Zinda-Baba-and Dharamdas-Ji-Conversation-Special-Sandesh-Part-25-Hindi-Photo

सतगुरु देव की जय।

बंदी छोड़ कबीर साहेब जी की जय।

बंदी छोड़ गरीब दास जी महाराज की जय।

स्वामी रामदेवानंद महाराज की जय हो। बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज की जय ।।

सर्व संतों की जय।

सर्व भक्तों की जय।

धर्मी पुरुषों की जय।

श्री काशी धाम की जय।

श्री छुड़ानी धाम की जय।

श्री करोंथा धाम की जय।

श्री बरवाला धाम की जय।

सत साहेब।।

गरीब दंडवतं गोविंद गुरु, बंधु अविजन सोय। पहले भये प्रणाम तिन, नमो जो आगे होए।।

कबीर पो फाटी पगड़ा भया, जागी जीया जून। सब काहू कुं देत है, वो चोंच समाना चून।।

गरीब प्रपट्टन नगरी साहेब बसे, भेद ना काहूं देत। कीड़ी कूंजर पोसता, अपना नाम नहीं लेत।।

जय जय सतगुरु मेरे की, जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, उस सतलोक के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की, जय हो सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, अमरपूरी के डेरे की।।

बच्चों! अपनी गलती का एहसास होने के बाद उसी दिन से आत्मा तड़प रही है कि हमने वहां कैसा ज़ुल्म किया। हम कितने सुखी थे इस पाप आत्मा के साथ हम आ गए। इसने ऐसे ज़ुल्म कर दिये कुत्ते, गधे, सुअर, कुतिया बनाए। हमारी दुर्गति कर दी। आत्मा रोती है और कल्पना करती है।

हे सतलोक में रहने वालों! हे परमात्मा के लाडले राजकुमार, राजकुमारियों, साहिबी वहां की सत्ता में रहने वालों तुम सदा सुख से रहो। हमने तो अपने कर्म फोड़ लिए। हम बिल्कुल ज़ालिम हो गए मालिक को छोड़ आए।

जय जय सतगुरु मेरे की, जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।।

निर्विकार निर्भय तू ही, और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहेब ना।। निर्विकार निर्भय।।

निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान।।

बच्चों! कर्मो वाले हो तुम। अच्छी किस्मत पाई है तुमने। आपको समझ पड़ी है उस परमपिता के घर जाने की। आपको परमपिता परमात्मा ने शरण में ले लिया। बच्चों! जो यह कथाएं सुनाई जा रही हैं यह आपको refresh (रिफ्रेश-ताज़ा) करेंगी। आपको फिर से ताज़ा करेगी। आपकी इस आत्मा को फिर से ऊर्जा मिलेगी और यह कहां से हो रहा है बच्चों? तुम बालक हो बिल्कुल नादान बच्चे, अपने भगवान की समर्थता को अब तो समझ लो। आपके ऊपर कहां से अमृत बरसा रहे हैं। इसके हाथ में सारी सृष्टि की चाबी है।

तो जो धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है इसको अच्छी तरह समझना होगा क्योंकि यह start (स्टार्ट-शुरुआत) था इस कलयुग में और यह हंस अच्छा था, परमात्मा का प्यारा था और यह भी आकर फंस गया इस काल के दूतों के और ऐसा दृढ़ हो गया की भगवान ने इसके लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी। पांच बार अंतर्ध्यान हुए। अंतर्ध्यान होते ही तड़प जाता था। लेकिन वह गलत रंग इतना रंगा हुआ था। गलत ज्ञान इतना भर रखा था ठोक-ठोक कर युगों का। लेकिन दाता भी रेगमार पक्का ले रखा है, इसने उतार कर छोड़ेगा। अब “कबीर सागर का सरलार्थ एक पुस्तक तैयार की है दास ने, उसमें ज्ञान प्रकाश बोध में कुछ वाणी हैं”, यह सुनाऊंगा। जो बिल्कुल सरल और बहुत विस्तृत है। संत गरीब दास जी की वाणी गजब-अजब है। उसमें बहुत शॉर्ट और हिंट है। अब कबीर सागर का सरलार्थ पुस्तक जो तैयार की है उसको बहुत संशोधित करके कबीर सागर से और जो इसमें मिलावट थी वह शुद्ध करके जो उसमें वाणियां नहीं थीं जो दूसरे से लिखकर इसको एक complete (कंप्लीट-पूरा) बना दिया है। इसमें लिखा है -:

बांधवगढ़ नगर कहाय। तामें धर्मदास सहा रहाय।।

एक बांधवगढ़ नाम का नगर कहलाता है। उसमें धर्मदास नाम का एक सेठ रहा करता था।

धन का नहीं वार अरुं पारा। हरि भक्ति में श्रद्धा अपारा।।

उसके घर धन की कोई कमी नहीं थी अथाह धन था और परमात्मा की भक्ति में श्रद्धा भी अजब गजब थी।

रूप दास गुरु वैष्णव बनाया। उसने रामकृष्ण भगवान बताया।।

उसने रुपदास नाम के वैष्णो परंपरा के, विष्णु जी के उपासक, गुरु से नाम ले रखा था, दीक्षा ले रखी थी। उस गुरु ने उसको रामकृष्ण को भगवान बताया, विष्णु जी को।

तीरथ व्रत मूर्ति पूजा। एकादशी और शालिग सूझा।।

सब उसने बताए। तीर्थ करो, व्रत करो, मूर्ति पूजो, एकादशी का व्रत रखो। शालिग मूर्तियों की पूजा करो शालिग्राम की, कर्मकांड, व्यवहार करो।

ताके मते दृढ़ धर्मनी नागर। भूल रहा वह सुख का सागर।। तीर्थ करने को मन चाहा। गुरु आज्ञा ले चला उमाहा।।

उसका तीर्थ करने को मन हुआ गुरुजी की आज्ञा लेकर। उमाहा। उमंग में भरकर तीर्थो पर चला। भटकत भरमत मथुरा आया। कृष्ण सरोवर में उठ नहाया।। चौकां लीपा पूजा कारण। फिर लाग्या गीता श्लोक उच्चारण।। ताहिं समय एक साधु आया। पांच कदम पर आसन लाया।।

पांच कदम। 25 - 30 फुट पर दूर बैठ गया आकर।

एक साधू आया। धर्मदास को कहा आदेशा। जिंदा रुप साधु का भेषा।।

धर्मदास को, साधू ने कहा आदेश महाराज! साधु की वेशभूषा एक जिंदा महात्मा जैसी थी जो वहां आया धर्मदास के पास। वह खुद मालिक आए थे।

धर्मदास देखा नज़र उठाई। जब आदेश कहा तो धर्मदास ने ऊपर को नज़र उठाकर देखा कौन आ गया? पूजा में मगन कुछ बोला नाहीं। अपनी पूजा कर रहा था इसलिए बोला नहीं। ऐसे देखकर फिर अपनी पूजा करने लग गया।

धर्मदास देखा नज़र उठाई। पूजा में मगन कुछ बोला नाहीं। जिज्ञासु वत देखे दाता। धर्मदास जाने सुन है बाता।।

जैसे एक जिज्ञासु होता है ना उस तरह परमात्मा देखने लग गए और धर्मदास ने सोचा यह तेरी बात को ध्यान में (से) सुनै है। जिज्ञासु वत देखै दाता। धर्मदास जाना सुनत है बाता।। ऊंचे सुर से पाठ बुलाया। जिंदा सुन सुन शीश हिलाया।।

वह धर्मदास जी फिर ऊंचे आवाज़ में गीता का पाठ सुनाने लगे with translation (अनुवाद के साथ) और परमात्मा सुन-सुन कर सिर हिलावे जैसे बहुत अच्छा लगा करें। वाह! वाह! वाह! ऐसे।

बंदी छोड़! बच्चों! कुछ विचार करो। एक जीव को, एक जीव को दलदल से निकालने के लिए कितने अखाड़े करने पड़ते हैं start (स्टार्ट-शुरुआत) में और तुम इसमें आंख बंद करके बैठे हो। इस गंदे लोक से निकलें पार पड़ेगी। अपने पिता को देखो कितना कष्ट उठा रहा है आपके लिए।

ऊंचें सुर से पाठ बुलाया। जिंदा सुन सुन शीश हिलाया।। धर्मदास किया वैष्णो भेषा। कंठी माला तिलक प्रवेशा।।

धर्मदास जी ने एक वैष्णो साधु जैसी वेशभूषा बना रखी थी। कंठी माला डाल रखी थी।

पूजा पाठ कर किया विश्रामा। जिंदा पुनः किया प्रणामा।।

जब उसने अपनी पूजा पाठ करके और वह सामान रख लिया लपेटकर, परमात्मा ने फिर से प्रणाम किया।

जिंदा कहे मैं सुना पाठ अनूपा। तुम हो सब संतन के भूपा।।

अब बंदी छोड़ उस दो कोड़ी के जीव की कितनी प्रशंसा करते हैं ताकि यह कुछ बोले मेरे से।

जिंदा कहे मैं सुना पाठ अनूपा।

मैंने तो बहुत गजब का पाठ सुना, अद्भुत पाठ सुना।

तुम तो सब संतों के स्वामी हो, भूप हो, सरताज हो। बड़े अच्छे संत मिले मुझे।

मोकूं ज्ञान सुनाओ गोसाईं। भक्ति सरस कहीं नहीं पाई।।

हे गोसाईं! यानी धर्मदास जी को मालिक बोलते हैं;

मोकूं ज्ञान सुनाओ गोसाईं। भक्ति सरस कहीं नहीं पाई।। मुस्लिम हिंदू गुरु बहु देखे। आत्म संतोष कहीं नहीं एके।। धर्मदास मन उठी उमंगा। सुनी बढ़ाई तो लाग्या चंगा।।

परमात्मा कहते हैं,

मोकूं ज्ञान सुनाओ।

मुझे ज्ञान बताओ गुसाईं स्वामी जी। मेरे को कहीं पर भी सही भक्ति नहीं मिली मैंने हिंदू, मुसलमान, सबसे, सब गुरुओं से ज्ञान सुन लिया। मेरी आत्मा को कहीं संतोष नहीं हुआ। आप मुझे बहुत अच्छे संत और आपके द्वारा किया गया यह पाठ जो बोल रहे थे बहुत ही अच्छा लगा।

धर्मदास मन उठी उमंगा। उमंग उठी जब अपनी बढ़ाई सुनी तो लगा चंगा।।

अच्छा लगा। धर्मदास वचन-: 

जो चाहो सो पूछो सारा। सर्व ज्ञान संपन्न हूं भक्ति रंगा।। पूछो जिंदा जो तुम चाहो। अपने मन का भ्रम मिटाओ।।

परमात्मा बोले;

तुम काको पाठ करत हो संता। निर्मल ज्ञान नहीं कोई अंता।।

की आप यह किसका पाठ कर रहे थे? यह पुस्तक का क्या नाम है? इसका इतना गजब का ज्ञान है, इसका कोई अंत ही नहीं । यानी उसको पूरी तरह परमात्मा ने, प्रशंसा करके बिल्कुल तैयार कर दिया उमंग में भर दिया।

मोकूं पुनः सुनाओ वाणी। तातैं मिले मोहे सारंगपानी।।

यह वाणी मुझे फिर सुनाओ।। जिस पुस्तक को तुम पढ़ रहे थे ताकि मुझे भगवान मिलें।

तुम्हरे मुख से ज्ञान मोहे भावे। जैसे जीह्वा मधु टपकावे।।

आपकी इतनी मीठी वाणी है प्यारी जैसे शहद टपक रहा हो। तुम्हरे मुख से मुझे ज्ञान बहुत अच्छा लग रहा है। अब न्यूं (ऐसे) बिना वो बोलै (को) नहीं वो नहीं।

परमात्मा! हे बंदी छोड़!

सौ छलछिद्र मैं करूं, अपने जन के काज। हिरण्यकश्यपु ज्युं मार दूं, नरसिंह धर के साज।। धर्मदास सुनी जब कोमल बाता। पोथी निकाली मनहर साथा।।

फिर उसने वह पोथी, वह गीता फिर निकाल ली बड़ी खुश होकर। की देख कितनी अच्छी बात एक जीव यह मुसलमान भी समझेगा। इसका कल्याण होगा। यानी सबकी कोशिश यही होती है की हमारा ज्ञान सर्वोत्तम है और मैं सबको समझा दयां (दूं)ये इस भक्ति को कर ले। तो इस प्रकार परमात्मा!

देखो बच्चों! यह पुस्तक तुमने भी पढ़ी होगी। पर अब दास पढ़ायेगा, टीचर पढ़ायेगा वह हृदय में बैठा करे। एक “कबीर सागर के अंदर "उग्र गीता" नाम का एक चैप्टर है उसमें तो बहुत कुछ अडंगा कर रखा है उन्होंने। फिर एक अन्य "कबीर सागर" बहुत पुराना था उसमें से यह वाणी इसमें लिखी गई है वह समझाते हैं। बिल्कुल clear (क्लियर-साफ) एक word to word (वर्ड टू वर्ड-शब्द) गीता को अलग से समझाया गया है इसमें simple (सिंपल-साधारण) भाषा में।” इसके सरलार्थ करते समय उन वाणियों के सामने दास ने जिस भी अध्याय से संबंधित वह वार्ता है उनका अध्याय और श्लोक भी लिखा हुआ है। इसको आपको समझने में बहुत आसानी रहेगी। धर्मदास जी को ज्ञान था, कि जिंदा वेषधारी मुसलमान संत होते हैं। जबकि मुसलमान नहीं मानते कि पुनर्जन्म होता है। इसलिए पहले उसी प्रकरण वाले श्लोक सुनाए। हे अर्जुन!

आपन जन्म-मरण बहुतेरे। तुम ना जानत याद है मेरे।। नाश रहित प्रभु कोई और रहाई। जाको कोई मार सकता नाहीं।।

यानी यह गीता अध्याय 2 के 12, 4 के 5, 9 और 2 के 12 और 17 इसमें प्रमाण है परमात्मा अविनाशी कोई और है और 15 के 17 का संबंधित है की यह बताया धर्मदास ने वह प्रसंग पढ़ा की तेरे और मेरे अर्जुन बहुत जन्म हो चुके हैं तू नहीं जानता मैं जानता हूं।

हे अर्जुन! आपन जन्म मरण बहुतेरे। तुम ना जानत याद है मेरे।।

यह गीता सिंपल language (लैंग्वेज-भाषा) में है। वो गीता संस्कृत में। कबीर साहब को अनपढ़ कहते थे। उस अनपढ़ ने सारे पत्ते खोल रखे हैं।

नाश रहित प्रभु कोई और रहाई। जाको कोई मार सकता नाहीं।।

गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में, 4 के 5, 9 में। 10 के 2 में कहा है की तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तेरे याद नहीं, मुझे पता है और नाश रहित तो उसको जान जिसको मारने में कोई सक्षम नहीं है। यह simple way (सिंपल वे- साधारण तरह) में, वो संस्कृत में।

अर्जुन मन जो शंका आई। कृष्ण से पूछा विनय लाई।। हे कृष्ण तू तत् ब्रह्म बताया। अध्यात्म अधीद्भुत जनाया।। वहां का भेद बताओ दाता। मंद मति हू देवो ज्ञान विधाता।। 8 के 1- 2 में। कृष्ण अस बोली वाणी।

क्योंकि कृष्ण का मुख बोल रहा था। अब कृष्ण ही मान रहे थे तो कृष्ण को ही बताना पड़ा।

कृष्ण अस बोली वाणी। दिव्य पुरुष की महिमा बखानी।। दिव्य पुरुष की। तत् ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म कहाया। जिन यह सब ब्रह्मांड बनाया।। मम भक्ति करो मोकूं पाई। या में कुछ संशय नाहीं।। जहां आशा तहां वासा होई। मन कर्म वचन सुमरियो सोई।।

यह 8 के श्लोक 8 के 1-2 यह 8 से 10 तक, की मेरी भक्ति करेगा मुझे मिलेगा। 8 के 5 और 7 का यह एक ही चोपाई में स्पष्ट कर दिया।

मम भक्ति करो मोकूं पाई। या में कुछ संशय नाहीं। जहां आशा तहां वासा होई। मन कर्म वचन सुमरियो सोई।। यह 8 के 6 का।

जो है सनातन अविनाशी भगवाना। वाकी भक्ति करे तो वा पर जाना।। जैसे सूरज चमके असमाना। ऐसे सतपुरुष सतलोक रहाना।। वाकी भक्ति करे वाको पावे। बहुर नहीं जग में आवे।।

आपने बहुत सुन रखें हैं। यह इसमें स्पष्ट हो गया कि उस परम अक्षर ब्रह्म, दिव्य पुरुष की जो भक्ति करेगा तो उस पर चला जाएगा। फिर जन्म-मरण नहीं होगा। तेरे मेरे जन्म सदा रहेंगे।

मम मंत्र है ओम अकेला। और ताका ओम तत् सत् दुहेला।।

मेरा तो केवल एक ओम नाम है। उसका ओम तत् है। यह बड़ा मुश्किल से प्राप्त होता है।

तुम अर्जुन जाओ वाकी शरणा। सो है परमेश्वर तारण तरणा।।

हे अर्जुन! तू उसकी शरण में जा वह तारण तरण है। वह जीवों का कल्याण करने वाला है।

वाका भेद परम संत से जानो। तत् ज्ञान में है प्रमाणो।।

उसका भेद किसी तत्वदर्शी संत से पूछ, परम संत से और तत्वज्ञान में उसका प्रमाण है। यह 4 के  34 का है।

वह ज्ञान वह बोले आपा। तातैं मोक्ष पूर्ण हो जाता।।

की उस ज्ञान को वह खुद ही बताता है परमात्मा और जिससे पूर्ण मुक्ति हो जाती है। जन्म-मरण सदा के लिए मिट जाता है। बच्चों! यह 4 के 32 और 4 के 34 का सरलार्थ है। उसके संबंधित वाणी है। 

सब पाप नाश हो जाई। बहुर नहीं जन्म मरण में आई।। मिले संत कोई तत्वज्ञानी। फिर वह पद खोजो सहदानी।। जहां जाए कोई लौट नहीं आया। जिन यह संसार वृक्ष निरमाया।।

गीता अध्याय 15 के 4 में बताया है कि, तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहां जाने के बाद साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आता और जिस संसार से इस संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है। यह गीता में लिखा है। इसमें क्या लिखा है परमात्मा की simple language (सिंपल लैंग्वेज-साधारण भाषा)।

सब पाप नाश हो जाई। बहुर नहीं जन्म मरण में आई।। मिले संत कोई तत्वज्ञानी। फिर वह पद खोजो सहदानी।। जहां जाए कोई लौट नहीं आया। जिन यह संसार वृक्ष निरमाया।। अब अर्जुन लेहो विचारी। कथ दीन्हीं गीता सारी।।

18वें के 63 वें में कहा है कि अर्जुन! तू अब सोच ले। मैंने जो कहना था कह दिया। गुप्त भेद बताया सारा। तू है मोकूं अजीज प्यारा।।

18वें के 63 में कहा है की तू मेरा प्रिय, सबसे प्रिय है और तेरे को यह गुप्त भेद बता दिया और एक गुप्त भेद और बताऊं।

अति गुप्त से गुप्त भेद और बताऊं। मैं भी ताको ईष्ट मनाऊं।। मेरा भी वह ईष्ठ देव है 18वें के 64 में। जे तू रहना मेरी शरणा। कबहूं न मिटै जन्म और मरना।। नमस्कार कर मोहे शरणाई। मेरे पास रहेगा भाई।।

18वें के 65 में कहा है। की तू अगर मेरी शरण में रहना है तो जन्म-मरण तो मिटे नहीं। मुझे नमस्कार कर मेरी भक्ति कर इसमें कोई शंका नहीं। तू मेरे पास ही रहेगा। बेशक जा तू वाकी शरणा । 18वें अध्याय के 62 में कहा है की उसकी शरण में बेशक जा तू।

मम धर्म पूजा मोकूं धरना। मेरे स्तर की जितनी धार्मिक पूजा मेरे यहां रख दे। फिर ना मैं तोकूं कबहूं रोकूं। ना मन अपना कर तूं शोकूं।।

फिर तुझे मैं नहीं रोकूंगा। चिंता मत करें।

बच्चों! अब हे वैष्णो! तुम कौन भगवाना।

परमात्मा कहते हैं, अब धर्मदास ने गीता सुनाई कबीर साहेब सुन रहे हैं। अब परमात्मा प्रश्न करते हैं हे वैष्णो!

तुम कौन भगवाना। काको यह गीता बखाना।।

यह जो गीता आप बोल रहे हो यह किसने बोली? तेरा ईष्ट कौन है?

रामकृष्ण विष्णु अवतारा। विष्णु कृष्ण है भगवान हमारा।। धर्मदास कहते हैं। श्री कृष्ण गीता बखाना। एक-एक श्लोक है प्रमाणा। जो तुम चाहो मोक्ष करवाना। भक्ति करो अविनाशी भगवाना।। राम कृष्ण विष्णु अवतारा। विष्णु कृष्ण है भगवान हमारा।। श्री कृष्ण गीता बखाना।

यह गीता, श्री कृष्ण जी ने बोला है।

एक-एक श्लोक है प्रमाणा।। जो तुम चाहो मोक्ष कराना। भक्ति करो अविनाशी भगवाना।।

धर्मदास कबीर साहेब को समझा रहे हैं, जिंदा बाबा को। यदि तू मुक्ति चाहता है तो अविनाशी भगवान की भक्ति करो।

विष्णु का कबहूं नाश ना होई। सब जगत के कर्ता सोई।। तीर्थ व्रत करो मन लाओ। पिंडदान और श्राद्ध करवाओ।। यह पूजा है मुक्ति मार्ग। और सब पंथ चले कुमार्ग।।

की यह है सही भक्ति धर्मदास जी, भगवान को बता रहे हैं और सब पंथ गलत मार्ग पर चल रहे हैं। परमात्मा बोले,

जै गीता विष्णु रुप कृष्ण सुनाया। कहे कई बार मैं नाश में आया।।

की यदि श्री कृष्ण उर्फ़ विष्णु ने यह गीता सुनाई है वह तो कह मेरे और तेरे बहुत जन्म हो लिए?

अविनाशी कोई और विधाता। जो उत्तम परमात्मा कहलाता।।

यह आप ही इसे पढ़ रहे थे, इसमें तो यह लिखा है।

बच्चों! सबको चोंध लगा रखी है काल ने। रोज़ पढ़ते हैं लेकिन अकल वहां जाती नहीं। अब यह गीता का पाठ करने वाले, अब गीता के जो पाठ किया करते इस ज्ञान को सुनकर चक्कर काटैं हैं की हम रोज़ पढ़ा करते कभी दिमाग में नहीं आई यह बात, ऐसे भी है। अब वह कहता है तेरा भगवान जो आप पढ़ रहे थे, इसमें यह कहा है उत्तम पुरुष तो कोई और है। अविनाशी कोई और विधाता है और वह ज्ञान मोकूं नाहीं। वाको पूछो जो संत शरणाई।। वह ज्ञान मुझे नहीं मालूम उस अविनाशी भगवान का। उसको किसी संत से पूछो यह तू पढ़ रहा था अभी। मैं तो उसी में से कह रहा हूं आपको।

अविनाशी की शरण में जाओ। पुनः नहीं जन्म-मरण में आओ।। मैं भी ईष्ट हूँ तांही पूजा। अविनाशी कोई है मोसे दूजा।।

की अब जो आप पढ़ रहे थे इसमें तो यह लिखा है कि मैं भी उसको ईष्ट मानता हूं। अविनाशी कोई तो मेरे से अन्य है।

मम भक्ति मंत्र ओम अकेला। वाका ओम तत् सत् दुहेला।।

अभी आपने सुनाया उसमें तो ऐसा लिखा है कि मेरा तो केवल एक ओम मंत्र है उसका ओम तत् सत् है वह बड़ा दुर्लभ है। कबीर साहेब कहते हैं,

मैं तोकु पूछूं गोसाईं।।

हे धर्मदास! हे स्वामी जी! देख (ओये होय) परमात्मा हमें नर्क से निकालने के लिए दो कोड़ी के जीव को स्वामी जी, हे गोसाईं ताकी यह निर्भाग मेरी बात सुन ले और यदि शुरू से ही परमात्मा बोल देते तो उठकर चला जाता वह।

मैं तोकू पूछूं गोसाईं। तेरे भगवान मरण के मांही।। हम भक्ति वाकी चाहे। जो नहीं जन्म मरण में आ है। जै तुम पास वह मंत्र होई। तो मैं पक्का चेला होई।। यही बात एक संत सुनाई। रामकृष्ण सब मरण के मांही।। अविनाशी कोई और है दाता। वाकी भक्ति मैं बताता।। वह कहे मैं वहीं लोक से आया। मैं ही हूं वह भगत अविगत राया।। आज तुम गीता में फरमाया।। फिर तो वह संत साचा कहाया।। हे वैष्णो तुम धोखे मांही। व्यर्था आपन जन्म नसाई।। जो तुम चाहो भवसागर तरणा। जाके गहो वाकी शरणा।।

अब कबीर साहेब ने उसको बिल्कुल धो दिया। की आप कह रहे हो कृष्ण ने, श्री विष्णु जी ने गीता बोली वह कहे भगवान कोई और है और मेरे को एक संत मिले थे और उसने भी यही बात बताई। इसलिए आज गीता आप पढ़ रहे थे मैंने ध्यान लगाया, कि शायद यहां भी बात वही मिलेगी। इस गीता में भी वही मिला। आप कुछ और बता रहे हो यानी कबीर साहिब अपने अलग डबल रोल, ट्रिपल रोल पता नहीं कितने रोल करके हमें निकालना चाहते हैं। धर्मदास वचन-: 

विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना। जिंदा निंदा कर हो नादाना। विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना। जिंदा निंदा कर हो नादाना।।

हे नादान जिंदा! तुम निंदा कर रहे हो।

पाप शीश तोहे लागै भारी। देवी-देवतन को देत हो गारी।।

यानी लड़ने को तैयार हो गया। कि तू, पाप लगेगा तेरे सिर पर, देवी-देवताओं को गाली देता है। कबीर साहिब कहते हैं;

जै यह निंदा है भाई। यह तो तोर गीता बतलाई।।

अगर यही निंदा है तो तेरी गीता मे लिख रखा है यह तो।

गीता लिखा तुम जानो साचा। अमर विष्णु कहां लिख रखा?

तुम पत्थर को राम बताओ। लड्डूअन का भोग लगाओ। कबहू लड्डू खाया पत्थर देवा ? या काजू किशमिश पिस्ता मेवा।।

क्या यह तेरे पत्थर के भगवान ने कदे (कभी) काजू के लड्डू खाये हैं?

पत्थर पूज पत्थर हो गए भाई। आँखो देख भी मानत नाहीं।। ऐसे गुरु मिले अन्याई। जिन मूर्ति पूजा रीत चलाई।।

इतना कह जिंद हुए अदेखा।

धर्मदास मन किया विवेका।। यह क्या चेतक बीता भगवाना। कैसे मिटे आवा गवना।।

अब परमात्मा अंतर्ध्यान हो गए और धर्मदास ने जो ज्ञान सुना था

अहँकार में मान तो नहीं रहा था पर हृदय में रखा गया।

यह क्या चेतक बीता भगवाना। कैसे मिटे अब आवागवना।। गीता फिर देखन लाग्या। वही वृत्तांत आगे आ गया।। एक एक श्लोक पढ़ै और रोवे। दोबारा। चेत करावें जागैं ना सोवै। रात पड़ी तब आरती कीन्हां। झूठी भक्ति में मन दीन्हा।। ना मारा ना जिवित छोड़ा। अधपका मन जैसा  फोड़ा।।

की हे भगवान! चला गया ना मरा ना जिंदा छोड़ा, ना मारा और ना यह भक्ति करने को दिल करता।

यह साधु जै फिर मिल जावे। सब मानूं जो कुछ बतावै।। भूल कर विवाद करूं नहीं कोई।  आधीनी से सब जानु सोई।।

हे भगवान! एक बार फिर यह साधु मिल जा। बिल्कुल विवाद नहीं करूं। हाथ जोड़कर सारी बात पूछूंगा।

उठ सवेरे भोजन लगा बनाने। लकड़ी चूल्हा बीच लगाने।। जब लकड़ी जलकर छोटी होई। पिछले भाग में देखा अनर्थ जोई।। चटक चटक कर चींटी मरही। अण्डन सहित अग्न में जरही।। तुरंत आग बुझाई धर्मदासा। पाप देख भए उदासा।। ना अन्न खाऊं नहीं पानी पीयूं। इतना पाप कर कैसे जीऊं। कराऊं भोजन संत कोई पावे। अपना पाप उतर सब जावे।। लेकर थाल चले धर्मनी नागर। वृक्ष तले बैठे सुख सागर।। साधु भेष कोई और बनाया। अन्य साधु भेष बनाया। धर्मदास साधू नेड़े आया।।

बच्चों! धर्मदास ने उठकर फिर खाना बनाया। उसमें लकड़ी जलती-जलती जब छोटी हो गई, पिछला भाग जब आगे आया, उसमें चीटियां निकल रही थीं, मुख में अंडे दे रही थी लकड़ी के पिछले हिस्से पर एक तरल पदार्थ सा उबलता होता है थोड़ी सी जब गीली होती है कभी-कभी। तो वहां जंगल में ऐसी ही वहां ढूंढ कर लकड़ी ला रखी थी शाम को। उसने सोचा, धर्मदास जी ने, की इसको मैं नहीं खाऊंगा, इस पाप के भोजन को। किसी संत को खिला दूंगा मेरे पाप लगेगा नहीं। यह अपनी धारणाएं थीं, फिर भी धार्मिकता थी। तो धर्मदास जी थाली पर सुंदर कपड़ा डालकर भोजन लेकर चल पड़ा। साधू की खोज में थोड़ा सा इधर दूसरी साइड चला जहां साधु बैठे होते थे। एकांत स्थान में वह भक्ति करते रहते थे मथुरा में। जब देखा सामने वह रास्ता ऐसे ही घूम कर जाता था, मालिक जिस पेड़ के नीचे बैठे थे और रास्ते पर ऐसे ही घूम-घाम कर चलते वहां रास्ते ऐसे ही जंगल के। 

दूर से देखा सामने साधु बैठा है। पीछे से घूम कर आना पड़ता था उस वृक्ष के साथ से, रास्ता जाता था। जब बिल्कुल साथ जा लिया तो परमात्मा शब्द गाने लग रहे। धर्मदास जी ने सोचा, साधु कोई अपनी भक्ति कर रहा है मैं disturb (डिस्टर्ब-परेशान) नहीं करूं। पीछे खड़ा हो गया वृक्ष के पीछे और सुनने लगा। जो वह बोल रहे थे सुनना तो था ही और मन में था कोई अच्छी बात साधु बोलेगा फिर बाद में बातें करेंगे। भोजन खिलाऊंगा। परमात्मा का टारगेट तो वही था की आ गया बच्चू।

मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।।

अपने मन को आधार बनाकर दाता समझाते हैं और उस अपनी प्यारी आत्मा के ह्रदय में injection (इंजेक्शन-सुई) लगाते हैं।

मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।।

हे मन! ऊपर सतलोक में मान सरोवर में स्नान कर। यहां इन धरती के, पृथ्वी के, मानसरोवरों पर, तीर्थों पर मत भटक। वहां कैसी कैसा अजब नज़ारा है,‌ वह बताते हैं।

मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। सूरजमुखी फूल जहां फूले, संख पदम उजियारा। गंगा यमुना मध्य सरस्वती, वहां त्रिवेणी की धारा।। मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। जहां कमोदनी चंद्रगता है, कमल कमल मध्य तूरा। अनहद नाद अजब धुन होई, जाने सतगुरु पूरा।। मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। ओघट घाट विषम है दरिया, नहावे संत सुजाना। ओघट घाट विषम है दरिया, नहावे संत सुजाना। मोक्ष मुक्ति के परभी ले रे, साक्षी है शशिभाना।। मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। जहां वहां हंस कोलाहल करत हैं, मोती मुक्ता खाहीं।।

जहां पर मोक्ष प्राप्त हंस रहते हैं बच्चे और मोक्ष रूपी मोती वहां हंस खाते हैं। यानी पूर्ण मोक्ष का सुख ले रहे हैं।

जहां वहां हंस कोलाहल करत हैं, मोती मुक्ता खाहीं। ऐसा देश हमेश हमारे, अमृत भोजन पाही।। मन तु मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। संखो लहर मेहर की उपजैं, कहर नहीं जहां कोई। संखों लहर वहां मेहर की उपजैं, कहर नहीं जहां कोई। दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।। मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।। मन तू मानसरोवर नहा रे। यहां ना भटका खा रे।।

अब धर्मदास सुन रहा है। परमात्मा ने बताया की वहां मोक्ष मुक्त प्राप्त हंस रहते हैं सतलोक में और यहां कष्ट ही कष्ट हैं।

मन मानसरोवर नहान रे। जल के जंतु रह जल माहीं, आठों वक्त विहान रे।। आठों वक्त विहान रे।।

की हे मन! उस मानसरोवर में नहाले। वो है असली स्नान।

लख 84 जल के वासी, भुगते चारों खान रे। चेतन होकर जड़ कूं पूजैं, यह गांठ बांध पाषाण रे।। यह गठड़ी बांध पाषाण रे। मरकब कहां चंदन के लेपे, क्या गंग नहवाए स्वांन रे। सूधी हो ना पूंछ तास की, वह छोड़त नाही बांण रे।। छोड़त नांही बाण रे।। द्वादश कोटि जहां जम किंकर, बड़े-बड़े दैत्य हैवान रे। धर्मराय की दरगाह मांही, हो रही खैंचातान रे। हो रही खैंचातान रे।।

इस गलत साधना करने वालों की वहां धर्मराज के दरबार में।

यह खुद चेतन है चालै फिरै, घूमे फिरै, बोले खावे और पत्थर बोल सकता नहीं, चल सकता नहीं उसको सिर पर उठाएं फिरें, गठड़ी बांधकर मूर्तियों की और इस जिन तीर्थों में हम स्नान करते फिरते हैं इसमें जीव-जंतु पहले से ही रहते हैं उनकी मुक्ति नहीं होती? अपने मन को पात्र बनाकर धर्मदास की छाती खोल रहे हैं अज्ञान की। की धर्मराज के दरबार में 12 करोड़ यम के दूत हैं। वहां ऐसी दुर्गति करेंगे याद रखेगा। यह साधना है कोई?

द्वादश कोटि जहां जम किंकर (ओय होय) बड़े-बड़े दैत्य हैवान रे। राक्षस टाइप हैं वह शैतान। धर्मराय की दरगाह माहीं। हो रही खैंचातान रे।। हो रही खैंचातान रे।।

वहां बुरा हाल होगा भाई इन साधकों का।

लख 84 कठिन त्रिरासी, वचन हमारा मान रे। जैसे लोह तार जंतरी में, तेरे ऐसे खींचे प्राण रे। तेरे ऐसे खींचे प्राण रे।।

की 84 लाख योनियों का बहुत ज़बरदस्त दुख और ऊपर जो यम के दूत तुझे ऐसा तंग करेंगे जैसे लोहे को पुराने समय में जंत्री के अंदर से निकाला जाता था उसको smooth (स्मूथ-मुलायम) करने के लिए वह खुरच दिया करते थे। कहते हैं तेरी ऐसी दुर्गति होगी वहां।

लख 84 कठिन त्रिरासी वचन हमारा मान रे। जैसे लोह तार जंतरी में तेरे ऐसे खींचे प्राण रे।। ऐसे खींचे प्राण रे।। जूनी संकट मेट देत है, शब्द हमारा मान रे। जूनी संकट मेट देत हम, शब्द हमारा मान रे। हरदम जाप जपो हर हीरा, चलना आम दीवान रे।। चलना आम दीवान रे।।

वह परमात्मा इतना सक्षम है जिसने यह पत्थर, तीर्थ, पृथ्वी सारे बना दिए और इन तुम तीर्थों पर धक्के खाओ उसकी बनाई हुई सृष्टि भी ठीक से नहीं समझ रहे।

स्वर्ग रसातल लोक कुसातल, रचें जमीं असमान रे। स्वर्ग रसातल लोक कुसातल रचे ज़मीं असमान रे। 14 तबक किए छिन मांही, सिरजे शशि अरुं भान रे।। जिसने सिरजे शशि अरुं भान रे।।

की वह इतना सक्ष्म भगवान है जिसने सारा कुछ स्वर्ग पाताल, सारा कुछ उसने रचे और यह 14 तबक एक क्षण में बनाकर रख दिए। जिसने चांद और सूरज बनाए। उसकी भक्ति छोड़कर तू आन उपासना करता फिरे नकली, इन नाशवान भगवानों की।

स्वर्ग रसातल लोक कुसातल, रचे ज़मीं असमान रे। 14 तबक किए छिन माहीं, सिरजे शशि अरुं भान रे।। जिसने सिरजे शशि अरुं भान रे।। निर्गुण नूर जहुरु जुहारो, निरख परख प्रवान रे। गरीबदास निज नाम निरंतर, सतगुरु दीन्हा दान रे।। सतगुरु दीन्हा दान रे।।

तो बच्चों! इतना कुछ सुनकर धर्मदास फिर टूट चुका था। फिर वह जो समस्या लेकर आया था पहले वह हल करनी थी उसने। वह थाली उठाकर भगवान के सामने रख दी। गुरुदेव! हे महाराज जी! भोग लगाओ भूख लग रही होगी। परमात्मा बोले आजा धर्मदास! भूख तो लग रही है भाई। रख दे खाऊंगा। धर्मदास ने सोचा नाम तेरा कैसे जानता है? फिर सोचा बस जाता रहता हूं भ्रमण करने और धर्म भी, यज्ञ भी करता रहता हूं।

इसलिए जान गया होगा। थाली रखी, परमात्मा ने अपने लोटे से जल लिया, मंत्र सा बोला, छींटे मारे। सारे भोजन की, कीड़ी बन गई चींटी अंश और थाली भर गई, काली हो गई चीटियों से और मुख में अंडे ले रही। ऐसे बोले अरे धर्मदास! आप कह रहे थे मैं जीव हिंसा नहीं करता? तू तो, कसाई भी छोटा तेरे से। इतना सुनकर धर्मदास के होश उड़ गए। इतना देखा, चरणों में गिर गया और उसी समय जिंदा महात्मा रूप बन गया। चरणों में गिर गए। बहुत बुरी तरह रोवे। मुझे शरण में ले लो दाता। मुझे और ज्ञान सुनाओ मैं बड़ा पापी हूं। परमात्मा ने तो फिर वही बतानी थी कि यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मरेंगे। इनकी माता ऐसे है।

धर्मदास यह जग बौराना। कोई ना जाने पद निरवाना।।

बहुत कुछ समझाई। धर्मदास क्योंकि यह ज्ञान इतना ठोक-ठोक कर भर रखा अज्ञान हमारे अंदर। यह जल्दी सी निकलता नहीं आत्मा से। लेकिन परमात्मा भी पक्के धोबी हैं, धोकर छोड़ेंगे। अब देखा यह ऐसे नहीं मानेगा क्या बोला, ‘सारा कुछ सुनकर, फिर बोला जी बात सुनो;

त्रिदेवन की महिमा अपरंपार। यह हैं सर्व लोक करतारम।। सुन जिंदा क्यों बात बनावे। झूठी कहानी मोहे सुनावे।। मैं ना मानूं बात तुम्हारी। मैं सेवक हूं विष्णु नाथ मुरारी।। शंकर गौरी गणेश मनाऊं। इनकी सेवा सदा चित लाऊं।।’

बताओ यह काल बोला अंदर आकर। इतना कुछ देखकर फिर बकवाद भा गई। मान चुका था लेकिन समझ में नहीं आ रही थी कि यह सारा संसार इतने हिंदू, इतने संत मंडलेश्वर क्या सारे ही मूर्ख हैं? यह सोची कभी इसकी बात मानकर और मैं अपना धर्म-कर्म खराब कर बैठूं। मन में यह थी की पहले मैं और संतों की परीक्षा लूंगा। परमात्मा तो जानते थे जानी जान हैं। अंतर्ध्यान हो गए। एकदम। अब उसके पसीने आ गए धर्मदास के, की अब यह कभी भी नहीं मिले। पहले अंतर्ध्यान हुए और अब फिर हो गए। हे भगवान! ऐसे 5-6 बार दाता ने झटके दिए, इस भोली आत्मा को। इतना सड़ रहा था उसमें अज्ञान में। जब देखा तेरी तो दुनिया उजड़ गई। अब कहां खोजुगां इसने हाय! मर गया।

तहां वहां रोवत धर्मनी नागर। कहां गए मेरे सुख के सागर।। अधिक वियोग हुआ हम सेती। जैसे निर्धन की लूट गई खेती।।

मै तो उजड़ गया भगवान!

क्लप करें और मन में रोवे। दसों दिशा को वह मग जोवै।। हम जाने तुम देह स्वरुपा। हमरी बुद्धि अंध गहर कूपा।। हम तुम मानुष रूप तुम जाना। सुन सतगुरु कहां किया पियाना।।

हे परमात्मा! मैंने तो आपको मानुष जाना था। ऐसे बता दो आप गए कहां? मैं वहीं आ जाऊंगा।

हम जाने तुम देह स्वरूपा। हमरी बुद्धि अंध गहर कूपा।। हम तो मानष रूप तुम जाना। तुम सतगुरु कहां किया पियाना।। वेग मिलो करहूं अपघाता। मैं नहीं जीऊं सुनो विधाता।। अगम ज्ञान ऐसा मोहे सुनाया। मैं जीऊं नहीं अविगत राया।। तुम सतगुरु अविगत अधिकारी। मैं नहीं जानी लीला थारी।। तुम अविगत अविनाशी सांई। फिर मोकूं कहां मिलो गोसाईं।। बंदी छोड़! कमर कसी धर्मदास कुं, पूर्व पंथ पियान। गरीबदास रोवत चले, बांधवगढ़ अस्थान।। परमात्मा जा पहुंचे धन्य काशी अस्थाना। मोमन नीरू के घर बुन है ताना।

बच्चों आज इतना ही। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे।

सत साहिब

 

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