जति के लक्षण
पुरूष यति (जति) सो जानिये, निज त्रिया तक विचार।
माता बहन पुत्री सकल और जग की नार।।
भावार्थ:- यति पुरूष उसको कहते हैं जो अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्री में पति-पत्नी वाला भाव न रखें। परस्त्री को आयु अनुसार माता, बहन या बेटी के भाव से जानें।
‘‘सति स्त्री के लक्षण‘‘
स्त्रि सो जो पतिव्रत धर्म धरै, निज पति सेवत जोय।।
अन्य पुरूष सब जगत में पिता भ्रात सुत होय।।
अपने पति की आज्ञा में रहै, निज तन मन से लाग।।
पिया विपरीत न कछु करै, ता त्रिया को बड़ भाग।।
भावार्थ:- सती स्त्री उसको कहते हैं जो अपने पति से लगाव रखे। अपने पति के अतिरिक्त संसार के अन्य पुरूषों को आयु अनुसार पिता, भाई तथा पुत्र के भाव से देखे यानि बरते। अपने पति की आज्ञा में रहे। मन-तन से सेवा करे, कोई कार्य पति के विपरीत न करे।
दान करना कितना अनिवार्य है
कबीर, मनोकामना बिहाय के हर्ष सहित करे दान।
ताका तन मन निर्मल होय, होय पाप की हान।।
कबीर, यज्ञ दान बिन गुरू के, निश दिन माला फेर।
निष्फल वह करनी सकल, सतगुरू भाखै टेर।।
प्रथम गुरू से पूछिए, कीजै काज बहोर।
सो सुखदायक होत है, मिटै जीव का खोर।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि बिना किसी मनोकामना के जो दान किया जाता है, वह दान दोनों फल देता है। वर्तमान जीवन में कार्य की सिद्धि भी होगी तथा भविष्य के लिए पुण्य जमा होगा और जो मनोकामना पूर्ति के लिए किया जाता है। वह कार्य सिद्धि के पश्चात् समाप्त हो जाता है। बिना मनोकामना पूर्ति के लिए किया गया दान आत्मा को निर्मल करता है, पाप नाश करता है।
पहले गुरू धारण करो, फिर गुरूदेव जी के निर्देश अनुसार दान करना चाहिए। बिना गुरू के कितना ही दान करो और कितना ही नाम-स्मरण की माला फेरो, सब व्यर्थ प्रयत्न है। यह सतगुरू पुकार-पुकारकर कहता है।
प्रथम गुरू की आज्ञा लें, तब अपना नया कार्य करना चाहिए। वह कार्य सुखदायक होता है तथा मन की सब चिंता मिटा देता है।
कबीर, अभ्यागत आगम निरखि, आदर मान समेत।
भोजन छाजन, बित यथा, सदा काल जो देत।।
भावार्थ:- आपके घर पर कोई अतिथि आ जाए तो आदर के साथ भोजन तथा बिछावना अपनी वित्तीय स्थिति के अनुसार सदा समय देना चाहिए।
सोई म्लेच्छ सम जानिये, गृही जो दान विहीन।
यही कारण नित दान करे, जो नर चतुर प्रविन।।
भावार्थ:- जो ग्रहस्थी व्यक्ति दान नहीं करता, वह तो म्लेच्छ यानि दुष्ट व्यक्ति के समान है। इसलिए हे बुद्धिमान! नित (सदा) दान करो।
पात्र कुपात्र विचार के तब दीजै ताहि दान। देता लेता सुख लह अन्त होय नहीं हान।।
भावार्थ:- दान कुपात्र को नहीं देना चाहिए। सुपात्र को दान हर्षपूर्वक देना चाहिए। सुपात्र गुरूदेव बताया है। फिर कोई भूखा है, उसको भोजन देना चाहिए। रोगी का उपचार अपने वित सामने धन देकर करना, बाढ़ पीड़ितों, भूकंप पीड़ितों को समूह बनाकर भोजन-कपड़े अपने हाथों देना सुपात्र को दिया दान कहा है। इससे कोई हानि नहीं होती।
धर्म बोध पृष्ठ 179 का सारांश
कबीर, फल कारण सेवा करै, निशदिन याचै राम।
कह कबीर सेवा नहीं, जो चाहै चौगुने दाम।।
भावार्थ:- जो किसी कार्य की सिद्धि के लिए सेवा (पूजा) करता है, दिन-रात परमात्मा से माँगता रहता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि वह सेवा सेवा नहीं जो चार गुणा धन सेवा के बदले इच्छा करता है।
कबीर, सज्जन सगे कुटम्ब हितु, जो कोई द्वारै आव।
कबहु निरादर न कीजिए, राखै सब का भाव।।
भावार्थ:- भद्र पुरूषों, सगे यानि रिश्तेदारों, कुटम्ब यानि परिवारजनों तथा हितु यानि आपके हितैषियों का आपके द्वार पर आना हो तो कभी अनादर नहीं करना चाहिए। सबका भाव रखना चाहिए।
कबीर, कोड़ी-कोड़ी जोड़ी कर कीने लाख करोर।
पैसा एक ना संग चलै, केते दाम बटोर।।
भावार्थ:- दान धर्म पर पैसा खर्च किया नहीं, लाखों-करोड़ों रूपये जमा कर लिए। संसार छोड़कर जाते समय एक पैसा भी साथ नहीं चलेगा चाहे कितना ही धन संग्रह कर लो।
जो धन हरिके हेत, धर्म राह नहीं लगात।
सो धन चोर लबार गह, धर छाती पर लात।।
भावार्थ:- जो धन परमात्मा के निमित खर्च नहीं होता, कभी धर्म कर्म में नहीं लगता, उसके धन को डाकू, चोर, लुटेरे छाती ऊपर लात धरकर यानि डरा-धमकाकर छीन ले जाते हैं।
सत का सौदा जो करै, दम्भ छल छिद्र त्यागै। अपने भाग का धन लहै, परधन विष सम लागै।।
भावार्थ:- अपने जीवन में परमात्मा से डरकर सत्य के आधार से सर्व कर्म करने चाहिएं जो अपने भाग्य में धन लिखा है, उसी में संतोष करना चाहिए। परधन को विष के समान समझें।
भूखा जहि घर ते फिरै, ताको लागै पाप। भूखों भोजन जो देत है, कटैं कोटि संताप।।
भावार्थ:- जिस घर से कोई भूखा लौट जाता है, उसको पाप लगता है। भूखों को भोजन देने वालों के करोड़ों विघ्न टल जाते हैं।
प्रथम संत को जीमाइए। पीछे भोजन भोग। ऐसे पाप को टालिये, कटे नित्य का रोग।।
भावार्थ:- यदि आपके घर पर कोई संत (भक्त) आ जाए तो पहले उसको भोजन कराना चाहिए, पीछे आप भोजन खाना चाहिए। इस प्रकार अपने सिर पर नित्य आने वाले पाप के कारण कष्ट को टालना चाहिए।
धर्म बोध पृष्ठ 180 का सारांश:-
कबीर, यद्यपि उत्तम कर्म करि, रहै रहित अभिमान।
साधु देखी सिर नावते, करते आदर मान।।
भावार्थ:- अभिमान त्यागकर श्रेष्ठ कर्म करने चाहिऐं। संत, भक्त को आता देखकर शीश झुकाकर प्रणाम तथा सम्मान करना चाहिए।
कबीर, बार-बार निज श्रवणतें, सुने जो धर्म पुराण।
कोमल चित उदार नित, हिंसा रहित बखान।।
भावार्थ:- भक्त को चाहिए कि वह बार-बार धर्म-कर्म के विषय में सत्संग ज्ञान सुने और अपना चित कोमल रखे। अहिंसा परम धर्म है। ऐसे अहिंसा संबंधी प्रवचन सुनने चाहिऐं।
कबीर, न्याय धर्मयुक्त कर्म सब करैं, न कर ना कबहू अन्याय।
जो अन्यायी पुरूष हैं, बन्धे यमपुर जाऐं।।
भावार्थ:- सदा न्याययुक्त कर्म करने चाहिऐं। कभी भी अन्याय नहीं करना चाहिए। जो अन्याय करते हैं, वे यमराज के लोक में नरक में जाते हैं।
धर्म बोध पृष्ठ 181 का सारांश:-
कबीर, गृह कारण में पाप बहु, नित लागै सुन लोय।
ताहिते दान अवश्य है, दूर ताहिते होय।।
कबीर, चक्की चौंके चूल्ह में, झाड़ू अरू जलपान।
गृह आश्रमी को नित्य यह, पाप पाँचै विधि जान।।
भावार्थ:- गृहस्थी को चक्की से आटा पीसने में, खाना बनाने में चूल्हे में अग्नि जलाई जाती है। चौका अर्थात् स्थान लीपने में तथा झाड़ू लगाने तथा खाने तथा पीने में पाँच प्रकार से पाप लगते हैं। हे संसारी लोगो! सुनो! इन कारणों से आपको नित पाप लगते हैं। इसलिए दान करना आवश्यक है। ये पाप दान करने से ही नाश होंगे।
कबीर, कछु कटें सत्संग ते, कछु नाम के जाप। कछु संत के दर्शते, कछु दान प्रताप।।
भावार्थ:- भक्त के पाप कई धार्मिक क्रियाओं से समाप्त होते हैं। कुछ सत्संग-वचन सुनने से ज्ञान यज्ञ के कारण, कुछ नाम के जाप से, कुछ संत के दर्शन करने से तथा कुछ दान के प्रभाव से समाप्त होते हैं।
जैसे वस्त्र पहनते हैं। मिट्टी-धूल लगने से मैले होते हैं। उनको पानी-साबुन से धोया जाता है। इसी प्रकार नित्य कार्य में पाप लगना स्वाभाविक है। इसी प्रकार वस्त्र की तरह सत्संग वचन, नाम स्मरण, दान व संत दर्शन रूपी साबुन-पानी से नित्य धोने से आत्मा निर्मल रहती है। भक्ति में मन लगा रहता है।
कबीर, जो धन पाय न धर्म करत, नाहीं सद् व्यौहार।
सो प्रभु के चोर हैं, फिरते मारो मार।।
भावार्थ:- जो धन परमात्मा ने मानव को दिया है, उसमें से जो दान नहीं करते और न अच्छा आचरण करते हैं, वे परमात्मा के चोर हैं जो माया जोड़ने की धुन में मारे-मारे फिरते हैं। संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि:-
जिन हर की चोरी करी और गए राम गुण भूल।
ते विधना बागुल किए, रहे ऊर्ध मुख झूल।।
यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 13 में कहा है कि जो धर्म-कर्म नहीं करते, जो परमात्मा द्वारा दिए धन से दान आदि धर्म कार्य नहीं करते, वे तो चोर हैं। वे तो अपना शरीर पोषण के लिए ही अन्न पकाते हैं। धर्म में नहीं लगाते, वे तो पाप ही खाते हैं।
बच्चों को शिक्षा अवश्य दिलानी चाहिए
कबीर, मात पिता सो शत्रु हैं, बाल पढ़ावैं नाहिं।
हंसन में बगुला यथा, तथा अनपढ़ सो पंडित माहीं।।
भावार्थ:- जो माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं, वे अपने बच्चों के शत्रु हैं। अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्तियों में ऐसा होता है जैसे हंस पक्षियों में बगुला। यहाँ पढ़ाने का तात्पर्य धार्मिक ज्ञान कराने से है, सत्संग आदि सुनने से है। यदि किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है तो वह शुभ-अशुभ कर्मों को नहीं जान पाता। जिस कारण से वह पाप करता रहता है। जो सत्संग सुनते हैं। उनको सम्पूर्ण कर्मों का तथा अध्यात्म का ज्ञान हो जाता है। वह कभी पाप नहीं करता। वह हंस पक्षी जैसा है जो सरोवर से केवल मोती खाता है, जीव-जंतु, मछली आदि-आदि नहीं खाता। इसके विपरीत अध्यात्म ज्ञानहीन व्यक्ति बुगले पक्षी जैसे स्वभाव का होता है। बुगला पक्षी मछली, कीड़े-मकोड़े आदि-आदि जल के जंतु खाता है। शरीर से दोनों (हंस पक्षी तथा बुगला पक्षी) एक जैसे आकार तथा सफेद रंग के होते हैं। उनको देखकर नहीं पहचाना जा सकता। उनके कर्मों से पता चलता है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञान युक्त व्यक्ति शुभ कर्मों से तथा तत्त्वज्ञानहीन व्यक्ति अशुभ कर्मों से पहचाना जाता है।
कबीर, पहले अपने धर्म को, भली भांति सिखलाय।
अन्य धर्म की सीख सुनि, भटकि बाल बुद्धि जाय।।
भावार्थ:- बच्चों को या परिवार के अन्य सदस्यों को पहले अपने धर्म का ज्ञान पूर्ण रूप से कराना चाहिए। जिनको अपने धर्म यानि धार्मिक क्रियाओं का ज्ञान नहीं, वह बालक जैसी बुद्धि का होता है। वे अन्य धर्म पंथ की शिक्षा सुनकर भटक जाते हैं। जिनको अपने धर्म (पंथ) का सम्पूर्ण ज्ञान है, वह भ्रमित नहीं होता।
धर्म बोध पृष्ठ 182 का सारांश:-
कबीर, जो कछु धन का लाभ हो, शुद्ध कमाई कीन।
ता धन के दशवें अंश को, अपने गुरू को दीन।।
दसवां अंश गुरू को दीजै। अपना जन्म सफल कर लीजै।।
भावार्थ:- शुद्ध नेक कमाई से जो लाभ होता है, उसका दसवां भाग अपने गुरूदेव को दान करना चाहिए।
कबीर, जे गुरू निकट निवास करै, तो सेवा कर नित्य।
जो कछु दूर बसै, पल-पल ध्यान से हित।।
भावार्थ:- यदि गुरू जी का स्थान आपके निवास के निकट हो तो प्रतिदिन सेवा के लिए जाइये। यदि दूर है तो उनकी याद पल-पल करनी चाहिए। इससे साधक का हित होता है यानि लाभ प्राप्त होता है।
कबीर, छठे मास गुरू दर्श करन ते, कबहु ना चुको हंस।
गुरू दर्श अरू सत्संग, विचार सो उधरै जात है वंश।।
कबीर, छठे मास ना करि सके, वर्ष में करो धाय।
वर्ष में दर्श नहिं करे, सो भक्त साकिट ठहराय।।
कबीर, जै गुरू परलोक गमन करे, सीख मानियो शीश।
हरदम गुरू को साथ जानि, सुमरो नित जगदीश।।
कबीर, गुरू मरा मत जानियो, वस्त्र त्यागा स्थूल।
सूक्ष्म देही गमन करि, खिला अमर वह फूल।।
कबीर, सतलोक में बैठी कर, गुरू निरखै तोहे।
गुरू तज ना और मानियो, अध्यात्म हानि होय।।
कबीर, गुरू के शिष्य की जगदीश करै सहाय।
नाम जपै अरू दान धर्म में कबहू न अलसाय।।
कबीर, जैसे रवि आकाश से, सबके साथ रहाय।
उष्णता अरू प्रकाश को दूरही ते पहुँचाय।।
कबीर, ऐसे गुरू जहाँ बसे सब पर करे रजा।
गुरू समीप जानकर सकल विकार करत लजा।।
भावार्थ:- गुरू जी के दर्शन छठे महीने अवश्य करें। सत्संग और गुरू दर्शन से पूरा वंश मुक्त हो जाता है। यदि छठे मास दर्शन नहीं कर सकता तो वर्ष में बेसब्रा होकर यानि अति उत्साह के साथ दर्शन करने जाए। यदि एक वर्ष में गुरू दर्शन नहीं करता है तो वह शिष्य भक्तिहीन माना जाता है।
यदि गुरू जी सतलोक चले गए तो उनकी शिक्षा को आधार मानकर अपना धर्म-कर्म करते रहिए। अपने गुरूदेव को पल-पल अपने साथ समझकर परमेश्वर का भजन करो, जो गुरू जी ने दीक्षा मंत्र दिए हैं, उनका जाप करते रहो।
गुरू जी को मरा नहीं समझे, यह तो स्थूल शरीर त्यागा है जैसे वस्त्र उतार दिए जाते हैं। शरीर तो सुरक्षित रहता है। इसी प्रकार स्थूल शरीर रूपी वस्त्र त्यागा है। नूरी शरीर से सतलोक चले गए हैं। वहाँ पर अमरत्व प्राप्त कर लिया है। आपका इंतजार कर रहे हैं। आपजी को भी तो जाना है। बिना मरे (स्थूल शरीर त्यागे) सत्यलोक जाया नहीं जा सकता। यह तो शिष्यों को भी त्यागना है। फिर गुरू जी के शरीर त्यागने का शोक न करके उनके द्वारा बताई गई साधना करे तथा मर्यादा का पालन करते हुए अपना जीवन सफल बनाऐं।
गुरूदेव सतलोक में बैठकर आपको देख रहा होता है। गुरू जी के संसार छोड़कर जाने के पश्चात् अन्य को गुरू रूप में नहीं देखना, नहीं तो भक्ति की हानि हो जाएगी।
गुरू जी के उपदेशी शिष्य की परमेश्वर सहायता करता है। शिष्य को गुरू जी के बताए नाम जाप तथा दान-धर्म करने में कभी आलस नहीं करना चाहिए।
जैसे सूर्य दूर आकाश से सबको उष्णता तथा प्रकाश प्रदान करता है, सबको अपने साथ दिखाई देता है। इसी प्रकार गुरू जी कहीं पर भी बैठा है, वहीं से अपने भक्तों पर कृपा करता है। गुरू जी को समीप तथा दृष्टा जानकर सब विषय-विकारों को करने में शर्म करके परहेज करे।
धर्म बोध पृष्ठ 183 का सारांश:-
कबीर, केते जनकादिक गृही जो निज धर्म प्रवीन।
पायो शुभगति आप ही औरनहू मति दीन।।
भावार्थ:- राजा जनक जैसे गृहस्थी अपने धर्म के विद्वान थे यानि मानव कर्म के ज्ञानी थे। जिस कारण से स्वयं भी शुभगति प्राप्त की यानि स्वर्ग प्राप्त किया तथा औरों को भी स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताया।
कबीर, हरि के हेत न देत, धन देत कुमार्ग माहीं।
ऐसे अन्यायी अधम, बांधे यमपुर जाहीं।।
भावार्थ:- जो व्यक्ति धर्म नहीं करते और पैसे का गलत प्रयोग करते हैं, शराब पीते हैं, माँस खाते हैं, तम्बाकू सेवन करते हैं या व्यर्थ के दिखावे में खर्च करते हैं, ऐसे अन्यायी नीच यमलोक यानि नरकलोक में बाँधकर ले जाए जाते हैं।
भक्त ब्यौहार कैसा हो?
निजधन के भागी जेते सगे बन्धु परिवार। जैसा जाको भाग है दीजै धर्म सम्भार।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि संपत्ति के जो भी जितने भी भाग के कानूनी अधिकारी हैं, उनको पूरा-पूरा भाग देना चाहिए अपने धर्म-कर्म को ध्यान में रखकर यानि भक्त को चाहिए कि जिसका जितना हिस्सा बनता है, परमात्मा से डरकर पूरा-पूरा बाँट दे।
धर्म बोध पृष्ठ 184 का सारांश:-
कबीर, खाट पड़ै तब झखई नयनन आवै नीर।
यतन तब कछु बनै नहीं, तनु व्याप मृत्यु पीर।।
भावार्थ:- वृद्ध होकर या रोगी होकर जब मानव चारपाई पर पड़ा होता है और आँखों में आँसू बह रहे होते हैं, उस समय कोई बचाव नहीं हो सकता, मृत्यु के समय होने वाली पीड़ा हो रही होती है। कहते हैं कि जो भक्ति नहीं करते, उनका अन्त समय महाकष्टदायक होता है। उसके प्राण सरलता से नहीं निकलते, उसको इतनी पीड़ा होती है जैसे एक लाख बिच्छुओं ने डंक लगा दिया हो। उस समय यम के दूत उसका गला बंद कर देते हैं। व्यक्ति न बोल सकता है, न पूरा श्वांस ले पाता है। केवल आँखों से आँसू निकल रहे होते हैं। इसलिए भक्ति तथा शुभ कर्म जो ऊपर बताए हैं, मानव को अवश्य करने चाहिऐं।
कबीर, देखे जब यम दूतन को, इत उत जीव लुकाय।
महा भयंकर भेष लखी, भयभीत हो जाय।।
भावार्थ:- यम के दूतों का भयंकर रूप होता है। मृत्यु के समय यमदूत उसी धर्म व भक्तिहीन व्यक्ति को ही दिखाई देते हैं। उनको देखकर भय के मारे वह प्राणी शरीर में ही इधर-उधर छुपने की कोशिश करता है।
कबीर, भक्ति दान किया नहीं, अब रह कास की ओट।
मार पीट प्राण निकालहीं, जम तोड़ेंगे होठ।।
भावार्थ:- न गुरू किया, न भक्ति और न दान-धर्म किया, अब किसकी ओट में बचेगा? यम के दूत मारपीट करके प्राण निकालेंगे और बिना विचारे चोट मारेंगे यानि बेरहम होकर पीट-पीटकर तेरे होठ फोड़ेंगे। होठ फोड़ना बेरहमी से पीटना अर्थात् निर्दयता से मारेंगे।
धर्म बोध पृष्ठ 185-186 पर सामान्य ज्ञान है।
धर्म बोध पृष्ठ 187 का सारांश:-
कबीर, मान अपमान सम कर जानै, तजै जगत की आश।
चाह रहित संस्य रहित, हर्ष शोक नहीं तास।।
भावार्थ:- भक्त को चाहे कोई अपमानित करे, उस और ध्यान न दे। उसकी बुद्धि पर रहम करे और जो सम्मान करता है, उस पर भी ध्यान न दे यानि किसी के सम्मानवश होकर अपना धर्म खराब न करे। हानि-लाभ को परमात्मा की देन मानकर संतोष करे।
कबीर, मार्ग चलै अधो गति, चार हाथ मांही देख।
पर तरिया पर धन ना चाहै समझ धर्म के लेख।।
भावार्थ:- भक्त मार्ग पर चलते समय नीचे देखकर चले। भक्त की दृष्टि चलते समय चार हाथ यानि 6 फुट दूर सामने रहनी चाहिए। धर्म-कर्म के ज्ञान का विचार करके परस्त्री तथा परधन को देखकर दोष दृष्टि न करे।
कबीर, पात्र कुपात्र विचार कर, भिक्षा दान जो लेत।
नीच अकर्मी सूम का, दान महा दुःख देत।।
भावार्थ:- संत यानि गुरू को अपने शिष्य के अतिरिक्त दान-भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। कुकर्मी तथा अधर्मी का धन बहुत दुःखी करता है।
पृष्ठ 188 पर सामान्य ज्ञान है।
धर्म बोध पृष्ठ 189 पर:-
कबीर, इन्द्री तत्त्व प्रकृति से, आत्म जान पार।
जाप एक पल नहीं छूटै, टूट न पावै तार।।
भावार्थ:- आत्मा को पाँचों तत्त्वों से भिन्न जानै। शरीर आत्मा नहीं है। निरंतर सतनाम का जाप करे।
कबीर, जब जप करि के थक गए, हरि यश गावे संत।
कै जिन धर्म पुराण पढ़े, ऐसो धर्म सिद्धांत।।
भावार्थ:- यदि भक्त जाप करते-करते थक जाए तो परमात्मा की महिमा की वाणी पढ़े, यदि याद है तो गाए या अपने धर्म की पुस्तकों को पढ़े, यह धार्मिक सिद्धांत है।
धर्म बोध पृष्ठ 190 का सारांश:-
कबीर, ज्ञानी रोगी अर्थार्थी जिज्ञासू ये चार।
सो सब ही हरि ध्यावते ज्ञानी उतरे पार।।
भावार्थ:- परमात्मा की भक्ति चार प्रकार के व्यक्ति करते हैं:-
1. ज्ञानी:- ज्ञानी को विश्वास हो जाता है कि मानव जीवन केवल परमात्मा की भक्ति करके जीव का कल्याण कराने के लिए प्राप्त होता है। उनको यह भी समझ होती है कि केवल एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति से मोक्ष होगा, अन्य देवी-देवताओं की भक्ति से जन्म-मरण का क्लेश नहीं कटेगा। पूर्ण सतगुरू से दीक्षा लेकर बात बनेगी। इसलिए ज्ञानी भक्त पार होते हैं।
2. अर्थार्थी:- जो धन लाभ के लिए ही भक्ति करते हैं।
3. आर्त यानि संकट ग्रस्त:- केवल अपने संकट का नाश करने के लिए भक्ति करते हैं।
4. जिज्ञासु:- जिज्ञासु परमात्मा का ज्ञान अधूरा समझते हैं और वक्ता बनकर महिमा की भूख में जीवन नाश कर जाते हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में भी है।
धर्म बोध पृष्ठ 191 का सारांश:-
कबीर, क्षमा समान न तप, सुख नहीं संतोष समान।
तृष्णा समान नहीं ब्याधी कोई, धर्म न दया समान।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि क्षमा करना बहुत बड़ा तप है। इसके समान तप नहीं है। संतोष के तुल्य कोई सुख नहीं है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा के समान कोई आपदा नहीं है और दया के समान धर्म नहीं है।
कबीर, योग (भक्ति) के अंग पाँच हैं, संयम मनन एकान्त।
विषय त्याग नाम रटन, होये मोक्ष निश्चिन्त।।
भावार्थ:- भक्ति के चार आवश्यक पहलु हैं। संयम यानि प्रत्येक कार्य में संयम बरतना चाहिए। धन संग्रह करने में, बोलने में, खाने-पीने में, विषय भोगों में संयम रखे यानि भक्त को कम बोलना चाहिए, विषय विकारों का त्याग करना चाहिए परमात्मा का भजन तथा परमात्मा की वाणी प्रवचनों का मनन करना अनिवार्य है। ऐसे साधना तथा मर्यादा पालन करने से मोक्ष निश्चित प्राप्त होता है।
पूर्ण परमात्मा भक्त की आयु भी बढ़ा देता है:-
ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 161 मंत्र 2 में कहा है कि पूर्ण प्रभु अपने भक्त का रोग समाप्त कर देता है। यदि रोगी की आयु शेष नहीं, वह मृत्यु देवता के पास जाने वाला हो तो भी परमात्मा उसको स्वस्थ करके शत वर्ष यानि सौ वर्ष तक जीवन दे देता है। उसकी आयु वृद्धि कर देता है। पढ़ें ‘‘कबीर सागर’’ के अध्याय ‘‘गरूड़ बोध’’ से प्रमाण
FAQs : "भक्त जती तथा सती होना चाहिए | जीने की राह"
Q.1 परमेश्वर की भक्ति कौन से चार प्रकार के लोग करते हैं?
परमेश्वर की भक्ति करने वाले चार प्रकार के लोग हैं; ज्ञानी (जिसे ज्ञान हो गया की मनुष्य जीवन परमात्मा की भक्ति करके जीव का कल्याण कराने के लिए प्राप्त होता है), अर्थार्थी (भौतिक सुख की तलाश करने वाले), आर्त यानि संकट ग्रस्त (दुखों से पीड़ित) और जिज्ञासु (आध्यात्मिक ज्ञान को जानने की इच्छा रखने वाला)।
Q.2 लेख में "जती और सती" होने के बारे में क्या बताया गया है?
"जती और सती" होने का अर्थ है स्त्री और पुरुष को अपने चरित्र और आचरण को शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। "जती" शब्द का प्रयोग पुरुष के लिए और "सती" शब्द का प्रयोग महिला के लिए किया जाता है। जती/यति पुरूष उसको कहते हैं जो अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्री में पत्नी वाला भाव न रखें। परस्त्री को आयु अनुसार माता, बहन या बेटी के भाव से जानें। सती स्त्री उसको कहते हैं जो अपने पति से लगाव रखे। अपने पति के अतिरिक्त संसार के अन्य पुरूषों को आयु अनुसार पिता, भाई तथा पुत्र के भाव से देखे यानि बरते। अपने पति की आज्ञा में रहे। तन और मन से उसकी सेवा करे, कोई कार्य पति की इच्छा के विपरीत न करे.
Q. 3 "सती" स्त्री की क्या विशेषताएं होती हैं?
"सती" स्त्री उसे कहा जाता है जो अपने पति के प्रति समर्पित होती है और उसका सम्मान करती है। अपने पति की इच्छाओं के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करती। इसके अलावा वह अपने पति की इच्छा का मान रखती है। वह अन्य सभी पुरुषों को उनकी आयु अनुसार सम्मान देती है और उन्हें पिता, भाई या पुत्र के समान समझती है।
Q.4 दान करना ज़रूरी क्यों है और बिना किसी लाभ की इच्छा किए गए दान का क्या महत्त्व है?
परमेश्वर कबीर जी ने निस्वार्थ दान का महत्त्व बताया है कि यह आत्मा को शुद्ध करता है और पापों को नाश करता है। लाभ की इच्छा के बिना दान करने से वर्तमान और भविष्य दोनों में लाभ मिलता है। इससे दानकर्ता को आध्यात्मिक और शारीरिक दोनों तरह से लाभ होता है। परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि धार्मिक कार्यों के लिए पूर्ण संत के द्वारा बताया गया मार्गदर्शन अपनाना चाहिए क्योंकि पूर्ण संत के बताए मार्ग पर चलकर ही पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इसके अलावा जो लोग दान नहीं करते और अपने धन का दुरुपयोग करते हैं, उन्हें कष्ट और हानि के साथ बहुत भयानक परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
Q.5 मंत्र जपते-जपते थकान होने पर भक्त को क्या करना चाहिए?
जब भक्त मंत्र जपते-जपते थक जाए तो उसे परमेश्वर के गुणों को याद करना चाहिए। इसके अलावा धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए और अपनी साधना जारी रखनी चाहिए।
Q.6 परमेश्वर कबीर जी अपने घर आए अतिथि के साथ कैसा व्यवहार करने की सलाह देते हैं?
परमेश्वर कबीर जी हमें बताते हैं कि अतिथि को अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार भोजन करवाना चाहिए। इसके अलावा उनका सत्कार करना चाहिए। कबीर साहेब जी बताते हैं कि यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी घर से भूखा न जाए।
Q.7 कबीर साहेब जी शिक्षा, खासतौर पर आध्यात्मिक शिक्षा को ज़रूरी क्यों बताते हैं?
परमेश्वर कबीर जी शिक्षा, खासतौर पर आध्यात्मिक शिक्षा को ज़रूरी बताते हैं क्योंकि इससे व्यक्ति को सही और गलत काम में अंतर का पता चलता है। फिर व्यक्ति सही फैसला लेने में सक्षम होता है। कबीर साहेब जी के अनुसार बच्चों को आध्यात्मिक ज्ञान देना और नैतिक गुण सिखाने चाहिए क्योंकि जिस व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान होता है, वह पापों से बचकर रहता है और पुण्य कार्य करता है। इसके अलावा आध्यात्मिक ज्ञान तथा शिक्षा को शांतिपूर्ण जीवन और मोक्ष प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
Q.8 परमेश्वर कबीर जी ने धन और संपत्ति का प्रयोग कैसे करने का सुझाव दिया है?
परमेश्वर कबीर जी सलाह देते हैं कि दूसरों की संपत्ति पर बुरी नज़र नहीं रखनी चाहिए और दुसरे के धन को ज़हर के समान समझना चाहिए। व्यक्ति को अपने भाग्य से प्राप्त धन को ही पर्याप्त समझना चाहिए और लालच नहीं करना चाहिए।
Q.9 इस लेख में मृत्यु के समय आने वाले यमराज के दूतों का वर्णन कैसे किया गया है?
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि यम के दूतों का रूप बहुत भयानक होता है। यम के दूत मृत्यु के समय आत्मा को ले जाने के लिए आते हैं और वह बहुत खतरनाक होते हैं।
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Lalit Kumar
वर्तमान समय में पति-पत्नी की बेवफ़ाई के कारण बहुत से परिवार बर्बाद हो रहे हैं। क्या आप कोई ऐसा रास्ता बता सकते हैं जिससे पति-पत्नी एक-दूसरे की भावनाओं को समझें और एक-दूसरे के प्रति वफादार और समर्पित रहकर प्रेम से जीवन जीएं?
Satlok Ashram
ललित जी, आपने हमारे लेख को पढ़ा, इसके लिए हम आपके आभारी हैं। दुर्भाग्यवश आज समाज में नैतिकता खत्म हो चुकी है। ज़्यादातर लोग रिश्तों के महत्त्व को नहीं समझते। ऐसी सामाजिक और पारिवारिक स्थिति की उपज का कारण आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के डर का न होना है। देखिए इसका समाधान केवल एक यही है कि सभी मनुष्यों को परमात्मा के संविधान और आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होना होगा। इसका उदाहरण यह है कि संत रामपाल जी महाराज जी की शिक्षाओं पर चलकर ही उनके अनुयायियों में अनेकों नैतिक और आध्यात्मिक रूप से बदलाव आए हैं। अधिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित पुस्तक "जीने की राह" को अवश्य पढ़िए क्योंकि इसे पढ़कर आपको पति-पत्नी के जती और सती व्यवहार का ज्ञान होगा। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद कोई भी पति अपनी पत्नी से और पत्नी अपने पति से बेवफ़ाई कभी नहीं करेंगे और एक-दूसरे के साथ आपसी समझ और प्रेम से जीवन जीएंगे।