Dharamdas-Leave-Stone-Worship-for-God-Kabir-Hindi-Photo

सत साहिब।

सतगुरु देव की जय।

बंदी छोड़ कबीर साहिब जी की जय।

बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज  की जय।

 स्वामी राम देवानंद जी गुरु महाराज  की जय हो।

बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।

 सर्व संतो की जय।

सर्व भक्तों की जय।

धर्मी पुरुषों की जय।

श्री काशी धाम की जय।

श्री छुड़ानी धाम की जय।

 श्री करोंथा धाम की जय।

श्री बरवाला धाम की जय।

सत साहेब।

गरीब नमों नमों सत्य पुरुष को, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतो सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।।

कबीर सतगुरु के उपदेश का, सुनियां एक विचार। जै सतगुरु मिलते नहीं, जाते नरक द्वार।। नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। उनसे कभी नहीं छूटता, फिरता चारों खान।। कबीर चार खानी में भ्रमता, कबहूं ना लगता पार। सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।

जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बासियो, सतलोक के डेरे की।।

निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहब ना।। निर्विकार निर्भय।।

परमपिता परमात्मा कबीर जी की असीम रजा से बच्चों आप यह अमृत ज्ञान सुन रहे हो। अजब गजब ज्ञान आपको सुनाया जा रहा है। आत्मा को इसकी बहुत युगों से भूख है। खूब इन्होंने प्रयत्न किए हैं आत्मा ने। प्रत्येक जीव करता है मनुष्य शरीर प्राप्त करके। कोई तीर्थ पर जाता है। कोई व्रत करता है। जिसको जैसा गुरु मिलता है। आपको भगत परम पुण्यात्मा संत धर्मदास जी की कथा सुनाई जा रही है कलयुग के अंदर परमात्मा ने यहां से अपना बीज बोया। इसके माध्यम से हमें शिक्षा दी की जैसे धर्मदास भटका हुआ था ऐसे तुम सब हिंदू और मुसलमान सारे भटके फिर रहे हो। किसी के पास भी यथार्थ भक्ति ज्ञान नहीं है।

काल के दूतों द्वारा लोक वेद फैलाया गया उससे अपना जीवन नष्ट कर रहे हो। धर्मदास जी जब परमात्मा के पास पहुंचे जब भगवान उनको जिंदा बाबा के रूप में प्राप्त हुए मिले। उसने बहुत वाद विवाद किया। आंखों देख गीता वेदों में ज्ञान मान तो गया कि इसमें सारी सच्ची लिखी है। परंतु अपने ऊपर भी अविश्वास हो गया। आंखो देख रहा था उस पर भी अविश्वास होता चला गया। क्योंकि उसने जो ज्ञान सुना था वह उसके विपरीत था । और एक नहीं लाखों करोड़ो हिंदू उसी वेद गीता के ज्ञान के विपरीत ज्ञान से परिपूर्ण है। और सब वही ज्ञान सुनाते हैं । वही सब भक्ति की क्रियाएं करते हैं तो अब उन गीता पर भी अविश्वास हो गया उसे काल ने ऐसा जुल्म कर रखा है।

बच्चों! सच्चाई सच्चाई रहती है। इसको कोई मिटा नहीं सकता। काल ने जुल्म करने में, अंधेरा करने में, अज्ञान भरने में बिल्कुल कसर नहीं छोड़ रखी प्रत्येक प्राणी में। तो परमात्मा कहते हैं और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, कबीर ज्ञान सो ज्ञान। जैसे गोला तोप का, करता चले मैदान।। अब यह जहां गिरेगा गोला उस आत्मा के ज्ञान को बिल्कुल तहस-नहस कर देगा। धर्मदास जी ने कहा की और ज्ञान बताओ प्रभु। आपकी बात कुछ अच्छी लगती है। बच्चों! धर्मदास वहां से चल पड़ता है बांधवगढ़ की तरफ मथुरा से। मथुरा से बांधवगढ़ पहुंचने में कम से कम भी 10 - 15 दिन लगते थे पैदल चलने में। अब बहुत विलाप कर रहा था मन में सोच रहा था अब भगवान मिलेंगे नहीं। मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। और वह एक बार तो सारी बात मान लेता था फिर उसको सारे गुरु और धर्म, अपने धर्म के सब कुल के लोग उनकी तरफ देखता तो यह सोचता कि यह क्या सारे गलत कर रहे होंगे ? इस एक व्यक्ति की बात को कैसे विश्वास हो ? कहीं मैं गलती कर जाऊं।  ऐसे बात खोदै और फिर अपनी बात को अड़ा कर बैठ जा। जब वह रोते-रोते एक दिन का सफर तय कर लिया उसने आगे चलकर एक छोटा सा बगीचा था उसमें रात्रि में पड़ाव कर लिया।

वहां उसमें  एक तालाब था। पहले तालाब ही होते थे पानी पीने के और नहाने के। पीने का अलग साइड होता है नहाने का दूसरा होता था। तो उसने सुबह नहाया धोया और बैठ गया। इतने में परमात्मा एक अन्य हिंदू साधू के वेष में वहां पहुंच गए। वह दूसरे वृक्ष के नीचे बैठ गये।

 तो धर्मदास ने वहां जाकर प्रणाम किया। और कहा कुछ ज्ञान सुनाओ भगवन! परमात्मा की चर्चा सुनाओ। उसने सोचा यह हिंदू है और यह देखते हैं क्या बतायेगा ? तो परमात्मा ने बताया कि आप क्या पूजा करते हो? किसको मानते हो ? कौन ग्रंथ है आपका ? धर्मदास वही बताता है जी आप भी तो हिंदू है अपना गीता ग्रंथ है, पुराण है, वेद हैं, राम कृष्ण की हम पूजा करते हैं। और जो साधना श्राद्ध करते हैं पितृ पूजते हैं। क्या यह साधनाएं ठीक नहीं हैं  ? वह अपने अज्ञान को फिर से दृढ़ करना चाहता था कि यह हिंदू साधु है यह तो ठीक बतायेगा। परमात्मा बोले की तुम पिंड भरो और श्रद्धा कराओ। गीता पाठ सदा चित लाओ।। भूत पूजो बनोगे भूता। पितृ पूजै पितृ होता।। देवपूज देवलोक जाओ।

मम पूजा से मोको पाओ।। यह गीता में काल बतावै। जाको तुम अपन ईष्ट बतावे।। ईष्ट कहे करै नहीं जैसे।

सेठ जी मुक्ति पाओगे कैसे? आप कृष्ण जी को ईष्ट बताते हो और कृष्ण जी ने विष्णु जी ने गीता बोली और आपके गीता में लिखा है कि भूत पूजे वह भूत बनेंगे। पितृ पूजें पितृ।  और भाई देवता पूजगें देवलोक को जाओ। और मेरी पूजा करो मोको पाओ।।

यह तो गीता में काल बतावे। जाको तुम अपन ईष्ट बतावे।।

ईष्ट कहे और करे नहीं जैसे। सेठ जी मुक्ति पाओ कैसे? आपका ईष्ट गीता है गीता बोलने वाला है और वह जैसे कह रहा है आप ऐसे भी नहीं करते तो कैसे मोक्ष प्राप्त करोगे ? अब धर्मदास जी ने सोचा यह  हिंदू है और यह तो  यह भी यही बात बोलै।

परमात्मा कहते हैं जैसे आपका ईष्ट आपको निर्देश दे रहा गीता में। ऐसे नहीं करोगे धर्मदास सेठ जी तो कैसे वह गति पाओगे ? जो वह प्राप्त होनी है तो कैसे पाओगे उसको ? अब धर्मदास वचन-: 

हम हैं भक्ति के भूखे। गुरु बताए मार्ग कभी नहीं चूके।।

हे महात्मा जी! मैं तो भक्ति का भूखा हूं। और जैसा गुरु जी ने बताया हमने वह नित्य कर्म वह भक्ति कभी नहीं छोड़ी। डेली की। हम क्या जाने गलत और ठीका। अब वह ज्ञान लगता है फीका।।

तोरा ज्ञान महाबल जोरा। अज्ञान अंधेरा मिटै है मेरा। हे साहब! तुम मोरे राम समाना।

और विचार कुछ सुनाओ ज्ञाना।।

परमात्मा बोले मारकंडे एक पुराण बताई। वामें एक कथा सुनाई।। रुचि ऋषि वेद को ज्ञानी। मोक्ष मुक्ति मन में ठानी।। मोक्ष की लग्न ऐसी लगाई। ना कोई आश्रम ना ब्याह सगाई।। एक दिन पितृ सामने आए। उन मिल यह वचन फरमाए।। बेटा रुचि हम महादुख पाए। क्यों नहीं हमारे श्राद्ध करवाए।। रुचि कह सुनो प्राण प्यारो। मैं वेद पढ़ा और ज्ञान विचारों।। वेद में कर्मकांड अविद्या बताई। श्राद्ध करे पित्र बन जाई।। ताते मैं मोक्ष की ठाणी। वेद ज्ञान सदा प्रमाणी।।

इसलिए मैंने मोक्ष की ठान ली है और वेद ज्ञान सदा सत्य है। इसमें कोई चूक नहीं। और मैं वेद पढ़ा उसमें यह कर्मकांड श्राद्ध निकालना, पितृ पूजना, तीर्थ व्रत करना यह शालिग्राम पूजना यह अविद्या बताई यानी मूर्खों की पूजा बताई अज्ञान।

ताते मैं मोक्ष की ठानी। वेद ज्ञान सदा प्रमाणी।। पिता और तीनों दादा चार दिखाई दिए। चारों पंडित नहीं वेद विधि अराधा। पिता और तीनों दादा। चारों पंडित नहीं वेद विधि अराधा।।

उन्होंने वेद विधि के अनुसार साधना नहीं की थी।

ताते भूत योनी पाया। अब पुत्र को आ भरमाया।। कह पितृ बात तेरी सत्य है। वेदों में कर्मकांड अविद्या कथ है।। तुम तो मोक्ष मार्ग पर लागे। हम महादुखी फिरे अभागे।। बेटा तुम तो मोक्ष मार्ग पर लगे हो हम दुर्भागी कर्महीन हम बहुत दुख पा रहे हैं।

विवाह करवाओ और श्राद्ध करवाओ। हमरा जीवन सुखी बनाओ। रुचि कहे तुम तो डूबे भवजल माहीं। अब मोहे वामें रहे धकाई।। चतवारीस यानी 40 वर्ष आयु बडेरी। 40 वर्ष की मेरी आयु हो गई । अब कौन करेगा सगाई मेरी।। चतवारीस वर्ष आयु बडेरी। अब कौन करे सगाई मेरी।। पित्रर पतन कराया आपन। लगे रुचि को थाप ना थापन।। विचार करो धर्मनी नागर। पितृ कहे वेद है सतज्ञान सागर।। वेद विरुद्ध आप भक्ति कराई। ताते पित्र योनी पाई।। रुचि विवाह करवा कर श्राद्ध कराया। करा कराया सभै नसाया।। यह सब काल जाल है भाई। बिन सतगुरु कोई बच है भाई।। या तो वेद पुराण कहो  झूठे। या तो इन वेद पुराणों को कह दो यह झूठे हैं। या पुन तुम्हारे गुरु है पूठे।। या फिर तुम्हारे गुरु पूठे हैं उल्टे हैं। गलत ज्ञान बता रहे हैं। शास्त्र विरुद्ध जो ज्ञान बतावै। आपन डूबे शिष्य डूबावे।। शास्त्र विरुद्ध जो ज्ञान बतावै आपन बूढ़े शिष्य डूबावै। सारंग कहे धनुष पानी है हाथा। सार शब्द सारंग है और सब झूठी बातां।।  

बच्चों! सारंग का अर्थ है धनुष। पानी मतलब हाथ। सारंग पानी परमात्मा को मानते हैं कि जिसके हाथ में धनुष है। गीता अध्याय 15 और श्लोक 1 में कहा है कि ऊपर को जड़ वाला जो मूल मालिक तो उसकी जड़ समझो। और नीचे को शाखा वाला उल्टा लटका हुआ संसार रूपी जो वृक्ष है। इसके जो छंदों को, सारे भागों को अलग- अलग बता देगा स: वेदवित।

वह तत्वदर्शी संत है। परमेश्वर कबीर जी ने 600 साल पहले बताया था अक्षर पुरुष एक पेड़ है जो जमीन से बाहर दिखाई देता है हिस्सा उस पेड़ का उसको पेड़ बोलते हैं। लेकिन वह जड़ से खड़ा है जड़ से पोषण है उसका।

अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। क्षर पुरुष वाकी डार। तीनों देव शाखा है, पात रूप संसार।।

मूल कौन है? मूल परम अक्षर ब्रह्म है। तो गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में स्पष्ट कर दिया कि जो इसके ऐसे अलग- अलग विभाग  बता देगा की संसार रूपी वृक्ष की जड़ कौन है? तना क्या है? मोटी डार कौन है ? शाखा क्या है? पत्ते क्या हैं? तो परमात्मा ने एक ही श्लोक में बता दिया - तो  मूल तो मालिक है ही गीता में लिखा है कि ऊपर को जड़ वाला मूल मालिक है वह तो। पूर्ण परमात्मा है। तो बताया यह तत्व ज्ञानी होता है जो ऐसा ज्ञान बतावै।

वह तत्वदर्शी संत है। गीता अध्याय 15 श्लोक 3 में कहा है कि तत्वज्ञान रूपी शस्त्र से, उस धनुष से, सारंग से, शस्त्र से इस अज्ञान को काटै। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है, कि उसके पश्चात  परमेश्वर तत्वदर्शी संत से प्राप्त ज्ञान को समझकर उस ज्ञान रूपी शस्त्र से, धनुष बाण से उसको काट कर उसके पश्चात परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहां जाने के बाद साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते। और जिससे सारे वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है उसी की भक्ति करो। यानी जिसने सारा संसार रचा है। यहां प्रसंग है सार कहे धनुष, पानी है हाथा।

सारशब्द सारंग है और सब झूठी बातां।।

यानी यह सारशब्द है मूल ज्ञान है  ये यह धनुष है यह शस्त्र है अज्ञान का नाश करने वाला। सारंग पानी काशी आया। इस शस्त्र तत्वज्ञान रूपी शस्त्र हाथ में रखने वाला वह सारंग पानी संतों का शस्त्र धनुष तत्वज्ञान होता है। सारंग पानी काशी आया। आपन नाम कबीर बताया।।

हम तो उनके चेले आही। गुरु क्या होगा समझो भाई।।

अब वो परमात्मा दूसरे रूप में मिले। तो कह रह है मैं उसका चेला हूं। वह काशी में आ रहा है वह सारंग पानी। वह पूर्ण परमात्मा उसका नाम कबीर है।

धर्मदास वचन -: हे साहेब! एक अचरज है मोकुं। अब क्या है धर्मदास कहता है मुझे एक संत मिला था उस जिंदा के रूप में। और वह मुसलमान होते हुए हमारे सब वेद पुराणों को कैसे जानता था ? मैंने उनसे यह तर्क किया- जिंदा एक अचरज है मोकुं। तुर्क धर्म और वेद पुराण ज्ञान है तोकुं।। तुम इंसान नहीं होई। हो अजब फरिश्ता कोई।। और ज्ञान मोहे बताओ। युगो युगों की कथा सुनाओ।। तो परमात्मा जो हिंदू साधू के रूप में थे। उन्होंने बताया कि मैं उनका शिष्य हूं। उन्हीं से मुझे ज्ञान प्राप्त है। बच्चों! धर्मदास कहने लगा मुझे तो आप वही लग रहे हो। आपने यह ज्ञान जैसा था ज्यों का त्यों बता रहे हो। अब धर्मदास कहता है मुझे और ज्ञान बताओ। युगो युगों की कथा सुनाओ। सुनो धर्मानी सृष्टि रचना। सत्य कहूं नहीं यह कल्पना।। यह सच्ची मान लिए कोई कल्पना या बनावटी नहीं है। जब हम जगत रचना बताई। धर्मदास को अचरज अधिकाई।।

मैंने जब सारी सृष्टि रचना सुनाई परमात्मा ने, उसको बहुत आश्चर्य हुआ।

यह ज्ञान अजीब सुनायो। तुमको यह किन बतायो।। तुम्हारे को यह ज्ञान किसने बताया? कहां से बोलत हो ऐसी बातां। जानो हो तुम आप विधाता।। 

ऐसा लग रहा है जैसे तुम खुद ही भगवान हो। यह ऐसी बातें कहां से बोल रहे हो? यह किसने बताया आपको? विधाता तो निराकार बताया। तुमको कैसे मानू राया।। स्वयं ही कह रहा है सारी बात की तू भगवान दिख रहे हो आप तो। और फिर  भगवान तो निराकार बताते हैं। यह उल्टी पट्टी सबको पढ़ा रखी है। सारी बात सुन रहा है और उन निराकार बताने वालों ने यह ज्ञान कभी नहीं बताया जो गीता में आज तक प्रमाणित है। फिर भी वह पुराना अड़ंगा आगे अड़ै। विधाता तो निराकार बताया।

यदि तुमको भगवान मानूं तो कैसे मानूं ? तुम जो लोक मोहे बतायो। सृष्टि की रचना कहे सुनायो।। आंखों देखू मन धरे धीरा। देखु कहां रहत प्रभु अमर शरीरा।। तब हम गुप्त पुनः छिपाई। धर्मदास को मूर्छा आई।।

बच्चों! अब देखो उस एक प्राणी को काल की दलदल से निकालने के लिए कितना प्रयत्न परमात्मा को करना पड़ रहा है। बच्चों! इतनी जबरदस्त क्रेन आपकै लगानी पड़ी है जब कभी भी आपको शुरुआत की होगी इस दलदल से इस गंदे ज्ञान से इस अड़गें से छुटवाने के लिए। अब धर्मदास फिर चिंतित हो गया की यह तो वही दिखे थे और वही बात बतावै सारी। पहचान नहीं पाया रूप दूसरा था। 5 दिन ऐसे बीत गए पैदल चल पड़ा। चलते चलते चलते चलते आगे जाकर एक पांचवें दिन सफर करते-करते एक वाटिका में क्योंकि ऐसा ही कोई पानी का, कुएं का, छाया का सहारा लेकर रुका करते थे। एक सुंदर सी वाटिका थी उसमें रुक गया धर्मदास। वहा आसपास अड्डा बस स्टैंड हुआ करते ऐसे चलते फिरते जैसे छोटे-मोटे यह यात्री आते वहां दुकान वगेरा हो जाया करती तो लोग वहां ठहरा करते। तो उस वाटिका के पास छोटा सा बाजार सा बना हुआ था। 

क्योंकि यात्रा पर जाने वाले तीर्थ यात्री वहां अवश्य रुकते थे। वहां भोजन भंडारे ढाबा वगेरा बना होता था खाना। जो  चाय पानी पिवे पी सकते थे। 

दिवस पांच जब ऐसे बीता। निपट विकल यह व्यापे चिंता।। छठे दिन अस्नान कुँ गयो। कर स्नान चितवन कयो।। पोहप वाटिका प्रेम सुहावन। बहु शोभा सुंदर सुखी पावन।। जहां जाए पूजा अनुसारा। प्रतिमा देव शिव विस्तारा।। खोल पोटरी मूर्ति निकारी। ठाव ठाव दर प्रगट पसारी।।

अब जैसे परमात्मा से तो ज्ञान मिला नहीं। अब मन में यही आई उसके की यह जो पिछली ही पूजा कर लूं अब।बिल्कुल  ठाली बैठन से तो। बिलकुल खाली रहने से तो यही ठीक है। तो उसने अपनी फिर वह सारी मूर्तियां निकाली पत्थर की पीतल की। और नहा- धो कर ऐसे चद्दर बढ़िया बिछाकर वह लिपि वगैरा नहीं की  उस दिन। ऐसे ही साफ चदर बिछाकर उसके ऊपर मूर्ति सारी रख ली। क्योंकि साथ ले रहा था वह । डाली नहीं उसने की वही पर अपने गुरु जी को सौंप दूगा जाकर। अभी गुरु बदलने की सोची भी नहीं थी। पर वह मूर्ति ऐसे सोचा यह पूजा कर ही लूं। इनको उनको एक बहुत श्रद्धा से रखी हुई थी बहुत वर्षों से  50-60 साल से।  

तो बच्चों! हम धार्मिक तो है ही। इस अधिक धार्मिकता का दुरुपयोग मिसयूज करता है काल। और काल के दूत। तो वह सारी मूर्ति चद्दर पर रखकर पत्ते फूल लाकर और उसके ऊपर चढ़ा दिए। परमात्मा फिर अन्य भेष में वहां पहुंच गए।

भेष छीपाए भेष वेशभूषा भेष छिपाए तहां प्रभु आए। चोका निकट ही आसन लाए।। धर्मदास पूजा मन लाए। निपट प्रीति अधिक चित्र चाय।।  मन अनुहारी ध्यान ल्यौ लगवाई। कहीं-कहीं मंत्र पुष्प चढ़ाई ।  यानी मंत्र बोल-बोल कर उनपे फूल चढ़ावे।  चदर डूलावै घंट बजाई। स्तुति देव की पद चितलाई।। कर पूजा प्रथम सिर नावा। और डारी पोटरी मूर्ति छिपावा।।

सारी पूजा करके और वह पोटली में बांधली वापिस ही।

सतगुरु वचन ही: अहो संत यह तुम क्या करहू ? परमात्मा बोले जो अन्य वेष में आए थे।

हे महात्मा जी! यह क्या पूजा कर रहे थे ? वह कहते  है जैसे पाईया, सेर, छटंकी धरहू। यह जो छोटे-छोटे  पहले क्या होते थे पत्थर के यह थे बाट पत्थर के बटे होते थे जैसे पहले सेर छटांक आजकल जैसे 50 ग्राम, 100 ग्राम, 500 ग्राम, किलो। तो उस समय पत्थर के होते थे। तो परमात्मा बोले यह तो तू पाइया का, छटांक का, सेर का अलग-अलग पत्थर से होते थे उनकी वह पैमाइश करके रखें होते थे। की यह तू पाईया, सेर, छटंकी रखकर क्या पूजा कर रहा था ? केही कारण तुम प्रगट खिडायो। और डार पोटरी काहे छुपायो।।

धर्मदास वचन -: बुद्धि तुम्हार जानी नहीं जाई। कस अज्ञान तो बोलो भाई।। हम ठाकुर की सेवा कीन्हा। हमको गुरु सिखावन दीन्हा।। ताके सेर छटंकी कहूं। पाहन रूप  ना देवा अन सहू।।  धर्मदास जी कहते हैं हमने तो ठाकुर  की पूजा की है तुम इनको छटंकी सेर बताते  हो। गलत बात है आपकी। परमात्मा बोलेही:  वोह संत तुम्हें नीक सिखावा। हमरे चित एक संशय आया।। एक दिन हम सुने पुराणा। विप्रन कहे ज्ञान सुनधाना।।  वेदवाणी तिन मोहे सुनावा। प्रभु की लीला सुनी मन भावा।।

इसके सारे का यह अर्थ है-: की मैंने एक ब्राह्मण से वेद और पुराण कथा सुनी थी वह कह रहा है परमात्मा के चरण तो पाताल में और सिर शिखर में वह इतना विशाल सर्वशक्तिमान है निराकार है।  इनका कोई सिर पैर तो है नहीं ? कभी कुछ बतावै, कभी कुछ बतावैं। तो इतने बड़े भगवान को आपने इस गठड़ी में कैसे बांध लिया?  तो परमात्मा बताते हैं जिसने सारी सृष्टि रची। और सारा कुछ बनाने वाला और यह पत्थर को तू खुद उठाए फिर रहा है।

धर्मदास सुन चक्रित भयो। पूजा पाती विसर सब गयो।। एकटक मुख को चितवत राही आनो जाई।

यानी एकटक आंख खोलकर सुनता ही रहा देखता रहा यह आदमी वही है या कोई और है ? बात तो इसकी सारी साची।

प्रेम लागी सुन ब्रह्म ज्ञाना। विनय कीन्ही बहु प्रीति मनमाना।। 

धर्मदास वचन -: ओह साहब तहूं बात प्यारी। चरण टेक बहू विनती उचारी। मथा टेककर प्रार्थना करी ओह साहब!

जस तुम उपदेशा। ब्रह्म ज्ञान गुरु अगम सदेंशा।। छठे दिवस साधु एक आए। प्रिय बात पुन पुन: सुनाए।।

6 दिन पहले एक संत आए थे। उन्होंने भी यही बात बताई थी।

अगम अगाध बातवन भाखा। कृतम कला एक नहीं राखा।। तीरथ व्रत त्रिर्गुण कर सेवा। पाप पुण्य कृत कर्म करेवा।। सो सब उन्ही एक नाहीं भावे। सबसे श्रेष्ठ जो तेही गुण गावे।।

जो तूने बताई आपने बताई है वह भी ऐसे ही बता रहा था। उसको भी यह तीर्थ व्रत अच्छे नहीं लग रहे थे। वह कह रहे थे कोई और भगवान है उसकी भक्ति करो। जस तुम कहो बिलोई बिलोई जैसे तुमने अलग- अलग  बात बिलकुल डट कर कही है अस उन मोहे कहा संजोई।।

 गुप्त बहे पुनः हम कह त्यागी वह हमें त्याग कर गुप्त हो गए। गुप्त हो गए। वह हमें गुप्त बहे पुनः हम कह त्यागी। तिन दर्शन के हम बैरागी।।

मैं उनके दर्शन करना चाहता हूं।

मोरे चित अस पर्चा आवा। तुम वह एक नही दोऊ भावा।।

मुझे ऐसा लगता है कि आप वही हो।

तुम कहां रहो कहो सो बातां। क्या उन साहब को जानो दाता।।

हे बड़े भाई! हे माननीय! तुम यह बताओ कहां रहते हो ? क्या तुम उनको जानते हो ? क्या यही प्रभु के तुम सुमिरन करहुं। तुम किस भगवान की भक्ति करते हो ? कहो बिलोई गोई  नही धरहूं।। 

सच्ची बताइयो मुझे। परमात्मा बोले ही: ओह  धर्मदास तुम संत स्याना। देखो तोही मैं निर्मल ज्ञाना।।

धर्मदास मैं उनका सेवक हूं। मैं उसका सेवक हू। शिष्य हूं।

धर्मदास मैं उनकर सेवक। जेही से भाव सार पद भेवक ।। जिन कहा तुम अस ज्ञाना। तिन साहब को कह मोही सहदाना।।

वह प्रभु सतलोक के वासी। आए यही जग रहे उदासी।। नहीं वह भग द्वारे  आए। नहीं वह भग माही समाए।। नहीं पांच तत्व तन नाहीं।

उनके पांच तत्व तन नाहीं।

इच्छा रूप सो देह नहीं आई।। निइच्छा सदा रहे गसोई।। गुप्त रहे जग लखे न सोई। नाम कबीर संत कहलाए। रामानंद को ज्ञान सुनाए।।

हिंदू तुर्क दोहू उपदेशे। मेटे जीवन के रे काल क्लेशे।। वह कबीर नाम है। और रामानंद को उन्होंने ज्ञान सुनाया वह भी एक बहुत बड़ा हिंदू कर्मकांडी और विद्वान महात्मा ऋषि थे। रामानंद जी को सब जानते थे और वह भगवान जिनका मैं चेला हूं, शिष्य हूं हिंदू तुर्क सबको ज्ञान सुनाता है। और सारे दुख दूर कर देता है। माया ठगन आई बहु भारी। रहे अतीत माया गई हारी।। 

तन ही पठाओ मोहे तू पाही। निश्चय उनके सेवक हम आई।। की उसी ने मेरे को आपके पास भेजा है। अहो संत जो तुम कारज चाह़ो। तो हमरी सिखवन चित देग हूं।। अगर तुम अपना काम बनवाना चाहते हो, मोक्ष चाहते हो मेरी बात ध्यान से सुन ले। उनका सुमरन जो तुम करही। इकोतर वंश ले तरही।। यदि तुम उनकी भक्ति  करोगे उनसे दीक्षा ले लोगे 101 पीढ़ी पार हो जाएगी तेरी। वह प्रभु अविगत अविनाशी। दास कहाए प्रगट हुए काशी।। भाषत निर्गुण ज्ञान निनारा।

वेद कतब कोई पावै ना पारा।। तीन लोक में महत्व काला। जीवन के यम करे जंजाला।। वह यम के सर मर्दनहारे। उन्हीं गहे सो उतरे पारे।।

की इन तीन लोक में काल का पूरा जोर है। और जो उस भगवान की पूजा करेगा कबीर साहब की उसके बताए अनुसार वह समर्थ है। और वह काल के जाल से वही छुड़ा सकते हैं। आगे क्या बताते हैं जहां वह रहे काल तहां नाहीं।

अंशन सुखद एक ही आई।। जहां वह रहते हैं वहां काल निकट नहीं आ सकता।

धर्मदास बोले-: 

अहो साहब बली बली जाऊं। मोही उनका संदेश सुनाओ।। मोरे तो तुम उन्ही सब आही।

मुझे उनका और ज्ञान बताओ। मैं तो आपको उनके समान ही मानता हूं।

तुम वह एक नहीं बलगाही। नाम तुम्हारा का है स्वामी। सो भाषो प्रभु अंतर्यामी।।

आपका नाम क्या है जी कृपा मुझे बताइए ?

परमात्मा बोले

धर्मनी नाम साधु मम आही। संतन में हम सदा रहाई।। साधु संगति निस मन भावे। संत समागम तहां निश्चय जावे।।

जहां भी कोई संत समागम होता है धर्म कर्म होते हैं मैं वहां निश्चय जाता हूं।

जो जीव कर साधु समागम में सेवकाई। सो जीव अति प्रिय लागे भाई।।

जो संत समागम में सेवा करते हैं ऐसे समागम अनुष्ठान करवाते हैं और उनमे सेवा करते हैं मुझे बहुत प्यारे लगते हैं।

हमरे साहब की ऐसन रीति। सदा कर है संतन सो प्रीति।।

हमारा जो साहब है परमात्मा उनकी यह रीति है कि संत समागम में जरूर जाते हैं।

हमरे साहेब की ऐसन रीति। सदा करही संतन समागम सो प्रीति।। दो जीव उनकर दीक्षा लेही। साधु सत्संग सेवा सिखवन देही।। जीव पर दया अरुं आत्मा पूजा। सत्पुरुष भक्ति देव नहीं दूजा।।

केवल एक भगवान की भक्ति करें और किसी देव की नहीं।

सतगुरु संकट मोचक आही सतभक्ति छुए नाहीं।।

जो सच्ची भक्ति करते हैं उनके पास निकट यमदूत नहीं आ सकते।

धर्मदास कहते हैं

ओ साहब! तुम अविगत अहुं। अमृत वचन तुम निश्चय कहुं।। हे प्रभु! पूछो बात दोऊ चारा। अब मैं परिचय भेद विचारा।।

आप कहो तो मैं दो-चार प्रश्न और करूं, बात पूछ लूं? सो तो हम नहीं जाने स्वामी।

तुम कहो प्रभु अंतर्यामी।

सतगुरु वचन-:  अहो धर्मदास तुम भली यह भाखो। कहो जो सो जो प्रीति तुम राखो।। अहु निगुरा की गुरु  कीन्हों भाई। तोन बात मैं कहूँ बुझाई।

कि तु आपने कोई गुरु बना रखा है। या बिना गुरु के हो, निगुरे  हो ? धर्मदास जी कहते हैं

समर्थ गुरु हमने कीन्हा। यह परिचय गुरु मोहे ने दीन्हा।।

एक बहुत ही पहुंचा हुआ गुरु मैंने बना रखा है रूपदास उसका नाम है। लेकिन यह ज्ञान उन्होंने मुझे नहीं बताया।

रूपदास बिठलेश्वर रही। तिनके शिष्य सुनो हम अही।।

मैं उनका शिष्य हूं। वह बिठलेश्वर भगवान की पूजा करते हैं विष्णु भगवान की।

उन मोहे यह भेद समझावा। उसने जो पूजा बताई वह बताता हूं। पूजो शालिग्राम मन भावा।। गया गोमती काशी प्रयागा।

होवे पुण्य शुद्ध जन्म अनुरागा।। लक्ष्मी नारायण शिला के दीन्हा। विष्णु पंजर पुण्य गीता चिन्हा।। जगन्नाथ बलभद्र सहोदरा।

यानी उस रूपदास जी ने मेरे को तीर्थ का, धामों का महत्व बताया।

शालिग्राम की पूजा करनी बताई।

गया, गोमती, काशी, प्रयाग इन सबमें दर्शनार्थ जाने के लिए स्नान करने से और लक्ष्मी नारायण की पूजा और यह शिला पत्थर शालिग्राम पूजन से मोक्ष हो जाता है। गीता  पढ़ो। जगन्नाथ कृष्ण को कहते हैं बलभद्र सोहद्रा। पंचदेव और योगेंद्रा।। 

यानी पांच देवों की पूजा और जगन्नाथ में तीन मूर्ति हैं एक श्री कृष्ण की। एक बलभद्र की। एक उनकी बहन की सुभद्रा की। और पांच देवों की पूजा हम करते हैं।

बहुत कहीं प्रमोद ढिढाई। विष्णु कह सुमरी मुक्ति हो भाई।।

रूप दास जी ने मुझे बताया है की जो इनके दर्शन करो और विष्णु की पूजा करो मोक्ष होगा।

गुरु के वचन शीश पर राखा। बहुतक दिन पूजा अभिलाखा।।

तुमरे भेष मिले प्रभु जब ते। मैंने बहुत दिन यह पूजा कर ली। जब से आप जैसे यह साधु मुझे मिले और तुम वाणी प्रिय लागी तब ते।। वे गुरु तुम सतगुरु आहु। सार भेद मोहे प्रभु कहो।  की अब मैं रुपदास को तो गुरु मान लूंगा आपको सतगुरु।

 बच्चों! इन कथाओं से बहुत कुछ निष्कर्ष निकलेगा। क्योंकि पहले तो आपको प्रमाणो से साबित कर दिया, कि जो दास बोलता है सारी सत्य है। गीता वेद पुराण कुराण सारा कुछ दिखा दिया।  अब दास जो कहेगा आपको सारी कोड वर्डो में समझ में आएगी। अब डर इतना लगता है, कि यदि उस गुरु को छोड़ दिया कहीं और नुकसान हो जा। यह भय और प्रवेश रखा है हमारे अंदर जबरदस्त।

क्या कहता है धर्मदास के वह तो मेरे गुरु ही रहेंगे। आप मेरे सतगुरु हो जाओ। कहीं उनको छोड़ दूं  वह कोई जंतर मंतर मार दे। तुमरा दास कहलाऊं स्वामी।

यम ते छुड़ाओ अंतर्यामी।।

मुझे काल से छुड़वा दो।

उनहुं कर नही निंदा कराओ।

उनके बारे में कुछ ना कहियो रूप दास के बारे में। अस विश्वास मेरे बनाओ।। कि मैं ऐसा महसूस करता हूं उसको भी नहीं कुछ  कहना चाहिए।

वह गुरु सर्गुन निर्गुण पसारा। तुम हो यम तै छुड़ावन हारा।।

वह उसने भी तो कुछ न कुछ बताया है मेरे को। और तुम काल से छुड़ावने वाले। बनिया था दोनों हाथों में लड्डू बचावै था। परमात्मा बोले सुन धर्मानी जो तो मन इच्छा।

वैसे तेरी मर्जी जो करना है कर। तो तोहिं देउं सार पद दीक्षा।।

सुनो दो नाव पर जो होए असवारा। गिरे दरिया में नहीं उतरे पारा।।  जो दो नौका पर पैर रखेगा बीच में पड़ेगा दरिया में। तुम अब निज भवन चले जाओ। गुरु परीक्षा जाय कराओ।। अब तुम रुपदास पर जाओ अपना संशय दूर कराओ।।

जो गुरु तुम्हें न कहें संदेशा। तुम्हें यह ज्ञान ब्रह्मा का पिता कौन है ? उसकी मां कौन है ? इनका जन्म होता है कि नहीं होता है ? गीता में जो  मैंने बताया यह साची है कि नहीं ? पुराण में रुचि ऋषि की कथा सुनाई। भई वह ऐसे कहता है यह सत्य है कि नहीं तू जाकर पूछ ले अपने गुरु से। तब मैं तुझे उपदेश दूंगा। धर्मदास बोला-:  हे साहब एक आज्ञा चाहूं। दया करो प्रसाद कुछ ले आऊं।।  भगवान एक दया करो एक आज्ञा दो कुछ खिला दूं आपने।

परमात्मा बोले -: धर्मदास मोहे इच्छा नाहीं। क्षुद्या ना व्यापे सहज रहाई।। 

मुझे भूख नहीं लगती। मेरा शरीर पांच तत्व का नहीं है। सतनाम है मोर अहारा। भक्ति भजन सत्संग सारा।।

धर्मदास बोला-: 

ओह साहब जो अन्न ना खाओ। तो मोरे चित कर मिटे न दावो।। हे परमात्मा!

यदि कुछ मेरा प्रसाद मेरा भोग नहीं खाओगे मेरे मन की शंका मेरा दुख दूर नहीं होगा। मेरी आत्मा से कह रहा हूं कुछ खा लो।

तुम्हारी इच्छा तो लाओ भाई परमात्मा बोले। अन खाए तब हम जाई।। धर्मदास उठ हाट सिधाये।।

पतासा पेड़ा रुचि से ले आये। वह उठ कर वहां दुकान बनी हुई थी  अड्डे के ऊपर वहां से पतासे और पेड़े ले आए।

धरो मोर आगे भव चेरा।

मेरे भगवान जी बता रहे है मेरे आगे लाकर उसने रख दिए हृदय से सच्चे भाव से।

विनय भाव कीन्ह बहुतेरा।। विनय भाव कीन्हा धर्मदासा। हमने खाया प्रसाद पेड़ा पताशा।। ओ साहु! परमात्मा बोले ओ साहू! अब आज्ञा देहू। गुरु पर जाए मैं आशीष लेहू।।

हे सेठ जी!

अब मुझे आज्ञा दे परमात्मा बोले।

मैं अपने गुरु जी के पास जाकर आशीर्वाद लू उनके चरण में सिर रखूं। कर दंडवत धर्मनी कर जोड़ी। अब कब सुदीन होवे मेरी।।

देख कितना गजब का भाव था उस प्यारी आत्मा का। और कहां कसाईयों के फंस रहा था। ऐसे बोला हे साहब! हे परमात्मा! मेरे कब सुदिन आएंगे। आप फिर दर्शन दोगे  तो उस दिन मेरे फिर सुदिन उस दिन मेरे सुदिन होंगे।

मेरे अच्छे दिन उस दिन होंगे जिस दिन फिर दर्शन दोगे।

परमात्मा बोले

ओ साहू अब आज्ञा देहू। गुरु पर जाए मैं आशीष लेहूं।। हे सेठ जी! अब मुझे आज्ञा दे।

मैं अपने गुरु जी के पास जाकर उनके चरणों में माथा टेककर आशीर्वाद लु। जा रहा हूं मैं।

धर्मदास ने करी दंडवत धर्मनी कर जोड़ी। अब कब सुदीन होवे मेरी।।

हे परमात्मा! अब मेरे सुदीन कब आएंगे। तेही दिन सुदिन लेखे बपुराइ। जेही दिन तव पुनः दर्शन पाई।

मेरे उस दिन अच्छे दिन होंगे उस दिन मेरा अच्छा दिन होगा जिस दिन आपका फिर से दर्शन पाऊंगा। हम कह निज़ चेरा कर जानो। मुझे अपना शिष्य मान लो। सत्य कहू निश्चय कर मानो।। काल भी झाड़ है जल्दी से कपड़े छोड़ता नहीं। उधर से भी डरै और यह कहे आप सत कर मान लो मैंने अपना चेला ही मान लो तुम। यह सच्ची मान लो। मुझे दूसरा मत मानो। परमात्मा चल पड़े। आशीष दे प्रभु चले तुरंता।

अविगत लीला लखे को अंता। धर्मदास चितवही मग ठाडो। उपजा प्रेम हृदय तिगाडो।। परमात्मा चल पड़े और धर्मदास आंखों में पानी भरकर एकटक देखता ही रहा। देखता ही रहा। वहीं खड़ा-खड़ा आंखें झपकाए नहीं। आंखों में आंसू परल परल पड़ें। यह भी माने भगवान है और सच्चा ज्ञान। और वह भी डर लागे  कहीं उसको छोड़ दू कहीं का भी नहीं रहूं।

ऐसे आंख फाड़े देखता रहा। आंखों में रो रहा है अब करूं तो करूं क्या ? हाथ से कितना अनमोल ज्ञान जा रहा। और वह समझ नहीं आ रहा अब करूं क्या? दूर तक देखते चले गए परमात्मा थोड़ा मोड़ मुड़े  रास्ते में मोड़ मुड़ा जब धर्मदास पड़ गया मूर्छित होकर।

बच्चों! इतना जबरदस्त बांध दिया इस प्राणी को इस काल दुष्ट ने। अब कैसे सुलझावै मालिक अपने बच्चों को। बच्चों आपको भी ऐसे ही  प्रयत्न कर कर के राह पर ला रखा है किसी जन्म में। आप इस परमात्मा के प्रयत्न को हल्के में मत लो। देखो कितना क्या लगै था धर्मदास उसका ? कितनी बार गया उस  दलदल से निकालना। निकाल कर छोड़ा। तो बच्चों! उस मालिक पर विश्वास करो। अपने कर्म बना लो। मजाक मत समझो इसको। हल्के में मत लो। देखो इतने प्रमाण देने लग रहे है आपको। इस गंदे लोक में एक स्वांस का भरोसा नहीं जिस पर तुम मूर्ख बनाकर बैठा रखे हो। इतना तो तुम्हें विश्वास होगा जो दास यह बात कही।

फिर  बाकी कौन सी झूठ है ? फिर भक्ति करो। गंदे कर्मों से बचो। बुरा कर्म छोड़ो। मर्यादा का निर्वाह करो अबकी बार निकल जाओगे। और यहां इतना सुख दे देगा आप सोच भी नहीं सकते। संसार मुंह की तरफ देखा करेगा आपकी तरफ। और तुम्हारे सुखों को देखकर दुनिया उमड़ कर आएगी। यह सत कर मान लेना। एक तो यह देखो यह कहां से प्रचार हो रहा है उस परमपिता की महिमा का। बताओ काल ने तो अपना बिल्कुल जुल्म करने में कसर नहीं छोड़ी। और दयाल ने कैसी रजा बख्श दी। यह उसका बाप है। कहा करें जैसे मैं तेरा बाप हूं। यह उसका बाप है। तो बच्चों चरण में पड़े रहना। इससे दूर ना होना। बस इतना द्वार धनी के पड़ा रहे, धक्के धणी के खावे। सो काल झकझोर ही, पर द्वार छोड़ नहीं जावे।।

परमात्मा आपको मोक्ष दे।।

सदा सुखी रखे।।

सत साहिब।


 

विशेष संदेश भाग 25: जिंदा बाबा और धर्मदास जी की वार्ता →