हिंदू धर्म की प्रभुप्रेमी आत्माएं विभिन्न प्रकार की मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं का पालन करती हैं। हम अपनी पवित्र पुस्तकों पर शोध और अध्ययन करते रहे हैं, लेकिन फिर भी हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए कि हिंदू धर्म के अनुसार सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान भगवान कौन है? अलग-अलग शास्त्र, गुरु, पंडित और संत अलग-अलग भगवान की महिमा गाते हैं। अब तक कोई भी हमें इस बारे में कोई निर्णायक ज्ञान नहीं दे सका है कि हिंदू धर्म का पूर्ण परमात्मा कौन है, जिसकी पूजा करने से हम सभी लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
इस लेख में, आप हमारे हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में वर्णित उस पूर्ण परमेश्वर के बारे में कई अनसुने तथ्य जानेंगे। आपको पता चलेगा कि हिंदू धर्म के हमारे पवित्र ग्रंथों के अनुसार, वो परमात्मा कौन है, जो सभी का स्वामी है।
हिंदू धर्म में पवित्र चारों वेदों का महत्वपूर्ण स्थान है; ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। पवित्र वेदों में परमेश्वर के वचन हैं। इन्हें इस लोक (ब्रह्मांड) के स्वामी काल (ब्रह्म) द्वारा बोला गया था। इसके बाद श्रीमद्भगवद्गीता भी उसी काल के द्वारा बोली गई। यह चार पवित्र वेदों का संक्षिप्त रूप है और वेदों के समान ही प्रामाणिक है। शेष हिंदू ग्रंथ - पुराण, उपनिषद और प्राचीन कथाएं इत्यादि - देवताओं और ऋषियों द्वारा सुनाई गईं; इनमें ज्ञान तो अच्छा है लेकिन पूजा विधि के लिए, वेदों के समान प्रामाणिक नहीं है।
हम हिंदू धर्म के पूर्ण परमात्मा की पहचान करने के लिए वेदों और गीता के वचनों पर अपनी चर्चा केंद्रित करेंगे। आवश्यक प्रमाणों के लिए पवित्र पुराणों का भी उपयोग किया जाएगा।
पवित्र शास्त्र आध्यात्मिकता का संविधान है। वे हमें परमपिता परमात्मा के गुणों से अवगत कराते हैं और उनकी उपासना के सही तरीके का भी संकेत देते हैं। हालाँकि पवित्र वेदों में सर्वशक्तिमान परमात्मा के अनेकों गुणों का वर्णन है, परन्तु हम इस लेख में पूर्ण परमात्मा के केवल चार गुणों पर विचार करेंगे।
परमात्मा के मुखारविंद से निकले पवित्र वेद पूर्ण परमात्मा के निम्नलिखित गुणों को बताते हैं:
ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 4 मंत्र 3
“शिशुम् न त्वा जेन्यम् वर्धयन्ती माता विभर्ति सचनस्यमाना
धनोः अधि प्रवता यासि हर्यन् जिगीषसे पशुरिव अवसृष्टः।।
अनुवाद: हे पूर्ण परमात्मा! जब आप (शिशुम्) शिशु रूप धारण करते हो अर्थात् नवजात शिशु के रूप में प्रकट होते हो तो (त्वा) आपको कोई (माता) माता (जेन्यम्) जन्म देकर (विभर्ति) पालन पोषण करके (न वर्धयन्ती) बड़ा नहीं करती। अर्थात् पूर्ण परमात्मा का जन्म माता के गर्भ से नहीं होता। (सचनस्यमाना) वास्तव में आप अपनी रचना (धनोः अधि) शब्द शक्ति के द्वारा करते हो तथा (हर्यन्) भक्तों के दुःख हरण हेतु (प्रवता) नीचे के लोकों को मनुष्य की तरह आकर (यासि) प्राप्त करते हो। (पशुरिव) पशु की तरह कर्म बन्धन में बंधे प्राणी को काल से (जिगीषसे) जीतने की इच्छा से आकर (अव सृष्टः) सुरक्षित रचनात्मक विधि अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार साधना द्वारा पूर्ण रूप से मुक्त कराते हो।
भावार्थ: हे पूर्ण परमात्मा, जब आप एक शिशु का रूप धारण करते हैं अर्थात् शिशुरूप में जब आप यहां आते हैं, तो आपका जन्म किसी मां के द्वारा नहीं होता अर्थात् पूर्ण परमात्मा कभी भी माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है। वास्तव में, आप अपनी रचना शब्द शक्ति द्वारा करते हैं, और भक्तों के कष्टों को समाप्त करने के लिए, आप मानव के रूप में आकर निम्न लोकों को प्राप्त होते हैं। आप यहां जीवों को इस नश्वर लोक से मुक्त कराने के उद्देश्य से आते हैं, जो कर्म के बंधन में एक जानवर की तरह, काल द्वारा जकड़े हुए है। आप उन्हें पूरी तरह से सुरक्षित रचनात्मक विधि अर्थात् पूजा की शास्त्र-आधारित विधि द्वारा मुक्त कराते हैं।”
यही प्रमाण ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 93 मंत्र 2 में है। यह आम लोगों की धारणा के विपरीत है कि हिंदू धर्म में भगवान एक मां से जन्म लेते हैं।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 1 मंत्र 9
“अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।
अनुवाद: (उत) विशेष कर (इमम्) इस (शिशुम्) बालक रूप में प्रकट (सोमम्) पूर्ण परमात्मा अमर प्रभु की (इन्द्राय) सुखदायक सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर की (पातवे) वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति (अभी) पूर्ण तरह (अध्न्या) जो गाय, सांड द्वारा कभी भी परेशान न की गई हो अर्थात् कुँवारी (धेनवः) गायों द्वारा (श्रीणन्ति) परवरिश की जाती है।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है सुख सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति कुंवारी गायों द्वारा की जाती है। अर्थात् उस समय कुँवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस शिशु रूप पूर्ण परमेश्वर की परवरिश होती है।”
ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 4 मंत्र 4
“मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमग् वित्से।
वश्ये व्रिचरति जिह्नयादत्रोरिह्यते युवतिं विश्पतिः सन्।।
अनुवाद: पूर्ण परमात्मा की महिमा के (मूरा) मूल अर्थात् आदि व (अमूर) अन्त को (वयम्) हम (न चिकत्वः) नहीं जानते। अर्थात् उस परमात्मा की लीला अपार है (अग्ने) हे परमेश्वर (महित्वम्) अपनी महिमा को (त्वम् अंग) स्वयं ही आंशिक रूप से (वित्से) ज्ञान कराता है। (वशये) अपनी शक्ति से अपनी महिमा का साक्षात आकार में आकर (चरति) विचरण करके (जिह्नयात्) अपनी जुबान से (व्रिः) अच्छी प्रकार वर्णन करता है। (विरपतिःस्रन्) सर्व सृष्टि का पति होते हुए भी (युवतिम्) नारी को (न) नहीं (रेरिह्यते) भोगता।
भावार्थ: वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि मैं तथा अन्य देव पूर्ण परमात्मा की शक्ति के आदि तथा अंत को नहीं जानते। अर्थात् परमेश्वर की शक्ति अपार है। वही परमेश्वर स्वयं मनुष्य रूप धारण करके अपनी आंशिक महिमा अपनी अमृतवाणी से घूम-फिर कर अर्थात् रमता-राम रूप से उच्चारण करके वर्णन करता है। जब वह परमेश्वर मनुष्य रूप धार कर पृथ्वी पर आता है तब सर्व संसार का पति होते हुए भी स्त्री भोग नहीं करता।”
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 16 मंत्र 18
“ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षाः सहत्राणीथः पदवीः कवीनाम्। तृतीयम् धाम महिषः सिषा सन्त् सोमः विराजमानु राजति स्टुप्।।
अनुवाद: वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि (य) जो पूर्ण परमात्मा विलक्षण बच्चे के रूप में आकर (कवीनाम्) प्रसिद्ध कवियों की (पदवीः) उपाधी प्राप्त करके अर्थात् एक संत या ऋषि की भूमिका करता है उस (ऋषिकृत्) संत रूप में प्रकट हुए प्रभु द्वारा रची गईं (सहत्राणीथः) हजारों वाणी (ऋषिमना) संत स्वभाव वाले व्यक्तियों अर्थात् भक्तों के लिए (स्वर्षाः) स्वर्ग तुल्य आनन्द दायक होती हैं। (सोम) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष (तृतीया) तीसरे (धाम) मुक्ति लोक अर्थात् सत्यलोक की (महिषः) सुदृढ़ पृथ्वी को (सिषा) स्थापित करने के (अनु) पश्चात् (सन्त्) मानव सदृश संत रूप में (स्टुप्) गुबंद अर्थात् गुम्बज में ऊंचे टीले जैसे सिंहासन पर (विराजमनु राजति) उज्जवल स्थूल आकार में अर्थात् मानव सदृश तेजोमय शरीर में विराजमान है।
भावार्थ: परमात्मा शिशु रूप धारण कर लेता है। लीला करता हुआ बड़ा होता है। कविताओं द्वारा तत्वज्ञान वर्णन करने के कारण कवि की पदवी प्राप्त करता है अर्थात् उसे ऋषि, सन्त व कवि कहने लग जाते हैं, वास्तव में वह पूर्ण परमात्मा कबीर ही है। उसके द्वारा रची अमृतवाणी कबीर वाणी (कविर्वाणी) कही जाती है, जो भक्तों के लिए स्वर्ग तुल्य सुखदाई होती है। वही परमात्मा तीसरे मुक्ति धाम अर्थात् सत्यलोक की स्थापना करके तेजोमय मानव सदृश शरीर में आकार में गुम्बज के नीचे ऊंचे सिंहासन पर विराजमान है।”
इनमें से कुछ तथ्य आपको आश्चर्यचकित कर सकते हैं लेकिन पूर्णतः सच हैं। पवित्र वेद परमात्मा के मुखारविंद से निकले हैं। ये झूठे नहीं हो सकते।
अब देखते हैं कि पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता क्या कहती है?
पवित्र वेदों का संक्षिप्त रूप, गीता हिंदू धर्म के पूर्ण परमात्मा के इन गुणों को बताती है:
गीताजी अध्याय 15 श्लोक 17
“उत्तमः, पुरुषः, तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः,
यः, लोकत्रायम् आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः ।।
अनुवाद: (उत्तमः) उत्तम (पुरुषः) भगवान (तु) तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से (अन्यः) अन्य ही है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकों में (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) परमेश्वर (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है। यह प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी है।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा, दो पूर्वोक्त देवताओं, क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष के अलावा कोई और है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके, सभी का भरण-पोषण करता है। उसे शाश्वत पूर्ण परमात्मा (अविनाशी सर्वोच्च भगवान) कहा जाता है।”
गीताजी अध्याय 2 श्लोक 17
“अविनाशि, तु, तत्, विद्धि, येन्, सर्वम्, इदम्, ततम्,
विनाशम्, अव्ययस्य, अस्य, न, कश्चित्, कर्तुम्, अर्हति ।।
अनुवाद: (अविनाशि) नाशरहित (तु) तो तू (तत्) उसको (विद्धि) जान (येन्) जिससे (इदम्) यह (सर्वम्) सम्पूर्ण जगत् दृश्यवर्ग (ततम्) व्याप्त है। (अस्य) इस (अव्ययस्य) अविनाशीका (विनाशम्) विनाश (कर्तुम्) करनेमें (कश्चित) कोई भी (न, अर्हति) समर्थ नहीं है।
भावार्थ: उसको अविनाशी/अमर जान, जिससे इस सम्पूर्ण दृष्टिगोचर विश्व की उत्पत्ति हुई है। कोई भी उस अविनाशी का विनाश करने में सक्षम नहीं है।”
गीताजी अध्याय 18 श्लोक 62 प्रमाणित करता है कि पूर्ण परमात्मा गीता ज्ञानदाता से भिन्न है।
“तम्, एव, शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम्।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत! तू (सर्वभावेन) सब प्रकार से (तम्) उस परमेश्वर की (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत (स्थानम्) स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा।
भावार्थ: हे भारत! तू संपूर्ण भाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सदा रहने वाला अविनाशी स्थान को अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा।”
यही प्रमाण गीता जी अध्याय 18 श्लोक 66 में भी दिया गया है।
तो, पवित्र वेद और पवित्र गीता जी यह प्रमाणित करते हैं कि पूर्ण परमात्मा न तो माँ से जन्म लेता है और न ही उसकी कोई पत्नी है। वह कविताओं और लोकोक्तियों के माध्यम से अपने ज्ञान का प्रसार करता है और कुंवारी गायों के दूध से पोषित होता है। वह अविनाशी है और पवित्र गीता बोलने वाले भगवान से अन्य है।
आइए अब विश्लेषण करते हैं कि हिंदू धर्म के किस देवता में ये सारे गुण विद्यमान है।
इसलिए, हमने अपने हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में वर्णित पूर्ण परमात्मा के गुणों को पढ़ा। आइए देखते हैं कि परमात्मा की परिभाषा पर कौन खरा उतरता है। हिंदू धर्म के 33 करोड़ देवी देवता अपनी अलग-अलग शक्तियां रखते हैं। जिस तरह एक राज्य में कैबिनेट के मंत्री हुआ करते हैं: जैसे एक ने सिंचाई विभाग संभाल रखा है तो दूसरे ने वित्त विभाग। इसी तरह इन देवताओं ने भी अपने अलग-अलग विभाग बांट रखे हैं, जैसे इंद्रदेव वर्षा का विभाग अपने पास रखते हैं, कुबेर धन के विभाग के देवता हैं, और वरुण देव के अधिकार में जल विभाग आता है। कुछ देवताओं के नामों से भ्रमित होकर (जैसे सूर्य देव), जब कोई व्यक्ति उस देवता (सूर्य देव) का नाम उच्चारित करता है तो लोगों को लगता है कि किसी वस्तु (सूर्य) का नाम ले रहा हो। जिसके परिणामस्वरूप लोग हिंदुओं को सर्वेश्वरवादी कहते हैं।
अतः इनकी पदवी से यह पता चलता है कि ये केवल देवता हैं, सर्वोच्च परमात्मा नहीं।
तीन लोक के स्वामी श्री विष्णु जी 16 कलाएं हैं हैं। जबकि श्री राम और श्री कृष्ण उनके अवतार हैं। यह बात सर्व स्वीकार्य है कि दोनों अवतार किसी मां से जन्म लेते हैं तथा मृत्यु के समय अपना पंचतत्व का शरीर छोड़कर जाते हैं। अतः इनको हिंदू धर्म के पवित्र शास्त्रों में वर्णित पूर्ण परमात्मा नहीं माना जा सकता। जैसे, कुछ लोगों का मानना है कि श्रीकृष्ण ही हिन्दु धर्म के पूर्ण परमात्मा है जिनकी पूजा स्वयं श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी द्वारा की जाती है वे लोग पूरी तरह से भ्रमित हैं। वास्तव में श्री कृष्ण श्री विष्णु जी के एक अवतार हैं; उन्हें श्री विष्णु जी से अधिक शक्तिशाली नहीं माना जा सकता।
भगवान विष्णु, जो सतोगुण हैं और जिन्हें सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपमा दी जाती है, उनकी भी जन्म मृत्यु होती है। श्री देवी भागवत पुराण के तीसरे स्कंद में स्वयं श्री विष्णु जी स्वीकार करते हुए देवी दुर्गा से कहते हैं कि :
“मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर तुम्हारी ही कृपा से विद्यमान है। हमारा भी आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है। हम अविनाशी (अमर) नहीं हैं। केवल तुम ही नित्य हो, जगत की माता हो (जगत जननी), प्रकृति तथा सनातनी(हमेशा से विद्यमान) देवी हो।”
इसी स्कंद में आगे शिवजी भी स्वीकार करते हैं:-
“यदि भगवान ब्रह्मा तथा भगवान विष्णु तुम्हीं से उत्पन्न हुए हैं तो उनके बाद उत्पन्न होने वाला मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ। अर्थात मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम ही हो। सारे संसार की सृष्टि, स्थिति तथा संहार में तुम्हारे गुण सदा ही समर्थ हैं। इस संसार की सृष्टि स्थिति तथा संभाग में तुम्हारे गुण सदा ही समर्थ है। इन्हीं तीनों गुणों से उत्पन्न हम, ब्रह्मा-विष्णु तथा शंकर नियमानुसार कार्य में तत्पर रहते हैं।”
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुराणों से हमें क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? एक तरफ श्री विष्णु पुराण में विष्णु जी को सभी का उत्पत्तिकर्ता और पालनकर्ता होने का दावा किया गया है, वहीं दूसरी तरफ श्री शिव पुराण में शिव जी को सर्वसृष्टि रचनहार बताया गया है। जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज अपने सतसंगों में बताते हैं कि वास्तव में ये पुराण ऐसा कहते हैं, और ये गलत नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि विष्णु (या शिव) जिन्हें पुराणों में सर्वोच्च भगवान के रूप में दर्शाया गया है, वे विष्णु या शिव नहीं हैं जो तीन लोकों के स्वामी हैं, बल्कि भगवान काल है (जिसे ब्रह्मा, महाब्रह्मा, महाविष्णु, सदाशिव और महाशिव के नाम से भी जाना जाता है), जो किसी के सामने अपने मूल शरीर में प्रकट नहीं होता है, और अपने कार्यों को पूरा करने के लिए इन तीन देवताओं के रूप को प्राप्त करता है। वह केवल अपने 21 ब्रह्मांड का स्वामी है। उदाहरण के लिए, श्री शिव महापुराण, विद्येश्वर संहिता में, यह काल श्री शिव जी का रूप लेता है जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश (शिव) और रुद्र (शिव लोक में देवता) उनके "पुत्र" कहे जाते हैं और उन्हें बताता है कि वे भगवान नहीं हैं। यह काल हिंदू धर्म के पवित्र पुराणों में वर्णित तीनों देवताओं का पिता है।
अधिक जानकारी के लिए नीचे "हिंदू धर्म में ब्रह्म कौन है?" अनुभाग पढ़ें।
तीनों देवताओं की माँ दुर्गा, काल ब्रह्म की पत्नी हैं, जैसा कि रुद्र संहिता, श्री शिव महापुराण और श्री दुर्गा पुराण के तीसरे स्कन्ध में भी में भी लिखा गया है। पवित्र वेद भी श्री आदि भवानी अष्टांगी दुर्गा के जन्म के बारे में जानकारी देते हैं।
अथर्ववेद कांड 4 अनुवाक 1 मन्त्र 5
“सः बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्।
अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः।।
सः-बुध्न्यात्-आष्ट्र-जनुषेः-अभि-अग्रम्-बृहस्पतिः-देवता-तस्य-सम्राट-अहःयत्-शुक्रम्-ज्योतिषः-जनिष्ट-अथ-द्युमन्तः-वि-वसन्तु-विप्राः।
अनुवाद: (सः) उसी (बुध्न्यात्) मूल मालिक से (अभि-अग्रम्) सर्वप्रथम वाले सतलोक स्थान पर (आष्ट्र) अष्टँगी माया-दुर्गा अर्थात् प्रकृति देवी (जनुषेः) उत्पन्न हुई क्योंकि नीचे के परब्रह्म व ब्रह्म के लोकों का प्रथम स्थान सतलोक है यह तीसरा धाम भी कहलाता है (तस्य) इस दुर्गा का भी मालिक यही (सम्राट) राजाधिराज (बृहस्पतिः) सबसे बड़ा पति व जगतगुरु (देवता) परमेश्वर है। (यत्) जिस से (अहः) सबका वियोग हुआ (अथ) इसके बाद (ज्योतिषः) ज्योति रूप निरंजन अर्थात् काल के (शुक्रम्) वीर्य अर्थात् बीज शक्ति से (जनिष्ट) दुर्गा के उदर से उत्पन्न होकर (विप्राः) भक्त आत्माएं (वि) अलग से (द्युमन्तः) मनुष्य लोक तथा स्वर्ग लोक में ज्योति निरंजन के आदेश से दुर्गा ने कहा (वसन्तु) भिन्न-भिन्न निवास करो, अर्थात् वे निवास करने लगी।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के चारों लोकों में से जो नीचे से सबसे प्रथम अर्थात् सत्यलोक में आष्ट्रा अर्थात् अष्टंगी (प्रकृति देवी/दुर्गा) की उत्पत्ति की। यही राजाधिराज, जगतगुरु, पूर्ण परमेश्वर (सतपुरुष) है जिससे सबका वियोग हुआ है। फिर सर्व प्राणी ज्योति निरंजन (काल) के (वीर्य) बीज से दुर्गा (आष्ट्रा) के गर्भ द्वारा उत्पन्न होकर स्वर्ग लोक व पृथ्वी लोक पर निवास करने लगे।”
इसलिए, यह स्पष्ट है कि श्री दुर्गा हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में वर्णित पूर्ण परमात्मा नहीं हैं। उनकी भी जन्म मृत्यु होती है। यही कारण है कि यह काल ब्रह्म पवित्र गीताजी अध्याय 15 श्लोक 17 और अध्याय 2 श्लोक 17 में कहता है कि अकेले परमपिता परमेश्वर ही "अविनाशी भगवान"(सनातन ईश्वर) के रूप में जाना जाता है।
ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 में परमात्मा के नाम के बारे में विवरण मांगा गया है।
जिसका उत्तर ऋग्वेद मंडल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 में है:
“शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वहिन मरूतः गणेन।
कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्रम् अत्येति रेभन्।।17।।
अनुवाद: सर्व सृष्टि रचनहार (हर्य शिशुम्) सर्व कष्ट हरण पूर्ण परमात्मा मनुष्य के विलक्षण बच्चे के रूप में (जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने तत्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के साथ (शुम्भन्ति) उच्चारण करता है। (वुिः) प्रभु प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) भक्त (गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं द्वारा कवित्व से (पवित्रम् अत्येति) अत्यधिक निर्मलता के साथ (कविर् गीर्भि) कविर् वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से सम्बोधन करके बोलता है, हुआ वर्णन करता (कविर् सन्त् सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात् ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने लग जाते हैं। परन्तु वह पूर्ण परमात्मा ही होता है। उसका वास्तविक नाम कविर्देव है।
भावार्थ: ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त नं. 96 मन्त्र 16 में कहा है कि आओ पूर्ण परमात्मा के वास्तविक नाम को जाने इस मन्त्र 17 में उस परमात्मा का नाम व परिपूर्ण परिचय दिया है। वेद बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा मनुष्य के बच्चे के रूप में प्रकट होकर कविर्देव अपने वास्तविक ज्ञान को अपनी कबीर बाणी के द्वारा अपने हंसात्माओं अर्थात् पुण्यात्मा अनुयाईयों को ऋषि, सन्त व कवि रूप में कविताओं, लोकोक्तियों के द्वारा सम्बोधन करके अर्थात् उच्चारण करके वर्णन करता है। इस तत्वज्ञान के अभाव से उस समय प्रकट परमात्मा को न पहचान कर केवल ऋषि व संत या कवि मान लेते हैं वह परमात्मा स्वयं भी कहता है कि मैं पूर्ण ब्रह्म हूँ सर्व सृष्टि की रचना भी मैं ही करता हूँ। मैं ऊपर सतलोक (सच्चखण्ड) में रहता हूँ। परन्तु लोक वेद के आधार से परमात्मा को निराकार माने हुए प्रजाजन नहीं पहचानते। वह पूर्ण परमात्मा ही होता है। उसका वास्तविक नाम कविर्देव है। वह स्वयं सतपुरुष कबीर ही ऋषि, सन्त व कवि रूप में प्रगट होता है। परन्तु तत्व ज्ञानहीन ऋषियों व संतों गुरूओं के अज्ञान सिद्धांत के आधार पर आधारित प्रजा उस समय अतिथि रूप में प्रकट परमात्मा को नहीं पहचानते क्योंकि उन अज्ञानी ऋषियों, संतों व गुरूओं ने परमात्मा को निराकार बताया होता है।”
हाँ, कबीर साहेब ही वो भगवान हैं जिनकी महिमा हिंदू धर्म के इन सभी पवित्र ग्रंथों में गायी गई है। पूर्ण परमात्मा का नाम कबीर है, जिन्होंने 600 साल पहले भारत के काशी शहर में लीला की और हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों की पुण्यात्माओं को प्रबुद्ध किया। उन्होंने आत्मा को छूने वाली कविताओं और कहावतों के माध्यम से अपने सच्चे और पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार किया। उनका जन्म किसी मां से नहीं हुआ और ना ही उन्होंने विवाह किया। वह लहरतारा नाम के सरोवर में विकसित कमल पुष्प के ऊपर आकर प्रकट हुए। जहां से नीरू नीमा नाम के निःसंतान दंपत्ति उन्हें घर ले गए। पूरी काशी के नगर वासी शिशु रूप में आये परमात्मा देखने के लिए एकत्रित होने लगे।
कबीर परमात्मा स्वयं कहते हैं:
अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक बन दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा का सुत आन कहाया, जगत करै मेरी हांसी।।
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप (ऊपर सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा।
ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लहू ना मेरे, कोई जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनाशी।।
कबीर परमेश्वर ने 25 दिन तक कुछ नहीं खाया और ना ही कुछ पिया। इससे नीमा बहुत चिंतित होकर अपने इष्ट देव शिव जी को अर्ज करने लगी। तब भगवान कबीर की प्रेरणा से, श्री शिव जी, एक संत के वेश में, अपने लोक से आए और नीमा से उसके परेशान होने का कारण पूछा। नीमा ने उन्हें अपनी समस्या बतायी। श्री शिवजी ने शिशु रूप कबीर परमात्मा को अपने दोनों हाथों से उठाया। कबीर परमात्मा हवा में ही शिवजी की आंखों के स्तर पर आ गए। दोनों प्रभुओं के बीच 7 बार चर्चा हुई। बालक रूप कबीर परमेश्वर के कहने पर शिव जी ने नीरू से एक कुंवारी गाय लाने को कहा और वैसा ही किया गया। फिर शिव जी जी ने कुंवारी गाय के पीठ पर थपकी मारी। उसी क्षण कबीर परमात्मा की कृपा से उस कुंवारी गाय ने दूध देना प्रारंभ कर दिया। कबीर साहिब ने वह दूध पिया। इसके बाद से प्रतिदिन जब भी उस गाय से दूध प्राप्त करना होता था तो नीचे एक बर्तन रख दिया जाता था और वह गाय अपने आप ही दूध देने लगती थी।
इसका प्रमाण कबीर साहिब और संत गरीबदास जी महाराज के अमृत-वाणियों में वर्णित है।
उपरोक्त विवरण से यह सिद्ध होता है कि संपूर्ण सृष्टि का रचने वाला और पालनकर्ता स्वयं पूर्ण परमात्मा कबीर हैं। हिंदू धर्म ग्रंथों के साथ-साथ अन्य धर्मों के पवित्र ग्रंथ भी इसकी गवाही देते हैं। वह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपने भक्तों के सर्व पापों का नाश करता है साथ ही उनके भाग्य में परिवर्तन भी कर सकता है।
अथर्ववेद कांड 4 अनुवाक 1 मंत्र 1 प्रमाणित करता है कि कबीर परमात्मा ही सर्वसृष्टि के जनक हैं। वे काल की तरह विश्वासघात नहीं करते:
“ब्रह्म-ज-ज्ञानम्-प्रथमम्-पुरस्त्तात्-विसिमतः-सुरुचः-वेनः-आवः-सः-बुध्न्याः -उपमा-अस्य-विष्ठाः-सतः-च-योनिम्-असतः-च-वि वः।
अनुवाद: (प्रथमम्) प्रथम अर्थात् सनातन (ब्रह्म) परमात्मा ने (ज) प्रकट होकर (ज्ञानम्) अपनी सूझ-बूझ से (पुरस्त्तात्) शिखर में अर्थात् सतलोक आदि को (सुरुचः) स्वइच्छा से बड़ी रुचि से स्वप्रकाशित (विसिमतः) सीमा रहित अर्थात् विशाल सीमा वाले भिन्न लोकों को उस (वेनः) जुलाहे ने ताने अर्थात् कपड़े की तरह बुनकर (आवः) सुरक्षित किया (च) तथा (सः) वह पूर्ण ब्रह्म ही सर्व रचना करता है (अस्य) इसलिए उसी (बुध्न्याः) मूल मालिक ने (योनिम्) मूलस्थान सत्यलोक की रचना की है (अस्य) इस के (उपमा) सदृश अर्थात् मिलते जुलते (सतः) अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म के लोक कुछ स्थाई (च) तथा (असतः) क्षर पुरुष के अस्थाई लोक आदि (वि वः) आवास स्थान भिन्न (विष्ठाः) स्थापित किए।
भावार्थ: पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल) कह रहा है कि सनातन परमेश्वर ने स्वयं अनामय (अनामी) लोक से सत्यलोक में प्रकट होकर अपनी सूझ-बूझ से कपड़े की तरह रचना करके ऊपर के सतलोक आदि को सीमा रहित स्वप्रकाशित अजर - अमर अर्थात् अविनाशी बनाया तथा नीचे के परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के अस्थाई 21 ब्रह्मण्ड व इनमें छोटी-से छोटी रचना भी उसी परमात्मा ने की है।”
इस मंत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि वह पूर्ण परमात्मा जिसने सर्व सृष्टि की रचना की उसका नाम कविर्देव(कबीर परमात्मा) है।”
मंत्र 1400 सामवेद उत्तरार्चिक अध्याय 12 खण्ड 3 श्लोक 5 प्रमाणित करता है कि सर्वोच्च देवता कबीर पृथ्वी पर अपनी शब्दावलियों के माध्यम से सही आध्यात्मिक ज्ञान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए प्रकट होते हैं:
“भद्रा वस्त्र समन्यावसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्।
आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ।।
अनुवाद: (विचक्षणः) चतुर व्यक्तियों ने (आवच्यस्व) अपने वचनों द्वारा पूर्णब्रह्म की पूजा को न बताकर आन उपासना का मार्ग दर्शन करके अमृत के स्थान पर (पूयमानः) आन उपासना {जैसे भूत-प्रेत पूजा, पित्रा पूजा, तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव शंकर) तथा ब्रह्म-काल तक की पूजा} रूपी मवाद को (चम्वोः) आदर के साथ आचमन करा रहे गलत ज्ञान को (भद्रा) परमसुखदायक (महान् कविर्) पूर्ण परमात्मा कबीर (वस्त्र) सशरीर साधारण वेशभूषा में ‘‘अर्थात् वस्त्र का अर्थ है वेशभूषा, संत भाषा में इसे चोला भी कहते हैं, चोला का अर्थ है शरीर। यदि किसी संत का देहान्त हो जाता है तो कहते हैं कि चोला छोड़ गए‘‘ (समन्या) अपने सत्यलोक वाले शरीर के सदृश अन्य शरीर तेजपुंज का धारकर (वसानः) आम व्यक्ति की तरह जीवन जी कर कुछ दिन संसार में रह कर (निवचनानि) अपनी शब्दावली आदि के माध्यम से सत्यज्ञान (शंसन्) वर्णन करके (देव) पूर्ण परमात्मा के (वीतौ) छिपे हुए सर्गुण-निर्गुण ज्ञान को (जागृविः) जाग्रत करते हैं।
भावार्थ: शास्त्राविधि विरूद्ध साधना रूपी घातक साधना पर आधारित भक्त समाज को कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तत्वज्ञान समझाने के लिए यहाँ संसार में प्रकट होता है। उस समय अपने तेजोमय शरीर पर अन्य शरीर रूपी वस्त्र (हलके तेज का) पहन कर आता है। (क्योंकि परमेश्वर के वास्तविक तेजोमय शरीर को चर्म दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।) कुछ दिन आम व्यक्ति जैसा जीवन जी कर लीला करता है तथा परमेश्वर प्राप्ति(स्वयं को पाने) वाले ज्ञान को उजागर करता है।”
पूर्ण परमात्मा कबीर को यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में मुक्तिदाता और संपूर्ण शांतिदायक प्रभु के रूप में भी संबोधित किया गया है
हिंदू धर्म की पवित्र पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक श्लोकों में पूर्ण परमात्मा की महिमा गाई गई है।
गीता जी अध्याय 18 के श्लोक 66 में कहा गया है कि पूर्ण परमात्मा कबीर की शरण में जाने से हम अपने सर्व पापों से मुक्त हो जाएंगे।
“सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।
अनुवाद: गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (माम्) मुझ में (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर।
भावार्थ: काल ब्रह्म कहता है कि मेरी सारी पूजाओं को मुझ में ही छोड़कर तुम उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जाओ; जो तुम्हें कर्म बंधन से मुक्त कर देगा तथा तुम्हारे सारे पापों को नष्ट कर देगा। अर्थात् गीता ज्ञानदाता अपने से अन्य किसी और पूर्ण परमेश्वर की शरण में जाने का निर्देश दे रहा है।”
गीता जी अध्याय 8 के श्लोक 22 में कहा गया है कि पूर्ण परमात्मा आनंद भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है अर्थात् किसी अन्य देवता की भक्ति ना करके ही प्राप्त होने योग्य है।
“पुरुषः, सः, परः, पार्थ, भक्त्या, लभ्यः, तु, अनन्यया।
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यस्य) जिस परमात्मा के (अन्तःस्थानि) अन्तर्गत (भूतानि) सर्वप्राणी हैं और (येन) जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से (इदम्) यह (सर्वम्) समस्त जगत् (ततम्) परिपूर्ण है। (सः) वह (परः) परम (पुरुषः) परमात्मा (तु) तो (अनन्यया) अनन्य (भक्त्या) भक्ति से ही (लभ्यः) प्राप्त होने योग्य है।
अनुवाद: हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वप्राणी हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत् परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20 व 21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 65, 66 में कहा है। वह श्रेष्ठ परमात्मा तो अनन्य भक्तिसे ही प्राप्त होने योग्य है।”
जैसा कि ऊपर आपको बताया गया, ब्रह्म देवी दुर्गा का पति है। इसे काल भी कहते हैं जिसने पवित्र वेद और गीता जी को रचा। गीता जी अध्याय 11 के श्लोक 32 में उसने अपना नाम बताया है। संतों की वाणियों में उसे 'ज्योति स्वरूप निरंजन' भी कहा गया है। जो ब्रह्म की पूजा करते हैं वो उसे हिंदू धर्म का सनातन अविनाशी परमात्मा जानकर ही पूजते हैं। हालाँकि, हमारे हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों से प्रमाणित होता है कि वह पूर्ण परमात्मा नहीं है और न ही वह अविनाशी है।
पवित्र अथर्ववेद कांड 4 अनुवाक 1 मंत्र 3 ब्रह्म की उत्पत्ति बताता है:
“प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति।
ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ।।3।।
अनुवाद: (प्र) सर्व प्रथम (देवानाम्) देवताओं व ब्रह्मण्डों की (जज्ञे) उत्पति के ज्ञान को (विद्वानस्य) जिज्ञासु भक्त का (यः) जो (बन्धुः) वास्तविक साथी अर्थात् पूर्ण परमात्मा ही अपने निज सेवक को (जनिमा) अपने द्वारा सृजन किए हुए को (विवक्ति) स्वयं ही ठीक-ठीक विस्त्तार पूर्वक बताता है कि (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा ने (मध्यात्) अपने मध्य से अर्थात् शब्द शक्ति से (ब्रह्मः) ब्रह्म-क्षर पुरूष अर्थात् काल को (उज्जभार) उत्पन्न करके (विश्वा) सारे संसार को अर्थात् सर्व लोकों को (उच्चैः) ऊपर सत्यलोक आदि (निचैः) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सर्व ब्रह्मण्ड (स्वधा) अपनी धारण करने वाली (अभिः) आकर्षण शक्ति से (प्र तस्थौ) दोनों को अच्छी प्रकार स्थित किया।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात् अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्मण्डों को ऊपर सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हुआ है।”
जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने अपने निजी सेवक अर्थात् सखा श्री धर्मदास जी, आदरणीय गरीबदास जी आदि को अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान स्वयं ही बताया। उपरोक्त वेद मंत्र भी यही समर्थन कर रहा है।”
इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की उत्पत्ति ब्रह्मणः से हुई है। यहां “ब्रह्मणः” का अर्थ है सच्चिदानंद घनब्रह्म (पूर्ण परमात्मा कविर्देव)।
पवित्र गीता जी अध्याय 10 के श्लोक 2 और 3 में भी ब्रह्म की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।
बात सुनकर जरूर झटका लगा होगा लेकिन यही सत्य है। स्वयं त्रिदेव, श्री दुर्गा जी, काल निरंजन सभी जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधे हुए हैं। ”अनपढ़” कबीर साहिब जी कहा करते थे कि –
हिंदू तथा मुस्लिम दोनों धर्मों(उस समय भारतवर्ष में केवल यह दोनों धर्म ही थे) द्वारा पूजे जाने वाले देवताओं में से कोई भी उनके शास्त्रों में वर्णित पूर्ण परमात्मा नहीं है। इन देवताओं की शक्ति तो सीमित है लेकिन पूर्ण परमात्मा की शक्ति की कोई सीमा नहीं है।
कबीर चारभुजा के भजन में, भूलि परे सब संत।
कबीरा सुमिरै तासु को, जाके भुजा अनंत।।
कबीर साहिब जी कहते हैं, "सभी सदग्रंथ मेरी ही महिमा बयान करते हैं तथा मुझे ही पूर्ण परमात्मा बताते हैं। हिंदू तथा मुस्लिम धर्मों के अज्ञानी गुरुओं द्वारा लोगों को भ्रमित किया जा रहा है।
कबीर वेद कतेब झूठे नहीं भाई, झूठे हैं जो समझे नाहीं।
कबीर वेद हमारा भेद है, मैं मिलूं वेदन में नाहीं।
जौन वेद से मैं मिलूं, वो वेद जानते नाही।
लेकिन, हमारे अज्ञानी धर्मगुरुओं ने जोर देकर कहा कि "कबीर अनपढ़ है; वह नहीं जान सकता कि पवित्र पुस्तकों में क्या लिखा है।" उस समय हम खुद अनपढ़ होने के कारण, उन नकली गुरुओं पर विश्वास करते थे और हमारे भगवान से दूर चले गए।
संत रामपाल जी महाराज बताते हैं, शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि अब हम अपना भगवान पहचान सकते हैं। अब हम खुद पढ़कर यह देख सकते हैं कि हमारे पवित्र सदग्रंथों में क्या लिखा है।
हिंदू धर्म को मानने वाले लोग श्री ब्रह्मा, विष्णु और महेश को मुख्य देवता मानते हैं। लेकिन पवित्र सामवेद संख्या 1400, संख्या 359 अध्याय 4 खंड संख्या 25 श्लोक 8 में यह स्पष्ट है कि कबीर साहिब ही पूर्ण समर्थ भगवान हैं, जो कि मनुष्य को तत्वज्ञान देने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
हिंदुओं का मानना है कि ब्रह्मा जी ब्रह्मांड का निर्माण कार्य करते हैं , जबकि कबीर साहिब सच्चे भगवान और अनंत ब्रह्मण्डों के सिरजनहार हैं। इसका समर्थन विभिन्न वैदिक ग्रंथों द्वारा भी किया गया है, जिसमें ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 49 मंत्र 1 और 6, अर्थववेद कांड संख्या 4 अनुवाक संख्या 1 मंत्र 1 - 7 और यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 14 शामिल हैं।
नहीं, 33 प्रकार के देवता हैं। संस्कृत शब्द “कोटि” की दो व्याख्याएँ हैं। एक व्याख्या देवताओं के प्रकार और दूसरी व्याख्या में संख्या का वर्णन है। यह 33 प्रकार के देवता संसार की व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिसमें एक सर्वोच्च देवता सभी को आदेश देता है।
हिंदू धर्म में किसी एक देवता का वर्णन नहीं है। हिंदू धर्म में शैव पंथ के लोग भगवान शिव को सबसे शक्तिशाली मानते हैं और वैष्णव पंथ के लोग भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। लेकिन ऋग्वेद मंडल 9 सुक्त 96 मंत्र 17-19 में कहा गया है कि कबीर साहेब सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान है, जो तीन अलग-अलग रूपों में जीवों की देखभाल करते हैं।
हिंदू धर्म के लोगों में यह मान्यता है कि भगवान शिव के कोई माता-पिता नहीं हैं। जबकि यह धारणा सही नहीं है क्योंकि सच्चाई तो यही है कि इनके माता-पिता हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में इस बात के प्रमाण हैं कि इनकी मां देवी दुर्गा है और इनके पिता को काल-ब्रह्म के नाम से जाना जाता है, जिसे शैतान भी कहा जाता है। यह जानकारी रामायण प्रेस मुंबई द्वारा प्रकाशित श्री शिव पुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय 6 पृष्ठ 45 पर तथा गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित रूद्र संहिता अध्याय 6 पृष्ठ 99 पर भी उपलब्ध है।
कबीर साहेब सबसे शक्तिशाली भगवान हैं। अथर्ववेद काण्ड नं 4, अनुवाक नं 1 मंत्र 1 - 7 में भी यही प्रमाण है।
कबीर साहेब सबसे शक्तिशाली भगवान हैं। यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 और ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 मंत्र 15 के अनुसार, कबीर साहेब सबसे शक्तिशाली भगवान हैं, जो सभी पापों को नष्ट करने और भक्तों को मुक्ति प्रदान करने के योग्य हैं।
कबीर साहेब हम सबके रचनहार हैं। इसका प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 90 मंत्र 1-5 में मिलता है।
काल ब्रह्म को 21 ब्रह्मांडो का स्वामी माना जाता है, इसका प्रमाण ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 मंत्र 1 में भी है। इन ब्रह्मांडो में वह ब्रह्मांड भी है, जिसमें हम रहते हैं। हालांकि, कबीर साहेब सर्वोच्च भगवान और अनंत ब्रह्मांडो के निर्माता हैं, जिसमें काल-ब्रह्म द्वारा शासित 21 ब्रह्माण्ड भी शामिल हैं।
यदि उपरोक्त सामग्री के संबंध में आपके कोई प्रश्न या सुझावहैं, तो कृपया हमें [email protected] पर ईमेल करें, हम इसे प्रमाण के साथ हल करने का प्रयास करेंगे।
Laxman singh
भगवान शिव हिंदू धर्म में सर्वोच्च देवता हैं। वह मृत्युंजय, कालिंजय, सर्वेश्वर है।
Satlok Ashram
भगवान शिव जी ब्रह्म काल और देवी दुर्गा के सबसे छोटे पुत्र हैं, जो तमगुण युक्त हैं। अपने पिता के 21 ब्रह्माण्डों में इनकी जिम्मेदारी प्राणियों को मारकर अपने पिता के लिए भोजन तैयार करना है। इनकी भी मृत्यु होती है। वह जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में है।