरे लिए बहुत हैरान कर देने वाली है कि हम इतनी पूजा-पाठ भी करते हैं फिर भी हमारी बहू का हमारे प्रति व्यवहार नहीं सुधरा। अब तो मुझे भी आश्चर्य होता है कि अगर पूजा-पाठ में लोगों के मन को बदलने की शक्ति है, तो यह हमारे प्रति हमारी बहू का व्यवहार बदलने में क्यों असफल है?

Satlok Ashram

हमें यह जानकर बहुत खुशी हुई कि हमारे लेख लोगों के लिए मददगार साबित हो रहे हैं। वर्तमान समय में यह बहुत शर्मनाक बात है कि बच्चे अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते हैं। बच्चों में नैतिकता का पतन हो चुका है। समाज के लोगों को केवल तत्वदर्शी संत ही सही मार्ग प्रदान कर सकता है। आपकी बातों से यह साफ पता लग रहा है कि आपका गुरू पूर्ण नहीं है। ऐसे में अपनी स्थिति में परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है क्योंकि पूर्ण गुरु ही सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है और मनुष्य को परमात्मा के संविधान का पालन करने के लिए प्रेरित करता है। देखिए वर्तमान में केवल संत रामपाल जी महाराज जी ही एकमात्र ऐसे संत हैं जो सही आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। हम आपसे निवेदन करते हैं कि आप "जीने की राह" पुस्तक को पढ़िए। इसे पढ़ने से आप और आपके परिवार की व्यवहारिक समस्या का समाधान तो होगा ही साथ ही आपको सतभक्ति और मोक्ष का मार्ग भी मिलेगा।

Jivan Prasad

आपके लेख में वर्तमान समय का दर्पण पेश किया गया है। मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं। इस समय मेरी उम्र 60 से अधिक है और मेरा परिवार मेरा बहुत ख्याल रखता है। इसलिए मुझे आध्यात्मिक प्रवचनों को सुनने और किसी गुरु से दीक्षा लेने की आवश्यकता ही नहीं लगती।

Satlok Ashram

हमें खुशी है कि आप हमारे लेख में रुचि रखते हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि आपका परिवार आपके बुढ़ापे में आपकी इतनी देखभाल करता है। यह आपके पिछले जन्मों के पुण्य कर्मों का परिणाम है। इसी के कारण आपको इतना अच्छा परिवार मिला है। माना कि जीवन में धन और भौतिक सुविधाएं भी ज़रूरी हैं लेकिन एक पूर्ण गुरु का बताया ज्ञान उससे भी अधिक ज़रूरी है। देखिए आध्यात्मिक गुरू द्वारा प्रदान किए गए सच्चे ज्ञान और मंत्र से न केवल सांसारिक लाभ मिलते हैं बल्कि पूर्ण मोक्ष पाने के लिए भी यह बहुत ज़रूरी है। अपने जीवन को सफल बनाने के लिए आप "जीने की राह" पुस्तक पढ़िए और संत रामपाल जी महाराज जी के आध्यात्मिक प्रवचन भी सुन सकते हैं। इससे जीवन की यात्रा आसान हो जाती है और मानव जीवन का मूल उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है। यह ज्ञान हमें वर्तमान परिस्थितियों से अवगत कराकर मोक्ष प्रदान करने में मदद करता है।