सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहिब जी की जय।
बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज की जय।
स्वामी राम देवानंद जी गुरु महाराज की जय हो।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतो की जय।
सर्व भक्तों की जय।
धर्मी पुरुषों की जय।
श्री काशी धाम की जय।
श्री छुड़ानी धाम की जय।
श्री करोंथा धाम की जय।
श्री बरवाला धाम की जय।
सत साहेब।
गरीब नमों नमों सत्य पुरुष कुं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतो सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।। कबीर सतगुरु के उपदेश का, सुनियां एक विचार। जै सतगुरु मिलते नहीं, जाते नरक द्वार।। नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। उनसे कभी नहीं छूटता, फिरता चारों खान।। कबीर चार खानी में भ्रमता, कबहूं ना लगता पार। सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बासियो, सतलोक के डेरे की।।
निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहब ना।। निर्विकार निर्भय।।
परमात्मा के बच्चों हंस आत्माओं परमेश्वर कबीर जी ने आपके ऊपर अपनी पूरी कृपा बरसा कर रखी है बच्चो। आपको मूल ज्ञान मिल रहा है। आपका बहुत अच्छा सौभाग्य है। आपका Good luck है। और यह Good luck आपका आज नहीं बहुत वर्षों से आप प्रयत्न कर रहे हो। देखो मां से जब हम जन्म लेते हैं बाहर आते हैं हम फिर से कोरे बना दिए जाते हैं बिल्कुल अज्ञानी। जिस भी समाज स्थान देश में जन्म होता है वहीं भाषा सीखते हैं उन्हीं का लोकवेद हम पढ़ लेते हैं। और जो मूल काम होता है अपने मनुष्य जीवन का वह बिल्कुल स्वपन में भी याद नहीं आता। किसी को ज्यादा तड़प होती है तो वह अपने आप ही कहीं कोई मंदिर में जाता है दिखा उसके साथ हो लिया। कोई व्रत करता है वह व्रत करने लग गए। कोई एक करें, कोई दो करने लग गया। की जायदा भक्ति हो जाएगी। तो यह लोक वेद था।
अब देखो परमात्मा प्रत्येक जन्म में आपको ऐसे ही नये सिरे से पढ़ाना शुरू करता है किसी न किसी के माध्यम से। और उस जन्म में आप मुश्किल से उस लाइन को पकड़ पाते हो। कुछ दिन ठीक चलते हो फिर छोड़ देते हो। क्योंकि काल का प्रेशर बहुत है अन्य समाज ज्यादा होता है और सतभक्ति करने वाले कम संख्या में होते हैं। तो यह सारी समस्याएं आपको सुख देती रही आप यहां रहते गए। अब के परमात्मा यह सारी समस्याएं दूर करेगा। हम बहु संख्या में होंगे। हमारा बड़ा समाज बनेगा। अब के आपके ऊपर ज्यादा प्रेशर नहीं रहेगा। और आपके आने वाली संतान तो बिल्कुल स्वतंत्र रहेगी। वह तो सीधे हंस आएंगे उस दाता के। तो बच्चों आपको मूल ज्ञान सुनाया जा रहा है कहां कहां भटक रहे थे जैसे धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है। यह कितना दृढ़ था अपने गुरु रूपदास जी द्वारा बताएं मार्ग पर। और यह मान रहा था हम तो बिल्कुल पाक साफ है कोई जीव हिंसा करते ही नहीं।
तो गरीब दास जी बताते हैं:
मोती मुक्ता दर्शत नाहीं, यह जग है सब अंधे रे। दिखत के तो नैन चिसम, इनके फिरा मोतियाबिंद रे।। फिरा मोतियाबिंद रे।।
विद्वान ऐसे बन जाते हैं बोलने नहीं देते भगवान को। और मोतियाबिंद था धर्मदास के। अब कितना कुछ ज्ञान, कितना प्रयत्न करके उसकी अकल ठिकाने आई। आप सुनते रहो इस प्रसंग को। धर्मदास जी को मालिक बता रहे हैं।
आत्म जीव हितै जो प्राणी। सो कहां पावै मुक्ति निशानी।।
हे धर्मदास! आप स्वयं कह रहे थे, कि जो जीव हिंसा करते हैं वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। धर्मदास जी का टारगेट था, कि यह मुसलमान है मुसलमान मांस खाते हैं इसलिए यह पाप करते हैं। हम कुछ नहीं करते। देखो मांस खाते हैं मुसलमान वह तो एक्स्ट्रा और पाप करते है। और उसके अतिरिक्त भी यह और पाप होने लग रहे जो तुम्हे पता भी नहीं। और जब तक पूर्ण संत नहीं मिलते कबीर साहेब की शरण नहीं मिलती वह सच्चा नाम सतनाम और सारनाम नहीं मिलता यह पाप नहीं कटें। चाहे जाने में हो चाहे अनजाने में हो।
दीक्षा लेने के बाद पूर्ण संत से सतगुरु कबीर साहेब की शरण में आने के बाद उनके सच्चे संत सतगुरु से नाम लेने के बाद फिर यह समाधान होता है।
इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जावे। कहे कबीर तास का, पाप नहीं लगे।।
और फिर
कबीर जब ही सतनाम हृदय धरो, भयों पाप को नाश। जैसे चिंगारी अग्नि की, पड़े पुराने घास।।
सतनाम के पिछले संचित कर्मों को आग लगा देगा। और जो वैसे ही जैसे इस जैसे सारे गिनवा रखे हैं आपको-:
पृथ्वी ऊपर पग जो धारे। करोड़ जीव एक दिन में मारे।।
तो यह हमारी इच्छा मारने की नहीं होती यह तो हमने आना जाना पड़ेगा। चलना पड़ेगा। अब मरेंगे तो हमें पाप नहीं लगेगा। क्यों नहीं लगेगा ? क्योंकि हम पूर्ण संत की शरण मे आ गए। और हमें दीक्षा मिल गई। दीक्षा मिलने से पहले यह सब ज्ञान दिया जाता है ऐसे नहीं करना, यह गलती नहीं करना, ऐसा नहीं करना पूरी ट्रेनिंग दी जाती है। उदाहरण देता हूं। जैसे ड्राइविंग लाइसेंस होता है गाड़ी चलाने का लाइसेंस ड्राइवर का तो जिसके पास अधिकारी से बना हुआ लाइसेंस है उससे अगर अनजाने में कोई एक्सीडेंट हो जाता है तो उसको सजा नहीं मिलती। और लाइसेंस है नहीं और वह गाड़ी चलाता है और उससे भी बेशक अनजाने में हो जा उसको सजा मिलेगी क्योंकि उसके पास लाइसेंस नहीं है। उसने गाड़ी चलाई कैसे? तो इसीलिए हम 3 साल के बच्चे को का लाइसेंस बना देते हैं। 3 साल तक बच्चा मात-पिता के आधीन होता है।
उसको कोई पाप नहीं लगता। और वह मात-पिता सच्ची भक्ति करते हैं उनके कारण उसकी रक्षा होती है। उदाहरण दिया जाता है जैसे महाभारत के युद्ध में एक टटीहरी पक्षी ने अंडे दे दिए थे। उसकी पुकार पर उसके अंडों की रक्षा कर दी। मां की पुकार पर बच्चों की। एक घंटाला डाल दिया हाथी का। और महाभारत का युद्ध हो गया ।
अग्निबाण छूटे पर अंडों पर कोई दिक्कत नहीं आई। टटीहरी पक्षी के अंडों के ऊपर परमात्मा ने एक घंटाला डाल दिया हाथी का बहुत ऊपर स्वर्ग से कहते हैं इंद्र सर्वग के देवता के हाथी का घंटाला वहां से टूटकर नीचे आ गया 88,000 मण का। ( ओह तेरा गजब होइयो) तो कहने का भाव यह है कि मात- पिता यदि सच्चे दिल से याद करते है दाता को, भक्ति करते हैं उनके कारण पूरे परिवार की रक्षा भी हो सकती है। यह उदाहरण एक ही काफी है। टटीहरी एक पक्षी थी उसकी भी पुकार पिछले संस्कार से सुनकर उसके अंडों की रक्षा कर दी।
स्वर्ग के राजा इंद्र के हाथी का घंटाला टूट गया ऐसा पुराणों में प्रकरण है। 88,000 मण, 88,000 मण का था वह। और नीचे आकर आराम से उन अंडों के ऊपर रखा गया। सारा महाभारत हो गया अग्निबाण छूटे। पता नहीं लाखों आदमी मारे गए। फूंक दिया सब कुछ। पर उन अंडों के आंच नहीं आई। तो इस प्रकार तीन वर्ष के बच्चे माता-पिता के संरक्षण होते हैं उनकी पुकार वह सुनता है। 3 साल के बाद बच्चों को हम उपदेश दिक्षा दे देते हैं। फिर भी मात- पिता की पुकार फिर भी सुनी जाती है। और बच्चे भी अपना मंत्र करना शुरू कर देते हैं। लाइसेंस बन गया।
तो इसी प्रकार जब लाइसेंस नकली बनाया जाता है। और बिल्कुल नहीं बनवा रखा। यह झूठ गुरुओं से नाम ले रखा इनको दोनो सब पाप लगेंगे। जाने के और अनजाने के। चाहे जानबुझ कर पाप किया चाहे अनजाने में हुआ। केवल अब सत्पुरुष कबीर साहेब की भक्ति से और पूरे संत से दीक्षा लेने से उसके जो सच्चा नुमाइन्दा भेजा जाता है तब यह पाप नहीं लगेंगे।
इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जा। कह कबीर ता दास कै, पाप नहीं लगे।।
धर्मदास जी कह रहे थे हम कोई पाप नहीं करते। उसकी आंख खोली दाता ने। इतने पाप करते हो।
ऐती हिंसा करत हो सारे। कैसे दीदार करो हमारे।। आत्म जीव हितै जो प्राणी। सो कहां पावै मुक्ति निशानी।। उर्ध पींघ जो झूलें भेखा। जिनका कदे ना सुलझे लेखा।।
जो यह भेख साधु संत बने फिरते हैं कोई ऊपर को पैर करके। कोई एक वृक्ष के नीचे झूला डाल कर उसके बैठ जाते हैं लटकते रहते हैं। खड़े रहते हैं उसका सपोर्ट ले लेते हैं कभी-कभी।
उर्ध पींघ जो झुले भेखा। जिनका कदे ना सुलझे लेखा।। स्वामी सेवक बूड़त बेरा। मार पड़े दरगाह जम जेरा।।
ऐसा ज्ञान अचंम्भ सुनाऊं ऐसा अचंभित करने वाला ज्ञान सुनाऊं धर्मदास। और पूजा अर्पण सबै छुटाऊं।।
यह व्यर्थ का जो तुम तर्पण अर्पण करते फिरते हो सारी छुटवा दू तीरथ व्रत।
गरीब ऐसा ज्ञान सुनाए हूं, ना कहीं भ्रमण जावे। गरीबदास जिंदा कहे धर्मदास उरभाव।।
अब आगे फिर गिनाते हैं जिनको तुम संत साधु मानते हो और जो यह डले ढोवैं हैं भिन्न-भिन्न प्रकार के जो पाखंड शास्त्र विरुद्ध साधना करते हैं उनका हिसाब देते हैं परमात्मा।
झरने बैठ जलाबिंब धारा। सखों जीव करत संहारा।। पंच अग्नि जो धूप ध्याना। जन्म तीसरे सूकर स्वांना।। पांच अग्नि। झरने बैठे जलाबिंब धारा। संखो जीव करत संहारा।
हमने देखा कई जगह सर्दियों के दिनों में एक तिपाई बनवा लेते हैं स्टैंड ऊपर गोल-गोल उसके छल्ला जैसा लग जाता है जैसे घड़ा रखने का स्टैंड होता है मटका कलश। और उस कलश के नीचे सैकड़ो सुराख बना लेते हैं बड़ी सावधानी से। और उस स्टैंड के ऊपर उसको रखकर उसमें 100 घड़े पानी के तालाब से भरकर रख देते हैं। हमने अपने गांव में भी देखा। हम छोटे थे उस टाइम। तो औरतें आवे नहा- धोकर और उस तालाब से पानी भरकर सौ मटके पानी के भरकर रख के जा दिन में। और रात में उस पाखंडी के ऊपर 5,10, 20 आदमी वहां खड़े हो जावे, बैठ जा। और वह उस स्टैंड के नीचे बैठे तप करने वाला उसको झरना बोलते हैं झरने नीचे बैठे।
और मटके उठा -उठा कर जो तलाब पानी के भरे हुए और उस मटके में डाल दे जिसमें छेक कर रखे थे। सुराख कर रखे होते हैं। और वह नीचे बैठ जाता है ऊपर उसके झरना सा पड़े उनके अंदर से सुराखों में से पानी आवे। वह सौ मटके डाले जां। फिर वह उठ जा। वह सुल्फा की मारकर घूंट और पीकर दारू बैठ जा अपने फिर कुछ भी बरसे जाओ चाहे। यह इस तरह के पाखंडी है।
झरने बैठ जलाबिंब धारा। संखों जीव करत है सहांरा।।
उसमें संखो जीव मार दिए उसके पानी में।
पंच अग्नि जो धूप ध्याना। जन्म तीसरे सुकर स्वाना।।
जो पांच धूंने लगाकर बैठते हैं। और बीच मे बैठ जायेंगे। 40 दिन बैठते हैं दिन मे तीन घंटे। तो कहते हैं यह तीसरे जन्म में कुत्ते गधे बनेंगे सूकर स्वान। सूअर और कुत्ते। कहते हैं
तप से राज राज मद मानं। जन्म तीसरे सूकर स्वानम।। बजर दंड कर दम कु तोड़ें। वहा तो जीव मरत है करोड़े।। निश्वाशर जो धूंनी फुकैं। तामें जीव असंखो सूखैं।।
यह जैसे श्वास रोकते हैं अभ्यास करते हैं इसमें भी जीव मरते हैं। स्वांस रूकने से भी वह स्वांस के अंदर जो प्राणी होते हैं वह रुक जाते हैं उनको पूरी ऑक्सीजन न मिलने से वह मरते हैं।
फिर कहते हैं
निश्वासर जो धूंनी फुकैं। धूंए के आगे बैठे रहैं उसमें जीव असंखो सुखैं।।
बहुत मरे। बता क्या मतलब हुआ धुएं का? सिर में मारें धूंए को। भक्ति करने का जो काम है वह करते नहीं।
तीर्थ बाट चलै जो प्राणी। सो तो जन्म - जन्म उलझानी।।
जो तीर्थ यात्रा पर जाते है वह तो जन्म- जन्म मरेंगे उलझ कर इन पापो में। धर्मदास जी को बताया आप कहां से आए हो? कि मैं बांधवगढ़ से आया हूं। और कितनी दूरी है यहां से मथुरा से ? जी 600, 700, 800 किलोमीटर यानी उस टाइम मील कहा करते। 500 मील है। तो कैसे आए हो? पैदल चल कर आया हूं जी मैं पैदल। तो वहां से यहां तक तूने करोड़ो जीव मार दिए असंखो। पाप तो संखो हो गए और पुण्य एक भी नहीं।
क्योंकि शास्त्र विरुद्ध साधना है यह।
तीर्थ बाट चले जो प्राणी। सो तो जन्म-जन्म उलझानी।।
इन पाप कर्म के लेखे में और इनमें असंखो जन्म, जन्म- जन्मांतर उलझा रहेगा।
जाए तीर्थ पर कर है दानं। आवत जात जीव मरे अर्बानं।।
दान करने वहां जाते हैं आने- जाने में जीव कितने मार डाले आने- जाने में।
परभी लेन जात हैं दुनिया। हमारा ज्ञान किन्हे नहीं सुनियां।।
यह भोली दुनिया परभी नहाने जाती है। यह कुंभ के मेले में कहते हैं हरिद्वार में परभी लगी है। कभी गंगा पर प्रयागराज में परभी लगी है कभी हरिद्वार में। वहां नहायेंगे जाकर। उस परभी में नहाने से मोक्ष हो जाएगा। परमात्मा कहते हैं तुम्हारे जाने से पहले उस तालाब के अंदर उस सरोवर में मछली, मेंढक, कछुए, छोटे-छोटे जीव तुमसे पहले परभी नहाने लग रहे उनकी मुक्ति नहीं होती। तो इस अज्ञानी गुरुओं ने बिल्कुल सत्यानाश कर रखा है भक्ति का।
परभी लेन जात हैं दुनिया। हमारा ज्ञान कीन्हे नहीं सुनिया।।
परमात्मा कबीर साहिब कहते हैं वहां धक्के खाने जाते हैं। हमारा ज्ञान नहीं सुनते। कोई नही सुनता।
परभी लेन जात हैं दुनिया। हमरा ज्ञान किन्हे नहीं सुनियां।।
गोते गोते पड़ है भारं। गंगा जमुना गये किदारं।।
यह जितने गोते उन तालाबों में मारोगे ना तीर्थो में उतना ही भार पड़ेगा तुम्हारे ऊपर जीतने जीव मरे हैं। गंगा जमुना केदारनाथ में लोहागिर पुष्कर में कहीं भी जा लियो।
गोते गोते पड़ है भारं। गंगा जमुना गए किदारं।। लोहागिर पुष्कर की आसा। अनंत कोटि जीव होत विनाशा।। पाति तोड़ चढ़ावे अंधे। जिनके कदे न कट है फंदे। गंगा काशी गया प्रयागू। बहोर जाए द्वारा देह दागू।। हरि पैड़ी हरिद्वार हमेशा। ऐसा ज्ञान देत उपदेशा।।
देखो जो ऐसा मार्गदर्शन करते हैं ऐसा उपदेश देते है ऐसा ज्ञान देते हैं हर पेड़ी पर जाओ हरिद्वार में। ऐसा करो, वैसा करो। काशी में नहाकर आओ। गंगा प्रयाग में जाओ। जा गुरुवा की गर्दन भारं।
जो जीव भ्रमावै आचार विचारं।।
क्या बताते हैं ऐसी नकली गुरु के ऊपर भी भार बनता है। जो जीवों को मिस गाइड करता है भ्रमित करता है।
जा गुरुओं की गर्दन भारम। जो जीव भ्रमावे आचार विचारं।। पिंड पेहोवे बहुतक जाहीं। बदरी बोध सुनो चित लाई।। पेहोवा में जाकर पिंड भरवावें। और बद्रीनाथ पर जावैं।।
वहां बड़ा ध्यान से सुनते हैं।
सरयू कर अस्नान हजूमं। अनंत कोटि जीव घाली धूमं।।
पिंड प्रधान मुक्ति नहीं होई। भूत जूनी छूटत है लोई।।
सरयू नदी है अयोध्या के साथ से बह रही है। उसमें स्नान करने जाते हैं कि यहां नहाने से कल्याण हो जाएगा। कैसे कल्याण हो जाएगा ? कि रामचंद्र जी ने उसी में जल समाधी ली थी। रामचंद्र जी उसमें डूब के मरे थे।
देख इनकी अकल पर पर्दे पड़ रहे। यह तीर्थ ऐसे बताए गए हैं।
सरयू कर अस्नान हजूमं। अनंत कोटि जीव घाली घुमं।।
वहां लाभ तो कुछ होना नहीं और यह पाप और सिर पर रख लेते हैं आने जाने का वहां जीवो के मारने का। फिर कहते हैं पिंड दान करने से मुक्ति नहीं होती। भूत जूनी छूट जाती है। फिर गधा बन गया क्या खाक पिंड होया यह ? पिंड प्रधान मुक्ति नहीं होई। भूत जूनी छूटत है लोई।। पिंडदान करने से मोक्ष नहीं होता। भूत जूनी छूट जाती है। प्रेत जूनी छूट गई और गधा बन गया खाक मुक्ति करवाई ? गरीब भूत जूनी जहां छूटत है, पिंड प्रदान करंत। गरीबदास जिंदा कहे, नहीं मिले भगवंत।।
जगन्नाथ जो दर्शन जांही। काली प्रतिमा भवन के माहीं।।
जगन्नाथ के दर्शन करने जाते हो वह एक काली मूर्ति रखी है काली सी उस भवन में। वह जगदीश नहीं पावै किस हीं। जगन्नाथ जो घट-घट बस ही।। बच्चों! अब यह वाणी है बहुत गहरी है।
जैसे एक समय एक पण्डितानी थी चंद्रप्रभा। एक उसकी बेटी थी। और संतान नहीं थी। और वह कबीर जी की शिष्य हो चुकी थी। अच्छी लगन थी। बीरदेव सिंह बघेल भी गुरुजी का शिष्य हो गया था परमात्मा कबीर जी का। वीर सिंह बघेल बोला कि महाराज जी! मुझे सारनाम दे दो सारनाम के योग्य हो गया हूं तो। परमात्मा बोले भाई सारनाम दे दूंगा एक मुझे एक साफ सूथरे कपड़े की जरूरत पड़ेगी जो स्वयं बनाया गया हो। अपने घर में आंगन में बाड़ी बोई गई हो कपास, उसको स्वयं ही काता हो। और स्वयं ही तैयार किया हो।
उसका कपड़ा धोती बनाई हो वह लाना पड़ेगा। तो वह बोला जी कहां मिले ? की एक ऐसे ऐसे आपकी गुरु बहन है उसका यह नाम है वहां रहती है। उसने ऐसे तैयार कर रखी है वह। उसके पास है उससे मांग ला। तो बोला जी अब ले आऊंगा ठीक है। अभी ले आता हूं। इतना समझ में आ गई थी कि खुद जाऊंगा जब बात बने। नौकर से नहीं मंगवानी। वह खुश होकर दे जब लाइये भाई जबरदस्ती मत करना। परमात्मा ने स्पष्ट कर दिया था। तो उसने नौकर भेज दिए सैनिक की बहन को जाकर कहो की घबरावै नही कहीं तुम्हे देखकर डर जा जा सिपाहियों को की महाराज आ रहे हैं।
और गुरुजी से दीक्षा ले रखी है आपसे कोई जरूरी काम है। तो उस बहन को तो खुशी का ठिकाना नहीं और इतना जरूर था की कोई बात जरूर है गड़बड़ की। कि राजा का यहां आने का क्या मतलब ? तो वहां चला गया उससे पहले उस बहन ने बढ़िया अपना जैसा घर में ब्योत था एक चारपाई बिछाई उस पर बढ़िया चादर डाल दी दूध गर्म किया। महाराज को दिया राजा को।
राजा बोल बहन जी! दूध बाद में पीऊंगा पहले मेरी एक रिक्वेस्ट सुन प्रार्थना है। बोलो जी! आदेश करो आप राजा हो। बोला नहीं मैं राजा नहीं आज मैं भिखारी बनकर आया हूं तेरे द्वार पर। और मैंने सारनाम लेना है बहन। और गुरुजी ने ऐसा कहा है तेरे पास कोई एक धोती है जो तूने यही काति है यही बाड़ी बोई कपास बोई। और खुद उसको गंगा के जल से सींचा मटके ला ला कर। और खुद उसको निकाला फिर स्वयं ही कात्या स्वयं ही उसको लोढ्या कपास स्वयं निकाली।
और उससे कपड़ा तूने खुद बुना है। वह धोती दे दे मैंने सारनाम मिलेगा यह दे दूंगा जब मिलेगा। यह परमात्मा ने शर्त रखी है। तो वह बहन बोली महाराज! और कुछ मांग लो या धोती मैं दूं नहीं। क्यों बहन क्या बात हो गई? यह मैंने जगन्नाथ मंदिर में चढ़ानी है भगवान के लिए बना रखी है जगन्नाथ महाराज की। वहां मंदिर में चढ़ा कर आऊंगी। बहुत रिक्वेस्ट करी बहन तूने जो मांगै उतना धन दे दू। तेरे पांच गांव नाम लिख देता हूं तू वहां की अध्यक्ष होगी। ऐसे बोली जी कुछ भी दे मेरी जान लेकर ले सकता है। मैं यह दूं नहीं। बहुत कुछ कहने के बाद फिर वापस आ गया राजा मुंह लटका कर। तो परमात्मा बोले भाई क्या रहा? की जी बहन जी ने यह यह शर्त रख दी । कि यह तो दूं नहीं। वह करेगी क्या ? परमात्मा बोले कबीर जी। की वह यह कह रही है कि मैं जगन्नाथ के मंदिर में चढ़ा कर आऊंगी।
मैंने भगवान के लिए बना रखी है। तो परमात्मा बोले एक काम कर दे। उस बहन को वह जाए जब, यह अपना भेंट चढ़ाने जावे जगन्नाथ के मंदिर में उसके लिए पूरी व्यवस्था कर दे आने-जाने में कोई दिक्कत ना हो। जब वह चढ़ा कर आ जाएगी वापस ठीक-ठाक फिर मैं तुझे वैसे ही नाम दे दूंगा। बड़ी खुशी हुई उसको तो खुशी का ठिकाना ही नहीं। की यह तो कोई बात ही नहीं। तो उसने सैनिक भेजे अपने सिपाही नौकर की जाकर बहन जी को कहो आप कब जा रही हो वह धोती चढ़ाने भगवान के दरबार में ? महाराज जी पूछ रहे हैं परमात्मा राजा जी।
आपके लिए एक ऊंट गाड़ी की व्यवस्था करेंगे। आप जैसे कहोगे वैसी ही व्यवस्था उसमे बैठी जाइये। सैनिक साथ होंगे रास्ते में कोई दिक्कत ना कर दे अपनी बहन को। और खाने पीने का सामान साथ रख देंगे। तो उसने सैनिक आते दिखे जब वह डर गई की अब जबरदस्ती छीन कर ले जाएंगे। वह सहम सी रही थी। जब उसने यह बात सुनी तो संकट टला महसूस हुआ। हाथ जोड़कर बोली भाई! मैं नहीं तो किसी ऊंट पर बैठूं, और नहीं किसी गाड़ी में। मैं तो पैदल जाऊंगी। और अपने हाथों चढ़ा कर आऊंगी। तो परमात्मा बोले भाई उसको पता चला ऐसे बोली। परमात्मा बोले उसके साथ दो - तीन सैनिक भेज दे। ताकि रास्ते में कोई दिक्कत ना हो। वह सैनिक उसके साथ भेज दिए वह चली गई। नहा धोकर सुबह मंदिर में जब वह धोती चढ़ाई उस काली मूर्ति को भगवान मानते हैं जगन्नाथ। वह लकड़ी की है चंदन की। और हाथ टुंडे हैं उसके।
मैं खुद देख कर आए थे हम, गए थे कई भगत सिर्फ देखने के लिए। तो वह धोती वह वहां से उठकर वह चद्दर और बाहर आंगन में आकर पड़ गई। आकाशवाणी हुई- की हे चंद्रप्रभा! यह धोती जगन्नाथ ने वहां मंगवाई थी तेरे से वीर सिंह के घर पर। वहां तो तूने चढ़ाई नहीं। यहाँ धक्के खाने आई तु। उठाले इसको। भगवान तो जगन्नाथ तो वहां बैठा है काशी में।
बच्चों! यह पर्दा पड़ रहा है।
जगत का पेखना पेखा। धनी का नाम ना लेखा।।
वह तो हैरान रह गईं। धोती उठा कर सिर पर रख ली। वापस आ गई। परमात्मा वही वीर सिंह बघेल के घर पर बैठे। पता था वह भटकी आत्मा आयेगी। सैनिक और वह बहन सीधे वीर सिंह पता चला गुरुजी वहां गए है वीर सिंह के घर पर। वही पहुंच गए। और चरणों में धोती रखकर रोवे ही रोवे। रोकी नहीं रुके। वीर सिंह को टेंशन हो गईं। की इसको किसी ने रास्ते में कुछ कह दिया और यह सिपाही क्या करने गए थे साथ में निकम्मे ? मेरा अब काम बने नहीं। सिपाहियों को अलग ले गया। क्या हो गया बहन को? निकम्मो तुम कहां मर गए थे ? उन सिपाहियों ने बताया राजन! ऐसे हुआ। इस बहन ने धोती चढ़ाई उस मंदिर में। यह धोती उड़कर और बाहर आकर गिर गई। आकाशवाणी हमने सबने सुनी की जगन्नाथ तो वहां वीर सिंह के घर मंगवावै था। तूने वहां क्यों नहीं दी निकम्मी ? यहां क्या लेन आई तु। जगन्नाथ तो काशी में बैठा है कबीर वह जगन्नाथ है।
बच्चों! यह सब अंधेरा हो रहा था अब जाकर आंख खुलेगी इस जनता की दुनिया की। तो वह बोली हे भगवान! मुझे माफ कर दो। मैं तो आपको तो गुरु मानूं थी भगवान नहीं। हे परमात्मा! बड़ी चौँध तोड़ दी बड़ा अज्ञान हट गया मेरा तो। माफ करो मुझ पापिन को। कबीर साहेब कहते हैं गुरु मानुष कर जानते, ते नर कहिए अंध। होवे दुखी संसार में, फिर आगे यम के फंद।।
गुरु को मानुष जो गिने, फिर करे चरणामृत को पान। फिर उस चरणामृत का फायदा क्या जब as a simple man मान रहे हो तो ? तब परमात्मा ने दोनों की आंख खोली। दोनों को पुनः उपदेश किया। सतनाम का फिर से जाप करो गुरु भगवान मान कर। सारनाम तो मिला, नहीं मिला बात यह थी कि उनको एक उनकी फड़क निकालनी थी।
सारनाम तो अभी तक देना ही नहीं था किसी को। पर उनकी अकल ठिकाने लानी थी Kabir is god. और यह है जगन्नाथ। जगन्नाथ जो दर्शन जांही। काली प्रतिमा भवन के माही।। वह जगदीश ना पावे किस ही। जगन्नाथ जो घट घट बस ही।। यह परमात्मा सारी सृष्टि के मालिक है कबीर साहेब। सर्व व्यापक है यह। गोमती गोदावरी नाहीं। 68 तीर्थ का फल चाही। नहीं पूजे जिन संत सुजाना। जाके मिथ्या सब अस्नाना।। गोमती नदी, गोदावरी नदी, 68 तीर्थ कहते हैं उनके संगम में नहा ले गोमती और गोदावरी के में तो 68 तीर्थ का फल मिल जा ऐसा मूर्ख बना रखा है। 68 तीर्थ क्या चाहे लाख तीर्थ नहा लो वहां कोई पुण्य ही नहीं। वहां तो पाप पाप है। हे बंदी छोड़! देख कैसा उलझा रखा था हमारे को। अब बिल्कुल क्लियर कर दिया
नहीं पूजै जिन संत सुजाना। जाके मिथ्या सब असनाना।।
जिन्होंने संत पूरा सतगुरु नहीं बनाया। उनके सारे कर्म धर्म सारे मिथ्या व्यर्थ यूजलेस।
कोटि यज्ञ अश्वमेघ कराही।
संत चरण रज सम नाहीं तुलाई।।
करोड़ अश्वमेघ यज्ञ करो पूरे संत के चरण की धूल के बराबर भी नहीं है।
कोटि गऊ नित दान जो देही। एक पलक संतन प्रभी लेहि।।
करोड़ गऊ दान करे और एक पल पूरे संत की सत्संग में प्रभी लेले। वहां से बुद्धि बदलनी शुरू हो जाएगी।
धूप दीप और योग युक्ता। कोटी ज्ञान क्यों कथ ही मिथ्या।। जिन जाना नहीं पद का भेऊ। जाके संत ना रहे बटेऊ।।
यानी जिन्होंने यथार्थ भक्ति का राह नहीं पाया। क्यों नहीं पाया ? क्योंकि उनके कोई संत मेहमान नहीं रहे पूरा संत उनको मिला नहीं।
तीर्थ व्रत करें जो प्राणी। तिनकी छूटत है नहीं खानी।।
जो तीर्थ व्रत करते हैं उनकी 84 लाख योनियो मे भटकना नहीं मिटेगा।
चौदस नवमी द्वादश वर्तम। इनसे जम जौरा नहीं डरतं।।
चौदस नवमी, द्वादश का, पूर्णमासी का, एकादशी का करवा चौथ यह जो कुछ भी आठम - सातम मानाओ हो इनसे कोई लाभ नहीं होना।
चौदस नवमी द्वादश वर्तम। इनसे जाम जौरा नहीं डरतम।। करें एकादशी संजम सोई। करवा चौथ गधहरी होई।।
यह करवा चौथ की कहानी कहती है। यही तक सीमित है एकादशी का व्रत रखते है यह गधहरी होई। हे बंदी छोड़। गधे की योनि पावैंगी। हे बंदी छोड़!
करें एकादशी संजंम सोई। करवा चौथ गधहरी होई।। आठै सातै करें कंदुरी। सो तो हो नीच घर सूरी।।
यह आठम - सातम मनाते फिरते हैं यह नीच के घर सूअरी पैदा होगी।
गरीब आन धर्म जो मन बसे, कोई करो नर नार। गरीबदास जिंदा कहे, सो जासी जमद्वार।। कह जो करवा चौथ कहानी। तास गधहरी निश्चय जानी।।
बच्चों! आंखे खोलो यह कोई बालको का बच्चों का ज्ञान नहीं बताया उन्होंने। समर्थ के बेटे गरीब दास जी का जिसने आंखों देखा भगवान।
कहे जो करवा चौथ कहानी। तास गधहरी निश्चय जानी।।
जो करवा चौथ की कहानी व्रत रखें पक्की गधी बनेगी नोट कर लो ऐसा लिखा है इसमें।
दुर्गा देवी भैरव भूता। रात जगावे होए जो पूता।।
पुत्र हो जा सारी रात ढोल पीटें नाचै गांवै भंडेले की तरह। और दुर्गा देवी भैरव भूत इनकी पूजा करें।
करे कढ़ाई लपसी नारी। बूढ़े वंश सहित घर बारी।। दुर्गा ध्यान पड़े जिस बगड़म। ता संगति बूढ़े सब नगरम।।
जिस नगर में, जिस कॉलोनी में, मोहल्ले में, गांव में यह दुर्गा का जागरण होता है कहते है इसकी संगत से इसमे सारा वह बगड़ कालोनी ही डूब जाती है। क्योंकि वह उसमें सुरिले गाने और अटबट की बातें नाचना ढूंगें मारै।
और आम आदमी प्रभावित होकर बड़े गायक लावेंगे। तो उससे प्रभावित होकर सब कहते है हमारे भी करियो। कल जागरण हमारे करियो। उस पूरी वह छूत की बीमारी सारे फ़ैल जाती है। एक समय दास ने आंखों देखा पहले शुरुआत की बात है 1995 की बातें हैं। मैं एक अपने भगत के उसने शाम का उसने भोजन करवाया था वहां चले गए। और भी कई थे। भगत तो आ गए मैं वहीं रुक गया। उसके थोड़ी सी 2-3 मकान छोड़कर दुर्गा का जागरण हो रहा था। गर्मी के दिन थे बाहर टेंट लगा रखे थे। वह जो गायक थे वह टेंट में रुके हुए थे बाकी जनता वैसे ही बाहर बैठी थी। नीचे मैट बिछा रखे थे ऊपर लगा रखे थे पर्दे टेंट सिंपल लगा देते हैं जैसे ऊपर के।
और उनका अलग से कक्ष से बना रखे थे गायकों के। तो वह मेरे को बोला आपने दिखा कर लाऊं यह जागरण कैसे फंड करते हैं। मैं भी उठकर चला गया की देख तो लेना चाहिए। मैं बोला अंदर से जाएंगे ? बोला नही बाहर से देखेंगे। हम गए तो उस टेंट का थोड़ा सा पल्ला हटाया उसने। उसने कहा यह दारू पीकर अब जायेगा जागरण करने शराब पीकर। उसने एक पेग लगाया दो। और चला फिर। फिर वह लगा माता की जय बोलो। अगले बोलो, पिछले बोलो। सारे बोलो। जय बोलो माता की। जय माता की। सारे बोलो। जोर - जोर से रुकके मारे मैं नहीं सुनिया।
अब उसको कहा सुनै था वह दारू पी रहा। स्वयं ही बोले। दुनिया को मूर्ख बना रहा। मैं नहीं सुनियां। और खूब रुकके मारे वह जय माता दी। जय माता दी। सारे बोलो जय माता दी। यह है दुर्गा। यह दुर्गा। कहते है
दुर्गा ध्यान पड़े जिस बगड़म। ता संगति डूबे सब नगरम।
यो रंग रास विलास हमारा। हमरी योनी सकल संसारा।। हम ज्ञानी हम चातुर चोरा। हम ही दस सिर का सिर फोड़ा।
हमने ही रावण को मारा। हम ही ज्ञानी हम चातुर चोरा। हम ही चोर हैं इस काल के लोक से तुम्हे चुरा कर ले जाएंगे। हम ही हिरन्याकुश उदर विहंडा। नरसिंह रूप गाज नौ खंडा।। व्रतासुर जब वेद चुराए। हम ही वराह रूप धर आए।।
कहते हैं यह सब हमने किया सारा कुछ।
जब प्रह्लाद अग्नि में डारे। हम हिरणाकुश उदर विदारे।। जब प्रहलाद को कष्ट दिया जब प्रहलाद बाँधिया खंबा। हम नरसिंह रूप धरा प्रचंडा।।
की हमने ही उस हिरण्याकशिपु का पेट फाड़ा था आकर। जब भगत तंग किया जा रहा था।
हम सुरपति का राज डिगाए। हम ही बली के द्वारे आए।। हम ही त्रिलोकी सब मापी। ता से डरे बली तन मन कांपी।।
गरीब विष्णु को तो दीन्ह बढ़ाई, हम पूर्ण करतार। गरीबदास जिंदा कहे, सकल सृष्टि हमार।।
गरीब स्वर्ग नरक नहीं मृत्यु है, नहीं लोक बंधान। गरीब दास जिंदा कहे, सत शब्द प्रमाण।।
शब्दे शब्द रहेगा भाई। दुनी सृष्टि सब प्रलय जाई।। चलसी कच्छ मछ कूरम्भा। चलसी धोल धरनी अठखंबा।। चलसी स्वर्ग पाताल समूलं। चलसी चंद्र सूरजे फुलं।। जो आरंभ चले धर्मदासा। पिंड प्राण चलसी घट स्वासा।।
हे धर्मदास! विष्णु को तो हमने मान बड़ाई दी। यह सारे हमने किये। बिल्कुल क्लियर कर दिया।
गरीब विष्णु को तो दीन्ह बढ़ाई, हम पूर्ण करतार। गरीबदास जिंदा कहे, सकल सृष्टि हमार।।
अब क्या बताते हैं यह सब नष्ट हो जाएंगे। शब्दे शब्द रहेगा भाई।
दुनी सृष्टि सब प्रलय जाई।।
चलसी यानी नष्ट हो जाएंगे कच्छ मच्छ कूरम्भ, यह धरती और आकाश।
यह तेरे स्वर्ग पाताल भी नष्ट हो जाएंगे। जो यहां सृष्टि रची है सब नष्ट होगी एक दिन धर्मदास।
चले भिस्त बैंकुंठ विशालम। चलसी धर्मराय जम सालम।। पानी पवन पृथ्वी नाशा। शब्द रहेगा सुन धर्मदासा।।
यह एक प्रलय की बात है। जब यहां का पृथ्वी यह नष्ट होंगे तीन लोक नष्ट हो जाएंगे उस समय की बात है। यह प्रलय महा प्रलय दो तरह की है।
चले इंद्र कुबेर वरुण धर्मराजा। ब्रह्मा विष्णु शिव चलैं सब साजा।।
यह सब खत्म हो जाएंगे तेरे ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नष्ट हो जाएंगे।
चले आदिमाया ब्रह्मज्ञानी। हम नहीं चले रहे सदा पद प्रवानी।।
यह तेरी आदि माया भी मरेगी ज्योति निरंजन भी मरेगा।
शब्द स्वरूपी पिंड हमारा। हम नहीं चले चले संसारा।
हम नहीं मरेंगे। सारा संसार मर जाएगा यहां का।
जैसे मीन जल में मिल जाई। अवगत लहर लिन्ह पद झाई।। जिंद कहे सुनियो धर्मनी नागर। हंस मिलत है सुख के सागर।। हरदम है यहां संसा शोगम। पल पल रूप महारस भोगम।। यह उदगार नेश हो जाई। सुखसागर जो अमर रहाई।। हम हैं अमरलोक के वासी। सदा रहे जहां पुरुष अविनाशी।।
अगम अनाहद अधर में, निराकार निज नरेश। गरीबदास जिंदा कहे सुनो धर्म उपदेश।।
बच्चों! इतना सारा ज्ञान सुनकर भी धर्मदास की अकल ठिकाने नहीं आई। धर्मदास बोलत है वाणी।
कौन रूप पद कहां निशानी।।
बच्चों! यह सुनते रहियो अमर ज्ञान अजब - गजब ज्ञान मिलेगा आपको। बस परमात्मा आपको मोक्ष दे। बाकी शेष मालिक की दया हुई फिर सुनाएगे। आपको परमात्मा मोक्ष दे। चरणों में रखें।
सत साहेब।।।