सत साहेब
सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहेब जी की जय।
बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज जी की जय।
स्वामी राम देवानंद जी गुरु महाराज की जय हो।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय।
सर्व भक्तों की जय।
धर्मी पुरुषों की जय।
श्री काशी धाम की जय।
श्री छुड़ानी धाम की जय।
श्री करोंथा धाम की जय।
श्री बरवाला धाम की जय।
सत साहेब।
गरीब नमो नमो सत्य पुरुष कुं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।।
कबीर, सतगुरु के उपदेश का, सुनियां एक विचार। जै सतगुरु मिलते नहीं, जाते नरक द्वार।। नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। उनसे कभी नहीं छूटता, फिरता चारों खान।। कबीर, चार खानी में भ्रमता, कबहूं ना लगता पार। सो फेरा सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, सतलोक के डेरे की।।
निर्विकार निर्भय तू ही और सकल भयमान। ऐजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी। सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहब ना।। निर्विकार निर्भय।।
बच्चों! परमात्मा परमेश्वर कबीर जी की असीम रज़ा से आपको ऐसा अमृत ज्ञान सुनने को प्राप्त हुआ है। जिसकी आत्मा को युगों से चाह थी इच्छा थी। बच्चों! पहले तो कमाल देखो उस परमपिता कबीर मालिक का, आपकी समर्थ शक्ति का, आपको कहां से आकाशवाणी हो रही है इस अमृत ज्ञान की कहां से वर्षा की जा रही है। सतलोक से। जिसको लोग नरक कहते हैं आज वह सतलोक है आपके लिए। जहां आपका गुरु भगवान रहता है वह आपका सतलोक है। देख परमपिता ने कैसी रज़ा कर दी। कैसा कमाल कर दिया। बच्चों! यह आदि पुराण एक ग्रंथ, अमर ग्रंथ का एक चैप्टर है, अध्याय है, इसमें से आपको सुना रहे हैं। इससे बहुत कुछ निष्कर्ष निकलेगा। जैसे यह कथाएं इसमें डाली हैं गरीबदास जी ने यह ज़रूरी थी। जैसे तिल, तिल देखें है आपने, फिर तिल से तेल निकलता है छोटे-छोटे सफेद-सफेद बीज होते हैं। उस तिल का पौधा तीन-चार फीट, ढाई फीट, तीन फीट का होता है और उसमें एक पौधे में 5-7 शाखाएं होती हैं।
प्रत्येक में बाली होती है, फली होती है। फली में यह तिल होते हैं। तो किसान जो तिल बोता है या फसल बोता है वह उन तिलों के लिए, सब कुछ वह तिल प्राप्त करने होते हैं। फिर उनसे तेल निकालना होता है। तो उसने उस पौधे के फुस से कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन उसके बिना वह तेल निकले नहीं, वह तिल बने नहीं बीज। तो इसी प्रकार हमने इस पूरी कथा से वह निष्कर्ष निकालना है जिसकी अपने को आवश्यकता है। जैसे दास ने आपको बताया कि पार्वती जी 108 बार मर चुकी थी फिर जन्म हो रहा था। बच्चों! यह लंबा जुगाड़ है। बहुत लंबी आध्यात्मिक कथा है यह। जैसे ईब (अब) आप जो सत साधना कर रहे हो शास्त्र अनुकूल इससे आपके 100 से भी ज़्यादा जन्म मनुष्य के हो सकते हैं। बीच में मान लो तुम खंड कर देते हो 5-7 साल के बाद। लेकिन आगे सतगुरु नहीं मिला तो, यह दुर्गति न्यों की न्यों (ऐसी की ऐसी) रहेगी। एक प्रमाण आता है महाभारत के अंदर की धृतराष्ट्र और पांडव दो भाई थे।
धृतराष्ट्र बड़े थे, पांडव छोटे थे। धृतराष्ट्र अंधा था इसलिए उसको राज्य प्राप्ति नहीं हुई और नियम यह होता था राजाओं का, कि बड़े पुत्र को राज्य मिलता है। फिर भी उसने श्री कृष्ण जी से पूछा क्योंकि वह गुरु थे उनके। हे भगवान! मुझे 100 जन्म की तो याद है कि मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया जिससे मेरी आंखें फूंटैं, मैं अंधा होऊं। श्री कृष्ण जी बोले, “तु एक जन्म और पीछे ले जाता। यहां तक तू नहीं पहुंच पाया। इससे एक जन्म पहले, 100 से। आप बैठे थे वहां, यह टीडी यह भी वहीं एक पौधे पर बैठी थी, तूने इसको पकड़ा। बबूल की शूल तोड़कर इसकी आंख फोड़ दीं और इसको छोड़ दिया, यह टक्कर मार रही थी कभी झाड़ों में, कभी किसी में फंसकर यह मरी।
तब वो दंड तू आज भोग रहा है।” तो बच्चों! इसी प्रकार पार्वती 108 जन्म मर चुकी थी। पूर्व संस्कार अच्छे थे जिस कारण से मनुष्य शरीर मानव शरीर ही प्राप्त हो रहा था। लेकिन यह तो डले ढोए फिर। फिर शादी करवाई, फिर मरी। फिर शादी करवाई, फिर मरी।
यह हरहट का कुंआ लोई। या गल बंधया है सब कोई।। कीड़ी कूंजर और अवतारा। हरहट डोर बंधे कई बारा।।
अवतारों तक, मरे और जन्मे हैं। तो दास जो कहना चाहता है, “कबीर साहेब हमारे भगवान हैं, हमारे पिता हैं सबके। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी वही पिता हैं उनको भी यह इतने ही प्रिय लगते हैं जितने हम हैं आज। यह अलग बात है की यह मार्ग पर नहीं हैं।”
बच्चों! जैसे दास ने आपको बताया, “परमात्मा इनको भी मिले। वह चाहते थे कि यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश समझ जाएं तो सारी व्यवस्था ठीक हो जाए। परंतु हम काल के वश हैं। हमारे अंदर एक ऐसी बीमारी पैदा कर रखी है यह काम वासना, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार यह सारे ठोक-ठोक कर भर रखे हैं। फिर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह विकार साथ हैं।”
परमात्मा कबीर जी शंकर जी को भी मिले थे। विष्णु जी को मिले, ब्रह्मा जी को मिले इनको सारा ज्ञान यह समझाया। सृष्टि रचना सुनाई। सारा कुछ समझा दिया और यह मान गए। की जी! बात आपकी सारी सच्ची। फिर काल ने प्रेरणा कर दी सबके अंदर, यह वेद में प्रमाण नहीं है यह झूठ बोलता है। इन्होंने वह बात भी मान ली। आकाशवाणी यह भगवान की मानते रहे और कबीर साहेब को एक सामान्य ऋषि मानते रहे। यह बात ऐसे बिगड़ी रही। अब पार्वती जी को ज्ञान सुनाने के लिए शंकर भगवान जी एकांत स्थान पर ले जाते हैं, कि कोई हमारा ज्ञान सुन नहीं ले।
वनखंड चलो गोरी दीवानी। पंछी सुनै न हमरी वाणी।। जब शिव कर से लाई तारी। उड़ गए पंछी नर और नारी।।
भगवान शंकर ने जब हाथ से ताली बजाई तो सारे नर नारी, नर मादा पक्षी उड़ गए और अंडे स्वस्थ थे, वह पक्षी बनकर उड़ गए।
जहां एक सुखा तरवर ताक्या। शिव को आसन तहां वहां राख्या।।
जहां एक गंदा अंडा तिस माहीं। तिस जानत है समर्थ साईं।। युग असंख कल्प भरमाया। पूर्व जन्म पिछला आया।।
अब यह संस्कार उस जीव का असंख्य जन्म पहले भोग चुका था। 84 लाख योनियां भोग चुका था। कोई संस्कार ऐसा था जो उसको फिर से यह start (शुरू) होना था। उसको समर्थ साईं कबीर परमात्मा ही जानता था। उसकी व्यवस्था थी उसने वहां से शुरुआत करवा दी इसकी फिर से। अब शिवजी कहते हैं;
अब तुम सुनो गौरी मेरा ज्ञाना। आसन मुख कर कर उट इसाना। तुम उत्तर की तरफ मुंह कर। आसन पदम लगाओ गोरा। मेरुदंड सुधाकर भोरा।।
यानी आसन पदम लगाकर और सट्रेट बैठ जा सीधी।
गरीब, आसन पदम लगाए कर, भंवर चढ़ाओ सुन्न। अनहद नादू बाजें ही, जहां लगाओ धुन।।
बच्चों! अब जैसे आपको बताया है कि काल का इतना ज़बरदस्त प्रेशर है इस जीव को सतमार्ग पर रुकने नहीं देता। इसमें कई अडंगे भर रखे हैं काम, क्रोध, मान, बढ़ाई, लोभ, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। जैसे गोरखनाथ जी को परमात्मा ने सब सिद्धियों में फेल कर दिया तब इसकी अकल ठिकाने आई और उसने फिर कबीर साहिब से ज्ञान सुना। दीक्षा भी ली। परंतु कुछ दिन के बाद फिर काल प्रवेश कर गया उसमें। बिल्कुल बुद्धि बदल दी। वह ज्ञान जो सुना था उसको लोगों को सुना-सुना कर यह कहे, 99 करोड़ लोगों को फिर प्रभावित कर दिया। काफी समय तक, लंबे समय तक। कई हज़ारों वर्षों तक लगा रहा। कबीर साहेब इनको बहुत बार मिले हैं। तो कहने का भाव यह है कि गोरख ज्ञानी कहलाया ज़बरदस्त और साधना वही, तप वही, बकवाद करता रहा। तो इस प्रकार गरीबदास जी ने कहा है;
गोरख से ज्ञानी घणे, सुखदेव जति जहांन। सीता सी बहू भारिया, संत दूर अस्थान।।
तो ऐसे ही शिव जी के साथ बनी हुई है। ज्ञान तो मालिक का सुन लिया उसने आगे पार्वती को सुना रहा है। आप वही डले ढो रहा है। समाधी लगावै है और उदमस्त तार रहा है। अब मैं यह कहना चाहता हूं कि “आपकी किस्मत इनसे असंख्य गुणा सुंदर और पुण्यदायक है। पुण्यों युक्त है। आपको वो सच्चा मार्ग, सच्ची भक्ति मिली यदि आप आज ज़रा सा भी अच्छी पोस्ट प्राप्त होते और कोई धन अच्छा होता 10-5 नौकर, Yes man होते आप कदै भी (कभी) नहीं मानते भगवान को।”
बच्चों! मैंने यह कथा सुनाने का नहीं, मैंने तो आपको ज्ञान से ठोकना है, सच्चे ज्ञान से भरना है। ताकि वह और अज्ञान ज्ञान इसमें समा ना जाए। जैसे राजा अमरीष वाली आत्मा राजा थी सतयुग में। सतयुग में तो आम आदमी सुखी होता है। राजा और इतना धार्मिक, ठाठ सारे, नौकर आदि सारे। राजा कह दिया समझ लो सारे ठाठ। परमात्मा वहां भी मिले इनको सारी बात बताई। इन्होंने दीक्षा भी ली। उस दिन के बाद फिर काल प्रेरणा क्योंकि ऋषि तो 20 मिले दिन में और परमात्मा साल-6 महीने में आवें क्योंकि रोज़ आवें तो यह कदर नहीं करें। जैसे-तैसे हमें वहां से चार्ज करके, हमारे अंदर सॉफ्टवेयर लगा देता है। धीरे-धीरे जब हमारा यह उफारा उतर जाएगा काल का, यह गैस बन रही है जो व्यर्थ की, यह झूठे सुख की तब दाता याद आवें हमारे।
उस पुण्य के कारण अगले जन्म में फिर राजा जनक बने वही आत्मा। वहां भी ऐसे ही ठाठ बाट, बड़ा ज्ञानी भी। ज्ञान तो यह भगवान से प्राप्त कर लेते हैं, सुनाते वही हैं। करते अलग हैं लोक वेद। राजा जनक के जीवन को भोगकर जब वह कतई घसियारा हो गए, उसके पल्ले कुछ नहीं रहा सारे पुण्य समाप्त हो गए फिर बाबा नानक रूप में जन्मे। जब मालिक का ज्ञान माना, जब खुद नौकर लग गया और पहले दुनिया नौकर थी इनकी। तो आज आप कितने ही गरीब हो, कितना ही पैसा है, इतना नहीं है जो आप बकवाद कर लो। इसलिए यह बात समझ में आ गई आपको। शुक्र मनाओ उस परमपिता का, “बंदी छोड़” वह सारे खेल दाता के किए हैं।
यह सब खेल हमारे किये। हमसे मिले सो निश्चय जिए।।
यह है ज्ञान। सारज्ञान। इसको मूल ज्ञान कहते हैं। यह नहीं किसी ने इस कलयुग में सुनाया और नहीं कोई आगे सुना सकेगा क्योंकि ज्ञान अब फाइनल हो गया। सुनाया उनकी मानी नहीं। परमात्मा ने सुनाया। वह बुद्धि में आई नहीं क्योंकि हम इनको सब झूठ मानते थे। अब पहले दास ने आपको सदग्रंथों से यह स्पष्ट कर दिया कि कबीर साहब के अतिरिक्त nothing else (नथिंग एल्स) कुछ भी नहीं है, कुछ भी कोई भी। अब दास जो कह रहा है आपकी सारी हृदय में समा रही है। अब देखो! अब उसी कथा पर आता हूं। शंकर भगवान पार्वती जी को सुनाना शुरू करते हैं।
चन्द्र लग्न में सुरती लगाओ। सूरज सुर को बंद खमाओ।।
यानी यह नाक जो होते हैं दोनों, राइट तो गर्म होता है सूर्य-सूरज बोलते हैं, सूरज और लेफ्ट ठंडा होता है इसको चाँद बोलते हैं, चंद्र। यानी राइट nose (नाक) को बंद करो और लेफ्ट से सांस लो। यह तो योगी क्रिया जो परमात्मा सारी विधि बताते हैं इनको कहीं इसके भ्रम रह जावे इस जीव को। की यह तो भोला सा आदमी दिखै (दिखाई दे) इसको क्या पता शरीर के अंदर की व्यवस्था की। क्या जाने योगिक क्रियाओं को? तो पहले यह बतानी पड़ती है इनको। यह अपने काम की नहीं है। यह तो इनकी आंख खोलने के लिए सारा कुछ डिटेल बतानी पड़ी। फिर भी हम यह बताना चाहते हैं यह क्या ज्ञान रखते थे? और क्या पार्वती को प्राप्त हुआ? पार्वती को अमरनाथ पर जो मिला वह मंत्र थे वह, जो दास आपको यहीं दे देता है और यह क्या करते हैं इन पांचों में से भी एक select (चुन) कर लेते हैं। वह अपनी मनमुखी साधना शुरू कर देते हैं। आपको बताता हूं, मैंने हम एक बार नजफगढ़ में सत्संग पाठ कर रहे थे।
एक आदमी ने खूब सत्संग सुना। आखिर में नाम ले लिया। तो हमने पूछा भाई यह सारे मंत्र करने हैं तूने। बोला नहीं, मैं तो एक करूंगा “श्रीयम श्रीयम”। मैंने कहा क्यों? बोला मैंने तो माया चाहिए बस। और नहीं करूँ। ऐसे कहकर उठ कर चला गया। बताओ इनको क्या फूंके, कहां तक set (सही) करें इनको। तो यह ज्ञान तो सारा सुन लेते हैं करते वही है जैसे परमात्मा ने इसको पांचों नाम दिए थे शंकर जी को एक select (चुन) कर लिया "सोहम" बस।
तो इस प्रकार यह सारी बात बिगड़ी पड़ी थी, अब यह पूरा सुचारु हो चुका है और आपको यह ज्ञान समझाना इसलिए आवश्यक था क्योंकि आप ढीले से पड़ गए थे और जो ज्ञान आपने सुन रखा था इतना ज़रूर मान लिया था कि यह “भगवान यही है और ज्ञान यही है।” हमारे सुख होने लग गए। लेकिन कभी ना कभी काल फिर आपको झटका दे देता और इसलिए परमात्मा ने यह कुछ दिनों के लिए आपके ऊपर रज़ा करी है। सदा नहीं रहेगी यह। ज़्यादा देर नहीं चलेगी। पर ध्यान से सुन लो। सौ काम छोड़कर सुन लो। तीनों टाइम ना सुन सको तो एक टाइम अवश्य सुन लो। सुबह-सुबह का समय ज़रूर निकालो। अब क्या बताते हैं, भगवान शंकर;
चंद्र लग्न में सुरती लगाओ, सूरज सुर को बंध खमाओ।
राइट nose (नाक) बंद करो और लेफ्ट से स्वांस लो।
गौरी आदि गणेश मनाओ। किलियम किलियम ध्यान लगाओ। प्रथम मूल कमल को जानो। चतुर पंखुड़ी रंग लाल बखानो। दूजे स्वाद चक्र को देखो। श्वेत वर्ण निज सुरति विवेको। षट पंखुड़ी प्रीत परेवा। जहां बसत है कंदर्प देवा। जहां वहां ओम नाम धुन होई। तहां वहां नाम सुमरियो सोई।।
यानी यह सारे कमलों के बारे में बता रहे हैं जो ब्रह्म वेदी में आपको बताया है।
यह तो सुनो स्वाद कमल सुरतालम। जा में ओम मंत्र कमालम। ऊपर मनसा कमल मुरारी। जहां वहां विश्वनाथ त्रिपुरारी। जहां वहां लक्ष्मी सहित विराजे। तहां वहां हरियम हरियम साजै। अब सुन हृदय कमल कमालं जहां वहां द्वादश दल का ख्यालं।।
वहां 12 दल का कमल है शिव जी का। तहां वहां शिव शक्ति विराजे। सोहं नाथ अनंत धुन गाजे।।
अब यह बातें आप सुन रहे हो, शिवजी बता रहा है पार्वती जी को और वह खुद कह रहा है की हृदय कमल में शिव और शक्ति विराजमान है। अब वह शिवजी तो बाहर बैठा। उस कमल में कौन हो गया फिर? अब यह गरीबदास जी ने जो ज्ञान बता रखा है यह हमारे को जैसे पहली कक्षा में अ, ‘अ’ का अनार। आगे चलकर तो इस अ के ऊपर बहुत से अक्षर होते हैं। एक अनार, अनार नहीं होता। तो यह ज्ञान बहुत गज़ब का है इसमें यही देखने वाला है, कि यह काल तो है यह सब लीला कर रहा है। इन कमलों में इन देवताओं के रुप बना करके और ऐसे-ऐसे दुर्गा के अलग रूप बनाकर के बैठा हुआ है और इनके साथ-साथ परमात्मा भी प्रत्येक में विराजमान है जो इनको दिखाई नहीं देता।
जो भक्त सत साधना करते हैं, उनको यह साफ दिखाई देते हैं। अब यह ज्ञान जो है, अध्यात्म ज्ञान एक ऐसी उलझी हुई गुत्थी थी। अब यह आप इतना कुछ ज्ञान सुन चुके हो। तब दास को यह कहने की हिम्मत पड़ रही है कि शायद तुम अब ठीक से समझ पाओगे। अब यह खुद बता रहा है,
शिवजी अब सुन हृदय कमल कमालं। जहां वहां द्वादश दल का ख्यालं। जहां वहां शिव शक्ति विराजे। सोहं नाद अनंत धुन गाजे।।
बच्चों! ऋषि समाधी लगाया करते थे। उनको किसी को तो ब्रह्मा के रूप में दर्शन दे देता है। किसी को शिव के रूप में और किसी को विष्णु के रूप में, तो यह भ्रम में पड़ जाते। इन देवताओं को भगवान बताएं, बताया करते हे आप तो भगवान हो विष्णु जी। हमने जान लिया आपको। समाधी लगाई आप थे। आप दर्शन दिए। ऐसे ही ब्रह्मा जी को कहने लगे इनको अफारा हो गया की हम ही भगवान हैं इस बात पर ब्रह्मा और विष्णु दोनों लड़ पड़े। तब यह काल आया बीच में एक सतंभ डाल दिया इनके। यह डर गए। आश्चर्यचकित हुए। युद्ध तो बंद कर दिया। खुद आकर खड़ा हो गया शिव जी के रूप में और दुर्गा को पार्वती रूप बनाकर आ गया। वहां इनको पहले तो यह भ्रम रहा की यह शिवजी आ गया। फिर यह आगे बताता है; शिव पुराण के अंदर, विंधवेश्वर संहिता के अंदर, की पुत्रों! तुम ईश नहीं हो।
You are not god, तुम्हारे को तुम्हारे तप के प्रतिफल में एक-एक विभाग दिया है रजगुण और सतगुण इसी प्रकार मैंने रुद्र, इसको शंकर को यह तिरोभाव यानी मारण (मारने) का दे रखा है। तो यह तो चौथा था वहां पर। तो बच्चों! अब शिवजी ध्यान लगा रहा था और कमलों को बताता जा रहा था। इसने वहां बैठा दिखा वह शिव, जो पार्वती के रूप में। अब यहां पार्वती नाम नहीं लिखा ‘शक्ति’ लिखी।
यह दुर्गा, उस महाकाल उस शिव के, काल के साथ शिव रूप में, शिव विराजमान था और वहां शक्ति यह देवी अष्टांगी उसके साथ बैठी थी। तो यह गरीब दास जी का यह सूक्ष्म वेद है। अब आप क्योंकि बच्चे जब बड़ी classes (क्लासेज़-कक्षा) में हो जाते हैं फिर वह इनको समझते हैं कोड वर्डों को, आसानी से समझ जाते हैं। 21 ब्रह्मांड में यह काल सारे जाल फैलाए बैठा है। इस जाल को मालिक बिना कोई काट नहीं सकता और वह दाता आपको मिल गया। पूर्ण सतगुरु प्राप्त हो गया। अपनी किस्मत सरहाओ। इस वाणी को सुनाना आवश्यक है क्योंकि यह बोली गई एक महापुरुष के मुख से है और उस परमपिता की कहानी है। उस परमपिता अमर पुरूष की कथा है यह। लास्ट में वहीं आकर रूकती है बात। अब यह क्या बताते चलते हैं;
गरीब, जहां वहां शिव शक्ति विराजे, सोहम् नाद अनंत धुन गाजे। गरीब घाट बाट नहीं तास के, अविगत नगर निदान। सतगुरु के प्रताप से, कोई पहुंचे संत सुजान।।
यह गरीब दास जी ने अपना ज्ञान दिया है, दोहे में। अब चौपाई शुरू होती है।
बनकापुर की बंकी नगरी, घाट बाट कुछ पंथ ना डगरी।। त्रिकुटी ऊपर महल है न्यारा।
अब यह शिवजी बता रहा है;
त्रिकुटी ऊपर महल है न्यारा। योजन एक संहस्र विस्तारा।।
यहां परमात्मा विराजमान है कबीर साहेब अलग रूप में।
जामें बसे निर्लेप निरंजन योगी, खाए ना पिवे सब रस भोगी।। पराशक्ति जाकी है रानी। शंख कल्प यो अकली निशानी।। जहां वहां बाजे अनहद नादं। शब्द ना सवाल विदा ना वादं। रास विलास होत तिस ठौरा। जहां तुम देखो देवी गोरा। नौ लख पात्र मल अखाड़ा। कोटि उर्वशी करें सिंगारा। कोटि-कोटि बैकुंठ बिलासा। सो तुम गोरी देख तमाशा। एक सुर स्वर्ग को जाहि। वार पार कुछ कीमत नाहीं। कोटि-कोटि सूरज प्रकाशा। सुषमन द्वारे पिवे स्वांसा। जापर जटा कुंडली कहिये। सुन गोरी हम वाणी लहिये। पुंज रूप एक पुनः दर्शाऊं। जटा कुंडली में ले जाऊं।। जटा कुंडली धाम हमारा। संहस पदम झिलमिल उजियारा। आगे 16 संख सुरंग अपारा। जा पर एक कलश निर्धारा। जहां ब्रह्मा विष्णु न शंकर जाई। मूल उचार शब्द गोहराई।। जा नाद दमन बूटी विस्तारा। सुरती संजीवन बड़े दरबारा। गरीब सुरती संजीवन लाइये, सिंधु शब्द के माही। जूनि संकट मोक्ष होवे, बहुर ना आवें जाहीं।।
अब यहां खुद शंकर जी कह रहे हैं, की मेरा जो यहां से मैं जाऊंगा जटा कुंडली निवास है मेरा। कैलाश पर्वत की चोटी पर और यह लोग जो बात मानते हैं कि शंकर का जो स्थान है सबसे सर्वोपरि है और सबसे ऊंचा है। तो यहां क्या कहते हैं शिवजी कह रहे हैं, कि इससे आगे,
आगे 16 शंख सुरंग अपारा। सुरंग तहां पर एक प्लस निर्धारा। जहां ब्रह्मा विष्णु न शंकर जाई। मूल उचार शब्द गोहराई। जहां नाग दमन बूटी विस्तारा। सुरति संजीवन बड़े दरबारा।।
यह नाग दमन बूटी सारनाम जिसके पास है और मूल ज्ञान जो जपता है वह उस स्थान को प्राप्त कर सकता है। जैसे गरीब दास जी ने अपने एक शब्द में कहा है;
जट कुंडल ऊपर आसन है, सतगुरु की सैल सुनो भाई। जहां ध्रुव प्रहलाद नहीं पहुंचे, सुखदेव को मार्ग नहीं पाई। नारद मुनि मुस्काय रहे, दत्त गोरख से को सूचा है। बड़ी सैल अधम सुल्तान करी, सतगुरु तकिया टूक ऊंचा है।।
धर्मराय जाका ध्यान धरे, अध्या अधिकार बतावत है। दो लिखवा चित्र गुप्त जाकर, सतगुरु तकिया नहीं पावत है।।
जट कुंडल ऊपर आसन है, सतगुरु की सैल सुनो भाई। जहां ध्रुव प्रहलाद नहीं पहुंचे, सुखदेव को मार्ग नहीं पाई।
नारद मुनि मुस्काय रहे, दत दत्तात्रेय और गोरख से तुम किसको सिद्धो में उत्तम मानते हो।
नारद मुनि मुस्काए रहे, दत्त गोरख से को सुचा है। बड़ी सैल अधम सुल्तान करी, सतगुरु तकिया टुक ऊंचा है।।
अब यह समस्या है जैसे इब्राहिम सुल्तान अधम को मालिक ने सारा ज्ञान बता दिया और नाम दे दिया। वह जंगल में एकांत स्थान पर डाल कर झोपड़ी रहने लगा। अब फिर समाधी लगानी शुरू कर दी जबकि यह हमारा मार्ग समाधी का नहीं है और पिछले पुण्यों से, संस्कारों से, परमात्मा ने भक्ति दे रखी है, घर बैठकर करी। तो समाधिस्थ होकर यह बहुत ऊपर तक जाने लगी समाधि इसकी। लेकिन वह सतलोक में नहीं जा सकते समाधि से। हमने तो इतना ही करना है जो दास आपको बतावै। जैसे,
हाली बीज धुन, पंथी से बतलावे। जामें खंड पड़े नहीं, ऐसे ध्यान लगावे।।
जैसे हाली बीज होता है और बैल चल रहे हैं और रस्ते के साथ-साथ कोई यात्री आ जाता है वह गांव-घर पूछता है मैंने उस गांव में जाना है क्या मैं रस्ते ठीक चल रहा हूं? तो हाली हल नहीं रोकता चलता-चलता क्योंकि उसको बड़ा टाइम होता, कीमती होता है, थोड़ा समय होता है। बारिश हुई होती है उसी समय होती है। फिर बाद में वह सुख जाए तो बीज उगै नहीं। इसलिए वह जल्दी-जल्दी अपना काम करता रहता है उससे बात भी बताता है। लेकिन हाथ से बीज जो छोड़ रहा है ध्यान वहां रहता है और उसको एक दाना भी आगे पीछे नहीं होने देता।
तो कहते हैं
जैसे हाली बीज धुन, बीज में उसकी धुन लगी हुई है और पंथी से बतलावे। तांमे खंड पड़ें नहीं, ऐसे ध्यान लगावै।।
तो यहां गरीब दास जी कहते हैं;
नारद मुनि मुस्काय रहे।।
यह भी समाधि लगा-लगा थक चुका। फिर हंसकर यह कहता है भाई कोई वार पार नहीं मिलता इसका। मुस्काय रहे।
खिसियाने से होते हैं फिर लास्ट में यह।
नारद मुनि मुस्काय रहे, दत्त गोरख से को सूचा है। बड़ी सैल अधम सुल्तान करी, सतगुरु तकिया टुक ऊंचा है।।
यानी अधम सुल्तान भी वहां तक नहीं पहुंच सका समाधि से। मालिक का तकिया कलाम यानी आसन सिंहासन, बहुत ऊपर है। अब बच्चों! यह सारा कुछ बताने की दास को इसलिए आवश्यकता पड़ गई की यह कथा जो सुनाई थी शंकर जी की वह परमपिता, परमात्मा पर जाकर रुकी। अब क्या बताते हैं;
जा कमला पर कमल अनंता। जासे अगम शब्द महमंता। सुनत शब्द ब्रह्म होए जाई। लोक दीप ब्रह्मंड उपाई।।
जहां पुरुष पुरंजन बसे पुरातन। सुनो गोरीजा ज्ञान आध्यात्म।।
की उस बहुत ऊपर, बहुत ऊपर वहां पर वह पूर्ण परमात्मा रहता है क्योंकि परमात्मा ने बता ही दिया था, सबको बताते हैं यह ज्ञान सृष्टि रचना क्योंकि सारे बच्चे उसी के तो हैं। उसको तो इतना भी फर्क नहीं किसी में। जैसे एक पिता के कितने ही बेटा-बेटी हों किसी में भी इतना भेद नहीं हो सकता, आत्मा ही नहीं मानती। इसी प्रकार उसको चाहे कोई निकम्मा भी हो जाता है तो भी उसके प्रति वह भाव खराब नहीं होता अपने कर्म फोड़ेगा क्या करेगा। तो इसी प्रकार यहां बताते हैं, इनको सबको ज्ञान दिया। वही ज्ञान, सुना सुनाया शंकर जी बता रहा है। लेकिन यह बहुत समर्थ शक्ति है यह भी। इनके अंदर आध्यात्म ज्ञान भरा पड़ा है, तो इनके मुख से जो उच्चरित होती है वाणी, वह भी काफी असर करती है और यह कथा मालिक की सुनाई last (लास्ट-अंत) में।
जहां पुरुष पुरंजन बसे पुरातन। आदि पुरुष वो दिव्य पुरुष जहां रहता सुनो गौरीजा यह ज्ञान आध्यात्म। अनंत कोटि जाके ब्रह्मा विष्णु और मुरली मधुर बजावे कृष्णम्।
उसके अनंत कोटि हैं यह ब्रह्मा विष्णु और यह कृष्ण जैसे मुरली बजाने वाले। अनंत कोटि जाके अवतारा।
जैसे गगन मंडल में तारा। कीर्ति नाद बणो अर्धांगि। अनंत कोटि है उसके शंभू संगी।।
यह शंभू हमारे जैसे पता नहीं कितने, उसके पास देव पुरुष बैठे हैं।
अनंत कोटि जाके देवी दासी। सत्य पुरुष अविगत अविनाशी। ब्रह्मानंद पद सुरती लगाओ। अमर कच्छ पद पारस पाओ।। सुने गुने सूँघे और देखे। मूल उचार तिरे विवेके। कोटि तिमर मिटे है अंधियारा। सुनो गोरी तुम ज्ञान हमारा। नि:संदेह निरंतर ध्याओ।।
14 भवन पलक फिर आओ। परमहंस का ज्ञान प्रकाशा। अंन्त तिमिर गिरिजा का नाशा।
जो दास इससे वह तिलों वाला तेल निकालना चाहता है वह यह है। वह अंडा गंदा पड़ा था और शिव जी ने उस अमर परमात्मा की ही महिमा बताई लास्ट में सारी। उसका प्रभाव बनता तो अमर कथा सुनाई जाती है और यह अधिकारी के मुख से सुनाई जाती है, असर करती है। जैसे राजा परीक्षित को सातवें दिन सर्प ने डसना था। पृथ्वी पर ऐसा कोई ऋषि नहीं था। जो यह ढिंडोरा पिटा करते हम कथा सुना दें पाठ कर दें। किसी की हिम्मत नहीं पड़ी क्योंकि सातवे दिन result (रिज़ल्ट-परिणाम) आ जाना था उनके द्वारा किए गए पाठ और कथा का।
स्वर्ग से सुखदेव बुलाया गया। वह सुखदेव जो राजा जनक के साथ ऊपर गया था। अब वहां अपने कर्म भोग रहा है फिर यह नीचे पशु योनि में आयेगा और हो सकता है मालिक भी मिल जाए इसको जैसे बाबा नानक को मिल गए वह नानक जनक ही तो थे। तो बात तो बनेगी तभी जब पूरा गुरु मिलेगा। जैसे आप पर रज़ा हो गई। अब बेशक स्वर्ग में बैठा रहा, वहां कुछ नहीं मिलना अपनी पूंजी खत्म कर रहा है, तो वहां से आकर उसने कथा सुनाई राजा परीक्षित को, तब उसको जितना लाभ होना था उससे हुआ। ऐसे ही शंकर जी के मुख से निकली परमपिता की अमर कथा का असर इतना हुआ कि वह पंछी तो अंडा स्वस्थ हुआ। वह पक्षी बन गया। वह आत्मा recharge (रिचार्ज-पुनर्जीवित) हो गई इस कथा, कथा से और बच्चों! वाणी से। जो दास वाणी सुनाता है संत गरीबदास जी के मुख कमल, अमृत मुख से निकली परमात्मा से सीधा ज्ञान आया। उस पाक़ साफ आत्मा के माध्यम से कलमबद्ध हुआ।
आज दास के ऊपर मेरे पूज्य गुरुदेव की रज़ा हुई। वह ज्यों कि त्यों, वह स्वसिद्ध वाणी आज दास के मुख से, जो तुम सुन रहे हो और आगे सुनते रहोगे यह रिकॉर्ड हो गई है, यह आपके ऊपर और सब जीवों के ऊपर ऐसा अजब-गजब असर करेगी effect (इफेक्ट-प्रभाव) करेगी। जैसे उस पक्षी गंदे अंडे पर की थी। तो इस मालिक की कृपा, इसकी रज़ा को कौन समझ सके है।
अब यह ऐसे अरबों-खरबों जीवों को फिर से मनुष्य जीवन प्राप्त होगा। जहां-जहां यह वाणी चलेगी। उनके यह जीवन छूटेंगे, जैसे कुत्ते, गधे सूअर भी वहां घूम रहे हैं। अब बच्चों! यह तो कथा हुई पूरी की पार्वती को समझा दिया। उसका ध्यान लग गया, विचार करने लग गई। उसमें उसको नींद आ गई, समाधिस्थ हो गई। उधर से वह गंदा अंडा स्वस्थ होकर के और पक्षी बनकर हुंकारें भरने लग गया। तो बच्चों! शिव ने देखा कि यह क्या चक्कर पड़ गया, पार्वती तो बोल ही नहीं रही, यह आवाज़ कहां से आई? यह हमारा ज्ञान किसने सुन लिया? जबकि परमात्मा सबको कसम दिलाता था कि यह ज्ञान कहीं और ना जाए, अधिकारी बिना नहीं बताना। जब तक पार्वती अधिकारी नहीं बनी 108 जन्म मरती रही, बताया नहीं।
अति आधीन दीन हो प्राणी। जाको कहना यह अमर कहानी।।
अब आप सारे अधिकारी हो गए क्योंकि अब परमात्मा ने वह फिक्स टाइम कर रखा था वह ‘ठीक’ आ गई और आप सारे अधिकारी हो इसलिए डंका बजा दिया था दाता ने। तो यह आप बिचली पीढ़ी वाले हो, आपके लिए यह सारा कुछ रोक रखा था। उसके बाद यह सुखदेव ऋषि के बारे में गरीबदास जी ने बताया है, कि असंख जन्म पहले चले गए कोई संयोग मालिक ने बनाया। वहां इसकी बॉडी को खराब किया। नहीं तो यह भी उड़ जाता स्वस्थ होता तो यह आत्मा। तो वहां इसको चार्ज करवाया। उसके बाद इसका स्टार्ट हुआ, मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ इसको। तोते के जीवन को भोगकर फिर कभी आता। परमात्मा की कृपा हुई इसके अंदर वह शक्ति आ गई, सिद्धि शक्तियां आईं और यह मनुष्य जीवन प्राप्त कर लिया इसने। पिछले जन्म असंखों इसके व्यर्थ जा चुके थे यह खुद बताता है और पिछले जन्मों में गधे की योनि को भोग रहा था, अंधा हो गया।
वह कथा आपको बताई है इसकी। ऐसे असंखों कष्ट आप उठा चुके हो, असंखों बार और अब थोड़ा सा मनुष्य जीवन आता है इस समय फूले नहीं समाते, बकवाद, देई-लेई नहीं पड़ती, यह पूरी नहीं होती। माचें माचें फिरैं और सेकंड का भरोसा नहीं। यह काल रोल मार रहा है आपकी। आंख खोल लो यह कोई बालकों के डुम भाट के गीत नहीं है। या कोई novel (नावल-उपन्यास) नहीं सुना रहा दास। आपको वह अमर वाणी सुना रहा हूं जो परमात्मा को देखे हुए महापुरुष के मुख से उच्चारित है। अपनी किस्मत सौ-सौ बार सराहया करो। सौ-सौ, कोटि- कोटि धन्यवाद किया करो उस परमपिता कबीर परमेश्वर जी का। हे परमात्मा! आपने ही सारा कुछ किया, जीव नहीं कर सकता कुछ भी। सतकर मान लियो। जीव इतना अवश्य करें इस मालिक से दूर ना हो बस अब।
शरण पड़ें को गुरु संभालै, जान के बालक भोला रे। कहे कबीर तुम चरण चित राखो, ज्यूं सुई में डोरा रे।। ज्यूं सूई में डोरा रे।।
इतना तो आपने रखना पड़ेगा। इतना नहीं रखोगे तो बात नहीं बनेगी। ऐसे चिपक जाना होगा। अब ज्ञान के आधार से आपको यह प्रेरणा बनेगी वैसे नहीं बन सकती। कितनी ही कोशिश कर लो। यह ज्ञान आपको बांध देगा चारों तरफ से मन को। यह बकवाद करनी बंद करनी पड़ेगी आखिर में और बकवाद करते रहें और भक्ति का नाटक भी करते रहे, ऐसी दुर्गति होकर मरेंगे याद रखेंगे। मुश्किल से मानव शरीर मिला और यह समय परमात्मा कैसे लाए हैं इस ज्ञान को बचाकर।
धर्मदास मेरी लाख दुहाई। यह मूल ज्ञान कहीं बाहर नहीं जाई।।
बताओ!
मूल ज्ञान बाहर जो पड़ही। वह बिचली पीढ़ी हंस नहीं तिरंही।।
आपके लिए, आप यह बिचली पीढ़ी के हंस हो बेटा-बेटी। आपके लिए यह सारा कुछ मालिक ने कर रखा है और इस अनमोल ज्ञान को और तुम कानों पर से टालोगे, तुम्हारे जैसे बालक और बिल्कुल बेवकूफ नहीं, इस धरती पर। देखो यह ज्ञान इतना गजब का, धीरे-धीरे सुनते रहो। यह मन साइड पकड़ जाएगा, आत्मा मालिक से, बिल्कुल चिपक जाएगी और जिस दिन यह चिपक गई इसको सही समझ में आ गई, उस दिन मन का कोई ब्योंत नहीं है जो आपको डगमग कर दे। इसलिए इस ज्ञान को सुनना, रह-रह कर सुनना, अति आवश्यक है। इसको सुनते रहो एक दिन में बी.ए, एम.ए नहीं कर जाता बच्चा। बात वही होती है, अक्षर वही होते हैं, पर उनमें आगे बढ़ते-बढ़ते ज्ञान का अंतर होता चला जाता है। तो इसी प्रकार दास एक टीचर है, आप स्टूडेंट हैं। यह पीरियड अटेंड ज़रूर किया करो। इसी से आपका मोक्ष होगा। आपका ज्ञान बढ़ेगा। ज्ञान बढ़ेगा तो हिम्मत बढ़ेगी, विश्वास बढ़ेगा और विश्वास हो गया तो बेड़ा पार हुआ। अब बच्चों! आपको वह अमर वाणी सुनाऊंगा जो परमात्मा की प्यारी आत्मा भक्ति से परिपूर्ण पाक़ साफ आत्मा संत गरीबदास जी द्वारा बोली गई है। जिसने भगवान को आँखो देखा, भगवान से मिले। छोटे-छोटे थे ऐसे सुना करते थे, यह आपस में बतलाते थे बुजुर्ग या माता-पिता किसी को कहते, वह कहता, यह बात ऐसे है। तो ऐसे कहा करते, “तू क्या राम से मिलकर आ रहा है?” इतना तू विश्वास के साथ कह रहा है। तो गरीबदास जी राम से मिलकर आ रहे थे, सारी बातें विश्वास योग्य हैं। अब सुखदेव ऋषि के विषय में इस अमर ग्रन्थ की वाणी यह अमरवाणी सुनाता हूं। कथा आपको सुना रखी है। आवश्यक होगी, वहां मौखिक भी सुनाऊंगा। जब सुखदेव के पिताजी, सुखदेव का जब जन्म हो जाता है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश वहां आते हैं और वह उनसे कहता है, अपनी माया रोको तब मैं बाहर आऊंगा।
बोले पंछी वचन उचारी। माता को सुख दीन्हा भारी। माता कह पुत्र सुखदेवा। गर्भ जूनी मत आओ भेवा।।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश आकर कहने लगे, कि आपके व्यास की पत्नी को, की आपके पेट में, गर्भ में बच्चा है। तो उसकी मां बोली मुझे तो आज तक एहसास भी नहीं है कि मेरे गर्भ में बालक है। मुझे कष्ट नहीं हुआ। नहीं, गर्भ में बच्चा हो मां बहुत दुखी होती है। तो इसलिए मां ने, पुत्र होने से पहले ही उसका नाम सुखदेव रख दिया। सुखदेवा। यानी सुख दिया इसने माँ को गर्भ में। दुखी नहीं करी (किया)।
बोले सुखदेव विबल वाणी। ब्रह्मा विष्णु महेश्वर दानी।। कोटि-कोटि भुगती चौरासी। काटो फंद पुरुष अविनाशी।।
कि मैंने बहुत करोड़-करोड़ बार चौरासी लाख प्रकार के यह कष्ट उठा लिए। हे अविनाशी! अब यह तो इन ब्रह्मा, विष्णु, महेश को अविनाशी मान रहे थे। मेरा यह पाप काटो। मेरा फंदन काटो।
तिहुं देवा जब थंबी माया। गर्भ उदर से बाहर आया।।
तब तीनों देवताओं ने माया रोकी। तब वह मां के पेट से बाहर आया।
ओरनाल कसी कमर मुतंगा। चला सुखदेव बन खंड संगा।।
अब देखो यह कहां से शुरुआत हुई, इसको थोड़ी सी बैटरी चार्ज हो गई इसमें आकाश में उड़ने की शक्ति आ गई। आ गई कैसे? शिवजी के मुख से, उस अमर पुरुष, समर्थ शक्ति की महिमा सुनने से क्योंकि वह पिछली वार्ता में, आखिर में पार्वती जी को महादेव कहता है कि वह परमात्मा सक्षम है। वह सबसे ऊपर और आखिर में रहता है। वहां नहीं ब्रह्मा, विष्णु, महेश कोई नहीं जा सकता। उसी के मार्ग की वाणियां बताईं। वह अमर कथा थी और जितना उसमें शेष बैटरी चार्ज होनी थी वह हो गई उसकी। इतनी ही पार्वती की हो गई। पार्वती मानव थी उसको मंत्र मिल गया, वह जाप करती है। तो उसकी दीर्घायु हो गई। इसको मानव शरीर प्राप्त हुआ। अब यह क्या कहते हैं जब मां के पेट से बाहर आया तो अपनी ओरनाल को जो बच्चे की ओरनाल होती है गर्भ में, मां की नाभि से टूटकर बच्चे की नाभि के लटकी रहती है।
वह उसने अपनी उठाकर कमर पर डाल ली, कंधे पर और यहां मतलब जैसे बेल्ट की तरह बांध ली ऐसा बताते हैं और उड़ गया आकाश में, चल पड़ा। पीछे-पीछे उसका पिता व्यास चलता है।
ओरनाल कसी कमर मुतंगा। चला सुखदेव बन खंड संगा। पुत्र पुत्र व्यास कर टेरे।
व्यास हे पुत्र! हे बेटा! हे बेटा! रुक।
सुखदेव बोला माया मोह कुछ नहीं मेरे। कौन पुत्र को पिता कहावे। शब्द स्वरूप रहे निर्दावे। कौन पुत्र को पिता कहावे। शब्द स्वरूप रहे निर्दावे।। पांच तत्व गुण तीन समाना। पान पान में पद गलताना। व्यास पुत्र से किन्हे प्यारा। व्यास तो अपने बेटे वाले मोह से उससे प्यार करें। सुखदेव भरा शब्द हुंकारा। खोज ना पाया व्यास गोसाईं। मिला नहीं उल्ट घर आई।
जब वह आगे जाकर आकाश में उड़ गया और व्यास जी को पुत्र प्राप्त नहीं हुआ, वापस आ गए।
आगे जाए बहे प्रचंडा। जैसे नदी 18 गंडा।
अब सुखदेव ने राजा जनक से उपदेश लिया। उसकी कथा आती है।
सुरनर मुनि गण गंधर्व ज्ञानी। सबसे ऊंचा है अभिमानी। अधर विमान चले मन रूपा। गर्भ योगेश्वर ज्ञान स्वरूपा।।
सुरनर मुनिजन जितने भी ऋषि थे गंधर्व थे, विद्वान थे। अपने अभिमान के आधार से उनसे सबसे ऊपर मानता था और सबसे वाद-विवाद करता था।
अधर विमान चले मन रूपा। गर्भ योगेश्वर ज्ञान स्वरूपा।।
उसको गर्भ योगेश्वर कहने लगे, मां के पेट से ही योगी बनकर बाहर निकला, भगत बनकर।
गरीब, वादी योगी वाद कर, विचारा तीनों लोक। सतगुरु जनक विदेही बिन, पावै नाहीं मोक्ष।
वादी योगी, वाद विवाद करने वाला तीनों लोकों में घूमता रहा। लेकिन जब तक राजा जनक सतगुरु नहीं किया, जनक विदेही उसको स्वर्ग तक की जाने की भी सुविधा नहीं मिली।
इंद्री पांच पच्चीसों साधी। कर्म योगेश्वर योगी वादी। इंद्रियों पांच पच्चीसों साधी। गर्भ योगेश्वर योगी वादी। अहु व्याधि बंधन बहू भारी। सुखदेव जीता हुरंबा हारी। अहु अग्नि हृदय प्रकाशा। ज्ञान ध्यान जले ज्यों घासा। कोटि ज्ञान सुरपति सत्संगा। जाय अहिल्या कीन्हा संगा। अहु अग्नि केते बोराय। सुखदेव योगी इंद्र डिगाए। सुखदेव को तो मान घनेरा। सुरपति लुप्त काम दल खेरा।
यह वाणी है, इनमें से हम अपने काम की को सुलझाएंगे, समझेंगे। जैसे आपको बताया था मौखिक कथा में। सुखदेव ऋषि को ऊपर सबने बताया, समझाया।
तो वह वार्ता इसके अंदर संत गरीबदास जी ने बहुत प्यारे ढंग से और न्यारे ढंग से दी है।
सुखदेव कल्पवृक्ष की छाईं। जनक विदेही करे गुरु नाहीं। जनक बड़ा के सुखदेव योगी। दस संहंस रानी रस भोगी।। सुखदेव बोले ज्ञान विवेका। हम स्त्री का मुख नहीं देखा। हम हैं गर्भ योनि से न्यारा। ज्ञान खड़ग इंद्री प्रहारा। कैसे शीश निवाऊं जाईं। जनक विदेही राजा भाई।।
अब यह बात उसके अड़ गई, अभिमान, अहंकार अड़ गया। मैं बाल ब्रह्मचारी और जन्म से सिद्धियां, इनको तो एक सिद्धि मिल जाए बस ढिंडोरा पीटते फिरा करें ये और गरीबदास जी कहते हैं, एक सिद्धि पता नहीं कितने दिन तपस्या आदि करके प्राप्त होती है। इसी में यह फूले फिरा करें। गरीबदास जी कहते हैं, हमारे इस मंत्र जो आपको दे रखे हैं।
शब्द महल में सिद्ध चौबीसां। हंस बिछोड़े बिस्वे बीसा। इन चौबीसों को ना मन चाहवे। सो हंसा सतलोक सिधावे।।
इन 24 को भी नहीं इच्छा हो। यह तो एक पर ही माचें फिरे था।
एक सिद्धि आकाशे उड़ जाई। एक सिद्धि जल पैर ना लाई। एक सिद्धि कुछ खावे ना पीवे। एक सिद्धि जो बहु जुग जीवे।।
इस तरह की यह 14 सिद्धि बताई। अब क्या बताते हैं, वह कहता है कि मैं बाल ब्रह्मचारी, योगी साधक और राजा जनक ने तो 10,000 रानी विवाह कर रखे हैं।
जनक बड़े के सुखदेव योगी।
सुखदेव कहता है, मैं बड़ा के? राजा जनक? वह तो 10 सहंस रानी रखता है।
सुखदेव बोले ज्ञान विवेका। हम स्त्री का मुख नहीं देखा। हम हैं गर्भ योनि से न्यारा। ज्ञान खड़ग इंद्रई प्रहारा। कैसे शीश निवाऊं जाईं। राजा जनक विदेही भाई।
राजा जनक विदेही है, राजा जनक है और वह ऐसा-ऐसा है। मैं ब्राह्मण ऋषि क्योंकि ब्राह्मणों की तो हमारे सामने की बात है। छोटा सा भी बालक होता उसको भी दादा, छोटी लड़की होती दादी। अभी तक इतनी कदर थी इनकी। तो उससे और बहुत पीछे जाओ, त्रेता युग में तो ब्राह्मण एक देव के रूप में पूजे जाते थे। तो एक तो ऋषि और ऊपर से योगी यानी बाल ब्रह्मचारी और सिद्धि आ रही फूला नहीं समावे। फिर और ऋषियों ने भी बहुत कुछ समझाया। कैसे समझाया, जब यह बोला, उनको बताया सबको की;
कैसे शीश निवाऊं जाई। राजा जनक विदेही भाई। पुंडरिक नारद मुनि व्यासा। पुंडरिक ऋषि नारद ऋषि मुनि और व्यास सुखदेव के पिता ब्रह्मा विष्णु महेश उपासा। आसन आदर अति अधिकारा। सुखदेव सकल माही सरतारा।।
यानी उस छोटे से बालक के अंदर इतनी शक्ति और ज्ञान देखकर सभी उसका सत्कार करते थे और सबसे उत्तम माना जाता था।
14 भवन फिरै पल माहीं। सुखदेव समान दूजा नाहीं। सुर तैंतीसों सहंस अठासी। सुखदेव की सब करें खवासी।।
33 करोड़ देवता, 88 हज़ार ऋषि भी उसको सम्मान दें।
वशिष्ठ विश्वामित्र ज्ञानी। कागभूषण्ड कहो प्रवानी।।
अब कागभूषण्ड ने पत्ते पाड़े उसके।
गरीब, कागभूषण्डी ध्यान धर, बहे जो पद प्रवान। आधीनी अधिकार बिन, सुखदेव मूढ अज्ञान।।
बच्चों! जब कागभुषण्ड ने कहा कि आपने गुरु तक बना नहीं रखा, इतना अहंकार कर रहे हो फिर अपनी भी बताई की, मैं भी ऐसे ही था, बिल्कुल निकम्मा ही था। भक्ति में रुचि नहीं थी अपनी सारी कथा सुनाई। लेकिन सुखदेव को अहंकार था, एक भी पल्ले नहीं पड़े।
सनक सन्दन नारद भाई। सुखदेव को ज्ञान बहुत समझाई।।
और कहा, कि तू ऐसी बात कर रहा है कि मैं राजा जनक को कैसे गुरु बनाऊं, कैसे उनके चरणों में शीश रखूं? बच्चों! यहां एक थोड़ा सा example (एग्जांपल-उदाहरण) देता हूं जैसे भारत के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के रोग हो जाए, बीमारी, कोई रोग हो गया। यदि डॉक्टर से दवाई लेता है, डॉक्टर जैसे कहे ऐसे लेट, मुंदा लेट, सीधा लेट, करवट ले और चेक करता है। उससे दवाई लेता है। अपना रोग कटवाता है। तो क्या राष्ट्रपति का पद हट गया? क्या उसका अपमान हो गया? तो गुरु तो एक डॉक्टर होता है। एक वैध है। इस जन्म-मरण के रोग की दवाई रखता है। इसमें कोई बड़ा-छोटा नहीं हो सकता। इससे कोई फित नहीं उतरती कोई। कोई नाम बड़ा अधिकारी, अफसर यह सोचे की कैसे जाऊं? रामपाल तो एक छोटा सा आदमी है और मैं बड़ा अफसर। तो यह समस्या इसके आ रही थी सुखदेव को। तो डॉक्टर के पास जाने से कोई उसका अपमान या फित नीचे उतर नहीं जाती। अब यहां एक उदाहरण देकर समझाया उसको।
सनक सन्दन नारद भाई।
सनक संदन ब्रह्मा जी के चार पुत्र हैं। जो जिन्होंने, वरदान ले रखा है की 5 वर्ष की आयु ही हमारी रहे, हमारे अंदर कोई दोष पैदा ना हो, विकार ना हो जाए। बड़े होने से विकार आ जाते हैं। सुखदेव को ज्ञान बहुत समझाई। क्या उदाहरण दिया,
नारद को झीमर गुरु किन्हा। कहां ज्ञान में हो गया हीना। बोले ब्रह्मा विष्णु महेशा। सुखदेव नहीं ज्ञान प्रवेशा।।
जब सबको पता चला, कि इसने गुरु नहीं बना रखा तब उनको समझाया गया कि देखो नारद जी ने एक बार एक झीमर मछियारे को गुरु बनाया और उसका कौन सा वह ऋषि पद खत्म हो गया। उसका कौन सा अपमान हुआ। क्या छोटे-बड़े हो गए। यह झीमर कौन था? यह बताएंगे आगे। अभी यह प्रसंग दूसरा चल रहा है। यह झीमर था जब था और एक फिर वह भगत बन गया था। एक ऐसा झटका लगा था उसको। अब आगे बताते हैं;
बोले ब्रह्मा विष्णु महेशा। सुखदेव नहीं ज्ञान प्रवेशा। चीन्हा नहीं पुरुष अविनाशी। सुखदेव गर्भ जूनी के वासी। जनक विदेही करो गुरु सोई। गर्भ जूनी से छूटावै तोही। जनक विदेही का ज्ञान है न्यारा। सुखदेव गर्भ जूनी अवतारा। जूनी संकट देह कहाई। गर्भ जुनी आगे है भाई। जूनी संकट देह कहावे। गर्भ जूनी कोई विरला नसावे।। गर्भ जूनी है मान बढ़ाई। सो सुखदेव तूं मांही बसाई।।
यह मान बढ़ाई है, यह मूल कारण है इस 84 लाख योनियों में जाने का। परमात्मा को अहंकार पसंद नहीं है।
जनक विदेही करो दीदारा। तू तो गर्भ योनि से न्यारा। पिंड ब्रह्मांड दोऊ हैं जूनी। इच्छा बीज सुखदेव भूनी। चौदह भवन फिरै पल माही। उड़ा फिरै पक्षी की नाई।।
उसको समझाया कि जो शरीर है यह भी एक जूनी संकट और इस ब्रह्मांड में तू घूम फिर लेता है आकाश में उड़ जाता है यो (यह) भी जूनी। इससे बाहर जाए बिना मोक्ष नहीं।
चौदह भवन फिरै पल माहीं। उड़ा फिरै पक्षी की नाई।।
पक्षी की तरह उड़ता फिरता है क्या इससे मोक्ष हो जाएगा? क्या इसको मोक्ष मानता है?
तप का तेज ज्ञान असवारा। पाया नहीं मुक्ति द्वारा। सुखदेव ज्ञान ध्यान तब हीना। जब लग राजा गुरु नहीं कीना।।
जब तक राजा जनक को गुरु नहीं बनाया तब तक उसका एक आने का ज्ञान नहीं था।
गरीब राजा योगी जनक हैं, तीन लोक तत्सार। मेहर करें गुरुदेव जब, सुखदेव उतरे पार।।
यह बताया गया कि राजा जनक से नाम लेगा तो तुझे लाभ होगा। नहीं तो 84 लाख योनी तैयार हैं तेरे लिए। अब सुखदेव ऋषि को समझाया जा रहा है, की आकाश में उड़े पक्षी की तरह, यह मोक्ष नहीं। सबने समझाया की,
जैसे गंग अंग पर छारे। तुमरा मोक्ष जनक के द्वारे। जैसे गंग अंग पर छारे। तुमरा मोक्ष जनक के द्वारे। मान्या वचन कल्पना छाड़ी। सुखदेव लगी लग्न जब गाढ़ी।।
जब सबने एक ही सुर में बताया कि बिना भक्ति, बिना गुरु के भक्ति नहीं होती और जैसे गंगा एक निर्मल जल है इससे शरीर स्वच्छ साफ हो जाता है, शीतल जल है। आनंद आता है गर्मी के अंदर। ऐसे ही तुम्हारे अंदर का मैल राजा जनक को गुरु बनाने से खत्म होगा। यानी आपको ज्ञान प्राप्त होगा।
तो मान्या वचन कल्पना छाड़ी।।
अपनी जो मन की सोच थी अहंकार था वह छोड़ दिया।
सुखदेव लगी लग्न जब गाढ़ी।।
यानी परमात्मा से, गुरु बनाने की लग्न लगी, तड़प बनी।
सुखदेव छोड़ी मान बड़ाई। जनक विदेही किया गुरु जाई। अगर फलेल हमाम चढ़ाया। राजा जनक नहान को आया। दस संहस में जो पटरानी। करे खवासी जल हर पानी।। जलै अंगीठी बलै तिस नीचे। राजा रानी प्रबल सींचै।।
गुरु बनाने के लिए राजा जनक के पास गए। तो राजा जनक ने उनको एक आसन लगवा दिया की ऋषि आए हैं, बड़ा अहो भाग्य हमारा। हमारे सुबह-सुबह ब्राह्मण के दर्शन हुए और आसन लगा दिया। आसन पर नहीं बैठा। नीचे बैठ गया ज़मीन पर और कहा मैं आपको गुरु बनाने आया हूं। इस बात का राजा को पता था कि यह ऐसे मेरे को एक हेय समझता था। मुझे छोटा समझता था। नालायक समझता था और विकारी आदमी समझता था। अब सब ने जब इसको कहा तब यह यहां आया है। तो जब तक उसको यह विश्वास नहीं होना था कि राजा जनक सामान्य व्यक्ति नहीं है। तब तक दीक्षा ले लो, तो भी उसकी टिकाई नहीं होनी थी। वह विश्वास नहीं बनना था। तो वह बैठ गया सुखदेव। तो सुखदेव से कहा की ऋषि जी! मैं स्नान कर लेता हूं। उसके बाद बात करेंगे, चर्चा करेंगे।
ज्ञान सुनाऊंगा। फिर आप उचित समझो तो दीक्षा लेना। उसके सामने एक चुल्हा जलवाया। उसके ऊपर बड़ा कढ़ाया रखवाया। यानी जैसे स्नान करने का 10-20 किलो, 50-20-30 किलो पानी आवे और नीचे उसमें अग्नि जलवा दी। पानी ऐसे उबल गया जैसे चाय उबला करें और उससे दो फीट की दूरी पर राजा जनक का पाटड़ा डाल दिया स्नान करने का और जो 10,000 रानियों में सबसे पटरानी थी, बड़ी थी, मुख्य थी वह उसमें से पानी भरे उबलता लौटा हाथ डुबोकर और राजा के सिर पर तरड़ा लगावै और हाथ से मसले नहलावे। सुखदेव ऋषि सिकुड़े ऐसे। वह पानी डाले राजा पर, इकट्ठा होवै ये सुखदेव, गर्भ योगेश्वर। तब राजा जनक बोला की सुखदेव आप बाल ब्रह्मचारी हो बहुत बड़े शक्ति युक्त हो। आकाश में उड़ जाते हो। इस जल में उंगली दे दे जो मेरे नहाने के बाद नीचे गया है। इस नाली में से जावै है गटर में। इसमें हाथ दे। ऐसे बोला मैं नहीं दूं। बिल्कुल उंगली कट कर दूर हो जावे मेरी तो।
बच्चों! अब सुनो अमृतवाणी।
अगर फूलेल हमाम चढ़ाया। राजा जनक नहान को आया। दस संहस में जो पटरानी। करे खवासी जल हर पानी। जले अंगीठी बले तिस नीचे। राजा रानी परमल सींचै। आओ गर्भ योगेश्वर योगी। हम राजा इंद्रीय रस भोगी।। जो तुमरी देह अग्नि जल जाई। तो झूठा सुखदेव योग कमाई। जै तुमरी देही अग्नि में जल जाई। उंगली दे इसमें तो झूठा सुखदेव योग कमाई। झूठी भक्ति कर रखी है तूने। मलयागिर रानी तन लावे। अगर फूलेल हमाम नहवावे।। राजा रानी शब्द स्वरूपा। सुखदेव पड़े अंध गहरे कूपा।
तू तो अज्ञान के गहरे कुंए में पड़ा है। अब क्या कहता है सुखदेव।
जब फूलेल लगावे अंगरी। अगर इस ऊबलते पानी में मैं हाथ उंगली दे दूं उंगली अंगरी। हमरी जल जा काया सगरी। मैं इसमें हाथ दूं तो सारी मेरा तो शरीर जल जा एकदम, इतना गर्म पानी है। राजा विहंस देई जब तारी। और हमें अस्नान करावे नारी।।
राजा ने दोनों ताली बजाई हाथों की और हंसा। ऐसे बोला और मेरे को यह स्त्री स्नान करवा रही है इसका भी हाथ नहीं जलता। तू कह रहा था की मैं योगी हूं, ऐसा हूं।
कर अस्नान तख्त पर आए। सुखदेव परम ज्ञान गोहराये।।
राजा स्नान करके तख्त पर आकर बैठे। उनको पहले ज्ञान समझाया। जैसा उसने परमात्मा कबीर जी ने सुना रखा था, ज्ञान इन सबको। अब ज्ञान तो ये वही समझावें मिलता-जुलता और डले वही ढोंवे। जो इन भक्ति ठीक नहीं करते थे स्वर्ग तक की।
बोले जनक विदेही राजा। इंद्री दमन करी किस काजा।।
कि तूने अपनी इंद्रियों को दमन कर रखा है यानी इनको काबू करना चाहता है। इसका अर्थ क्या है मुझे यह बता दे? उद्देश्य क्या है तेरा? ब्रह्मानंद पद मिला ना तोकु। ऐसा दर्शत है सब मोकु। सुखदेव सुनो व्यास के पुता। हे व्यास के बेटे सुखदेव, सुन इंद्री लार लगी संजूता। मन गुण इंद्रिया कर्म नहीं जाने। व्यास पुत्र तू ज्ञान दिवाने। इंद्री कर्म लगाओ किसके। जिह्वा लेप नहीं मधुरस के।।
अब जैसे शहद खाते हैं। तो शहद ना तो मुंह का चिपकता, ना जीभ के। यह टेस्ट कौन देता है? वह टेस्ट जो लेता है ना उसको है दोष दुख। वह टेस्ट लेता है। इसी प्रकार उसी को कोई दुख-सुख है, उसको है। शरीर को इंद्रियों से कोई, वो नहीं।
इंद्री कर्म लगाओ किसके। जैसे जिह्वा लेप नहीं मधुरस के।।
जिव्हा को शहद लिपटता नहीं, लेप नहीं होता।
वह तो टेस्ट देकर अंदर सरका देती है।
नैन पटन में ईशर भागा। देख सकल रूप अनुरागा। नासा अगरी गंध सुगंधा। आत्म रूप पड़ा गलफंदा। श्रवण सुनें वचन जो काना। बहरा कहा कहें विधि नाना।।
अब कहने का भाव यह है सारा कुछ समझा कर उसको समझाया कि;
प्रथम अन जल संयम राखे। योग युगत सब सतगुरु भाखै।।
कहने का भाव यह है की जो हमारे शास्त्र बताते हैं, उसके अनुसार हमने अपनी भक्ति करनी चाहिए। अब जैसे आपको समझाते हैं,
डेरे डांडै खुश रहो।।
गरीबदास जी बताते है;
खुसरे लहे ना मोक्ष। ध्रुव प्रहलाद उदर गए, फिर डेरे में क्या दोष।।
गरीबदास जी कहते हैं अब क्या बताते हैं कि तुमने जो साधनाएं की हैं वह ऐसी हैं सुनो;
कि
तुम खेलत कुल बनत जाना। ईश्वर पद का नाहीं ध्याना। जैसे चंदन सर्प लिपटाई। शीतल तन भया विष नहीं जाईं। ऐसा योग कमाया पुता। क्या हुआ जो इंद्रीय दूता।।
अब कितना गजब का उदाहरण दे दिया, कि तुम तो ऐसी साधना करते हो जैसे भक्ति करी, तप किया यह मान लिया तुमने की सिद्धि आ गई और शांति मान ली की बहुत कुछ पा लिया और स्वर्ग तक भी पहुंच गए, स्वर्ग में कुछ दिन आनंद ले लिया। उस स्वर्ग में रहोगे कितने दिन? यहां एक गजब का उदाहरण दिया है, कि
जैसे चंदन सर्प लिपटाई। शीतल तन भया विष नहीं जाई।।
जैसे सर्प होते हैं नाग, सांप, गर्मी के गर्मी जब ज़्यादा होती है तो चंदन के पेड़ के लिपट जाते हैं क्योंकि वह शीतलता देता है, ठंडा होता है चंदन। तो उससे उनको राहत मिलती है गर्मी से और गर्मी उनके ज़हर के कारण, जो उनके अंदर विष है। तो यह बताया कि तुम्हें जो कष्ट हो रहे हैं, जो तुम्हारी 84 लाख योनियां तुम्हें भोगनी पड़ रही हैं यह तुम्हारे पाप कर्मों के कारण है। वह इन साधनाओं से खत्म नहीं होंगे, स्वर्ग तक की साधना कर ली, स्वर्ग में चला गया, फिर धक्के खाने आना पड़ेगा। कुछ समय के लिए राहत मिली तुझे।
जैसे चंदन सर्प लिपटाई। और शीतल तन भया विष नहीं जाई।।
सांप के शरीर को शीतलता मिल गईं लेकिन विष ऐसा का ऐसा रखा है। ऐसे ही तुम्हारी इन क्रियाओं से, ऐसी ही तुम्हारी इन साधनाओं से, यह जन्म-मरण का रोग नहीं कटेगा। स्वर्ग में कुछ दिन का सुख लेकर, फिर यहीं धक्के खाओगे। तो ऐसा योग कमाया पूता ऐ बेटा! ओ बेटा! ऐसे यानी या तो योगी बना बैठा था। या बिल्कुल नत मस्तक हो गया सुनकर के ज्ञान। यह ज्ञान तो कबीर परमात्मा ने दे रखा था। ज्ञान तो एक नंबर का राजा जनक बता रहे थे। भक्ति स्वर्ग तक की करें (करते) थे। हम भी अब उसी में से हैं ऐसे ही हम थे पहले। अब जाकर परमात्मा ने सारे पत्ते खोले।
ऐसा योग कमाया पुता। क्या हुआ जो इंद्री दूता।।
इन इंद्रियों को कंट्रोल कर लिया, विवाह नहीं करवाऊं। ऐसे नहीं करवाऊं। जंगल मैं जाऊंगा। क्या इससे मुक्ति हो गई? अगर ऐसे ही मोक्ष प्राप्त हो, तेरे की तरह ब्रह्मचारी, तो यह किन्नर, यह तो सारे ही पार हो जाते। भक्ति करनी पड़ेगी। चाहे किन्नर हो और चाहे वैसा हो। जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों शादीशुदा और इनकी भक्ति करने वाले ऐसे कहे ब्रह्मचारी रहना चाहिए। ब्रह्मचारी नहीं सदाचारी रहना चाहिए। परमात्मा कहते हैं जैसे घर में रहो और अपना सांसारिक कर्म करो। परमात्मा की भक्ति अवश्य करो। पूरा गुरु हो। फिर चाहे घर में रहो, चाहे बाहर रहो। यह भी नहीं की विवाह ही करवा कर मुक्ति होगी। या बिना विवाह के ही होगी। ऐसा कुछ नहीं है। यानी नाम से मोक्ष होगा और सच्चा नाम भक्ति करो लेकिन पेट के लिए काम तो करना ही पड़ेगा। इसलिए काम भी करो।
नाम उठत नाम बैठत, नाम सोवत जाग वे। नाम खाते नाम पीते, नाम सेती लाग वे।।
तो सभी संतों ने यही मार्ग बताया। गीता यही बताती है। सूक्ष्म वेद आपको मैं सुना रहा हूं। अब क्या बताते हैं, गुरु बिन फिर मोक्ष नहीं होना। गुरु पूरा हो। राजा जनक से जितना मोक्ष होना था स्वर्ग प्राप्ति हुई बस। तो जो भक्ति तुम कर रहे हो यह स्वर्ग तक की प्राप्ति है और स्वर्ग के महास्वर्ग जाकर, ब्रह्म लोक जाकर, वह लोग वापस आते हैं। अब गरीबदास जी वाणी बताते हैं;
सुरती शब्द में लागी डोरी। तातें बड़ी उम्र भई गोरी। संख असंखों जन्म पूर्बले। गंदा अंडा तन काया भूले। योग संयोग मिले जब आई। शिव गिरिजा को कथा सुनाई।।
की यह कोई समय संयोग सधा तब शिवजी ने पार्वती को यह कथा सुनाई और उसी समय इसका भी संयोग आ गया गंदे अंडे वाले का। सुखदेव को मनुष्य जीवन प्राप्त करने का।
सुनत ज्ञान अनभय पद वाणी। अंडा फूटा चेतन भए प्राणी। कोटि-कोटि जन्म के भ्रमा। दमन किये चिन्हे निज धर्मा। ऐसा ज्ञान अगम गोहराया। पर जामी चेतन होय आया।।
वह अंडा पक्षी बन गया, उसके पर जामी पंख जाम गई, उग गई और चेतन हो गया, जीवित हो गया।
चेतन हुए भरा हुंकारा। शिवयोगी मन माही संभारा।।
हुंकारा भरने लगा।
हाँ। हाँ।
गिरिजा भई ज्ञान गलताना। पंछी कौन वर्ष गोहराना।।
शिव जी को शंका हुई की पार्वती तो मस्त हो गई और यह पक्षी कहां बोला?
अजर नाम चीन्हा पद भारी। उड़ा सूवटा पंख पसारी।।
वह सुवा तोता उड़ चला।
शिवयोगी जब भया चिचाना। पंछी सुना हमारा ज्ञाना। शिव योगी जब भया चिचाना। पंछी सुना हमारा ज्ञाना। ज्ञान का चोर जान नहीं पावे। पंछी तन तज उदर समावे।।
अब शिवजी बोला की ज्ञान चुरा लिया। इस चोर को मारूंगा। यह और आगे बतावेगा। तो पक्षी शरीर छोड़कर और व्यास की पत्नी के गर्भ में चला गया, पेट में चला गया।
ब्रह्मा विष्णु ध्यान धराय। शिवयोगी को बेग भुलाए।। आनंद वचन कहे त्रिपुरारी। सुन हे वचन व्यास की नारी। यहां एक चोर हमारा आया। तुमरे उदर आन समाया। माता बोली वाणी नीकी। हमको खबर नहीं तन जीकी। द्वादश वर्ष रहे तन माही। लगी समाधि ध्यान धुन ताहि।।
बच्चों! अब यह तीनों देवता वहां आ जाते हैं। व्यास की पत्नी से कहते हैं, हमारा ज्ञान का चोर तेरे पेट में है। तो वेदव्यास की पत्नी कहती है, “जी मुझे ज्ञान नहीं।”
बोले ब्रह्मा विष्णु महेश्वर देवा। सुन पंछी तू ज्ञान परेवा। बाहर आओ वचन सुन मोही। तुमरा नाश कबहू ना होई। गरीब शिव को सुखदेव से कहा, मानो वचन हमार। उत्पत्ति प्रलय मेट हूं, चरण कमल दीदार।।
बोले पंछी वचन उचारी। माता को सुख दीन्हा भारी। माता कहे पुत्र सुखदेवा। गर्भ जूनी मत आओ भेवा। बोले सुखदेव विहल वाणी। ब्रह्मा विष्णु महेश्वर दानी। कोटि-कोटि भुगती चौरासी। काटो फंद पुरुष अविनाशी। तिहुं देवा जब थंबी माया। उदर गर्भ से बाहर आया।। ओरनाल कसी कमर मुतंगा। चाला सुखदेव वनखंड संगा। पुत्र पुत्र व्यास कर टेरे। माया मोह कछु नहीं मेरे।।
ओरनाल को कंधे पर डालकर चल पड़ा और उड़ गया सुखदेव। मां के गर्भ से आते ही 12 वर्ष की आयु में आया था।
तो पुत्र पुत्र व्यास कर टेरे।।
व्यास जी पुत्र-पुत्र करके कहने लगे बेटा! बेटा! तो सुखदेव बोला;
माया मोह कछु नहीं मेरे। कौन पुत्र को पिता कहावे। शब्द स्वरूप रहे निर्धावे। पांच तत्व गुण तीन समाना। पान-पान में पद गलताना। व्यास पुत्र से कीन्हे प्यारा। सुखदेव भरा शब्द हुंकारा। खोज ना पाया व्यास गोसाईं। मिला नहीं उल्टा घर आई।।
वह आकाश में उड़ गया। अंतर्ध्यान हो गया। वह मिला नहीं जिस कारण से वापस घर आ गया।
आगे जाए भए प्रचंडा। जैसे नदी 18 गंडा।। सुरनर मुनि गण गंधर्व ज्ञानी। सबसे ऊंचा है अभिमानी। अधर विमान चले मन रूपा। गर्भ योगेश्वर ज्ञान स्वरूपा। गरीब वादी योगी वाद कर, विचरा तीनों लोक। सतगुरु जनक विदेही बिन, पावत नाहीं मोक्ष।।
वैसे कथा आपको मौखिक सुनाई थी। यह सब ऊपर भी जाता था उड़कर सिद्धि से। एक सिद्धि मिल जाओ उसी को हल्दी की गांठ से पंसारी बन जाते हैं यह लोग। इन ऋषियों को, किसी को 1 सिद्धि, किसी को 2 हो गईं। किसी से किसी का नाश कर दिया, किसी का विकास कर दिया। यह ऐसे प्रसिद्धि पा रहे थे।
72क्षोणी अक्षय करी, चुणक ऋषिश्वर एक। देह धारे जोरा फिरैं, यह सभी काल के भेष।।
सारी उम्र ढलै ढोकर सिद्धि प्राप्त करी 72 क्षोणी सेना मानधाता चक्रवर्ती राजा की मार दी चुणक ऋषि ने। वाह वाह! हो गई सारे world (वर्ल्ड-संसार) में। गरीबदास जी कहते हैं, यह चलती फिरती मौत बन गई, यह चलती फिरती मौत।
देह धारे जोरा फिरें, यह सभी काल के भेष।।
बच्चों! किस्मत वाले हो तुम, ऐसा निष्कर्ष ज्ञान बिल्कुल दो-तीन बार ताया हुआ घी मिल जाया करें। ऐसा शुद्ध है यह। शुद्ध से भी शुद्धतम। किस्मत वाले हो। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे।
सत साहेब