सत साहेब।
सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहिब जी की जय।
बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज की जय।
स्वामी राम देवानंद जी गुरु महाराज की जय हो।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय।
सर्व भक्तों की जय।
धर्मी पुरुषों की जय।
श्री काशी धाम की जय।
श्री छुड़ानी धाम की जय।
श्री करोंथा धाम की जय।
श्री बरवाला धाम की जय।
सत साहेब।
गरीब नमो नमो सत्य पुरुष कूं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवां, संतों सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।।
कबीर सतगुरु के उपदेश का, सुनियां एक विचार। जै सतगुरु मिलते नहीं, जाते नरक द्वार।। नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। उनसे कभी नहीं छूटता, फिरता चारों खान।। कबीर चार खानी में भ्रमता, कबहूं ना लगता पार। सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, सतलोक के डेरे की।।
निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहब ना।। निर्विकार निर्भय।।
परमपिता परमात्मा सब देवन के देव कुल के मालिक। सारी सृष्टि के धारन- पोषण करने वाले, सबके सृजनहार, दुख हर्ता, पाप नाशक, सर्व व्यापक वासुदेव कबीर साहेब की असीम कृपा से पुण्य आत्माओं आप यह अमृत वचन उस परमपिता के सुन रहे हो। परमेश्वर की कृपा से बच्चों! आप इस process (प्रोसेस-प्रक्रिया) से गुज़र चुके हो। आज आपका, बिचली पीढ़ी वाली परमात्मा की generation (जनरेशन-पीढ़ी) में आपका जन्म है। इसलिए मालिक ने आपके ऊपर यह कमाल किया है। कैसे उपकरण तैयार करवा दिये, कैसे सिस्टम बनावाए। घर बैठे, आपको ज्ञान से रंगा जा रहा है उस मालिक की कृपा से। बच्चों! हम खाना रोटी daily (डेली-रोज़) खाते हैं। सुबह, दोपहर, शाम और प्रत्येक टाइम अच्छी भूख लगती है। खाने को रुचि बनती है तो हम स्वस्थ हैं।
रोटी वही होती है, सब्जी में 19- 21 फ़र्क हो सकता है। इसी प्रकार यह कथाएं, अमर कथा महापुरुषों की जीवनी जितनी बार भी सुनें, इतनी आत्मा को आत्म विभोर कर दे तो हमारी आत्मा स्वस्थ है। हमारी पूरी रुचि रहे तो हमारी आत्मा स्वस्थ है। कोई पाप निकट नहीं है। अरुचि बन जाती है तो समझो जैसे भूख में अरुचि बनती है अच्छा नहीं लगता भोजन, तो बुखार, कोई रोग निकट आ गया है। उसका इलाज है, की कड़वी- कड़वी दवाई खाओ। रोग मुक्त होते ही फिर भूख लगेगी। आध्यात्मिक मार्ग के अंदर ट्रीटमेंट भी यही है कोई पाप कर्म आगे अड़ गया। मन में दोष आ जाता है।
परमात्मा की कथा, चर्चा में कुछ अरुचि बनती है। तो ज़रूर सुनें, नहीं चाहते हुए भी सुनें। कुछ देर के बाद अपने आप परमात्मा की कृपा होनी शुरू हो जाती है। जैसे आपने बार-बार सुना है और सुनते ही रहना चाहिए आपको यह ज्ञान। ज्ञान पूर्ण नहीं होता। धर्मदास जी के विषय में आज ज्ञान देता हूं।
धर्मदास जी बांधवगढ़ वर्तमान में छत्तीसगढ़ स्टेट के अंदर है, वहां के रहने वाले थे। बहुत बड़े सेठ थे। इतना धन था इनके पास उस समय के वहां के राजा लोग भी उनके पिता से, दादा जी से, पिताजी से उधार लेकर अपना यह सरकार चलाया करते थे। कहने का भाव यह है यहां धनी और निर्धन से लिंक नहीं है। इतना कुछ होते हुए, संपन्न होते हुए परमात्मा की तड़प होना यह कोई छोटी बात नहीं है।
साधन संपन्न होते हुए, घोड़ी बग्गी भी ले जा सकते थे वह। कहीं जाना होता तो। धार्मिक स्थलों पर पैदल चलते थे। सबसे सुना जाता है, कि गुरु बिन मोक्ष नहीं होता। उन्होंने एक रूपदास नाम के, वैष्णो परंपरा के साधु संत से नाम भी ले रखा था, दीक्षा ले रखी थी। उसने जो भी धार्मिक क्रियाएं बताई थीं, उनके ऊपर अटूट श्रद्धा से लगे हुए थे जैसे तीर्थ पर जाना, व्रत रखना, राम कृष्ण, शिव जी, विष्णु जी की भक्ति करना, श्राद्ध आदि निकालना, गीता का नित्य पाठ करना पुराणों का अध्ययन करना।
वेद हमारे सत्य ज्ञान युक्त शास्त्र हैं ऐसा ज्ञान में बताना। इन महापुरुषों ने बता रखा था धर्मदास उस पर अटल श्रद्धा से लगे हुए थे। तीर्थ करते हुए वृंदावन पहुंच जाते हैं। मथुरा में। वहां पर एक तालाब है जिसमें श्री कृष्ण जी स्नान किया करते थे और वहां के संत श्रद्धालुओं का भ्रम है जो यहां स्नान करें उसका मोक्ष हो जाएगा। उस तालाब के अंदर स्नान किया। स्नान करके बाहर फिर पुराने समय में स्नान करना, पानी पीना सारा कुछ तालाबों से होता था। यहां तक की सिंचाई भी तालाबों से होती थी। बहुत कम कुंएं होते थे, फिर अपना एक कपड़ा बिछाकर उसके ऊपर सारी मूर्ति वगेरह रखकर सब कर्मकांड किये।
विष्णु जी की मूर्ति को स्नान करवाया, कपड़े बदले, माला-मुकुट लगाकर, तिलक लगाकर रख दी। धूप दीप करी। दीपक लगाया, धूप लगाई, तब परमात्मा आकर बैठ जाते हैं, एक जिंदा बाबा के रूप में उनसे थोड़ी सी दूरी पर। 50 फुट के आसपास दूरी पर, 20-30 फुट दूरी पर। धर्मदास जी ने देखा, कि एक मुसलमान साधु है और मेरी क्रियाओं को बहुत ध्यान से देख रहा है जैसे इसकी जिज्ञासा हो। जिज्ञासु लगता है। प्रत्येक व्यक्ति भक्त का एक ऐसा स्वभाव होता है कि वो सोचता है कि मेरे पास जो ज्ञान है, मेरे गुरुजी ने जो मार्ग बता रखा है सबसे उत्तम है और इसको सबको बता दूं। तो धर्मदास जी ने अपने मन में कल्पना की, कि शायद इस दृष्टिकोण से यह बैठा है क्योंकि इसने घर त्याग रखा है भगवान की चाह है।
केवल मुसलमान नहीं है, यह एक भगत है और हर मुसलमान तो केवल अपनी क्रियाएं वही करते रहते हैं वो गीता को पढ़ने लगा। पहले एक अध्याय का पाठ किया करता था उस दिन उसने थोड़ा-थोड़ा portion (पोर्शन- हिस्सा) बहुत सारे अध्यायों का पढ़ दिया। जब गीता के पाठ को और उसके अनुवाद ऊँचे ऊँचे स्वर में कर रहा था स्वयं ही जैसा लिखा था वैसे ही पढ़ रहा था अनुवाद भी। कबीर साहिब उससे 15 फुट की दूरी पर आकर बैठ गए और बहुत ध्यान से देख रहे थे, सुन रहे थे की शायद कोई शब्द निकल ना जाए।
धर्मदास को अति हर्ष हुआ, कि इसको हमारा ज्ञान पसंद है। तो बच्चों! जब उसने सारे कुछ कर लिया तब परमात्मा ने उनसे प्रश्न किया। की हे महात्मा जी! मैं बहुत भटक चुका हूं क्योंकि धर्मदास जी भी एक वैष्णव परंपरा वाला साधु जैसा वेशभूषा कर रखी थी। जैसे यह तीर्थों पर जाते हैं, ऐसे ही एक अलग-सा वेशभूषा कर लेते हैं अपने पंथ जैसी। कंठी, माला, तिलक, वगेरह लगाकर साधु, वैष्णो, साधु जैसा रूप था। तो परमात्मा ने पूछा मुझे राह बताओ। मैं भक्ति के लिए भटक रहा हूं। मुझे मुसलमान धर्म से प्राप्त साधना में संतुष्टि नहीं है। इस बात को सुनकर धर्मदास अति हर्षित होता है और बताने लगता है, कि ऐसे-ऐसे तीर्थ व्रत करने चाहिएं।
मैं तीर्थ व्रत करता हूं, ऐसे करता हूं, गीता का पाठ करता हूं, राम-कृष्ण का जाप करता हूं, शंकर जी का ध्यान लगाता हूं। परमात्मा उसको बताते हैं, कि आप गीता में, तो यह गीता क्या यह जो पढ़ी आपने पुस्तक इसका क्या नाम है इस पवित्र पुस्तक का? तो धर्मदास जी ने बताया यह श्रीमद् भागवत गीता एक अमर ग्रंथ है। विश्व में चार वेद हैं उन जैसा ज्ञान पृथ्वी पर नहीं है, उन चारों का सारांश यह गीता है। इसके अंदर जो लिखा है वह अमृत ज्ञान है, सच्चा सूचा। परमात्मा ने पूछा, “आप किसकी भक्ति करते हो? आपका ईष्ट कौन है?” हमारा ईष्ट विष्णु जी हैं, हम राम- कृष्ण और शंकर जी की भी पूजा करते हैं। श्री राम, श्री कृष्ण जी उसी के अवतार थे विष्णु जी के और हम कोई पाप नहीं करते, हम कोई जीव हिंसा नहीं करते। तीर्थ व्रत करते हैं। कर्मकांड करते हैं, श्राद्ध पितृ की पूजा करते हैं। तीर्थो पर स्नान करते हैं। चारों धामों की यात्रा करते हैं। 68 तीर्थ घूमकर आऊंगा। घूमता-घूमता चल रहा हूं, भ्रमण कर रहा हूं।
परमात्मा बोले, “यह गीता में आपने पढ़ा, आप कहते हो, परमात्मा ने पूछा, यह गीता का किसने ज्ञान दिया है? तो बताया गया कि श्री कृष्ण अर्थात विष्णु जी यह एक ही हैं। श्री विष्णु जी, श्री कृष्ण रूप में जन्मे थे, देवकी माता के गर्भ से। उन्होंने यह ज्ञान अर्जुन को बताया।
परमात्मा बोले अभी आपने गीता में पढ़ा की हे अर्जुन! हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शांति को और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। वह परमात्मा कौन है? वह तो आपके श्री कृष्ण उर्फ़ विष्णु से तो अन्य है। धर्मदास जी ने फिर से पढ़ा क्योंकि एक पाठ करना अलग बात है। जब ध्यान से पढ़ा जब इसको समझ में आई की हां लिखा तो ऐसे ही है। वह जैसे इनको भ्रमा रखा था की यह तो अपने आपके बारे में ही कह रहा है और कौन हो सकता है? फिर अभी आपने बताया था अर्जुन ने पूछा की वह तत् ब्रह्म क्या है? उसका उत्तर आपने, आपके गीता ज्ञान देने वाले ने कहा, ‘वह परम अक्षर ब्रह्म है।’ आप पढ़ रहे थे उसने पहले तो अपनी भक्ति बताई, फिर कुछ दूसरे वक्त परमात्मा की भक्ति बताई, परम अक्षर ब्रह्म की। अध्याय धर्मदास को याद थे फिर देखा उसने ध्यान से फिर पढ़ा।
सारा कुछ देख लिया नौवें अध्याय के 25वें श्लोक में भी जैसे परमात्मा ने बताया की गीता में भी आपने पढ़ा था, कि जो भूत पूजते हैं भूतों को प्राप्त होते हैं। पितर पूजते हैं पितरों को प्राप्त होते हैं। देवता पूजने वाले देवताओं को। मेरी भक्ति करने वाला मुझे। वो नौवें अध्याय के 25वें श्लोक में है। तो गीता तो कह रही है कि भगवान कोई और है, उससे परम शांति होगी। चौथे अध्याय के 5वें श्लोक में गीता बोलने वाला कह रहा है, की मेरे और तेरे बहुत जन्म हो लिए। दूसरे के 12 में, 10वें के 2 में अपनी उत्पत्ति बता रहा है और जन्म-मरण होते ही रहेंगे।
अध्याय 2 के 17 में कहा है कि अविनाशी तो उसको जान जिसको कोई मार नहीं सकता। कोई सक्षम नहीं उसको मारने में, जिससे सारा संसार व्याप्त है। जिसने सबकी सृष्टि रचना की है। गीता अध्याय 8 श्लोक 9 में लिखा है, की सबका धारण-पोषण करने वाला वही है। 15वें अध्याय के 17वें श्लोक में भी बताया है कि 16वें में दो पुरुष बताए; क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष। इनसे भी उत्तम पुरुष तो कोई और है।
उत्तम: पुरुष: तु अन्य परमात्मा इति उदारते। य: लोकत्रयमाविश्य विभर्ति ईश्वर:।।15:17
जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह परमात्मा कहलाता है। वह अविनाशी है। वह तो कोई और है। अब धर्मदास सारा कुछ सुन रहा था। अहंकार टिकने नहीं देता इंसान को। कहते हैं;
राज तजना सहज है, सहज परिवार का नेह। मान बढ़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना ये।।
अब यह मान बढ़ाई हो गई की इसने कैसे एक मुसलमान होते हुए हमारे धर्म में तर्क-वितर्क कर दिया और सारी सच्ची। अब थोड़ी सी वाणी सुनाता हूं।
धर जिंदे का रूप सैल वृंदावन कीन्हीं। तहां मिले धर्मदास, करत हैं बहुत आधीनी।। बहुरंगी वरयाम कामिनी, कामी सोई। धर सतगुरु का रूप धनी उतरे हैं लोई।। परम उजागर ज्ञान ध्यान बहुरंगी बानां। तहां मिले धर्मदास आचार विचार दीवाना।। कौन तुम्हारी जात, कहां से आए स्वामी। पूछे पुरुष कबीर धनी, साहिब नि:कामी।।
धर्मदास को एक वैष्णव साधु के रूप में था वो। परमात्मा बोले हे स्वामी जी! हे महाराज जी! आप कौन हो? कौन आपकी जाति है? उस समय जाति-पाति की बहुत बड़ी boundary (बाउंड्री-बाड़) थी। अब धर्मदास उत्तर देता है।
हम वैष्णो बैरागी धर्म में सदा रहाई। शुद्र ना बैठे संग क्लप, ऐसी मन माहीं।।
हम शुद्र को निकट भी नहीं आने देते। मैं वैरागी वैष्णव महात्मा हूं और वैष्णों धर्म से दीक्षित।
गरीब, सुन जिंदा मम ज्ञान को, अधिक आचार विचार। हमरी करनी जो करें, उतरें बहुजल पार।।
की सुन ले जिंदा बाबा! मैं जो बताऊं, जो हमारे गुरूजी ने बता रखा है। ऐसे जो करेगा उसका बेड़ा पार है। वह संसार से पार हो जाएगा।
बोले धनी कबीर सुनो वैष्णो बैरागी। कौन तुम्हारा नाम गाम कहिए बड़भागी।। कौन-कौम कुल जाति कहां को गवन किया है। कौन तुम्हारी रहसी किन्हे तुम नाम दिया है।। कौन तुम्हारा ज्ञान ध्यान सुमिरन है भाई। कौन पुरुष की सेव, कहां समाधी लगाई।। को आसन को गुफा के भ्रमित रहो सदाई। शालिग सेवन कीन्ह, बहुत अधिक भार उठाई।। झोली झंडा धूप-दीप तुम अधिक आचारी। बोले धनी कबीर, भेद कहिये ब्रह्मचारी।।
गरीब, हमको पार लंघाइयो, परम उजागर रूप। जिंद कहे धर्मदास से, तुम हो मुक्ति स्वरूप।।
बच्चों! देखो काल की दलदल से एक आत्मा को निकालने के लिए कितना कुछ, अखाड़े किये दाता ने। उसको स्वामी कहता है और उसके गुणगान करते हैं, फिर क्या बताया है।
धर्मदास जी ने कहा;
बांधवगढ़ है गांव नाम, धर्मदास कहिजै। वैश्य कुली कुल जात, शुद्र की नहीं बात सुनी जै।।
हम शुद्र को निकट नहीं बैठने देते और वैश्य कुल में जन्म है मेरा। धर्मदास मेरा नाम है। बांधवगढ़ मेरा गांव है।
सुमरन ज्ञान स्वरूप ध्यान, शालिग की सेवा। मलयागिर छिड़कंत, संत सब पूजैं देवा।। 68 तीर्थ नहान ध्यान कर, कर हम आए। पूजैं शालिग्राम तिलक गल माल चढाये।। धूप दीप अधिकार आरती करें हमेशा। राम कृष्ण का जाप जपु, रटत हूँ शंकर शेषा।।
नेम धर्म से नेह, स्नेह दुनिया से नाहीं। आरूढ़म बैराग और की मानूं नाहीं।।
की मैं राम कृष्ण का जाप जपता हूं। शंकर भगवान को भी याद करता हूं। 68 तीर्थ नहाता हूं, व्रत करता हूं मैं बिल्कुल अपने धर्म के ऊपर डटा हुआ हूं। मैं किसी और की नहीं मानूं क्योंकि कहीं भी जाते हैं यह आपस में भी वाद-विवाद करते हैं दूसरे पंथों वाले एक दूसरे के साथ। हमारा धर्म ऐसा है। तुम्हारा ऐसा है। तो धर्मदास ने पहले ही रास्ता बंद कर दिया कि मैं और की बात नहीं मानूं, मैं अपने धर्म को सही मान रहा हूं।
गरीब, सुन जिन्दे मम धर्म कुं, वैष्णो रूप हमार। 68 तीर्थ हम किए, चिन्हा सृजनहार।।
धर्मदास कहता है कि मैंने 68 तीर्थ कर लिए भगवान समझ में आ गया मेरे और हमारा वैष्णो रूप है। परमात्मा बोले;
जिंदा बैन कहां से शालिग आए। कौ 68 का धाम मुझे तत्काल बताए।।
यह 68 तीर्थ वाला कहां जाएगा? कौन से लोक को प्राप्त होगा बता?
राम कृष्ण कहां रहे, नगर वह कौन कहावै। यह जड़वंत है देव, तास क्यों घंट बजावे।।
यह पत्थर की मूर्ति लिए फिर रहा है यह नहीं सुनते, नहीं ये तेरे ते बात करते। इनके आगे घंटी बजाने का क्या मतलब है?
रामकृष्ण कहां रहे, नगर वह कौन कहावै। यह जड़वंत है देव तास, क्यों घंट बजावे।। सुने गुणे नहीं, धात पत्थर के स्वामी। कहां भ्रमे धर्मदास चिन्ह निज पद निःकामी।
की यह तेरे पत्थर के स्वामी धातु के पीतल के बने हुए यह तेरी कौन सी बात सुनते हैं। ना समझते। कहां भटक रहे हो धर्मदास? उस निज पद को प्राप्त करो जो गीता में बताया है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है, तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहां जाने के बाद साधक फिर जन्म - मरण में नहीं आते और जिसने सारी सृष्टि की उत्पत्ति की है उसी की भक्ति करो। तो वह निज पद प्राप्त कर धर्मदास। इस साधना से कुछ नहीं मिलने का।
गरीब, गुरु राम कृष्ण कोटों गए, धनी एक का एक। जिंद कहै धर्मदास से, बूझो ज्ञान विवेक।। जल की बूंद जिहान, गर्भ में साज बनाया। दस द्वारे की देह, नेह से मनुष्य कहाया।। जठराग्नि में ले राख साख सुनियो धर्मदासा। तज पत्थर की पूजा, छोड़ या बोदी आशा।।
की जो परमात्मा ने सारा शरीर जिसने तुझे बनाया, तेरा शरीर बनाया मनुष्य का और मां के पेट में जिसने ऐसी कठिन परिस्थितियों में जीवित रखा उसकी भक्ति कर, इस पत्थर और इन देवताओं के चक्कर में मत पड़े। ‘यह बोदी आशा’, यह कमज़ोर साधना, यह घटिया आस लगाए बैठा है तू, यह तने (तुझे) पार करेंगे।
बच्चों!
गरीब, भेड़ पूंछ को पंडित पकड़ें, भादो नदी बिहंगा। गरीबदास वह भवजल डूबे, नहीं साध सत्संगा।।
की सारी साधना ऐसी है इन पंडितों द्वारा बताई गई जैसे भादवे के महीने में बहुत ज़्यादा बारिश होती है। सभी दरिया उफान पर होती है पानी फुल चलता है और उससे पार होने लिए कोई कहे भेड़ की पूंछ पकड़ ले, परले पार कर देगी। Never possible (नेवर पॉसिबल-असंभव)। Quite impossible (क्वाइंट इंपॉसिबल-बिल्कुल असंभव).
गरीब, भेड़ पूंछ को पंडित पकड़े, भादो नदी विहंगा। गरीबदास वह भवजल डूबे, नहीं साध सत्संगा।।
वह तो इस संसार रूपी सागर में डूब कर मर जाएंगे। 84 लाख योनियों में जाएंगे, इनको नहीं साधु का सत्संग मिला और बच्चों!
ऋज्ञ यजु है साम अथर्वन, चारों वेद चितभंगी रे। सूक्ष्म वेद बांच्चे साहेब का, सो हंसा सत्संगी रे।। भेड़ पूंछ को पंडित पकड़े, भादो नदी विहंगा। गरीबदास वह भवजल डूंबे, नहीं साध सत्संगा।।
आपको सूक्ष्मवेद सुनाया जा रहा है। आपको असली संत का सत्संग, साध सत्संग प्राप्त है। किस्मत को सराहो, अपनी को। एक जीव को ऐसे निकाला है एक-एक। आपको भी ऐसे ही रंगना पड़ा शुरुआत में। कोई मानकर राज़ी नहीं था। Minus 0 (माईनस-शून्य) से, घर-घर जा-जा कर के, यह आत्मा का मैल धोया, अज्ञान खोया। आज 27-28 साल हो गए दास ने परमार्थ किया है, स्वार्थ नहीं। वृद्धावस्था आ गई।
अब भी तीन-तीन घंटे, चार-चार घंटे खड़ा होकर के परमात्मा की नौकरी कर रहा हूं, उसके बच्चों की। आंख खोल लो। यदि समझ थोड़ी सी भी बची हो तो। काल ने फूंक दिए बिल्कुल दिमाग तुम्हारे। ऐसे भर दिये। इतना कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर भी हमारा मन पापी मानने को तैयार नहीं है। इस ज्ञान से आत्मा उभरेगी। या जब समझ जाएगी ठीक से, फिर मन का कोई बयोंत नहीं। यह तो कुत्ते की तरह पीछे-पीछे चलेगा आपके। अब यह आगे है। हमें ज्ञान नहीं था, इसलिए हमें सब जगह बकवाद करवा लाया। अब जैसे धर्मदास जी को निकालन (निकालने) लग रहे हैं दाता। बच्चों? तुम सभी ऐसे ही निकले हो कभी और इस जन्म में देख लो, क्या सहज में ही मान गए तुम? सौ-सौ प्रश्न-उत्तर किए तुमने। सौ बार प्रमाण देखे। प्रमाण के साथ-साथ फिर घर में कुछ अलग से हुआ। तब परमात्मा ने अपने बच्चों को कैच किया। तब बुद्धि ठिकाने आई। तो इन कथाओं से बहुत कुछ निकलेगा आपको। बहुत कुछ मिलेगा। पहले जो विस्तार से ज्ञान बताया वह अब काम आवेगा (आएगा) आपके। वह व्यर्थ प्रयत्न नहीं था। परमात्मा का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता। बच्चों! गजब किस्मत लेकर जन्मे हो तुम। साढ़े 7 अरब आबादी विश्व की, उनमें से आप select (सेलेक्ट-चुने) किए हो। गरीबदास जी कहते हैं;
गरीब, षट दल दोनों दीन का।
दोनों दीन, दोनों धर्मों हिंदू और मुसलमान का। पहले यह दो ही धर्म थे यहां पर।
षट दल दोनों दीन का, दिल में दोष ना धार। सतगुरु का तो कोई-कोई है, एक है, यह जम का सब संसार।।
अब क्या बताते हैं परमात्मा;
गरीब राम- कृष्ण कोटो गए, धनी एक का एक। जिंद कहै धर्मदास से, बूझो ज्ञान विवेक।।
गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मांड रच, सब तज रहे नियार। जिंद कहे धर्मदास से, जाका करो विचार।।
सकल सुन प्रवान, समान रहे अनुरागी। तुमरे चिन्ह ना पड़े, सुनो वैष्णो बैरागी।। अलख अच्छेद अभेद सकल जूनी से न्यारा। बाहर भीतर पूर्ण ब्रह्म, आश्रम अधर आधारा।।
परमात्मा सर्व व्यापक है और मूल रूप से ऊपर अधर आधार, सबसे ऊपर के स्थान पर उसका आश्रम है। वहां डेरा है। सतलोक डेरा है। बाहर भीतर पूर्ण ब्रह्म, आश्रम अधर आधारा।।
धर्मदास जी बोले,
बोलत हैं धर्मदास सुनो जिंदा मम वाणी। कौन तुम्हारी जाति कहां से आए प्राणी?
ओये होय! देख बुद्धि भ्रष्ट थे जो अपने मालिक को कहते हैं हे जीव! तू कहां से आया? तेरी जाति क्या है?
यह अचरज की बात कही, तो मोसे लीला। नामा के पीया दूध, पत्थर से करी करीला।। नरसिला नित नाचत, पत्थर के आगे रहते। जाकी हूंडी झाली सावल जो शाह कहते।।
अब यह कहता है की तू इनको, पत्थरों को, कहता है की यह भगवान है और जैसे नामदेव ने दूध पिला दिया। नरसिला की हुंडी झाली। आदि-आदि गुण गाने लगा। परमात्मा बोले, नामदेव का पत्थर, दूध किसने पिलाया? यह तुम्हें पता नहीं कैसे पिलाया। यह पिछले संस्कारों से परमात्मा उनकी मदद करता है और नरसी भगत ने 56 करोड़ की संपत्ति मालिक के नाम लुटा दी थी।
तब तुम हूंडी किसकी लेयो। सुन जिंदे जगदीश क्या तुम ज्ञान सुनाया। परमेश्वर प्रवान पत्थर ना कहिए जिंदा।।
यह पत्थर है, यह परमेश्वर है पूर्ण रूप से। इनको पत्थर मत कह। नामा की छान छिवाई देई देखो सरसंधा।।
गरीब, सर्गुन सेवा सार है, निर्गुण से नहीं नेह। सुन जिंदे जगदीश तू, मुझे शिक्षा क्या देह।।
कहता है हम तो यह पत्थर की पूजा करें। यही पूजेंगे, मुझे क्या शिक्षा दे रहा है तू?
बोले जिंद कबीर सुनो वाणी धर्मदासा। हम खालिक हम खलक, सकल हमारा प्रकाशा।। गरीब, हम साहेब हम सत्पुरुष हैं, यह सब रूप हमार। जिंद कह धर्मदास से, शब्द सत्य धनसार।।
कि मैं परमात्मा हूं। सारी सृष्टि का रचने वाला हूं। मैं सबका मालिक हूं।
अब धर्मदास कहता है;
बोलत है धर्मदास, सुनो सरबंगी देवा। दिखत पिंड और प्राण कहो तू अलख अभेवा।। नाद बिंद की देह शरीर है प्राण तुम्हारे। तुम बोलत बड़ी बात, नहीं आवत दिल हमारे।। खानपान अस्थान देह में, बोलत दीशम। कैसे अर्थ स्वरूप भेद कहियो जगदीशं।।
धर्मदास जी कहते हैं कि आप मुझे बैठे दिखाई देने लग रहे। बोलने लग रहे खाते-पीते हो। आप कैसे अपने आपको भगवान कहते हो? भगवान तो निराकार है। इनकी बुद्धि पर सबके पत्थर पड़ रहे हैं। परमात्मा बोले भगवान निराकार है तो यह पत्थर को क्यों उठा रहा है? यह किसकी मूर्ति है ? विष्णु जी की, कृष्ण जी की यह साकार नहीं? बच्चों! यह वाणी सुनाना भी साथ-साथ अब अनिवार्य है। यह आत्मा को चार्ज करती है।
बोलत जिंद अबंध सकल घट साहब सोई। निर्वाणी निज रुप सकल से न्यारा होई।। हम ही राम रहीम करीम पूर्ण पूर्ण करतारा। हम ही बांधे सेतु चढ़े संख पदम अठाराहा।।
हमने हीं वह पुल बांधा था समुद्र के ऊपर।
गरीब छिन में धरती पग धरो, नादे सृष्टि सयोंग। पद अमान न्यारा रहूं इस विधि दूनी वियोग।।
अब धर्मदास जी पूछते हैं;
बोलत है धर्मदास, जिंद जननी को थारी। कौन पिता प्रवेश, कौन गति रहन अधारी।। क्यों उतरे कलमांही, कहो सब भेद विचारा। तुम निज पूर्ण ब्रह्म, कहां अन्न पान आहारा।। कौन कुली करतार कौन है वंस बिनानी। शब्द रूप सर्वंग, कहां से बोलत बाणी।। कौन देश नैन मुख नाशा नेहा। तुम दिखत हो मनुष्य, कौन जिंद विदेहा।। तुम शरीर दिखाई दे और विदेही कैसे हो गए? कौन तुम्हारा धाम नाम सुमरन क्या कहिए। तुम व्यापक कलमाहीं, कहो कहां साहेब रहिये।।
परमात्मा उत्तर देते हैं;
गरीब, गगन सुन्न में हम रहे, व्यापक सब ही ठौर। हृदय रहन हमार है, फूल पान फल मोर।। गगन सुन्न में हम रहे सतलोक में सबसे ऊपर वाले स्थान पर और मैं व्यापक सब ही ठौर।
मैं सब जगह व्यापत हूं। मेरी शक्ति और ‘हृदय रहन हमार’। सब जीवों के हृदय में, मैं ही विराजमान हूं। गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है जो परमात्मा सब प्राणियों के हृदय में विराजमान होकर, सबके कर्मों आधार पर उनके कर्मों का फल दिलाता है। वह सारी सृष्टि का रचनहार है। उसी से सारी सृष्टि व्याप्त है। 62 में उसी के बारे कहा है की तू सर्वभाव से उसी परमेश्वर की शरण में जा। अब क्या बताते हैं परमात्मा;
गरीब, गगन सुन्न में हम रहे, व्यापक सब ही ठौर। हृदय रहन हमार है, फूल पान फल मोर।।
अब बच्चों! की मैं सब प्राणियों के हृदय में विराजमान हूं। मैं वही परमात्मा, जो तेरे गीता में अन्य परमात्मा बताया है। अब किसलिए मैं आया हूं? यह सुन ले।
हम उतरे तुम काज, सुन्न से किया पियाना। शब्द रूप धरी देह, समझ वाणी सुर ज्ञाना।। हम उतरे तुम काज, सुन्न से किया पियाना। शब्द रूप धरी देह, समझ वाणी सुरज्ञाना।।
मैं तेरे लिए आया हूं यहां और सुन्न आकाश से चलकर आया हूँ सतलोक से। जहां मैं रहता हूं और ‘मेरी शब्द रूप धरि देह’। यह मेरे हाड चाम का शरीर नहीं है।
नहीं नाद नहीं बिंद, नहीं पांच तत्व अकारम। घुड़िला ज्ञान अमान हंस उतारू पारम।।
मेरा यह पांच तत्व का शरीर नहीं है। परमात्मा कहते हैं, धर्मदास देख मेरे हाथ लगाकर।
निरख परख कर देख, नहीं भौतिक हमरी काया। हम उतरे तुम काज, नहीं कुछ मोह ना माया।। गरीब, गगन सुन्न में हमरा धाम है, अविगत नगर नरेश। अगम पंथ कोई ना लखे, खोजत शंकर शेष।।
धर्मदास जी ने अपनी शंका बताई। फिर परमात्मा कहते हैं, देख हाथ लगाकर देख ले, मेरा तेरे जैसे हाड मांस की काया नहीं है और तुम्हारे लिए आया हूं। मुझे कोई मोह ममता नहीं है किसी से। धर्मदास जी पूछता है, शंका समाधान करवाता है।
बोलत है धर्मदास, सुनो सतगुरु सैलानी। निरख परख से न्यार भेद, कुछ अकल अमानी।। सुन्न जिंदे जगदीश शीष पग चरण तुम्हारे। पोहमी आसन साज, कहो तुम अधर अधारे।।
की हे जिंदा महात्मा! हे भगवान! आपके हाथ-पैर फिर वही उलझ रहा। आपके हाथ पैर दिखे सारा कुछ धरती पर बैठे दिखो। फिर कहो हम ऊपर रहे (रहते) हैं?
जूनी जीव दम श्वास उसवांश, कहो क्यों स्वामी। नही जो माया मोह, तो क्यों उतरे घणनामी।।
व्यंग्य कसता है, कि तेरा मोह माया नहीं है तो क्यों आए नीचे? देख हमारी बुद्धि काल ने बिल्कुल पत्थर बना दिये।
तुम सुख सागर रूप अनूप जो अधर रहाई। नहीं पिंड नहीं प्राण तो कहां से बोलो गोसाईं।।
अगर तेरा शरीर नहीं है तो बोलो कहां से हो? भाव यह है कि हम अपनी बुद्धि से ही सोचते हैं। की मनुष्य पांच तत्वों के शरीर से बना है। रामकृष्ण भी इसी से बने थे। जिसके यह शरीर नहीं है। कबीर साहेब जब बता रहे हैं तू हाथ लगाकर देख, मेरे वह काया नहीं है। फिर कहता है;
तू अन्न जल करो आहार, व्यवहार ब्रह्म की बाता।
तुम खाना पीना करते हो।
ब्रह्म है निराकार निर्मूल, तुमरे दिखत तन गाता।।
भगवान तो निराकार है ब्रह्म तो। तुम्हारे हाथ-पांव सब कुछ दिखाई देता है। अब जैसे परमात्मा की और काल की वार्ता हुई थी की,
जाओ जोगजीत संसारा। जीव ना माने कहा तुम्हारा।। जीव तुम्हारा कहा नहीं माने। हमरी ओड़ हो वाद वखाने।।
अब यह वही प्रसंग है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण हो रहा है। कख का ज्ञान नहीं धर्मदास को और उल्टा अड़ंगा अड़ा रहा है। हम सबके साथ ऐसे ही अज्ञान ठोक काल ने, ऐसा ही कर रखा है। परमात्मा कहते हैं,
गरीब, सुन्न गगन में मैं बसूं , और पृथ्वी आसन थीर। अब तेरे सामने बैठा। ऊपर रहता हूं। धर्मदास धोखा दिला, छानो नीर अरु क्षीर।। दूध पानी छान यह तुम्हारे धोखा लगा है। सुन्न गगन में मैं बसूं, सतलोक में और अब तेरे सामने एक सेकंड में ऊपर, एक सेकंड में नीचे।
हम हैं शब्द स्वरूप अनूप अनंत अजूनी। हमरे नहीं पिंड प्राण, हम काया मद मोनी।। हमसे नाद और बिंद सिंध सर्वर सैलानी हमसे गृहचारी पुरुष हम ही हैं सृष्टि अमाना।। हमसे नाद और बिंद सिंध सर्वर सैलाना। हमसे गृहचारी पुरुष हमसे ही सृष्टि अमाना।। हम ही से सकल स्वरूप, हम ही से पुरुष और नारी। हम ही से स्वर्ग पाताल, खयाल कहिए संसारी।। फजल अजल अधिकार भार हल्के कुं हल्का। क्षीण में सार उड़त, संत सुभर सर पलका।। जो धारे सो होए, गुप्त मंत्र मुस्कानी।
यानी हमसे जो मिले हम उसको ऐसा ज्ञान देते हैं, गुप्त मंत्र देते हैं उसका कल्याण हो जाता है।
कह जिंद जगदीश, सुनो तुम धर्म निशानी।।गरीब ना मैं जन्मूं, ना मरूं, नहीं आऊं नहीं जांही। शब्द विहंगम सुन्न में, ना मेरे जहां धूप ना छाईं।। बोले जिंद सुनो धर्मदासा। हमरे पिंड प्राण नहीं स्वांसा।। गर्भ जूनी में हम नहीं आए। मादर पिदर न जननी जाए।। शब्द स्वरूपी रूप हमारा। क्या दिखलावै आचार विचारा।।
और जो तू कहता था, हम हिंसा नहीं करते, जीव हिंसा नहीं करते, सुन ले लेखा तेरी जीव हिंसा का। अलग-अलग गिनवा दूं।
70 ब्राह्मण की है हत्या। जो चौका तुम देवो नित्या।।
की जो तुम प्रतिदिन आसन लीप कर, स्थान लीप कर और चूल्हा चढ़ाते हो, खाना बनाते हो, इतने पाप होते हैं जैसे 70 ब्राह्मण की हत्या कर दी हो। ब्राह्मण मतलब भगत की। तो कहने का भाव है की एक ब्रह्म हत्या का बहुत पाप लिखा है पुराणों में और तुम प्रतिदिन, एक समय के खाना बनाने में जो पाप करते हो, ओर होय।
70 ब्राह्मण की है हत्या। जो चौका तुम देवो नित्या। ब्राह्मण संहस्र हत्या जो होई। जल अस्नान करत हो सोई।।
हज़ार ब्राह्मण की हत्या का पाप उसको लगता है जो इस तालाब में स्नान करता है। जिसमें कितने जीव मार दिये रगड़-रगड़कर तने (तुने)। देखें। इस लोटे में तू जल लाया भर के अब इसमें भी तैरने लग रहे हैं यह जीव तेरे और स्नान करते समय कितने मार डाले।
ब्राह्मण संहस्र हत्या जो होई। जल अस्नान करत हैं सोई।। चौंके कर्म कीट मर जांही। सूक्ष्म जीव जो दरशै नाहीं।।
चौंका लीपते हो और उसमें भी पता नहीं कितने सूक्ष्म जीव मर जाते हैं जो दिखाई नहीं देते।
चौके कर्मी कीट मर जांईं। सूक्ष्म जीव जो दर्शे नाहीं।। हरि भांति पृथ्वी के रंगा। अनंत कोटि जीव उड़े पतंगा।।
कुछ ऐसे हैं जो घास में, घास जैसे हरे हरे होते हैं, कुछ पृथ्वी के रंग के हैं पृथ्वी पर हैं लेकिन दिखाई नहीं देते।
हरि भांती पृथ्वी के रंगा। अनंत कोटि जीव उड़े पतंगा।।
जैसे सूक्ष्म जीव हवा में भी उड़ते रहते हैं स्वांस से, खाने पीने में बहुत से जीव मरते हैं।
तारक मंत्र कोटि जंपाही। वह जीव हिंसा उतरे नाहीं।।
तुम कितने ही यह नकली तारक मंत्र जपते रहियो तुम्हारे वाले। इनसे यह जीव हिंसा का पाप कटे नहीं। फिर बताता हूं की जो तू बांधवगढ़ से और यहां तक आया है पैरों चल कर आया है कितने जीव मार दिए। सुन ले सारी बात;
पृथ्वी ऊपर पग जो धारे। कोटि जीव एक दिन में मारे।। करे आरती संजम सेवा। यो अपराध ना उतरे देवा।। आरती करते हो और घंटी बजाते हो, ठाकुर घंटा पवन झकोरे। कोटि जीव सूक्ष्म सर तोड़े।। ताल मृदंग और झालर बाजे। कोटि जीव सूक्ष्म तहां साजे।।
यह ताल बजाते हो, ढोलक बजाते हो, यह घंटी बजाते हो इनमें भी जीव मरते हैं।
धूप दीप और अर्पण अंगा। अनंत कोटि जीव जले पतंगा। ऐती हिंसा करते हो सारे। कैसे दीदार करो हमारे।। झाड़ी लंगी करत हमेशा। यानी फ्रेश होने जाते हो सूक्ष्म जीव होत है नेशा।। खानपान में दमन प्राणी। कैसे पावें मुक्ति निशानी।।
जब तुम कहते हो जीव हिंसा करने वाला मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकता तो इतने तो पाप तू daily (डेली-रोज़) करे हैं (करता है)।
कोटी जीव जल अचमन प्राणी। या में शंक सुबह नहीं जानी।। कहो किस विधि करो अचारम। त्रिलोकी का तुम सिर भारम।।
बता अब कैसे तू आचार शुद्धता करेगा। आचार विचार। तीन लोक का तेरे सिर पर भार इतना पाप रख लिया।
रापति सूक्ष्म एक ही अंगा। अल्प जीव जूनी सत्संगा।। यो दत संग अभंगा होई। को आचार सधे कहां लोई।।
की चाहे तो हाथी को मार दे ,चाहे सूक्ष्म जीव को मार दे एक जैसा पाप है।
आत्म जीव हिते जो प्राणी। सो कहां पावै मुक्ति निशानी।। ऊर्ध पींग जो झूले भेखा। जिनका कदे ना सुलझे लेखा।।
ऊर्ध पींग जो यह दूसरे नकली साधना करते हैं ऊर्ध पींग जो झूले भेखा। जिनका कदे ना सुलझे लेखा।। स्वामी सेवक बूड़त बेरा। मार पड़े दरगह जम जेरा।। ऐसा ज्ञान अचंभ सुनाऊं। पूजा अर्पण सबै छुटाऊं।।
गरीब, ऐसा ज्ञान सुनाऊं हूं, ना कहीं भ्रमण जावें। गरीबदास जिंदा कहे, धर्मदास उर भावै।।
अब सारा बता दिया की कितने पाप करते हो तुम। सारी गिनती करा (करवा) दी इसको और ऐसे जीव मारने वाला कैसे पाप होगा और उधर से तुम कहते हो हम कोई जीव हिंसा नहीं करते। बच्चों! इतना सारा ज्ञान सुनकर फिर भी उसकी अकल पर पर्दा पड़ा हुआ था। लेकिन इतने सारे प्रमाण देखकर आत्मा यह तो मान चुकी थी कि भगवान नहीं है, तो परमात्मा ने बताया था, परमात्मा ने बताया था अभी आपने पढ़ा की तत्वज्ञान तत्वदर्शी संत से जाकर पूछो। वह बतावेगा। उनको दंडवत प्रणाम करो। तो उसके मन में इतना ज़रूर आ गया था की यह भगवान तो नहीं हो सकता पर बात गज़ब की कहता है। परमात्मा और बताते हैं आगे, अब यह लंबा chapter (चेप्टर-अध्याय) हो जाएगा इसको। बच्चों! समय का यहां बहुत अभाव है फिर भी दाता ने आपके ऊपर ऐसा गज़ब कर रखा है यह अगर आप समझ रखते हो थोड़ी सी भी भगवान किसे कहते हैं? इसे कहते हैं।
रज़ा, नरक को सतलोक बना दिया आपके लिए। जहां से आकाशवाणी आने लग रही है। बच्चों! कुर्बान हो जाओ। आंख खोल लो। यह बातें बनाने से और इन बकवाद करने से कुछ हासिल नहीं हो। सीधा जीवन जीवो (जिओ)। बुराईयों से बचकर रहो। आज मनुष्य हो यदि भक्ति नहीं करी, कल कुत्ते, गधे, सूअर बनकर धक्के खाने पड़ेंगे आपने। क्या यह विश्वास नहीं होता? हमारे विश्वास होने या ना होना कोई मायने नहीं रखता। जो विधान दाता का है वह अटल है और यह देखो बहुत कुछ आगे और काफी प्रमाण दिए हैं। कहां-कहां तुम पाप के भागी होते हो और कहां-कहां, कैसे इसका समाधान होगा? शेष वाणी परमात्मा की दया से आपको फिर सुनाएंगे। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे। आपकी लगन, आपकी दृढ़ता परमात्मा के प्रति ज़्यादा हो। आप परमात्मा के लिए ज़्यादा समय निकालो। निकाल सको। दाता आप पर कृपा करें। आपको इस काल के जाल से निकालें।।
।। सत साहिब ।।