सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहेब जी की जय।
बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज की जय।
स्वामी राम देवानंद जी गुरु महाराज की जय हो।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय।
सर्व भक्तों की जय।
धर्मी पुरुषों की जय।
श्री काशी धाम की जय।
श्री छुड़ानी धाम की जय।
श्री करोंथा धाम की जय।
श्री बरवाला धाम की जय।
सत साहेब।
गरीब नमो नमो सत्य पुरुष कूं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।।
कबीर सतगुरु के उपदेश का, सुनिया एक विचार। जै सतगुरु मिलते नहीं, जाते नरक द्वार।। नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। उनसे कभी नहीं छूटता, फिरता चारों खान।। कबीर चार खानी में भ्रमता, कबहूं ना लगता पार। सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, सतलोक के डेरे की।।
निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहेब ना। निर्विकार निर्भय।।
गरीब अगम निगम को खोज ले, बुद्धि विवेक विचार। उदय अस्त का राज मिले, तो बिन नाम बेगार।।
कबीर मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले ना बारंबार। तरुवर से पत्ता टूट गिरे, वो बहुर ना लगता डार।।
पृथ्वीपति चकवे गए, जिनके चक्र चलंत। रावण सरीखे कौन गिने, ऐसे गए अनंत।।
मन तू सुख के सागर बस रे, और ना ऐसा यश रे। मन तू सुख के सागर बस रे, भाई और ना ऐसा यश रे।।
परमपिता परमात्मा कबीर जी हम काल के जाल में फंसे, इस दलदल में धंसे हुओं को समझाना चाहते हैं कि इस पृथ्वी के यश को जो तुम प्राप्त करना चाहते हो यह आपकी बहुत बड़ी भूल है। इस झूठी लोक बढ़ाई में और इस व्यर्थ की कमाई में अनमोल जीवन व्यर्थ कर जाते हो। पृथ्वी पति चकवे गए, चक्रवर्ती राजा चले गए। जिनके चक्कर चलंत। जिनके ठाठ दिखाई देते थे और मृत्यु को प्राप्त हुए। अब कुत्ते, गधे बनकर धक्के खा रहे हैं वह प्राणी।
मन तू सुख के सागर बस रे। और ना ऐसा यश रे।।
सुख के सागर सतलोक चल वहां निवास स्थाई प्राप्त कर। जहां से तू आया है और कोई यश आपको लाभ देने वाला नहीं है। मान ले कोई अच्छा सुप्रसिद्ध हो गया, कोई नेता हो जाता है, या कोई संत सिद्धि साधी दिखाकर दो-चार को नुकसान, दो-चार को लाभ दिखाकर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। फिर उसकी यादगार बना दी जाती है और वह कहीं पशु पक्षी बनकर धक्के खा रहा होता है। उस यादगार पर मत्था टेकते रहते हैं।
मनमाना उन यादगारों पर खुद ही पक्षी बनकर बीट कर रहा हो। इसलिए परमात्मा की भक्ति करना, इस मनुष्य जीवन प्राप्त करके अनिवार्य बताया है और जैसे धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है बच्चों! भक्ति तो यह कर ही रहा था और कती (बिल्कुल) दृढ़ था। पूरा devoted (डिवोटीड- समर्पित) समर्पित था। परमात्मा आए इनको खूब समझाया, पर हम इतने दलदल में धंस चुके होते हैं। कुछ लोक लाज, कुछ समाज का दबाव और हमारे अज्ञान, इतनी तरह से जीव को बांध दिया होता है उस झूठ को आंखों देखकर भी त्यागने को तैयार, शीघ्र सी प्राणी नहीं होता। अब आप धर्मदास जी के प्रकरण को देख रहे हो। भगवान की चाह अजब-गजब और गुरु भी बना रखा था। परमात्मा उसको रह-रहकर मिलते रहे।
दलदल से निकालने के लिए कितने प्रयत्न किये। भिन्न-भिन्न रूप बनाए। हर तरह जाकर वही बात बताई। की जिनकी तुम पूजा करते हो यह तुम्हें मोक्ष नहीं दे सकते। यह तुम्हें परमात्मा प्राप्ति नहीं करा सकते। तुम्हें लख चौरासी योनियों से बचा नहीं सकते।
बच्चों! यह दशा आपकी भी खूब रही है। हमारी भी रही है प्रत्येक की शुरुआत दाता ने ऐसी ही की है। एक दिन में हज़ार जगह प्रकट होकर हज़ार प्राणियों को ऐसे ही अपने संदेश देते हैं। राह दिखाने की चेष्टा करते हैं। वेद भी बताते हैं परमात्मा सबसे ऊपर के लोक में रहता है। वहां से गति करके आता है, चलकर सशरीर। यहां अच्छी आत्माओं को मिलता है उनको भक्ति की सही दिशा देता है। भक्ति के सर्व आविष्कार करके बताता है। वह कवियों जैसा आचरण करता है। साधु संत के रूप में घूमता-फिरता है। तो इसी प्रकार मालिक ने आपको भी कभी ना कभी ऐसे ही दल-दल से निकाला था मालिक ने। अब परमात्मा अन्य रूप में आए थे धर्मदास जी को एक बगीचे में मिले। वहां धर्मदास जी से कहा कि, “आप अपने रूपदास गुरुजी से यह प्रश्न पूछ लो। अगर वह उत्तर दे देता है तो ठीक है आप उसकी भक्ति करते रहना। नहीं तो फिर मेरे पास आना।”
देखो बच्चों! परमात्मा ने, ज़मीन पर बैठे और धर्मदास एक पत्तल के ऊपर मिठाई लाया। ज़मीन पर बैठकर। बच्चों विचार करो! परमात्मा आपके लिए रत्नजड़े सिंहासन को छोड़कर, सबसे सुखदाई सतलोक को छोड़कर, इस गंदे लोक नरक में आते हैं। आपको नरक से निकालना चाहते हैं। वो ऐसा क्यों करते हैं? क्या लगते हैं हम उसके? यह बहुत बड़ा विचार करने का विषय है। वो हमारे पिता हैं। वो हमारे अपने हैं। वो हमारे जनक हैं। वो हमारे सच्चे हम दर्द हैं। हम यहां सब नकली व्यवस्था को अपना साथी मान बैठे हैं। यहां कोई साथी नहीं है बेशक कितना ही अच्छा है। बाप है, मां है, बहन है, चाहे कोई सत्ताधारी रिश्तेदार है। एक पलक में, एक मिनट में, पता नहीं हमारी मृत्यु हो जाए या जिसके ऊपर हम आश्रित हैं वह मर जाए। तो कै (क्या) साथी हुआ वह? चाहे कितना ही अच्छा हो, कितना ही सहयोगी हो। गरीबदास जी कहते हैं;
आदि अंत का साथी बिसराया। और झूठे रिश्ते में फिरे भूलाया।।
वो हमारा सच्चा साथी है और मृत्यु के बाद भी वह हमारे साथ होगा। हम ठीक से नहीं समझ कर फिर जन्म लेते हैं। फिर भी दाता साथ रहते हैं। इस काल बलि ने ऐसा षड्यंत्र रच रखा है। जैसे हम आन उपासना करता था दास, पहले तुम भी करते थे आप सारे और उसके करते-करते भी ऐसा होता था जैसे बहुत कमाल कर दिया भगवान ने। बहुत सी ऐसी राहत मिली तो हमें लगता था की यह कर रहे हैं, यह पत्थर के देवता, यादगार ये मूर्ति। अब पता चला, साथ यह हमारे उस समय भी था।
जो जन मेरी शरण है, ताका हूं मैं दास। गेल गेल लाग्या फिरूं, जब तक धरती आकाश।।
बच्चों! यह बातें बहुत गज़ब की हैं जो आपको बहुत ज़रूर सुननी चाहिए। पुण्य आत्माओं! अब धर्मदास जी मिठाई लाए। पहले तो मना करें थे भाई मैं खाता नहीं मेरा शरीर कुछ नहीं खाने का। वैसे ही ठीक रहता है। भक्ति करता हूं। ज़्यादा विनय की, बहुत दया भाव, सच्चा भाव देखा तो, ‘ले आ बेटा।’ ज़मीन पर बैठकर पत्तल पत्तों को जोड़कर एक प्लेट से बनाई जाती है। उसको पत्तल बोलते हैं। उस पर बैठकर वो पेड़े खाए, पतासे खाए।
बच्चों! इस तरह के प्रयत्न, इतना अपनापन इस परमपिता बिना हमारा कोई साथी नहीं कर सकता। अब परमात्मा ने कहा था कि आप एक बार अपने गुरुजी से यह बातें पूछ लो। भई ब्रह्मा, विष्णु, महेश के माता-पिता कौन हैं? और आप मुझे मोक्ष दे सकते हो के नहीं? राम कृष्ण जी की भी मृत्यु हो गई। पुराणों में लिखा है विष्णु मरेगा, शिव मरेगा।
परमात्मा जब चल पड़े धर्मदास देखते रहे, देखते रहे, देखते रहे….. अब ऐसे दोराहे पर खड़ा हो गया धर्मदास की किसको छोडूं, कहीं नुकसान ना हो जाए? यह ज्ञान जो यह बता रहे हैं इसके बराबर कोई नहीं। यह तो हमने असंख जन्म हो गए जन्म और मृत्यु होते को। सृष्टि रचना सुनाई। जब परमात्मा को देखते रहे, ओझल हो गए। थोड़ा सा मोड़ मुड़ गया रास्ता। अचेत हो गए, गिर गए। डर यह था कि इसने छोड़ूं तो मर गया, पहले वाली पूजा को क्योंकि दूसरा कोई साथी नहीं, बताने वाला नहीं था। विश्वास बने कैसे? फिर अपने गुरु जी के पास जाते हैं कि उनसे पूछ लूं कहीं नाराज़ ना हो जाएं।
धर्मदास चले गए गुरु पांहे। रूपदास का आश्रम जहां है। पहुंचे जाए गुरु के धामा। हुए आधीन तब कीन् प्रणामा। तुम गुरुदेव शिष्य हम आहीं। परिचय ज्ञान कहो मोहे तांही।। जीव मुक्ति कौन विधि होई। तन छूटे कहां जाए समोई।। जीव कर मुक्ति कैसे होई। पारब्रह्म सो कहां रहाई।। आदि ब्रह्म सो कहां रहाई। घट में बोले कौन है आही।। ताकर नाम कहो हम ताहिं। मेरे मन का संशय जाई।। राम कृष्ण से न्यारा सोई। जग कर्ता प्रभु कहां समोई।।
इस राम, कृष्ण, विष्णु, शंकर जी से अलग परमात्मा है सारी सृष्टि का कर्ता। वो कहां रहता है? अब रूपदास जी धर्मदास जी की बातें सुनकर अचंभित होता है, आश्चर्यचकित हो जाता है।
कहता है, धर्मदास तुम भयो अजाना।
तुम तो अनजान हो।
कोय सिखाओ तो ही यस ज्ञाना।।
यह ऐसा ज्ञान तुझे किसने सिखा दिया।
सुमरो राम कृष्ण भगवाना। ठाकुर सेवा कर्म बुद्धिमाना।। हरदम जाप लक्ष्मी नारायण। प्रतिमा पूजन मुक्ति पारायण।।
वो तो वही रटे लगवावे, की लक्ष्मी नारायण की भक्ति कर। ठाकुर की सेवा कर। राम कृष्ण का जाप कर। प्रतिमा पूज। मुक्ति हो जाएगी।
मन वचन सुमर कुंज बिहारी। वो रहे बैकुंठ सोई बनवारी।। पुरुषोत्तम परि बैग सिधाओ जगन्नाथ परसों भर आओ।।
तुम वहां जाओ जगन्नाथ के दर्शन करो और फिर मुक्ति हो जाएगी।
गया गोमती काशी थाना। तीर्थ नहाए पुण्य प्रधाना।।
गोमती, गोदावरी इन नदियों में स्नान करो तीर्थ है यह। काशी जाओ तीर्थ नहाओ, गजब का पुण्य होता है। निराकार निर्गुण अविनाशी।
अब देखो रामकृष्ण की यह पूजा करें भगवान को निराकार, ज्योति स्वरूपी बतावैं जो सुन्न में रहता है।
निराकार निर्गुण अविनाशी। ज्योति स्वरूप सुन्न का वासी। ताही पुरुष कर सुमरिये नामा। तन छूटे पहुंचे हरि धामा।
अब धर्मदास बोले
ओह गुरुदेव! पूछूं एक बाता। क्रोध ना करियो सुनो मेरे दाता।। जीव रक्षक जो कहां रहाई। निराकार जीव भक्ष अहाई।।
वह जो जीव की रक्षा करता है, वह भगवान कहां रहता है? यह निराकार तो जीव को खाता है। परमात्मा से सृष्टि रचना सुनकर वह ऐसे तर्क करने लग गया।
ब्रह्मा विष्णु महेश गोसाईं। तुम तेही को काल धर खाई।।
फिर कहते हैं
तीनूं देव पड़ें मुख काला। सुरनर मुनिजन क्यों करें बहाला।। नर बपरे की कौन चलावे। कौन ठौर जीव बच पावे।। तीन लोक बैकुंठ नसाई। अस्थिर घर मोहे देयो बताई।। पाप पुण्य भ्रम जाल पसारा। कर्म बंधन भ्रमे संसारा।। कीर्ति कृत्रिम की करें जूनी नहीं छूटे। सतनाम बिन यम धर लूटे।।
अब धर्मदास जी अपने गुरु जी से कहता है कि जो ज्योति निरंजन आप बता रहे हो निराकार, यह एक लाख नित मानव खाता है सवा लाख उत्पन्न करता है। यह तीनों देवता भी उसके मुख में पड़ेंगे। इनको भी खाएगा। सुरनर मुनिजन सबका बेहाल कर रखा है।
नर बेचारे की कौन चलावे। सामान्य जीव की क्या पार बसावे। बताओ कौन ठोर जीव बच पावे। तीन लोक बैकुंठ नसाई।।
यह तो आप भी मानते हो एक दिन तीनों लोक बैकुंठ समेत नष्ट होंगे। स्वर्ग भी नष्ट होगा।
अस्थिर घर मोहे देओ बताई। स्थिर अविनाशी।।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा उसकी कृपा से ही तू परम शांति को और सनातन परमधाम, शास्वतं स्थानं, अविनाशी लोक को प्राप्त होगा। रूपदास बोला;
अहो धर्मदास हम चक्रित होई। यह कुछ समझ पड़े मोहि। तीन लोक के कर्ता जो हैं। तेहि भाषत वो चमरा सो है।।
तीन लोक के मालिक, 21 ब्रह्मांड के स्वामी निरंजन को तुम कहते हो वह तो काल है।
ब्रह्मा विष्णु और महेश गोसाईं। तुम कहते हो काल धर खाई।। इनको काल खाएगा। तीन लोक में बैकुंठ श्रेष्ठा।
इस तीन लोक में स्वर्ग, पाताल, बैकुंठ स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल स्वर्ग को बैकुंठ कहते हैं। इन तीन लोकों में बैकुंठ श्रेष्ठ है।
सो सब तुम कहो निकष्टा।।
तुम उसको घटिया बता रहे हो। की वहां जीव अपने पुण्य खत्म करके वापस आता है।
तीर्थ व्रत और पुण्य कमाई। तुम यह जम जाल ताहि ठहराईं।।
की तू तो कह रहा है की यह सारा काल का जाल है। तीर्थ और व्रत आदि। और अधिक मैं कहां बताऊं। जो जानूं सो नहीं बराउ।।
रूपदास जी बहुत अच्छी आत्मा के थे। कहने लगा बेटा इससे आगे मुझे बिल्कुल ज्ञान नहीं। जो मुझे ज्ञान था मैंने बिल्कुल नहीं छुपाया तेरे से।
जिन तोही अस बुद्धि दिया भाई। तिनके तुम सेवक जाई। अब तू उसको गुरु बना, उसके अनुसार साधना कर।
धर्मदास विनय कर जोरी। चूक ढिठाई बख्सियो मेरी।
अब यह डर लगे कहीं यह श्राप दे दें। हे भगवान! हे गुरुदेव! मेरी यह ढिठाई माफ करियो।
अब तेही पद अब सेवा जाई। जिन यह अगम मोहे बताई।।
अब मैं उसी के चरणों में जाऊंगा और मैं उसी के अनुसार साधना करूंगा।
तुम हो गुरु वह सतगुरु मोरा। उन हमारा यह फंदा तोरा।। तुमने ज्ञान दे अभक्ष छुड़ाया। उन मोही अलख अगम लखावा।।
धर्मदास ने सोचा कभी नाराज़ ना हो जाए रूपदास जी, की आप मेरे गुरु हो और वह मेरा सतगुरु हो जागा (जाएगा)।
कहने का भाव यह है बच्चों! इन झाड़-बोझड़ों में इतने फंस गए, हम पल्ले उलझे रहते हैं कहीं ना कहीं हमारा। आगे बढ़ने नहीं देते। एक बार सुलझ गए तो फिर दोबारा हम इनके हाथ नहीं आएंगे।
धर्मदास तब करी प्रणामा। बांधवगढ़ पहुंचे निज धामा। कैतिक दिन यही भांति गयो। धर्मदास मन चिंता भयो।। कैतिक दिवस ए विद बीता। धर्मदास चित बाडी प्रीता। धर्मदास मन माही विचारा। प्रभु आवे करूं भंडारा। यज्ञ माही साधु जिमाऊं। जिंदा कहे हम साधन मा आऊं।।
अब उसको याद आता है। उधर से आमनी देवी के पास वो पहुंचकर बहुत बुरी तरह रोता है। काफी देर तो सांस नहीं लेता इतना रोया। आमनी उनकी धर्मपत्नी, वैसे धार्मिक थी, परंतु कंजूस थी थोड़ी सी। धर्मदास जी बहुत खुले हाथ के थे। भंडारे खूब करते थे, दान करते थे साधुओं को। तो वह टोक दिया करती। की घर देखकर खर्च करना चाहिए। धर्मदास ने सोचा था, धर्मदास आकर बुरी तरह रो रहा था। अपने घर में बडके (आकर) और जाना था लंबे दिन, आ गया जल्दी। उसको तो 1 महीने से ज़्यादा लगना था सफर में, जितना वह बता कर गए थे तीर्थ यात्रा।
आ गया वह 10-15 दिन में। आमनी देवी ने सोचा सेठ जी कुछ पैसे ले गये थे रस्ते में खर्च के लिए, वह किसी चोर उचक्के ने लूट लिए। यह इसलिए रो रहा है कि मैं और पैसे मांगूंगा यह आमनी चिरड़मिरड़ (क्लेश) करेगी और नाक मार के देगी तो ऐसा ही धर्म किया और ऐसा ही नहीं किया। यह उसके अपने मन की कल्पना थी आमनी देवी की।
भगत जी को उठाती है उसके सिर पर हाथ फेरती है क्यों रो रहे हो? कोई बात नहीं। किसी दुष्ट ने पैसे लूट लिए, लूट लिए कोई बात नहीं धन की कमी है आपके? और ले जाना। अपना पूरा काम करके आओ, तीर्थ जाओ। मुझे लगता है किसी ने आपके पैसे लूट लिए। पैसे के अभाव में वापस आ गए। आप यह सोच रहे हो कि आमनी अब बस बात मानेगी नहीं और पैसे लूंगा तो कुछ अनाप-शनाप बोलेगी और वह धर्म में बाधक होगा। धर्मदास हिम्मत सी करके बोला, आमनी देवी बात ऐसे नहीं है। सुबक-सुबक कर बोला। कहने लगा, आज जो मेरा धन लूट गया अब मुझे कभी नहीं मिलेगा।
वह मिले नहीं और मैं जीऊं नहीं। आज मैं इस स्थिति में आ चुका हूं। आमनी बोली ऐसा कौन सा धन था? मुझे भी बताओ, share (शेयर-साझा) करो मुझे। तब धर्मदास जी ने अपनी मूर्खता सारी बताई। जो वार्ता हुई, जो कुछ सुना सारा कुछ बता दिया। सृष्टि रचना सुनाई। आमनी देवी ने भी 2 घंटे लगातार यह बातें सुनी। बुद्धिमान थी बोली, सेठ होकर और ऐसा सौदा चूक गए। यह कैसा कमाल कर दिया। धर्मदास बोला, ज़िंदगी में पहली बार धोखा खाया है। मेरे पाप ने, बात सिरे घरने (समझने) नहीं दी। रोता रहा। कई दिन बीत गए।
नहीं खावे, रास्ते में खड़ा हो जाए ऐसे देखे महात्मा आता हो कोई भाग जा। निकट जाकर देखें, उससे प्रश्न करे। राम-कृष्ण से ऊपर कौन भगवान है? की हो सकता है पता नहीं किस रूप में आजा दाता। उसका वही घिसा पिटा उत्तर था कि इनसे ऊपर कोई भगवान है ही नहीं आप कैसी बातें कर रहे हो? नमस्कार! करके चल पड़ा। रोवे आंखों से आंसू आवें। फिर किसी ने, उसी बनी में आकर कोई साधु बैठ गया नगर बांधवगढ़ के। पहले गांव के चारों तरफ एक छोटा जंगल होता था उसको बणी बोलते हैं। उस बणी में एक संत आया बड़ी चर्चा हो गई। गांव के लोग जाने लगे, नगर के। गांव और नगर में श्रद्धालुओं की कमी नहीं होती।
धर्मदास जी को पता चला वह भी पहुंच गया। उसने जाकर यही प्रश्न किया। उसने बताया शंकर भगवान की कर भक्ति इससे ऊपर कोई देव नहीं है। यह महादेवों का देव है। आशुतोष है। बहुत जल्दी खुश हो जाता है। बहुत रिद्धि-सिद्धि देता है, बड़ा धन देता है। उसने सोचा साधु ने कि यह सेठ है खुश हो जाएगा, धन की भूख इनको होती है और अच्छी पूजा चढ़ावेगा। धर्मदास प्रणाम करके उठ गया नहीं बनी बात। फिर रोता आया। आमनी ने उसकी दशा देखी कि आप ऐसे कितने दिन जियोगे? धर्मदास बोला वह महात्मा मुझे मिलेगा नहीं तो मैं, जब तक मैं जीऊगा नहीं। वह नहीं मिलेगा इतने, मैं कोई नहीं ढंग से खा पाऊंगा और पूजा मेरी सारी छूट गई। भक्ति बिना इस जीवन का बनेगा क्या?
इससे अच्छा तो प्राण छूट जाएं। आमनी देवी को चिंता हुई उसने पूछा कि एक बात बताओ, कुछ तो hint (हिंट-संकेत) दिया होगा, उन्होंने भी की कैसे मैं मिलूं? कहां मिलूं? कहां रहता हूं? आमनी मेरा दुर्भाग्य है मैंने यह पूछा नहीं, कहां रहता है? इतना ज़रूर कहते थे कि जहां भी कोई साधु-संत भंडारे होते हैं, संगत सत्संग होते हैं मैं वहां अवश्य जाता हूं। आमनी बोली फिर कोई भंडारा कर लो। आप भंडारा लगा दो। साधु जिमाओ। धर्मदास जी ने 3 दिन का कर दिया। की एक दिन में तो नहीं भी आने पावैं 3 दिन में तो आएंगे ही। सब जगह चिट्ठी भिजवादी। समय रख दिया। उस लग्न में समय बीत गया। भंडारा प्रारंभ हुआ। तीसरा दिन, अंतिम समय, afternoon (आफ्टरनून-दोपहर) बाद दोपहर हो गई। परमात्मा नहीं आए। धर्मदास जी ने सोच लिया की नहीं आएंगे। मैं कलमूहा हूं। मैंने ज़्यादा प्रश्न कर दिए उट-पटांग और वह मेरी बात से अब दुख मान गए, आएंगे नहीं। धर्मदास जी, मन में सोच रहे थे कि यह आ गए तो आ गए, अंतिम दिन थोड़े से साधु रह रहे थे जो भोजन भंडारा कर रहे थे। मन में सोच लिया नहीं आए तो फांसी खाकर मरूंगा बस। इस तरह थोड़ा ही जीया जाता है। यह पक्की सोचकर और साइड में निकले। वह भोजन करवाने वाले तो और थे। साथ में एक कदम का पेड़ था, उधर दृष्टि गई उसके नीचे,
वही जिंदे का बदन शरीरं। बैठे कदम वृक्ष के तीरं।।
वही जिंदे का रूप देखकर, उस कदम के पेड़ के तरफ दौड़कर गया धर्मदास। चरणों में गिर गया। सीने से लिपट गया। हे भगवान! पापी हूं, क्षमा करो दाता। हे मालिक! बहुत नीच, बहुत दुष्ट, मैने कैसी अनमोल पूंजी खो दी दाता। अब के छोड़ के मत जाना। कुछ भी कहियो दाता। इस तरह 6 महीने बीत गए थे। धर्मदास चिंता मत कर, इनको निपटा तू। इनको मत बताना। परमात्मा को पता था, इनके सामने चर्चा होगी तो दुगने अड़ंगे अड़ाएंगे। इनको तो ज्ञान वही है। वह साधु-संत निपटा दिए। एक नज़र धर्मदास की महाराज पर और, और भक्तों को कहे भाई जल्दी निपटाओ। खिलाओ साधुओं को भोजन करवाओ। उनको देकर दक्षिणा चलते कर दिए।
धर्मदास जी उनको घर ले गए भगवान को। आमनी से बोले, आमनी आजा मिल गया धन मेरा। यह आ गए। भगवान आ गए। भगवान आ गए। दोनों ने एक-एक पैर पकड़ लिए। परमात्मा को एक मुढा दे दिया। धर्मदास खूब रोया। आमनी बोली हे महाराज! भगत तो बहुत नरम दिल का है। आपने अपने बच्चे को इतनी सज़ा नहीं देनी चाहिए थी। 6 महीने हो गए इसको रोते को। हे मालिक! यह तो मर जाता। मैं इसको सांत्वना देती रही। की आएंगे। तेरे साथ जब वहां मिले, वहां मिले, फिर भी आएंगे। परमात्मा बोले बेटी! यह काल का advocate (एडवोकेट-वकील) बन रहा था। मैंने खूब समझा लिया। नहीं मानै था। अब यह लोहा गरम किया है 6 महीने इसमें ताव दिया। यो (यह) नहीं देता तो, यह कभी नहीं मानता इतना अडंगा भर गया था इसमें। अब मैं जो कहूंगा यह सारी मानेगा। बच्चों! फिर परमात्मा ने फिर से ज्ञान start (स्टार्ट-शुरु) से शुरू किया।।
धर्मदास यह जग बौराणा। कोई न जाने पद निरवाना।। यही कारण मैं कथा पसारा। जग से कहिए एक राम न्यारा।। यही ज्ञान जग जीव सुनाओ। सब जीवों का भरम नसाओ।। भरम गए जग वेद पुराणा। आदि राम का भेद ना जाना।।
अब आमनी भी सुन रही थी।
अब मैं तुमसे कहूं चिताई। त्रिदेवन की उत्पत्ति भाई।। कुछ संक्षेप कहूं गोहराई। सब सशंय तुमरे मिट जाई।।
बच्चों! यह अमर कथा है। अमर ज्ञान है। इसको जितनी बार सुनोगे, इतनी बार इंजेक्शन से लगेंगे आत्मा को। बच्चों! जितनी बार दास इसको सुनता और सुनाता है, कलेजा भर-भर के मुंह को आता है। इतने अजब-गजब ज्ञान को भगवान बिना कौन बता सकता है। बच्चों! आत्मा में जब तक दोष नहीं आता, तब तक कितनी ही बार सुनो यह आनंद आएगा। जैसे जब तक हम स्वस्थ हैं भोजन वही होता है, तीन बार खावैं, बीच में चाय पानी पीवें, तो इच्छा बने तो हम स्वस्थ हैं। यदि आना-कानी मन करता है तो कोई समस्या आ चुकी है बॉडी में।
कोई रोग निकट है। इसी प्रकार इस आत्मा को आप जान सकते हो इसमें कोई दोष आता है और यह सुनने की इच्छा नहीं बनती है तो समझो कोई पाप निकट है और ज़्यादा सुनो। मन ना चाहे बेशक, आत्मा सुने और देखना फिर वही रस फिर शुरू हो जाएगा क्योंकि बुखार हो जाता है तो खाना अच्छा नहीं लगता जो daily (डेली-रोज़ाना) खाना होता है और जब गोली कड़वी-कड़वी खाकर बुखार उतारना पड़ता है फिर देखो उसी सूखे अनाज में कैसे रुचि बन जाती है, सब्जी की भी आवश्यकता नहीं महसूस करता। जब भूख गज़ब की लगती है।
धर्मदास यह जग बौराना। कोई न जाने पद निर्वाणा।।
हे धर्मदास! यह सारा संसार विचलित है। कोई भी यथार्थ मोक्ष मार्ग को नहीं जानता।
यही कारण मैं कथा पसारा। जग से कहिए वह राम न्यारा।। यही ज्ञान जग जीव सुनाओ। सब जीवों का भरम नसाओ।। भरम गए जग वेद पुराणा। आदि राम का भेद ना जाना।।
आदि राम दिव्य परमात्मा, परम अक्षर ब्रह्म, सनातन भगवान, उसका किसी को ज्ञान नहीं।
राम राम सब जगत बखाने। आदि राम कोई विरला जाने।।
आदि राम सनातन जो सदा का मालिक है। अब जो मैं कथा सुनाने जा रहा हूं यानी सृष्टि की उत्पत्ति। उसको
ज्ञानी सुन सो हृदय लगाई। मूर्ख सुने तो गम न पाई।। अब मैं तुमसे कहूं चिताई। त्रिदेवन की उत्पत्ति भाई।। कुछ संक्षेप कहूं गहूंराई। सब संशय तुमरे मिट जाई।। मां अष्टांगी पिता निरंजन। यह जम दारूण वंशन अजंन।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश की माता अष्टंगी है दुर्गा और पिता वह ज्योति स्वरूपी निरंजन जिसको तेरा गुरु रूपदास कह रहा था वही मालिक है उसी की पूजा करो।
पहले कीन्ह निरंजन राई। पीछे से माया उपजाई।। माया रूप देख अति शोभा। देव निरंजन तन मन लोभा।। कामदेव धर्मराय सताए। देवी को तुरंत धर खाए।। पेट से देवी करी पुकारा। हे साहेब मेरा करो ऊभारा।। टेर सुनी तब हम तहां आए। अष्टंगी को बंध छुड़वाए।। सतलोक में किन्हा दुराचारी। काल निरंजन दीन्हा निकारी।। माया समेत दिया भगाई। 16 संख कोस दूरी पर आई।। अष्टंगी और काल अबदोई। मंद कर्म से गए बिगोई।।
परमात्मा कहते हैं, दुर्गा ने सबसे पहले हाथ खड़ा किया Yes (येस-हां) किया इस गंदे आदमी के साथ आने का। उसके बाद तुम मर गए। तुमको सबको जीव रूप बनाकर सूक्ष्म रूप में इसके शरीर में मैंने डाल दिया और इसको, इसके पास भेज दिया। इसको भी नहीं पता था यह इतना निकम्मा कर्म करेगा। तो वहां जाकर इसने इसके साथ बद्तमीज़ी करनी चाही। माया ने बहुत कोशिश की अपना धर्म-कर्म बचाने के लिए।
जब देखा कि यह हद से आगे बढ़ गया तो मुंह खोला उस पापी ने। दुर्गा ने सूक्ष्म रूप बनाया इसके पेट में चली गई। पेट से पुकार की मालिक रक्षा करो। परमात्मा वहां आए कहते हैं फिर हम वहां आए भाई। उसको पेट से निकाला दुर्गा को और बता दिया की यह तेरे कर्म का दंड है। इतनों को और लेकर मर गई तू साथ। निकल जाओ यहां से।
अष्टांगी और काल अबदोई। मंद कर्म से गए बिगोई।।
इस बुरे कर्म से यह दोनों नष्ट हो गए। गिर गए स्तर से और मेरी आत्मा से गिर गए।
माया समेत दिया भगाई।
इन दोनों को वहां से भगा दिया।
16 संख कोस दूरी पर आई।। अष्टांगी और काल अबदोई। मंद कर्म से गए बिगोई।। धर्मराय को हिकमत कीन्हा। नख रेखा से भग कर लिन्हा।।
धर्म इसको काल को धर्मराय भी कहते हैं।
धर्मराय कीन्हे भोग विलासा। माया को रही तब आसा। तीन पुत्र अष्टांगी जाए। ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराए। तीन देव विस्तार चलाएं। इनमें यह जग धोखा खाए। पुरुष गम कैसे कोई पावे। काल निरंजन जग भरमावे।।
उस परमपिता सतपुरुष की कौन महिमा जान सकता है। यह सबको काल भ्रमित किए हुए हैं।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा। सुन निरंजन बासा कीन्हा। अलख निरंजन सुन ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद ना जाना। तीन देव सो उनको ध्यावे। निरंजन का वह पार नहीं पावे।
अब क्या बता रहे हैं परमात्मा की, यह काल ने तीन लोक अपने पुत्र को दे दिए। एक सृष्टि, बच्चे उत्पन्न करवाता है, दूसरा पालता है, तीसरा मारता है। और स्वयं जाकर ऊपर, अपने 21वें ब्रह्मांड में, अपने वास्तविक रूप में रहता है। बाकी प्रत्येक ब्रह्मांड में इसने वहां ब्रह्मलोक बना रखा है, वहां भी महाब्रह्मा, महाशिव, महाविष्णु रूप में यही रहता है। परमात्मा कहते हैं,
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद नहीं जाना। तीन देव सो उसको ध्यावें। निरंजन का वह पार नहीं पावें।।
यह तीनों देवता भी उसका ध्यान लगाते हैं, खोज रहे हैं लेकिन यही नहीं खोज पाए उसने, यह और ऋषि कहां ढूंढ लेंगे। समाधि लगाते हैं किसी को विष्णु रूप में दर्शन देता है ऋषियों को। किसी को शिवजी के रूप में। किसी को ब्रह्मा जी के रूप में तो यह भ्रम में पड़ गए कि यह ब्रह्मा जी, विष्णु जी, यही तीनों भगवान हैं और इसी अज्ञान को सारे हिंदू धर्म में भर दिया ठोक-ठोक कर।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव नहीं बचाए। सकल खाए पुण्य धूर उड़ाए।।
इनको भी खाएगा, इन्हें भी नहीं छोड़े।
तिनके सुत है तीनों देवा। अंधर जीव करत हैं सेवा।।
यह अंधे लोग इस काल के तीन पुत्रों की पूजा करते हैं।
अकाल पुरुष काहू नहीं चीन्हा। काल पाए सबै गह लिन्हा। ब्रह्म काल सकल जग जाने। आदि ब्रह्म को ना पहचाने। तीन देव और अवतारा। ताको भजे सकल संसारा।
इन तीनों देवताओं को और इनके अवतारों को यह सारे ही भजते हैं। परमात्मा कहते हैं तीनों देवताओं को ब्रह्मा, विष्णु, महेश को और जो अवतार हैं, कहते हैं, यह मूर्ख लोग इन्हीं की पूजा में लगे हुए हैं।
तीन देव और अवतारा। ताको भजे सकल संसारा।। तीनों गुण का यह विस्तारा। धर्मदास मैं कहूं पुकारा।।
गुण तीनों की भक्ति में, भूल पड़ो संसार। कहे कबीर निज नाम बिना, कैसे उतरो पार।।
तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कदे ना होवे मुक्ति।।
बच्चों! अगर यह बात धर्मदास जी को परमात्मा पहले भी बता रहे थे, सुनाई थी कथा, बड़ा दुख मानया (माना) अब उसका सारा भ्रम मिट लिया। वो और भी संतों के पास गया। सब जगह कहीं धांस नहीं पाई। तब अकल ठिकाने आई और अब इन बातों का घी सा घले है उसके और ऐसे कहे महाराज! और बताओ। और बताओ। हे परमात्मा! एक और मिला था मुझे बीच में, दो और मिले थे वो भी यही बात बतावैं (बता) रहे थे। धर्मदास जी ने पूछा, आपका नाम क्या है महाराज? परमात्मा बोले मेरे को जिंदा कहा करें जिंदा। की महाराज दो और मिले थे और वो भी यही ज्ञान बता रहे थे और वह यह कह रहे थे कि हम कबीर काशी में कबीर हैं हम उसके भक्त हैं। क्या आप भी उन्हीं के भक्त हो या आप खुद वही हो? कबीर काशी वाले के। परमात्मा ने उस समय तीन रूप बनाए। की यह दो और यही रूप थे? की हांजी! हांजी! यही थे। हांजी! हांजी! ऐसे करे। फिर तीनों एक उस जिंदा में समा गए दोनों वह। अकेला रह गया।
धर्मदास! यह सब खेल हमारे किये। हमसे मिले सो निश्चय जिए।।
बच्चों! आज इतना ही देखो यह कथा हैं इन कथाओं से ही हमने आज सब कुछ सीखा। इन्हीं से हम आगे और बढ़ेंगे। इसमें से बहुत निष्कर्ष निकलेगा last (लास्ट-आखिरी) में। यह पूरा प्रकरण होने दो। सुनते रहो आत्मा के अंदर इतनी शक्ति आ रही है आपकी क्योंकि पहले आप सत्संग नहीं सुन पा रहे थे। सत्संग आसपास होते थे चलो कोई कुछ चले गए, कुछ ना (नहीं) गए। अब मालिक ने यह घर बैठे आपके डोज़ देनी शुरू कर दी, अब कहां जाओगे। अब क्या बहाना मिलाओगे।
बच्चों! समझ जाओ उस मालिक की रज़ा को उसके प्यार को ठुकराओ मत। जो तुम्हें सीने से लगाना चाहता है। इस नर्क में कब तक रहोगे। यह गंद घना (ज़्यादा) अच्छा लग रहा है तुम्हें? भगवान बतावें, आंखों देखे महापुरुष बतावें। सतलोक में सब सुख हैं आप वहीं के वासी हो। वहीं जाओगे तो दुख मिटेगा। नहीं तो यह बीरानमटी ऐसे की ऐसे रहेगी। तो ऐसा कोई मूर्ख नहीं है। नहीं पता था तब तक तो हम सारे ही धंसे पड़े थे इस नर्क में। अब तो भाई रो-रो मर जाएंगे यदि अब के रह गए तो। दो अगर (अक्षर) की बात है। दृढ़ हो जाओ। तड़प जाओ उस घर जाने के लिए। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे। आपको अपने घर की याद बनी रहे।।
काल का दुख सदा याद रहे।
सत साहिब