विष्णु पुराण से श्राद्ध कर्म की अनसुनी सच्चाई, क्या है पित्तरों की मुक्ति की श्रेष्ठ विधि?


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काल ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों में रहने वाले सभी प्राणी शास्त्र-विरुद्ध साधना करके 84 लाख योनियों का महाकष्ट उठा रहे हैं। आखिर इन अत्यन्त कष्टदायक पीड़ाओं को भोगने का मूल कारण क्या है? यह जानने की उत्सुकता प्रत्येक प्राणी के मन में ज़रूर उठ रही होगी। इस सज़ा का मूल कारण यह है कि हमने हमारे निज घर ‘सतलोक’ में एक बहुत बड़ी गलती की थी। जिसके कारण हमें वहां से निकाल दिया गया था और उस गलती के परिणामस्वरूप ही हम इस लोक मे भयंकर कष्ट भोग रहे हैं।

मानव जन्म को सभी योनियों में से श्रेष्ठ माना जाता है। मनुष्य जीवन एकमात्र ऐसा साधन है जिसमें पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर शास्त्र-अनुकुल भक्ति और मोक्ष प्राप्त करके हम अपने निज स्थान सतलोक लौट सकते हैं। लेकिन झूठे गुरुओं से मार्गदर्शन लेकर, शास्त्र-विरुद्ध मनमानी साधना करना जैसे पितृों के श्राद्ध निकालना, तीर्थ स्थलों पर जाना सब गलत है। श्राद्ध निकालने का सीधा अर्थ भूत, पिशाच, पितृों आदि की पूजा करना है और इसके परिणामस्वरूप आत्मा को स्वयं भी प्रेत, पिशाच, पितृ की योनियों मे जन्म लेकर दंडित होना पड़ता है और आत्मा मोक्ष न प्राप्त कर के जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसी रहती है।

वहीं इस लेख को पढ़कर पाठक जन मुख्य रूप से यह जानेंगे कि क्या हमारे पवित्र शास्त्रों में श्राद्ध निकालने का निर्देश है या नहीं? तथा पितृों के उद्धार की सर्वोत्तम विधि क्या है? जिसे जानने के लिए आप इस लेख में निम्न बिन्दुओं के बारे में पढ़ेंगे:

  • श्राद्ध निकालना/पितृ पक्ष क्या है?
  • श्राद्ध अनुष्ठान का महत्व क्या है?
  • पुराणों का ज्ञान ऋषियों का अनुभव है, भगवान का आदेश नहीं
  • मार्कण्डेय पुराण में पित्तरों की दुर्गति का प्रमाण
  • मार्कण्डेय पुराण में श्राद्ध कर्म के विषय में विवरण
  • विष्णु पुराण में श्राद्ध के विषय में क्या बताया गया है?
  • वेद और श्रीमद्भगवत गीता में पितृ पूजा (श्राद्ध) करना निषेध है
  • मार्कण्डेय पुराण में श्राद्ध निकालना 'अविद्या' क्यों कहा गया है?
  • सूक्ष्मवेद ‘कबीर सागर’ में रुचि ऋषि की कथा और श्राद्ध कर्म वर्जित
  • श्राद्ध करने से मुक्ति प्राप्त क्यों नहीं हो सकती?
  • विष्णु पुराण, सतभक्ति करने से होता है हमारा और हमारे पित्तरों का उद्धार
  • योगी की परिभाषा
  • विष्णु पुराण में सतभक्ति से पित्तरों के उद्धार का एक अन्य प्रमाण
  • कबीर परमेश्वर द्वारा श्राद्ध कर्म के भ्रम का खंडन
  • सिख धर्म प्रवर्तक गुरुनानक देव जी द्वारा श्राद्ध का खंडन
  • संत गरीबदास जी द्वारा श्राद्ध कर्म का खंडन
  • संत रामपाल जी महाराज द्वारा श्राद्ध कर्म के भ्रम का खंडन
  • मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
  • सतगुरु की पहचान

श्राद्ध कर्म/पितृ पक्ष क्या है?

श्राद्ध संस्कृत के दो शब्दों से बना है- 'श्रत्' जिसका अर्थ है सत्य या निष्ठा और 'धा' जिसका अर्थ है 'किसी के मन को निर्देशित करना'। सामूहिक रूप से श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया हुआ वह संस्कार, जिससे पितृ संतुष्टि प्राप्त करते हैं। जबकि पितृ पक्ष का पालन 16 दिन किया जाता है, जिसकी शुरुआत भाद्रपद मास की पूर्णिमा से होती है और अंत अश्विन मास की अमावस्या यानी 'सर्वपितृ अमावस्या' के साथ होती है।

वहीं लोक मान्यताओं के अनुसार, श्राद्ध के समय पिण्डदान, तर्पण और पशुओं को खिलाना सामान्य प्रथा है। श्राद्ध के समय यदि कौआ (कौवा) श्राद्ध का भोजन खाता है, तो यह माना जाता है कि स्वर्ग में वह भोजन पितृजनों तक पहुँच गया और उन्हें संतुष्टि मिल गई। अब ऐसे में विचार करने वाली बात है:

  • क्या पितृ सचमुच स्वर्ग में रहते हैं?
  • क्या स्वर्ग में पितृ भूखे रहते हैं?
  • यदि यह सत्य है तो प्रश्न उठता है कि क्या स्वर्ग में भोजन की कमी है जो उन्हें भोजन देने की आवश्यकता पड़ी?
  • यदि स्वर्ग में भोजन, पानी की इतनी कमी है तो साधक भक्ति करके स्वर्ग पाने की इच्छा क्यों करते हैं?
  • क्या पितृों को साल में एक बार भोजन कराने से वे साल भर के लिए पूरी तरह तृप्त हो सकते हैं? जबकि जब वे जीवित थे तो दिन में 3-4 बार भोजन करते थे।
  • क्या हम यह मान लें कि हमारे सभी पूर्वजों ने कौवे के रूप में पुनर्जन्म लिया है और यदि उन्हें भोजन दिया जाता है तो इसका मतलब है कि ऐसा करने से हमारे पूर्वज संतुष्ट होते हैं?
  • यदि श्राद्ध संबंधी सभी अनुष्ठान करने के बाद भी हमारे पूर्वजों को शांति नहीं मिलती है और उनकी आत्माएं उनके परिवारों को पीड़ा देती रहती हैं, तो इन अनुष्ठानों को करने का क्या मतलब है?
  • क्या श्राद्ध करने से पितृों को मुक्ति मिल जाती है?

पाठकों, सच तो यह है कि श्राद्ध कर्म के संबंध में हिंदू धर्म में जो भी मान्यता चल रही है उसका हमारे पवित्र ग्रंथों में कोई प्रमाण नहीं है। ये सिर्फ झूठे धर्म गुरुओं ने अपनी रोजी रोटी चलाने के चक्कर में, इसे एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा बताकर भोले-भाले भक्तों को बेवकूफ बना रखा है। क्योंकि श्राद्ध कर्म पूरी तरह से मनमाना आचरण होने के कारण व्यर्थ और झूठी साधना है।

 

इस सन्दर्भ में हमारे पवित्र ग्रंथ भी प्रमाण देते हैं। जैसे पवित्र गीता जी के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में गीता ज्ञानदाता ने स्पष्ट किया है कि जो साधक शास्त्रविरुद्ध मनमानी पूजा या साधना, जैसे पितृपूजा, श्राद्ध या पिंडदान, तीर्थों के चक्कर काटना, मूर्ति पूजा, भैरव भूत पूजा आदि करता है तो उसको ना तो कोई सुख की प्राप्ति होती है, ना उसकी गति होती है और ना ही उसका मोक्ष होता है।

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श्राद्ध अनुष्ठान का महत्व क्या है?

जो लोग श्राद्ध, पिंडदान आदि अनुष्ठान इस विश्वास के साथ करते हैं कि वे पूर्वजों की दिवंगत आत्माओं को प्रसन्न कर रहे हैं। वह ऐसा सोचते हैं कि श्राद्ध करने से उनके पितृ तृप्त होते हैं और बदले में उनके परिवार में सुख, सुरक्षा और पोषण प्रदान करते हैं जो कि केवल एक भ्रममात्र है। यह नकली धर्म गुरुओं द्वारा भोले भाले लोगों को ठगने के लिए बनाया गया बहुत बड़ा जाल है। इसमें भोले भक्त उन मूर्खों पर विश्वास करके अपने स्वर्णरूपी जीवन को नष्ट कर लेते हैं। सच तो ये है कि श्राद्ध पूजा का कोई शास्त्रीय प्रमाण है ही नहीं। इस सन्दर्भ में आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है:

“जीवित बाप से लठ्ठम-लठ्ठा, मूवे गंग पहुँचईयाँ।

जब आवै आसौज का महीना, कऊवा बाप बणईयाँ।।

रै भोली-सी दुनिया, सतगुरू बिन कैसे सरियाँ।”

अर्थात ज्यादातर व्यक्ति जब तक माता-पिता जीवित होते हैं, तब तक तो उनके साथ नेक व्यवहार यानी प्यार व सम्मान के साथ कपड़ा-रोटी भी नहीं देते और मृत्यु के उपरांत माता-पिता के प्रति श्रद्धा दिखाते हैं। अर्थात मृत्यु उपरांत उनके शरीर को चिता पर जलाकर जो कुछ हड्डियाँ बिना जली छोटी-छोटी रह जाती हैं। शास्त्र नेत्रहीन गुरूओं से भ्रमित पुत्र उन अस्थियों को उठाकर हरिद्वार में अपने कुल के पुरोहित (पंडित) के पास ले जाता है। उस पुरोहित (पंडित/ब्राह्मण) द्वारा शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करके उन अस्थियों को पवित्र गंगा दरिया (नदी) में बहा दिया जाता है। जो धनराशि पुरोहित माँगते हैं, वे खुशी-खुशी दे देते हैं। कारण यह होता है कि कहीं पिता या माता जी मृत्यु के उपरांत भूत (प्रेत) बनकर घर में न आ जाएँ। इसलिए उनकी गति (मुक्ति) करवाने के लिए कुलगुरू पंडित (पुरोहित) जी को मुँह माँगी धनराशि देते हैं। फिर पुरोहित के बताये अनुसार बच्चे अपने घर की चौखट में लोहे की मेख (मोटी कील) गाड़ देते हैं कि कहीं पिता या माता जी की गति होने में कुछ कमी रह जाए और वे प्रेत बनकर हमारे घर में न घुस जाऐं। फिर वे आसौज (अश्विन) महीने में उन्हें कौवा बनाकर उनके श्राद्ध निकालते हैं।

परमात्मा कहा करते थे जब आपने कौवा ही बना दिया तो फिर आपके माता-पिता की गति कैसे हुई। बिना सतगुरु और सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान के भोले श्रद्धालु अज्ञानी धर्मगुरुओं के भ्रमित किये हुए इस प्रकार की व्यर्थ साधना करके अपना जीवन नरक बना लेते हैं और 84 लाख योनियों में भूत, प्रेत, गधे, कुत्ते आदि की योनि भोगकर महाकष्ठ के भागी बन जाते हैं।

पुराणों का ज्ञान ऋषियों का अनुभव है, भगवान का आदेश नहीं

हम सभी जानते हैं कि चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) और श्रीमद्भगवद्गीता (चारों वेदों का संक्षिप्त रूप) में भगवान द्वारा दिया गया ज्ञान है। जिसमें परमात्मा का विधान लिखा है। जबकि 18 पुराणों का ज्ञान ऋषियों का अपना अनुभव है जो वेद, गीता के ज्ञान से मिलता है वह तो सही है। बाकी वेद विरुद्ध ज्ञान व्यर्थ है। जिसे गीता ज्ञान दाता ने पवित्र गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 में स्पष्ट किया है कि हे अर्जुन! यह योग यानि चारों वेदों (श्रीमद्भगवद्गीता) वाला ज्ञान मैंने सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकू को कहा। इसके पश्चात् यह ज्ञान कुछ राजऋषियों ने समझा। उसके पश्चात् यह ज्ञान लुप्त हो गया।

जोकि "जैन संस्कृति कोष" नामक पुस्तक के पृष्ठ 175-177 से स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव अंतिम कुलकर अयोध्या के राजा इक्ष्वाकूवंशी नाभिराज के पुत्र थे। समय आने पर ऋषभदेव जी (जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर) ने अपने पुत्रों को उनकी योग्यतानुसार राज्य सौंपकर राज्य त्याग दिया और दीक्षा (नाम उपदेश) लेकर साधना में लीन हो गये। साधना काल में ऋषभदेव एक वर्ष तक निराहार (भूखे रहे यानी व्रत किया) रहे और लगातार 1000 वर्ष तक तपस्या की। जबकि पवित्र गीता अध्याय 6 श्लोक 16 और अध्याय 17 श्लोक 5-6 में व्रत, उपवास और हठयोग यानी तपस्या को मना किया गया है।

गीता जी के उल्लेख से स्पष्ट है कि इक्ष्वाकू वंशी नाभि राज तक वेदों यानि गीता वाले ज्ञानानुसार पूजा की जाती थी। लेकिन उसके पुत्र ऋषभदेव जी से शास्त्रविरुद्ध मनमाना आचरण प्रारंभ हुआ और उसी समय से यह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण सब ऋषिजन करने लगे। क्योंकि राजा नाभिराज तक सत्ययुग लगभग एक लाख वर्ष व्यतीत हो गया था। गीता का ज्ञान द्वापर के अंत में यानि कलयुग से लगभग 100 वर्ष पहले बोला गया था। यदि गणित की रीति से देखें तो नाभिराज के बाद यह गीता का ज्ञान 37,87,900 वर्ष बाद बोला गया। इस दौरान सभी ऋषियों ने वेदों के विपरीत साधना की, जिसका परिणाम 18 पुराण हैं।

जिसकी झलक हमें विष्णु पुराण और मार्कण्डेय पुराण में भी देखने को मिलती है। विष्णु पुराण के वक्ता ने श्रीकृष्ण की मृत्यु का उल्लेख विष्णु पुराण के भाग 5, अध्याय 37, पृष्ठ 413-415 में किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि विष्णु पुराण उससे पहले उपलब्ध नहीं था। क्योंकि ऋषिजन मौखिक रूप से ही भक्ति साधना को बताते थे जोकि वेदों के विरुद्ध थी। यहीं वजह है कि विष्णु पुराण के वक्ता महर्षि पारासर को को गीता अर्थात वेदों वाला ज्ञान नहीं था। यहीं वजह है कि ऋषि पारासर (पराशर) ने विष्णु पुराण के तीसरे भाग, अध्याय 14-16, पृष्ठ 206-215 में पितृ पूजा अर्थात श्राद्ध करने की राय दी है। जबकि वेदों और श्रीमद्भगवत गीता में श्राद्ध, भूत (प्रेत) पूजा और देवताओं की पूजा आदि को स्पष्ट रूप से मना किया गया है।

मार्कण्डेय पुराण में पित्तरों की दुर्गति का प्रमाण

संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण के पृष्ठ 90, मदालसा वाले प्रकरण में लिखा है "जो पित्तर देवलोक में हैं, जो तिर्यग्योनि में पड़े हैं, जो मनुष्य योनि में एवं भूतवर्ग में अर्थात् प्रेत बने हैं, वे पुण्यात्मा हों या पापात्मा जब भूख-प्यास से तड़फते हैं तो उन्हें पिण्डदान तथा जलदान द्वारा तृप्त किया जाता है।

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यहां सोचने वाली बात है कि शास्त्रविरुद्ध मनमानी पूजा (देवी-देवताओं की, पित्तरों की, भूतों की पूजा) करके प्राणी पित्तर व भूत बने। फिर वे देवी-देवताओं की पूजा करके देवलोक में चले गए और फिर वहां अपने पुण्यों के समाप्त करके पित्तर रूप में रहते हैं। फिर वे चाहे यमलोक में हों या प्रेत बने हों, सर्व कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अब जो उनकी पूजा करेगा वह भी इसी कष्टमयी योनि को प्राप्त होगा। इसलिए सर्व मानव समाज को शास्त्रविधि अनुसार साधना करनी चाहिए। जिससे उन पित्तरों की पित्तर योनि छूट जाएगी तथा साधक भी पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगा।

मार्कण्डेय पुराण में श्राद्ध कर्म के विषय में विवरण

मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) में अध्याय "श्राद्ध कर्म का वर्णन” पृष्ठ 100 पर लिखा है, ‘जो प्रपितामह के ऊपर के तीन पीढ़ीयाँ जो नरक में निवास करती हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत-प्रेत आदि के रूप में स्थित हैं। उन सब को विधि पूर्वक श्राद्ध करने वाला यजमान तृप्त (संतुष्ट) करता है। पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं (श्राद्ध कर्म करते समय) उससे पिशाच योनि में पड़े पित्तरों की तृप्ति होती है। स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्ष योनि में पड़े हुए पित्तर तृप्त होते हैं। नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं उनसे उन पित्तरों की तृप्ति होती है जो देव भाव को प्राप्त हुए हैं। पिण्डों के उठाने पर जो अन्न के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पित्तरों की तृप्ति होती है। अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध किया जाता है, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पित्तरों की तृप्ति होती है।’

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पाठक जन विचार करें, उपरोक्त योनियों में जो अपने पूर्वज पड़े हैं। उसका मूल कारण है कि उन्होंने शास्त्रविधि अनुसार भक्ति नहीं की, जिससे वे पित्तर योनि में महाकष्ट उठा रहे हैं। यदि वे पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करते तो उपरोक्त महाकष्ट दायक योनियों में नहीं पड़ते।

विष्णु पुराण में श्राद्ध के विषय में क्या बताया गया है?

1. श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 14, श्लोक 10 से 14 में श्राद्ध के विषय में श्री सनत्कुमार ने कहा है कि “तृतीया, कार्तिक, शुक्ला नौमी, भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी तथा माघमास की अमावस्या ये चारों तिथियाँ अनन्त पुण्यदायीनि हैं। चन्द्रमा या सूर्य ग्रहण के समय तीन अष्टकाओं अथवा उत्तरायण या दक्षिणायन के आरम्भ में जो पुरूष एकाग्रह चित से पित्तर गणों को तिल सहित जल भी दान करता है वह मानो एक हजार वर्ष तक के लिए श्राद्ध कर लेता है। यह परम रहस्य स्वयं पित्तर गण ही बताते है।" विचार करें उपरोक्त श्राद्ध विधि पित्तरों के द्वारा बताई गई है, न की वेदों या श्रीमद्भगवत् गीता के आधार पर है।

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2. श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश, अध्याय 16 के श्लोक 11 में लिखा है:

“क्षीरमेकशफाना यदौष्ट्रमाविकमेव च। मार्ग च माहिष चैव वर्जयेच्छाकमर्माणि।।”

हिंदी अनुवाद: एक खुरवालों का, ऊंटनी का, भेड़ का मृगी का तथा भैंस का दूध श्राद्धकर्म में प्रयोग न करें। अब विचार करें, सर्व व्यक्ति श्राद्धों में भैस के दूध का ही प्रयोग कर रहे हैं जो पुराण में वर्जित है। जिस कारण से उनके द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म भी व्यर्थ हुआ।

3. श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 16 के श्लोक 1-3 में लिखा है:

हविष्यमत्स्य मांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च। सौकरछाग लैणेयरौरवैर्गवयेन च।।(1)

और भ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्धया पिता महाः।।(2)

खडगमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु। शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर।।(3)

हिन्दी अनुवाद :- हवि, मत्सय (मच्छली) शशंक (खरगोश) नकुल, शुकर (सुअर), छाग, कस्तूरिया मृग, काला मृग, गवय (नील गाय/वन गाय) और मेष (भेड़) के मांसों से गव्य (गौ के घी, दूध) से पित्तरगण एक-एक मास अधिक तृप्त रहते हैं और वार्धीणस पक्षी के मांस से सदा तृप्त रहते हैं। (1-2) श्राद्ध कर्म में गेड़े का मांस काला शाक और मधु अत्यंत प्रशस्त और अत्यंत तृप्ती दायक है।। (3) वहीं श्री विष्णु पुराण अध्याय 2 चतुर्थ अंश पृष्ठ 233 पर भी श्राद्ध कर्म में मांस प्रयोग का प्रमाण स्पष्ट है।

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पाठक जनों को बता दें उपरोक्त श्लोक 1-2 के अनुवाद कर्ता ने कुछ अनुवाद को घुमा कर लिखा है। क्योंकि मूल संस्कृत भाषा में स्पष्ट गाय का मांस श्राद्ध कर्म में प्रयोग करने को कहा गया है। इसलिए अनुवाद कर्ता ने गव्य अर्थात् गौ के मांस के स्थान पर कोष्ठक में "गौ के घी दूध से" लिखा है। अब यहां सोचने वाली बात है कि क्या यह उपरोक्त मांस द्वारा श्राद्ध करने का आदेश अर्थात् प्रावधान न्याय संगत हो सकता है? क्या हिन्दू धर्म उपरोक्त मांस आहार को श्राद्ध कर्म में प्रयोग कर सकता है। जिसका सीधा उत्तर होगा कभी नहीं। वहीं उपरोक्त पुराण के आदेशानुसार श्राद्ध कर्म करने से पुण्य के स्थान पर पाप ही प्राप्त होगा। इसलिए पुराणों में वर्णित भक्तिविधि तथा पुण्य साधना कर्म शास्त्रविरुद्ध है। जो लाभ के स्थान पर हानिकारक है।

वेद और श्रीमद्भगवत गीता में पितृ पूजा (श्राद्ध) करना निषेध है

जिसका प्रमाण वेदों के संक्षिप्त रूप गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में बताया गया है। जिसमें गया गया है कि जो प्रेत पूजा करते हैं {जैसे कि मृतक की हड्डियाँ चुनना, तेरहवीं, सतरहवीं, मासिक अनुष्ठान, पिंडदान, श्राद्ध कर्म (पितृ पूजा) आदि जिसका उल्लेख विष्णु पुराण के तीसरे भाग, अध्याय 13, श्लोक 1-41 पृष्ठ संख्या 203-206 में है} वे प्रेत बनेंगे अर्थात वे भूत बनकर अपने पूर्वजों के पास जाएंगे। वहीं, जो देवताओं को पूजते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होंगे। अर्थात उन्हें स्वर्ग में धार्मिक क्रियाओं का फल मिलेगा और बाद में नरक के कष्ट का सामना करना पड़ेगा और उसके बाद वे अन्य प्राणियों के जीवन में कष्ट उठायेंगे।

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मार्कण्डेय पुराण में श्राद्ध निकालना 'अविद्या' क्यों कहा गया है?

अठारह पुराणों में से एक मार्कण्डेय पुराण गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित के पृष्ठ 250-251 (पुराने संस्करण में पृष्ठ 242-243) पर ‘‘रौच्य ऋषि के जन्म की कथा” में श्राद्ध के विषय में एक कथा का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा है कि एक रुची (रुचि) नामक ऋषि था। वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदों अनुसार साधना करता था। विवाह नहीं कराया था। वह जब 40 वर्ष का हुआ तब उसे अपने चार पूर्वज पिता, दादा, परदादा तथा तीसरे दादा दिखाई दिए जो मनमाना आचरण शास्त्र विरुद्ध साधना करके पितृ भूत योनि में भूखे-प्यासे भटक रहे थे। एक दिन उन चारों ने रुची ऋषि को दर्शन दिए तथा कहा कि आप ने विवाह क्यों नहीं किया। विवाह करके हमारे श्राद्ध करता। रुची ऋषि ने कहा कि हे पितामहो! वेद में श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण आदि कर्म को अविद्या अर्थात मूर्खों का कार्य कहा गया है। फिर आप मुझे इस शास्त्रविरुद्ध कर्म को करने को क्यों कह रहे हो? पित्तरों ने कहा कि पुत्र यह बात सत्य है कि श्राद्ध, पिंडदान आदि कर्म को वेदों में अविद्या अर्थात् मूर्खों का कर्म ही कहा गया है।

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जिससे स्पष्ट है कि पितृ खुद मान रहे हैं कि पितृपूजा वेदों के विरुद्ध है। क्योंकि श्राद्ध, पिंडदान करने का आदेश वेदों में नहीं है। पुराणों में आदेश किसी ऋषि विशेष का है जोकि वह अपने स्वयं के विचारों के अनुसार पितृ, भूत या अन्य देव पूजने को कह रहा है, जोकि शास्त्र वेद व गीता के विरुद्ध होने के कारण अमान्य है। इसलिए हम संत या ऋषि के कहने से वेदों की आज्ञा का उल्लंघन करने से परमात्मा के दोषी होकर सजा के भागी होते हैं। वहीं गीता अध्याय 16 श्लोक 23 से यह भी सिद्ध होता कि श्राद्ध, पिंडदान करने से पितृों की मुक्ति संभव नहीं है।

सूक्ष्मवेद ‘कबीर सागर’ में रुचि ऋषि की कथा और श्राद्ध कर्म वर्जित

परमेश्वर कबीर जी ने पवित्र कबीर सागर के 25वें अध्याय-उग्र गीता में अपने प्रिय शिष्य आदरणीय धर्मदास जी को तत्वज्ञान में समझाया तथा बताया कि धर्मदास:

मार्कण्डे एक पुराण बताई। वामें एक कथा सुनाई ।।

रूची ऋषी वेद को ज्ञानी। मोक्ष मुक्ति मन में ठानी।।

दिन एक पितृ सामने आए। उन मिल ये वचन फरमाए।।

बेटा रूची हम महा दुःख पाए। क्यों नहीं हमरे श्राद्ध कराए।।

रूची कह सुनो प्राण पियारो। मैं बेद पढ़ा और ज्ञान विचारो।।

बेद में कर्मकाण्ड अविद्या बताई। श्राद्ध करे पितृ बन जाई।।

कहें पितृ बात तोरी सत है। वेदों में कर्मकाण्ड अविद्या कथ है।।

तुम तो मोक्ष मार्ग लागे। हम महादुःखी फिरें अभागे।।

विचार करो धर्मनी नागर। पीतर कहें वेद है सत्य ज्ञान सागर।।

वेद विरुद्ध आप भक्ति कराई। तातें पितृ जूनी पाई।।

रूची विवाह करवाकर श्राद्ध करवाया। करा करवाया सबै नाशाया।।

यह सब काल जाल है भाई। बिन सतगुरू कोई बच है नाहीं।।

या तो बेद पुराण कहो है झूठे। या पुनि तुमरे गुरू हैं पूठे।।

शास्त्र विरूद्ध जो ज्ञान बतावै। आपन बूडै शिष डूबावै।।

डूब मरै वो ले चुलु भर पाणी। जिन्ह जाना नहीं सारंगपाणी।।

श्राद्ध करने से मुक्ति प्राप्त क्यों नहीं हो सकती?

तत्वज्ञान के अभाव में कुछ भोले श्रद्धालु जन कहते हैं कि "यदि किसी के माता-पिता (पितृ) भूखे हों और वे प्रकट होकर कहते हैं कि पुत्र हमारे श्राद्ध कर दो तो वह पुत्र नहीं है जो उनकी इच्छा पूरी न करे?” पाठकों यहां सोचने की बात है कि यदि किसी का बच्चा कुएं में गिर गया है और चिल्ला रहा है कि पिता जी मुझे बचा लो। तो वह पिता मूर्ख ही होगा जो भावुक होकर अपने पुत्र को बचाने के लिए नेक इरादे से पानी में कूद पड़े और डूबकर मर जाए। उससे तो वह बच्चे को भी नहीं बचा पाएगा। ऐसे में उसे एक लंबी रस्सी की व्यवस्था करनी चाहिए और फिर उसे कुएं में डाल बच्चे को रस्सी पकड़ाकर कुएं से बाहर खींचना चाहिए। जोकि समझदारी का कार्य है।

इसी प्रकार शास्त्रोक्त पूजा को त्यागकर मनमानी पूजा करके पूर्वज पितृ बन गये हैं। वे बच्चे को भी पितृ बनने के लिए घसीट रहे हैं। तो बच्चों को भावनाओं में बहकर शास्त्रानुकूल साधना को छोड़ शास्त्रविरुद्ध पितृ पूजा, श्राद्ध करना नहीं करना चाहिए। आपने ऊपर रुचि ऋषि की कथा में पढ़ा कि पितृों को डर रहता है कि यदि हमारा श्राद्ध नहीं करेंगे तो पितृ जीवन (भूत योनि) खत्म हो जाएगी अर्थात हम मर जाएंगे। इसलिए उन्हें पितृ जीवन अर्थात भूत योनि पसंद है जो अत्यधिक कष्टदायक होती है। फिर भी वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। यह काल ब्रह्म का बहुत बड़ा जाल है जिसे भोले-भाले साधकों को समझने की आवश्यकता है। जीवात्माएँ अज्ञानतावश अपने कर्मों के कारण 84 लाख योनियों के जीवन प्राप्त करती हैं और फिर वह वहीं रहना चाहती हैं और छोड़ना नहीं चाहतीं। इस विषय में सूक्ष्मवेद में कहा गया है:

गरीब, भूत योनि छूटत है, पिंड प्रदान करंत।

गरीबदास जिंदा कह, नहीं मिले भगवंत।।

अर्थात् आदरणीय संत गरीबदास जी ने सूक्ष्मवेद में बताया है कि श्राद्ध, पिंड दान करने से भूत योनि छूट जाती है। लेकिन परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। अर्थात भूत-पित्तर योनि छूट गई, फिर कुत्ता या गधा बन गया। क्या खाक गति हुई?

एक बार एक ऋषि को अपने भविष्य के जन्म के बारे में पता चला। उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि मेरा अगला जन्म अमुक व्यक्ति के घर की सुअरी से होगा। जिस सुअरी से मेरा जन्म होगा उसकी पहचान यह होगी कि उसके गले में एक गांठ होगी। मैं उसी की कोख से सूअर का जन्म लूंगा और मेरी पहचान यह होगी कि मेरे सिर पर एक गांठ होगी। तो ऋषि ने कहा, “पुत्रों! उस व्यक्ति से मुझे खरीदकर, मुझे मारकर मुक्ति दिला देना।” बच्चे सहमत हो गये। आंखों में आंसू भरते हुए वह ऋषि फिर बोला, “बच्चों, लालच के कारण यदि तुम मुझे खरीदकर नहीं मारोगे तो मुझे सूअर के जीवन में महान कष्ट सहना पड़ेगा, इसलिए तुम इस काम को अवश्य पूरा करना।” बच्चों ने ऋषि को पूरा विश्वास दिलाया कि पिता जी आप चिंता न करो, आपका ये काम हम जरूर पूरा करेंगे।

कुछ समय बाद, ऋषि की मृत्यु हो गई और ऋषि के बताए अनुसार उनका सूअर का जन्म हुआ, उसके सिर पर एक गांठ थी। उस ऋषि के बच्चों ने वह सूअर खरीद लिया और जब उस ऋषि के पुत्र सूअर को मारने लगे तो सूअर ने कहा, “मुझे मत मारो, मेरा जीवन नष्ट करके तुम्हें क्या मिलेगा?” तब उस ऋषि के पूर्व जन्म के पुत्रों ने कहा, “पिताजी! आपने ही हमें निर्देश दिया था।” तब सूअर के जीवन वाले उस ऋषि ने कहा, “मैं तुमसे हाथ जोड़कर विनती करता हूं कि मुझे मत मारो। मेरा दिल अपने भाइयों (अन्य सूअरों) के साथ लग रहा है। मेरी जान बख्श दो।” ऋषि के बच्चों ने सुअर के बच्चे को छोड़ दिया और मारा नहीं। इसी प्रकार जीव जिस भी योनि में जन्म लेता है, उसे त्यागना नहीं चाहता। जबकि सभी का शरीर एक दिन खत्म हो जाएगा। इसलिए भावनाओं में न बहकर विवेक से काम लेना चाहिए।

वहीं विष्णु पुराण में श्राद्ध परंपरा एक मिथ्या है जिसका खंडन विष्णु पुराण स्वयं करता है। चलिए हम इसका विस्तृत अध्ययन करते हैं।

विष्णु पुराण, सतभक्ति करने से होता है हमारा और हमारे पित्तरों का उद्धार

गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, विष्णु पुराण के तृतीय अंश, अध्याय 15 श्लोक 13-17 पृष्ठ 210 पर लिखा है कि देवताओं के निमित्त श्राद्ध (पूजा) में अयुग्म संख्या (3, 5, 7, 9 की संख्या) में ब्राह्मणों को एक साथ भोजन करायें तथा उनका मुँह पूर्व की ओर बैठाकर भोजन करायें तथा पित्तरों के लिए श्राद्ध (पूजा) करने के समय युग्म संख्या (2, 4, 6, 8 की संख्या) में उत्तर की ओर मुख करके बैठाएं तथा भोजन करायें।

जबकि विष्णु पुराण के तृतीय अंश, अध्याय 15, श्लोक 55-56 पृष्ठ 213 में और्व ऋषि राजा सागर से कह रहे हैं कि, “हे राजन् श्राद्ध करने वाले पुरूष से पित्तरगण, विश्वदेव गण आदि सर्व संतुष्ट हो जाते हैं। हे भूपाल! पित्तरगण का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग अर्थात शास्त्रानुकूल भक्ति है। इसलिए श्राद्ध में योगी जन (तत्वज्ञान अर्थात शास्त्रविधि अनुसार साधक जन) को अवश्य बुलाए यदि श्राद्ध में एक हजार ब्राह्मण भोजन कर रहे हों और उनके सामने एक योगी (शास्त्रानुकूल साधक) भी हो तो वह उन एक हजार ब्राह्मणों का भी उद्धार कर देता है तथा यजमान का भी उद्धार कर देता है।”

यहां पित्तरों का उद्धार का अर्थ है कि पित्तर योनि छूटकर उन्हें मानव शरीर प्राप्त होगा। यजमान तथा ब्राह्मणों के उद्धार से तात्पर्य है कि योगी (शास्त्रानुकूल साधक) उनको सत्य साधना का उपदेश करके मोक्ष का अधिकारी बनाएगा। तो श्राद्ध करने से अच्छा है कि हम क्यों न एक योगी अर्थात शास्त्रानुकूल भक्ति करने वाले साधक की खोज करें जिससे सर्व लाभ हो सकता है। तो प्रश्न उठता है कि योगी कौन होता है? तो इसका जबाब हमें पवित्र गीता जी में ही मिलता है।

योगी की परिभाषा

गीता अध्याय 2 श्लोक 53 में गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि हे अर्जुन! जिस समय आप की बुद्धि भिन्न-भिन्न प्रकार के भ्रमित करने वाले ज्ञान से हटकर एक तत्वज्ञान पर स्थिर हो जाएगी, तब तू योगी बनेगा अर्थात् भक्त बनेगा (योग को प्राप्त होगा)।

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अर्थात् जो सच्ची भक्ति करता है वही मोक्ष पाने का अधिकारी बनता है। क्योंकि वो सतभक्ति से इतना भक्ति रूपी धन इकट्ठा कर लेता है जिसे वो मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है। यही प्रमाण परमेश्वर कबीर जी ने भी दिया है,

"कबीर, भक्ति बीज जो होये हंसा,

तारूं तास के एक्कोतर बंशा।

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

माली सीचें मूल को, फलै फूलै अघाय।।"

विष्णु पुराण में सतभक्ति से पित्तरों के उद्धार का एक अन्य प्रमाण

यही प्रमाण विष्णु पुराण के तृतीय अंश, अध्याय 14 श्लोक 20-31 पृष्ठ 209 में भी लिखा है कि जिसके पास श्राद्ध करने के लिए धन नहीं है तो वह यह कहे "हे पित्तर गणों! आप मेरी भक्ति से तृप्ति लाभ प्राप्त करें, क्योंकि मेरे पास श्राद्ध करने के लिए वित्त नहीं है।"

यहां सोचने वाली बात है कि जब पितृ सत्यभक्ति से तृप्त हो जाते हैं तो हमें अन्य अनुष्ठानों की क्या आवश्यकता है?

यह सब अज्ञानी गुरुओं ने केवल अपने उदर पोषण के लिए पाखण्ड फैलाया है। क्योंकि गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में भी लिखा है द्रव्य (धन द्वारा किया) यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान) से ज्ञान यज्ञ (तत्वज्ञान आधार पर नाम जाप साधना) श्रेष्ठ है।

दूसरा विचारणीय विषय है कि विष्णु पुराण में मृत पित्तर व देवताओं की पूजा करने का आदेश ऋषि का है तथा वेदों व गीता जी में पित्तरों व देवताओं की पूजा वर्जित है जो कि काल ब्रह्म का आदेश है। यदि पुराणों के अनुसार साधना की जाती है तो यह भगवान के आदेश की अवहेलना है जिसके कारण साधक को दंड का भागी बनना पड़ता है।

जैसा कि एक बार एक आदमी की दोस्ती एक थानेदार से हो गई। उस आदमी ने अपने मित्र से कहा कि मेरा पड़ोसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार ने कहा, “उसे डंडे से मार देना। बाकी मैं खुद ही उससे निपट लूंगा।” थानेदार दोस्त का आदेश मानते हुए उस आदमी ने अपने पड़ोसी पर डंडे से वार कर दिया। सिर में चोट लगने के कारण उसके पड़ोसी की मौत हो गई। उस क्षेत्र का अधिकारी होने के नाते उस थानेदार ने अपने मित्र को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। उस आदमी को मौत की सज़ा मिली। उसका थानेदार मित्र उसकी किसी प्रकार सहायता नहीं कर सका। क्योंकि राजा का संविधान था कि यदि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्युदंड मिलेगा। उस मूर्ख व्यक्ति ने अपने थानेदार मित्र के आदेश का पालन करके राजा के संविधान का उल्लंघन किया और परिणामस्वरूप उसे अपनी जान गवानी पड़ी।

इसी प्रकार पवित्र गीता जी तथा पवित्र वेद ईश्वर का संविधान हैं जिसमें एक ही पूर्ण परमात्मा की पूजा का निर्देश है और अन्य देवताओं, पित्तरों, भूतों की पूजा वर्जित है। पुराणों में ऋषियों (थानेदार) का आदेश है। उनकी आज्ञा का पालन करने तथा ईश्वर के संविधान का उल्लंघन करने से मनुष्य को एक के बाद एक कष्ट सहने पड़ते हैं। अतः अन्य देवताओं, पित्तरों की मनमानी पूजा पूर्ण मोक्ष तो सपने में भी नहीं दे सकती।

कबीर परमेश्वर द्वारा श्राद्ध कर्म के भ्रम का खंडन

एक समय काशी (बनारस) में गंगा नदी के घाट पर कुछ पंडित जी श्राद्धों के दिनों में अपने पित्तरों को जल अर्पण करने के उद्देश्य से गंगा के जल का लोटा भरकर पटरी पर खड़े होकर सुबह के समय सूर्य की ओर मुख करके पृथ्वी पर लोटे वाला जल गिरा रहे थे। तब जानीजान परमात्मा कबीर जी ने उन पंडितों से पूंछा कि आप यह क्या कर रहे तो उन्होंने बताया कि हम अपने पूर्वजों को जो पित्तर बनकर स्वर्ग में निवास कर रहे हैं, जल दान कर रहे हैं। यह जल हमारे पित्तरों को प्राप्त हो जाएगा।

यह सुनकर परमेश्वर कबीर जी उनका अंधविश्वास समाप्त करने के उद्देश्य से उसी गंगा नदी में घुटनों पानी में खड़ा होकर दोनों हाथों से गंगा नदी का जल सूर्य की ओर पटरी पर तेजी से फेंकने लगे। यह देखकर सैंकड़ों पंडित तथा सैकड़ों नागरिक इकट्ठे हो गए। पंडितों ने पूछा कि हे कबीर जी! आप यह कौन-सी क्रिया कर रहे हो? कबीर जी ने कहा कि यहाँ से एक मील यानी 1½ कि.मी. दूर मेरी कुटी (झोपड़ी) के आगे मैंने एक बगीची लगा रखी है। उसकी सिंचाई के लिए यह क्रिया कर रहा हूँ। यह जल मेरी बगीची की सिंचाई कर रहा है।

यह सुनकर सर्व पंडित हँसने लगे और बोले कि यह कभी संभव नहीं हो सकता। यहां से एक मील दूर यह जल कैसे जाएगा? यह तो यहीं रेत में समा गया है। तब कबीर जी ने कहा कि यदि आपके द्वारा गिराया जल करोड़ों मील दूर स्वर्ग में जा सकता है तो मेरे द्वारा गिराए जल को एक मील जाने पर कौन-सी आश्चर्य की बात है? यह बात सुनकर पंडित जी समझ गए कि हमारी क्रियाएँ व्यर्थ हैं। जिसके बाद कबीर जी ने कहा कि आप एक ओर तो कहते हो कि आपके पित्तर स्वर्ग में हैं। दूसरी ओर कह रहे हो, उनको पीने का पानी नहीं मिल रहा। वे वहाँ प्यासे हैं। उनको सूर्य को अर्ध देकर जल भेज रहे हैं। यदि स्वर्ग में पीने के पानी का ही अभाव है तो उसे स्वर्ग नहीं कह सकते।

संत गरीबदास जी द्वारा श्राद्ध कर्म का खंडन

संत गरीबदास जी महाराज (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रांत-हरियाणा) को दस वर्ष की आयु में सन् 1727 (विक्रमी संवत् 1784) में जिंदा बाबा के वेश में परम अक्षर ब्रह्म कबीर साहेब मिले थे। जिनकी आत्मा को निकालकर परमात्मा सतलोक ले गए। ऊपर के सब लोकों को दिखाकर परमेश्वर कबीर जी ने उनको यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान दिया। जिसके बाद उनके बहु संख्या में शिष्य हो गए थे। लेकिन गाँव छुड़ानी के एक भक्त को संत गरीबदास जी की बात पर विश्वास नहीं था कि श्राद्ध करा हुआ मृतक को नहीं मिलता। जिस कारण से उस भक्त ने श्राद्धों के दिनों में अपने माता-पिता के श्राद्ध लगातार दो दिन पहले दिन माता जी का और अगले दिन पिता जी का श्राद्ध किया।

संत गरीबदास जी ने कहा कि हे भक्त! आपके माता-पिता तो तुम्हारे खेत की जोहड़ी (छोटा तालाब) पर भूखे रो रहे हैं। आप दो व्यक्तियों का भोजन लेकर मेरे साथ चलो। वह भक्त अतिशीघ्र अपने पिता के श्राद्ध से बची खीर व रोटी दो व्यक्तियों की लेकर संत गरीबदास जी के साथ चला गया। उनके ही खेत में बनी जोहड़ी से लगभग 200 फुट दूर खड़े होकर संत गरीबदास जी ने आवाज लगाई कि हे फतेह सिंह तथा दया कौर (काल्पनिक नाम)! आओ, आपका पुत्र आपके लिए भोजन लाया है। उसी समय गीदड़ तथा गीदड़ी झाड़ियों से बाहर निकले। पहले तो ऊपर को मुख करके चिल्लाए। फिर दौड़े-दौड़े संत गरीबदास जी के पास आए। संत गरीबदास जी ने कहा भक्त अपने दोनों माता-पिता के सामने खीर-रोटी रख दे। उसने भोजन रख दिया, जिसे वे शीघ्र खाकर दौड़ गए। उस दिन उस भ्रमित भक्त का अज्ञान भंग हुआ। जिसके बाद उस भक्त को संत गरीबदास जी पर अटल विश्वास हो गया और उसने आजीवन मर्यादा में रहकर साधना करके जीवन सफल किया।

संत रामपाल जी महाराज द्वारा श्राद्ध कर्म के भ्रम का खंडन

संत रामपाल जी महाराज ने बताया कि मेरे पूज्य गुरुदेव स्वामी रामदेवानन्द जी 16 वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा की खोज में एक दिन अचानक घर से निकल गये। उन्होंने अपने रोज पहनने वाले कपड़े अपने ही खेत के पास घने जंगल में एक मरे हुए जानवर की हड्डियों के पास रख दिए। शाम को घर नहीं पहुंचने कि वजह से परिवार वालों ने जंगल में उनकी तलाश की। रात का समय था, उन्होंने कपड़े पहचान लिये और दु:खी मन से उस जानवर की हड्डियाँ उठा लीं, यह सोचकर कि ये हमारे बच्चे की हड्डियाँ हैं। उन्होंने मान लिया कि बच्चा जंगल में चला गया और शायद किसी हिंसक जानवर ने उसे खा लिया होगा। उन्होंने अंतिम संस्कार किया और तेरहवीं आदि सभी अनुष्ठान किये और श्राद्ध भी करते रहे। 104 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद स्वामी जी अचानक अपने गांव बड़ा पैंतावास, तहसील चरखी दादरी, जिला भिवानी, हरियाणा आ गये। स्वामी जी के बचपन का नाम श्री हरिद्वारी जी था और उनका जन्म पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था।

जब संत रामपाल जी को पता चला तो वे भी उनके दर्शन के लिए वहां पहुंच गए। संत रामपाल जी ने स्वामी जी की भाभी, जिनकी उम्र लगभग 92 वर्ष थी, से पूछा कि हमारे गुरु जी के घर छोड़ने के बाद उन्हें क्या महसूस हुआ। वृद्धा ने बताया कि जब मेरी शादी हुई तो मुझे बताया गया कि मेरे पति का हरिद्वारी नाम का एक भाई था, जिसे जंगल में कोई हिंसक जानवर खा गया उनका श्राद्ध निकाला जा रहा है। मुझे उनका श्राद्ध निकालने के लिए भी कहा गया। वृद्धा ने मुझे बताया कि मैंने अपने हाथों से उसका 70वां श्राद्ध किया है। जब भी फसल खराब होती थी या परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ता था और हम अपने पुरोहित (गुरु जी) से इसका कारण पूछते थे, तो वह हमें बताते थे कि हरिद्वारी पितृ बन गया है और वह तुम्हें परेशान कर रहा है।

श्राद्ध करने में कुछ भूल हो गई है। इस बार मैं सारी रस्में अपने हाथों से निभाऊंगी। पहले मुझे समय नहीं मिलता था, क्योंकि श्राद्ध कर्म करने के लिए एक ही दिन में कई स्थानों पर जाना पड़ता था। इसलिए बच्चे को भेजा था। तब तक कुछ भेंट प्रदान करो ताकि उसे शांत किया जा सके। फिर वो जो भी कहते थे, 21 या 51 रुपये हम डर के मारे चढ़ा देते थे, फिर श्राद्ध के समय गुरु जी (पुरोहित) स्वयं श्राद्ध करते थे।

तब मैंने कहा, माता जी! यह गीता जी के विरुद्ध आचरण अब तो छोड़ दो अन्यथा तुम भी प्रेत बन जाओगे। फिर उन्हें संत रामपाल जी ने गीता अध्याय 9 श्लोक 25 समझाया। तब वह बुढ़िया बोली कि मैं भी गीता पढ़ती हूँ। तब संत रामपाल जी ने कहा कि आपने गीता पढ़ी है लेकिन समझी नहीं है। आगे इस बेकार प्रथा को अब तो बंद कर दो, तो वृद्धा ने उत्तर दिया, नहीं भाई, हम श्राद्ध करना कैसे छोड़ सकते हैं? यह सदियों पुरानी परंपरा है।

मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

मोक्ष प्राप्ति में सतगुरु की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन आज, नकली आध्यात्मिक गुरुओं और उनकी गलत साधना के कारण साधक भवसागर से पार न होकर एक वन रूपी संसार में भटक जाता है और मरने के बाद 84 लाख योनियों में अत्यन्त दुःखदायी असहनीय कष्ट को भोगता है। सूक्ष्मवेद में कहा गया है:

सतगुरु बिन वेद पढ़ें जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।। सतगुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुष छिड़े मूढ किसाना।।

सतगुरू भक्ति मुक्ति के दानी। सतगुरू बिना ना छूटै खानी।।

अर्थात सतगुरु (पूर्णसंत/तत्वदर्शी संत) के बिना धर्मग्रंथों का ज्ञान मानव को नहीं हो सकता और ना ही उसका 84 लाख योनियों का कष्ट छूट सकता। क्योंकि सतगुरु ही भक्ति मुक्ति के दाता हैं, जिनकी बताई भक्ति करने से ही 84 लाख खानी (योनियों), पित्तर, भूत योनि का कष्ट समाप्त हो सकता है अर्थात मोक्ष प्राप्त हो सकता है।

पाठक जन, अब सोच रहे होंगे कि दुनिया भर में आज करोड़ों धर्मगुरु, संत, कथावाचक मौजूद हैं। ऐसे सतगुरु की कैसे पहचान करें तो आपको बता दें इसका समाधान भी हमारे पवित्र सद्ग्रन्थों में मौजूद है।

सतगुरु की पहचान

संत गरीबदास जी ने सतगुरु की पहचान बताते हुए कहा है -

सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।

चार वेद षट शास्त्र, कहै अठारा बोध।।

अर्थात पूर्ण संत वह होगा जोकि चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। वहीं यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 25, 26 में लिखा है कि जो संत (गुरु) वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चौथाई श्लोकों को पूरा करके विस्तार से बताएगा व तीन समय की स्तुति (प्रार्थना) सुबह पूर्ण परमात्मा की स्तुति, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा, वह जगत का उपकारक संत अर्थात पूर्णसंत (सतगुरु) होगा। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 8 सुक्त 1 मंत्र 29 में भी है।

वहीं कबीर परमेश्वर ने पूर्णसंत की पहचान बताते हुए पवित्र कबीर सागर, अध्याय जीव धर्म बोध, पृष्ठ 52 (1960) में कहा है:

 

गुरु के लक्षण चार बखाना।

प्रथम बेद शास्त्र को ज्ञाना।।

दूजे हरि भक्ति मन कर्म बानी।

तृतीये सम दृष्टि कर जानी।।

चौथे बेद विधि सब कर्मा।

यह चार गुरू गुण जानों मर्मा।।

भावार्थ :- पूर्ण संत सर्व वेद-शास्त्रों का ज्ञाता होता है। दूसरे वह मन-कर्म-वचन से यानि सच्ची श्रद्धा से केवल एक परमात्मा समर्थ की भक्ति स्वयं करता है तथा अपने अनुयाईयों से करवाता है। तीसरे वह सब अनुयाईयों से समान व्यवहार (बर्ताव) करता है। चौथे उसके द्वारा बताया भक्ति कर्म वेदों में वर्णित विधि के अनुसार होता है। ये चार लक्षण गुरू में होते हैं।

अतः पाठक जन को सलाह दी जाती है कि पूर्णसंत / सतगुरु / तत्वदर्शी संत की जो ऊपर पहचान बताई गई है उसके अनुसार आज संत रामपाल जी महाराज ही एकमात्र सच्चे सतगुरु (तत्वदर्शी संत) हैं। जिसकी पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 और 16-17 में भी बताई गई है कि

जो आदि पुरूष परमेश्वर जिसकी मूल है, उस ऊपर को मूल वाले, नीचे को शाखा वाले इस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, उसके सब भागों के जो तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला तत्त्वदर्शी संत है। इस विषय में संत रामपाल जी महाराज ने परमेश्वर कबीर जी की वाणी से स्पष्ट किया है कि,

कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, क्षर पुरूष (निरंजन) वाकी डार।

तीनों देवा शाखा है, पात रूप संसार।।

पाठकों, इस उल्टे लटके संसार रूपी पीपल के वृक्ष को संत रामपाल जी महाराज के अलावा आज तक किसी संत ने सही तरीके से नहीं समझाया। इससे ये सिद्ध होता है, कि संत रामपाल जी महाराज ही सच्चे सतगुरु है। जो साधक को सच्ची शास्त्र अनुकूल भक्ति व सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते हैं। जिनके बताये अनुसार आजीवन मर्यादा में रहकर भक्ति करने से जीव के अनगिनत पाप कर्म कट जाते हैं (जिसका प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13 में है) और इससे उसका मोक्ष भी संभव है।

निष्कर्ष

श्राद्ध करने के संबंध में परमेश्वर कबीर जी के तत्वज्ञान को आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज ने भली-भांति समझाया है कि:

अग्नि लगा दिया जद लम्बा, फूंक दिया उस ठाई।

पुराण उठाकर पण्डित आए, पीछे गरूड़ पढ़ाई।।

नर सेती फिर पशुवा किजे, गधा बैल बनाई।

छप्पन भोग कहा मन बौरे, किते कुरड़ी चरने जाई।।

प्रेत शिला पर जाय विराजे, पित्तरों पिण्ड भराई।

बहुर श्राद्ध खाने को आऐ, काग भए कलि माहीं।।

जै सतगुरू की संगत करते, सकल कर्म कट जाई।

अमर पुरी पर आसन होते, जहाँ धूप ना छाई।।

सूक्ष्मवेद की इन वाणियों में संत गरीबदास जी ने स्पष्ट किया है कि पित्तरों आदि के पिण्ड दान करते हुए अर्थात् श्राद्ध कर्म करते-करते भी पशु-पक्षी व भूत-प्रेत की योनियों में प्राणी पड़ते हैं तो यह श्राद्ध कर्म किस काम आया? फिर कहा है कि यदि सतगुरू (तत्वदर्शी संत) का संग करते अर्थात् उसके बताए अनुसार भक्ति करते तो सर्व कर्म कट जाते। न पशु बनते, न पक्षी, न पित्तर बनते, न प्रेत बनते और सीधे सनातन परम धाम (शाश्वत स्थान/सत्यलोक) चले जाते। जहां जाने के पश्चात् फिर साधक लौटकर इस संसार में किसी भी योनि में नहीं आते हैं। जिसका प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा श्लोक 16-17 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में व अध्याय 9 श्लोक 25 में है। इससे सिद्ध होता है कि श्राद्ध कर्म हमारे पवित्र ग्रंथों में प्रमाणित नहीं है, अत: इसे मानव समाज को तुरंत त्याग देना चाहिए।

अतः साधकों को यही सलाह दी जाती है कि मानव जन्म अत्यंत मूल्यवान है और प्रत्येक स्वांस (सांस) का उपयोग परमेश्वर की भक्ति में करना चाहिए। इसलिए साधकों को चाहिए कि वे मनमाना आचरण करना बंद करें और जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज से नाम दीक्षा लेकर सत्य भक्ति करें। जिससे उनका कल्याण होगा और उनके पूर्वजों का भी कल्याण होगा तथा सभी को मुक्ति मिलेगी और भूत, प्रेत, पित्तर आदि बनने से छुटकारा मिलेगा। साथ ही, सभी शाश्वत धाम सतलोक में निवास करेंगे और परम शांति प्राप्त करेंगे। वहीं, पूर्ण परमात्मा की वास्तविक जानकारी के साथ ही सतभक्ति की पूर्ण जानकारी जानने के लिए संत रामपाल जी महाराज के सत्य आध्यात्मिक सत्संगों को प्रतिदिन Sant Rampal Ji Maharaj Youtube Channel पर देखें तथा संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित पवित्र पुस्तक “हिन्दू साहेबान नहीं समझे गीता, वेद, पुराण” को Sant Rampal Ji Maharaj App से निःशुल्क में डाऊनलोड करके पढ़ें।

Reality about Shradh


 

FAQs : "विष्णु पुराण से श्राद्ध कर्म की अनसुनी सच्चाई, क्या है पित्तरों की मुक्ति की श्रेष्ठ विधि?"

Q.1 श्राद्ध कर्म की मिथ्या (भ्रान्ति) क्या है?

श्राद्ध इस विश्वास के साथ किया जाता है कि वे अपने पूर्वजों की आत्माओं को प्रसन्न कर सकें। अनुष्ठान करने के बाद भक्त सोचते हैं कि उनके पूर्वज परिवारों को सुरक्षा और पोषण के साथ-साथ शांति और समृद्धि प्रदान करेंगे। लेकिन इस लेखक ने स्पष्ट किया है कि श्राद्ध कर्म मनमाना और अशास्त्रीय आचरण है जिससे किसी को कोई लाभ नहीं मिलता है। इसलिए उनके पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता है।

Q.2 पितृ जीवन कष्टदायक क्यों है?

निश्चित ही काल के इक्कीस ब्रह्माण्ड में रहकर पितृ जीवन रूप अत्यंत पीड़ादायक है। ‘प्रेत योनि’ का सीधा अर्थ ‘भूत’ होता है। जो सूक्ष्म स्तर पर भूत के रूप में ‘जन्म’ का संकेत देता है, इस तथ्य के कारण कि आपके पास उपर्युक्त मानव जन्म या मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक कर्म गुण (पुण्य) नहीं हैं। ये आत्माएं दर्द और दुःख में बेचैनी से भटक रही हैं। इस योनि को धारण करने के बाद अन्य प्राणियों का शरीर भी भोगना पड़ेगा।

Q. 3 वेद और श्रीमद्भगवत गीता में मृत पूर्वजों की पूजा करना क्यों वर्जित है?

गीता अध्याय 9 श्लोक 25 व अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार, मृत पूर्वजों की पूजा करना एक मनमाना आचरण है। जिससे हमें कोई लाभ या सिद्धि नहीं मिलती। पित्तरों की आत्मा को भी कोई लाभ नहीं मिलता और ना ही उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।

Q.4 मोक्ष प्राप्ति में सतगुरु का क्या महत्व है?

सतगुरु ही वह सच्चा आध्यात्मिक गुरु है जो भक्ति के सच्चे मार्ग से पूरी तरह परिचित होता है। जो आत्माओं को मुक्ति प्रदान करता है। नकली आध्यात्मिक गुरुओं और उनकी गलत साधना के कारण साधक 84 लाख योनियों में कष्ट और पीड़ा उठाते हैं। आज संत रामपाल जी महाराज ही एकमात्र तत्वदर्शी संत और सच्चे सतगुरु हैं, जिनकी पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 और 16-17 में बताई गई है जो सच्ची शास्त्र अनुकूल भक्ति प्रदान करते हैं और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते हैं।