सत साहेब।
सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहेब जी की जय।
बंदी छोड़ गरीब दास जी महाराज जी की जय।
स्वामी रामदेवानन्द जी गुरु महाराज जी की जय हो।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय।
सर्व भक्तों की जय।
धर्मी पुरुषों की जय।
श्री काशी धाम की जय।
श्री छुड़ानी धाम की जय।
श्री करोंथा धाम की जय।
श्री बरवाला धाम की जय।
सत साहेब।।
गरीब नमो नमो सत्पुरुष कूं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडवत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए, तिंकू जां कुर्बान।। नराकार निर्मिविषं, काल जाल भय भंजनं। निर्लेपं निज निर्गुणम, अकल अनुपं सुन्न धूनं।। सोहं सुरति समाप्तं, सकल समाना निरति लै। उज्ज्वल हिरमबर हरदम, बेपरवाह अथाह है वार पार नहीं मध्यतं।। गरीब जो सुमरे सिद्ध होई, गणनायक गलताना। करो अनुग्रह सोई, पारस पद प्रवाना।। आदि गणेश मनाऊं, गण नायक देवन देवा। चरण कमल लो लाऊं, आदि अंत करूं सेवा।। परम शक्ति संगीतं, रिद्धि सिद्धि दाता सोई। अविगत गुणह अतितं, सत्पुरुष निर्मोही।। जगदंबा जगदीशम, मंगल रूप मुरारी। तन मन अरपूं शीशं, भक्ति मुक्ति भंडारी।। सुरनर मुनिजन ध्यावैं, ब्रह्मा विष्णु महेशा। शेष संहस मुख गांवै, पूजैं आदि गणेशा।। इंद्र कुबेर सरीखा, वरुण धर्मराय ध्यावैं। समर्थ जीवन जीका, मन इच्छा फल पावैं।। तैंतीस कोटि अधारा ध्यावैं संहस अठासी। उतरें बहुजल पारा, कट है यम की फांसी।।
जय जय सतगुरु मेरे की। जय जय सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, अमरपुरी के डेरे की।। जय जय सतगुरु मेरे की, जय हो सतगुरु मेरे की। सदा साहिबी सुख से बसियो, सतलोक के डेरे की।।
निर्विकार निर्भय तू ही, और सकल भयमान। एजी साधो और सकल भयमान। सब पर तेरी साहिबी, सब पर तेरी साहिबी, तुझ पर साहेब ना।। निर्विकार निर्भय।।
परमपिता परमात्मा कबीर परमेश्वर जी की असीम रज़ा से बच्चों! हमको भगवान की याद आने लगी है। अपने घर की जो भूल पड़ी हुई थी उसमें लग्न लगी है, वहां जाने की। पुण्यात्माओं परमात्मा ने जो कृपा आपके ऊपर की है, इससे स्वसिद्ध है की आप उस परमपिता के विशेष कृपा पात्र हो और आप आज से नहीं, बहुत युगों से मालिक आपको चार्ज करता हुआ आ रहा है। आपको इतना परिपक्व कर दिया भक्ति धन से, इतना भर दिया कि आज आपका जन्म इस भक्ति युग में हुआ। यह उस परमात्मा की ही रज़ा है, आपको कहां से शुरुआत की होगी। जैसे कागभूषण्ड की स्थिति, उसकी सारी जीवनी को देखो।
कागभूषण्ड की जीवनी जो उसने अपने मुख कमल से गरूड़ देव को बताई। वो वाणी द्वारा साथ-साथ कुछ हिंट देकर आपको यह कथा सुनाई जाएगी। कागभूषण्ड से, श्री विष्णु जी का वाहन गुरुड़ पूछता है कि आपको देखने से ऐसी शांति होती है, आपकी भाषा बहुत प्यारी लगती है। आपका शरीर ऐसे नूर की तरह चमक रहा है, आपको यह उपलब्धि कैसे हुई? आपके साथ बैठने से बहुत शांति मिलती है, कृपया मुझे आप अपने बारे में बताइए।
बूझै गरुड़ भूषण्ड बयाना। मोसे भेद कहो विधि नाना।। वचन सुशील दृष्टि अनुरागा। देवता की देह द्वार मुख कागा।। कलंगी तीन शीष तिस साजै। शब्द कोलाहल हर्ष निवाजै।। गरीब मधुकर बैन बिलास गहो, सुखसागर आनंद। तहां वहा सुरती लाईले सुनत कटे सब फंद।। अब गुरुड़देव बुझ रहे हैं कागभूषण्ड जी से। की बूझै गरुड़ भूषण्ड बयाना। मोसे भेद कहो विधि नाना।।
मुझे संपूर्ण जानकारी दो की वचन सुशील दृष्टि अनुरागा। आपके वचन बहुत सुशील हैं।
आपकी नज़र बहुत नेक है। देवता की देह और मुख काग का और तीन सिर पर कलंगी जैसे मुर्गे के ऊपर फूल सा होता है। तो कागभूषण्ड के ऊपर सिर पर तीन कलंगी।।
कलंगी तीन शीश ते साजै। शब्द कोलाहल हर्ष निवाजै।। मधुकर बैन सुनत हो शांति। कहो भूषण्ड या की उत्पात्ति।। श्रवण सुमिरत वचन सु बेदा। नाम रसायन सब तम देदा।। वचन सुनत सुख होत आनंदा। भेद कहो निज परमानंदा।। कमल कपोल मधुर बन तोरे। सुनते शब्द कटे पाप मोरे।।
अब गरुड़देव भूमिका बना रहे हैं, उनकी प्रशंसा कर रहे हैं, कि आपके बहुत मीठे वचन हैं। आपके बात करने से मुझे शांति मिलती है।
आदि अनादि कथा विस्तारा। मोको भेद कहो ततसारा।। परम भेद कहो बहु भांति। मिटे हमारे मन की कांति।। कौन देश को नगर निदाना। कहो भूषण्ड आदि प्रवाना।। कौन पिता को जननी जाना। कौन कुली कौन वंश बखाना।। अर्बण वर्ण कला प्रवेशा। तुम्हारी महिमा कर है शेषा।। जल स्वरूप कुछ तरंग ना तेजं। इंद्रजीत चढ़े मन सेजं।। ब्रह्म निरुपं निर्गुण बेसा। कहो भूषण्ड मुझे आदि संदेशा।। चंद्र का तेज सूर्य की किरणा। जा से अधिका तुमरा वर्णा।। कौन कला गति रूप स्वरूपा। तिमर मेट उजियारा धूपा।। सुनो भूषण्ड तुम अकल अनूपा। भेद कहो परमानंद दूखा।।
आपके शरीर की जो शोभा है, वह बहुत सुंदर है जैसे सूरज की किरण चमक रही हो। आप कौन कला आपके कौन मात-पिता हैं? कौन आपका कुल है? आप भेद बताइए। कागभूषण्ड ने उत्तर दिया;
कह भूषण्ड तुम सुनो खगेशा। तोसे भेद कहूं प्रवेशा।। कहे भूषण्ड तुम सुनो खगेशा।
खगेश, खग मतलब पक्षी।
खगेश! खग plus (जोड़) में ईश। हे पक्षीराज! हे पक्षियों के मालिक गरुड़! भूषण्ड जी कह रहे हैं,
कहे भूषण्ड तुम सुनो खगेशा। तोसे भेद कहूं प्रवेशा।। संख क्लप युग गए बिहाई। पूर्व जन्म की कथा सुनाई।।
कि मेरे संखों जन्म तो ऐसे ही व्यर्थ गए। संखों और अब मैं तुझे अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाता हूं।
गरीब, संख क्लप युग हो गए, जामन मरण जहान। जन्म पूर्बला तुझे कहूं, सुनो खगेश सुजान।। सुनो गरुड़ मोरा आदि संदेशा। भिन्न भिन्न भेद कहूं खगेशा।। संख जन्म पूर्व पैमाला। गए जो मिथ्या नहीं संभाला।।
संखों जन्म पूर्व में, पैमाल गए। व्यर्थ गए। नष्ट हो गए। गए जो मिथ्या नहीं संभाला। उनको मैं संभाल नहीं पाया। संखों मानव जीवन नष्ट कर दिए। ओहो, बच्चों! एक-एक बात हृदय में धरी जानी चाहिए आपके। आपको भी, इतने कष्ट उठा चुके हो आप। आपकी भी किसी जन्म में ऐसे ही शुरुआत हुई थी जैसे कागभूषण्ड की हुई और आज आप किस स्थिति में पहुंच चुके हो। आपको इतना ज्ञान नहीं, आप बच्चे हो। दास को खूब समझ आई है।
संख जन्म पूर्व पैमाला। गए सो मिथ्या नहीं संभाला।। अवधपुरी एक नगर निदाना। जहां अवतार धरे मेरे प्राणा।। 20 वर्ष की उम्र पुनीता। मात पिता भए काल समीपा।। सुनो गरुड़ मोरा आदि संदेशा। भिन्न-भिन्न भेद कहूं खगेशा।। संख जन्म पूर्व पैमाला। गए जो मिथ्या नहीं संभाला।। अवधपुरी एक नगर निदाना। जहां अवतार धरे मेरे प्राणा।। 20 वर्ष की उम्र पुनीता। माता-पिता भए काल समीपा।।
गरुड़ जी को भूषण्ड जी बता रहे हैं। कागभूषण्ड जी, की “पहले मेरे संखों जन्म नष्ट हो गए मनुष्य के। मैं उनको संभाल नहीं पाया। बड़ी गलती बनी। अब पश्चाताप बन रहा है। अवधपुरी एक नगरी है वहां मेरा जन्म हुआ। जब मैं 20 वर्ष का हुआ तो मेरे माता-पिता की मृत्यु हो गई। उस समय बहुत बड़ा दुर्भिक्ष अकाल गिरा।”
पड़ा अकाल दुर्भिक्ष तहाई। पृथ्वी डोल गई रे भाई।। पड़ा अकाल दुर्भिक्ष अपारा। मनुष्य मनुष्य का करें आहारा।।
ऐसा भयंकर अकाल गिरा, दुर्भिक्ष पड़ा आदमी को आदमी खाने लगा, भूखा मरता।
अन्न का नहीं आहार प्राणी। पड़ा काल दुर्भिक्ष अमानी।। अवधपुरी हम तजी खगेशा। तांहि समय गए मालू देशा।
मैंने अवधपुरी छोड़ दी और हे खगेश! हे पक्षीराज! मैं मालू देश में गया। एक अवंतिका नगरी में।
पुरी अवंती लिन्हा वासा। तहां वहां नहीं अन्न की त्रासा।। अन तो जहां पेट भर खाया। कहै भूषण्ड सुनो खगराया।।
खगराय! हे पक्षी स्वामी! पक्षियों के स्वामी पक्षीराज! हे गरुड़! अब सुन लो। अवंतिका पुरी में अकाल नहीं था, वहां पेट भरकर भोजन जाकर खाया।
पंडित एक अवंती माही। कथा करने शिव द्वारे जांही।। षट मास हम संगति कीन्हीं। बहुर तास की दीक्षा दीन्हीं।।
अब यह बताना चाहते हैं भूषण्ड जी, की मैं इतना कर्महीन था, मैं एक पंडित जी के पास चला गया। कोई शिव के शिवालय में, एक मंदिर में। शिव जी का मंदिर में, शिव जी का पुजारी था, कथा किया करता। मैंने 6 महीने तक उसकी संगति की, उसने मुझे पुत्र की तरह सम्मान दिया, प्यार दिया और समझाया की बेटा, यह तो दुःखी होते रहते हैं। दुःख तो। आप भगवान भजो।
6 महीने तक मुझे शिक्षा देता रहा भगवान की भक्ति कर ले, भक्ति कर ले। इतना पाप अड़ा खड़ा था, 6 महीने लगातार सत्संग सुनने के बाद फिर, मन में, यह आत्मा जगी।
षट मास हम संगति कीन्हीं। बहूर तास की दीक्षा लीन्हीं।। टेल करत शिव पंडित केरी। गुरु चेले का भाव घनेरी।।
स्वामी करने गए अस्नाना। पूजा अर्पण धूप ध्याना।। गरीब शिव पूजा पूजा पंडित करे, जहां हम लिया निवास। गुरु शिक्षा मन में करी, मिटी खगेश प्यास।। शिव पूजा पंडित अर्थावे। बेलपत्र दर लिंग बनावे।। तन मन अरपै फेरे माला। जाके ऊपर ईष्ट दयाला।। पूजा करने दिवाले आए। तहां हम बैठे दर्शन पाए।। जा शिव को मोहे दिया श्रापा। लाख वर्ष तुम जमपुर राखा।
बच्चों! कहां-कहां मार खाता है यह इंसान।
क्या बताता है, कागभूषण्ड अपनी आप बीती बता रहा है पूर्व जन्म की। गुरुजी से दीक्षा ले ली। गुरुजी शिव जी भगवान के समर्पित भक्त थे और शिव जी उनके ऊपर पूरी कृपा थी उनकी। वह उनके कृपा पात्र थे। एक दिन मैंने अपने गुरुजी का सम्मान नहीं किया।
पूजा करने देवालय आए। जहां हम बैठे दर्शन पाए।। पंडित जी शिवा, गुरुजी देवालय उस मंदिर में आए। और उस दिन मैंने मैं उठा नहीं अहंकार वश बैठे-बैठे प्रणाम कर ली। प्रणाम भी नहीं करी (की) वैसे देखें (देखता) गया। यह काल कर्महीनता ऐसे दुख देती है।
ओहो! जहां शिव को मोहे दिया श्रापा। लाख वर्ष तुम जमपुरी राखा।।
आकाशवाणी हुई। शिवजी बोले कि तू मेरे पुजारी का, मेरे भगत का, मेरे दास का सम्मान नहीं कर सकता, तू मेरा भगत कहां से हो गया? एक लाख वर्ष तुम्हें नरक में डाला जाएगा। यह आकाशवाणी मेरे गुरुदेव ने सुन ली।
पंडित सुना वचन शिव तेरा। उठ चरण कीन्हा गुरु चेरा।। पंडित शिव का ध्यान लगाया। कल्प करी बालक बोराया।। अरे धर बालक तू शिव का ध्याना। तांते बख्शे तोरे प्राणा।। चार पहर पंडित को बीते। बहुर आवाज़ हुई मन चीते।।
कबीर साहब कहते हैं"
बहुते ही प्यारा बालक मां का। उससे बढ़कर शिष्य गुरुओं का।।
अब देखो कागभूषण्ड ने अपमान किया और गुरुदेव का और गुरुजी पंडित, पंडित जी, जो गुरुजी शिव जी के सामने खड़े हो गए और बार-बार अर्ज लगावैं (लगाते) हे परमात्मा! बख्श दो बालक था। हे परमात्मा! बख्श दो बालक है और कागभूषण्ड से भी कह रहा है बेटा! तू भी हाथ जोड़। मालिक से प्रार्थना कर। चार पहर 12 घंटे तक प्रार्थना करता रहा अपने शिष्य को बचाने के लिए।
पंडित शिव का ध्यान लगाया। कल्प करी बालक बोराया।। अरे धर बालक तू शिव का ध्याना। ताते बख्शे तोरे प्राणा।। चार पहर पंडित को बीते। बहुर आवाज़ हुई मन चीते।। मोरा वचन ना खाली जाई। यम के लोक चलो रे भाई।।
अब फिर शिवजी की आकाशवाणी हुई। शिव जी का वचन आया, की मैंने जो वचन कह दिया यह टल नहीं सकता। नर्क में जाओ।
बहुत धरा पंडित तब ध्याना। बक्सो साहेब या के प्राणा।। बहुत बार की गुरू अर्ज ठीका। वाणी अरस वही शिव लीका।।
बहुर महादेव भये दयाला। यम का लोक भुगते तत्काला।।
गुरूजी फिर भी प्रार्थना करते रहे। फिर आकाशवाणी हुई। भई ठीक है। अब तेरे को वहां कोई परेशानी नहीं होगी। नर्क में जाना ज़रूर पड़ेगा। यम के लोक जाना पड़ेगा। तो बच्चों! क्या होता है,
हमरे लगा संशा शोका। छूट गई देह गए यम लोका।।
भूषण्ड जी कह रहे हैं, मेरे पाप कर्म ने ऐसा दुख दिया। मेरा वह शरीर छूटा तब उसके बाद मैं यम के लोक गया। काल यानी नर्क में।
लाख वर्ष तत्कालम आए। शिव की दया गुरु अर्थाये।।
यानी वहां कष्ट नहीं हुआ क्योंकि शिव जी ने उनको आदेश दे दिया था, इसको मारपीट नहीं करनी। लेकिन लाख वर्ष रहना पड़ा। अब बच्चों! ऐसा है, दुःख की घड़ी तो एक 20 मिनट भारी हो जाए और सुख के 3 घंटों का पता नहीं लगता जो फिल्म देखा करते। इस प्रकार कहते हैं वह तो ठीक-ठाक बीत गए वह।
यम हमको नहीं दीन्हा त्रासा। भुगता नहीं नर्क निवासा।। शिव स्वामी की दया अपारा। फिर हम आन लिया अवतारा।।
क्या बताते हैं, ‘भूषण्ड जी की मैं नर्क में रहा एक लाख वर्ष।’ अब जैसे जेल मंत्री का कोई जानकार हो और उसके (उसको) कोई, किसी काम से, जेल में जाना पड़ जाए और वह वहां से बोल दे जेलर को। तो जेल में तो रहना पड़ेगा पर विशेष अन्य कष्ट नहीं देंगे वह। इतनी सी राहत मिली।
गरीब, जन्म धरे तत्काल जब, छूट गई मम देह। गुरु, शिव साहेब दया से, हो गए निसंदेह।।
अब लोमस ऋषि से बात हुई, चर्चा होगी। उसका फिर दोबारा जब कागभूषण्ड का जन्म कैसे होता है? कहते हैं उसके बाद मेरा मानव शरीर हुआ और एक स्थान पर लोमस ऋषि कथा कर रहा था। लोमस ऋषि कथा सुना रहे थे और मैं भी बैठ गया जाकर। वह सर्गुण के बारे में ज़्यादा बता रहे थे। ऐसा है, वैसा है, जो भी है। तो वह कहता है, कागभूषण्ड कहता है, मैं उनके साथ विवाद करने लग गया। कमज़ोरी मेरी थी, बुद्धि मेरी काम नहीं कर रही थी और मैं उनके अंदर दोष देखें (देखता) गया।। तो ऋषि जी ने मुझे श्राप दे दिया। अरे चंडाल! तू चंडाल के घर जन्म ले। कागचंडाल के। तो उस समय मैं दुख नहीं पाया। मैंने दुख नहीं माना, नहीं मुझे, मेरे क्रोध आया। मैं डर गया और मैंने मायूस सा मुंह करके, हाथ जोड़कर बोला हे ऋषि जी! जन्म तो कहीं दे दियो। ऐसा वरदान दे दो मुझ पापी को भगवान की भूल नहीं पड़े। तब लोमस ऋषि खुश हो गए।
चलो यह बात तेरी मान ली। तेरा जन्म होगा चंडाल का, काग का। इतना हो जायेगा, नीचे की देही मनुष्य की रहेगी।
ऊपर की चोंच, वह कौवे की होगी। अब वाणी बताता हूं कैसे? वाद विवाद हुआ और लोमश ऋषि के माध्यम से गरीब दास जी हमें समझा रहे हैं;
योग ध्यान और नाम नरेशा। जप तप करणी से मिटे अंदेशा।। प्राणायाम किया प्रणामा। स्वर्गपुरी को चले विमाना।। लोमस ऋषि जहां कथा कराई। जहां हम प्रसंग पूछा जाई।। सरगुन कथा होत तिस बारी। हम तो निर्गुण के अधिकारी।। सर्गुण अर्थ हमो गोहराया। लोमश ऋषि प्रसंग बतलाया।। बहुर संवाद किया तिस बेरा। बैठे जाए निकट हम नेरा।। सर्गुण कथा बिना क्या गांवे। निर्गुण पद नजरों नहीं आवे।। जहां वहां बोले कागभूसंडा। दर्शा अद्भुत रूप अखंडा।। सर्गुण सकल नाश हो जाई। निर्गुण सदा हो ल्यो लाई।। लोमस ऋषि प्रसंग विस्तारी। सुनो गरुड़ आदि कथा हमारी।। बहुर कहा हम प्रसंगा। शिव की जटा रहे ज्यों गंगा।। तप करके भागीरथ लाए। तिहुं लोक कीर्ति दर्शाए।। गुप्त वस्तु प्रगट दिखलाई। निर्गुण सरगुन समझो भाई।। वृक्ष बीज में है सब ठौरा। जब उगे तब दिखे मोरा।। जैसे पंछी वृक्ष में, किलौल करत दिन रैन। समाधान में सृष्टि है, वास किया सुख चैन।। डालपान सब नजरों आया। पंछी किलोल करत है छाया।। फल पंछी नर करे अहारा। या लीला सर्गुण विस्तारा।। सर्गुण भोग दिये भगवाना। बहु विधि विनसे संत सुजाना।। नदी नाल में आवे जाई। सूत बिना धर परे बगाई।।
बच्चों! अब इसमें क्या बताया है कि सर्गुण क्या होता है? और निर्गुण कैसे होता है? एक तो उदाहरण उन्होंने दिया लोमस ऋषि ने गरीब दास जी बता रहे हैं कि, जैसे शिव की जटा कुंडली में गंगा आई सतलोक से चलकर। वह 6 महीने में, वह कुंडली भरी।
6 महीने के बाद, भरकर फिर वह ऊपर को चाली (चली)। तो इसी दौरान, भागीरथ ने, तप कर रहा था। उसने गंगा को पृथ्वी पर आने की, प्रार्थना की। वह तो वैसे भी आनी थी, वो राजी कर दिया (वह खुश कर दिया)।
लोमस ऋषि प्रसंग विस्तारी। सुनो गुरुड़ आदि कथा हमारी।। बहुर गया सर्गुण प्रसंगा। शिव की जटा रहे ज्यों गंगा।।
शिव की जटा कुंडली में जैसे गंगा रहे थी और तप करके भागीरथ लाए क्योंकि यहां एक यही कथा प्रसिद्ध है कि भागीरथ ने तप किया तो आई और एक आम कहावत है, “गंगा ने तो आना था और भागीरथ ने जस पाना था।।”
तप करके भागीरथ लाए। तीन लोक कीर्ति दर्शाए।। गुप्त वस्तु प्रगट दिखलाई। अब निर्गुण सर्गुण समझो भाई।।
यह बताया की जो वस्तु, हमें, हमारे पास नहीं है और हमें उसके गुणों का पता है। तो वह निर्गुण है क्योंकि वह है ही नहीं। हमारे को उसके गुणों का लाभ मिल ही नहीं सकता। वह उपलब्ध हो तो सर्गुण हो। हमारे पास हो तब आनंद आवे। यह बताया कि जैसे गंगा पृथ्वी पर नहीं थी वह निर्गुण थी।
पृथ्वी पर आ गई तो साकार आपके सामने चल रही है। सर्गुण हुई। नहाओ, धोवो, बढ़िया ताज़ा पानी साफ-सुथरा जल है, निर्मल जल पियो। मोक्ष की बात नहीं है। अब यह बताया कि एक तो यह example (एग्ज़ांपल-उदाहरण) दिया जैसे पहले गंगा पृथ्वी पर नहीं थी तो वह निर्गुण थी। अब सामने आ गई, सारे गुण हैं, लाभ मिले। फिर बताते हैं,
वृक्ष बीज में है सब ठोरा। जब उगे तब दिखे बौरा।।
अब क्या बता दिया जैसे;
गंगा को भागीरथ लाए। गुप्त वस्तु प्रगट दिखलाई।।
गुप्त थी वह ऊपर और वह सामने आ गई तो सर्गुण हो गई। जैसे बीज में पेड़ होता है और दिखाई नहीं देता, वह क्या काम आया? अब वह निर्गुण है और जब उसको बोयेंगे बीज को, पौधा बनेगा, पेड़ बन जाएगा। तो सर्गुण हो गया। ऐसे समझाने की चेष्टा की।
गुप्त वस्तु प्रगट दिखलाई। निर्गुण सर्गुण समझो भाई।।
अब कागभूषण्ड कहता है, कि मेरे यह समझ में आई नहीं। बुद्धि काम नहीं कर रही थी।
मैंने बार-बार विवाद किया। जिससे लोमस ऋषि ने श्राप दे दिया। लोमस ऋषि प्रसंग सुनाया।
दम बिन संख आवाज नराया।।
बहुत से उदाहरण दिए। लेकिन कागभूषण्ड अपनी अज्ञानता के कारण विवाद बढ़ाता ही चला गया।
कहे लोमस ऋषि सनुख भूसंडा। जीव नहीं पुष्ट होत बिन अंडा।। अंडे बिना तो पिंड ना हुई। पिंड अंडे का साक्षी सोई।।
हम नहीं समझा ज्ञान खगेशा। दिया श्राप हुआ प्रवेशा।।
मैं उसके ज्ञान को समझ नहीं पाया, मेरे को श्राप दे दिया।
वचन कहा जब ही चंडाला। कागा का मुख भया दयाला।।
लोमस ऋषि ने कहा रे चंडाल! तेरा तो चंडाल के घर जन्म होना चाहिए।
दिया श्राप युग युग केरा। गुरुड़देव आनंद मन मेरा।। तामस क्रोध नहीं हम कीन्हा। जब लोमस ऋषि दीक्षा दीन्हा।।
जब लोमस ऋषि ज्ञान सुनाया। सुनत ज्ञान चंडाल कहाया।। जप तप करणी कीर्ति सारा। सुनो भूषण्ड मेरे प्राण अधारा। कूट हिसान करो प्रहारा। कागचण्ड के दो अवतारा।।
अब लोमस ऋषि ने कहा, चलो ठीक है तेरे को भगवान की भक्ति याद रहेगी और जाकर कागचंड के जन्म लो। अब उसकी जन्म कथा बताई है, कि
सावित्री ब्रह्मा की दासी। पुत्री सेती ज्ञान विलासी।। ब्राह्मणी हंसनी पिड़वाई। कांगचण्ड के द्वारे आई।। ऋतुवंती हंसनी का पिंडा। भोग सयोंग किया है चंडा।। ब्रह्मलोक लीन्हा अवतारा। कुटिल रुप हंसो की मारा।।
यह कहते हैं;
ब्रह्मा जी का वाहन हंस है और एक हंसिनी है उनके पास। सावित्री हंसिनी पर चलती है।
हंसिनी गर्भधारण की स्थिति मे आई, ऋतु पर आई तो कागचंड के पास लेकर गई। वहां से उसको गर्भधारण करवाया, तो उससे कागभूषण्ड का जन्म हुआ। शरीर देवता का और मुंह काग का। तो बच्चों! इस प्रकार यह ज्ञान आपको इसलिए सुनाया जा रहा है कि जो गलतियां हम करते आए, अब नहीं दोहराएंगे। वह कहता है असंख जन्म तो गए व्यर्थ कोई शुरुआत भी नहीं बनी, इस धर्म-कर्म और भक्ति की। शुरुआत हुई, उसमें बकवाद आ गईं। एक लाख वर्ष नर्क भोगना पड़ा। बच्चों! फिर मनुष्य जीवन मिला, यह मन पापी फिर उस लोमस ऋषि के साथ, उसका वाद-विवाद हुआ, श्राप लग गया। उसके बाद, उसको फिर जब जन्म हुआ कागभूषण्ड के रूप में। तब परमात्मा उनको मिले जोगजीत रूप में। जब तक उसने जितना ज्ञान सुना था उससे हटकर एक ज्ञान सुनाया तो वह चक्कर काट गया। चरणों में गिर गया। उनको प्रथम मंत्र दिया और उसके बाद उसने पिछले दुख याद थे, कहां-कहां से कष्ट कितने भोगे थे। डटकर भक्ति करी। दीर्घायु हो गया। मोक्ष अभी दूर है। आगे बताते हैं, एक अलग से कहानी है इसमें आगे आएगी वह, की उसके बाद एक दिन मुझे ऋषि मिले ‘सतसुकृत’ नाम से। यानी खुद परमात्मा आते हैं, अच्छी आत्माओं को मिलते हैं। तब मालिक की दया हुई। उनको सच्चा ज्ञान, सच्ची भक्ति मिली। उसके बाद, उसका वह क्या होता है जैसे पढ़ाई शुरू हुई बच्चों!
कलम चढ़ी। पंडित जी से दीक्षा ली। शिव की भक्ति प्रारंभ की। फिर लोमस ऋषि से दीक्षा ली। जन्म हुआ दोबारा। अब भक्ति ऐसे धीरे-धीरे उसकी बढ़ती चली गई और फिर मालिक आकर मिल गए। अब उनको सच्चा ज्ञान सच्ची भक्ति का कुछ अंश दिया। उनको पूर्ण नहीं दी भक्ति। उस भक्ति को खूब डटकर किया उसने, जिससे उसको कागभूषण्ड का यह अमरत्व प्राप्त हुआ। इसकी बहुत लंबी उम्र हो गई। यह बातें बच्चों आपके आसानी से समझ में आएंगी, जो अभी तक दास नही बता पाया था। अब जैसे बच्चों! की ‘सतसुकृत’ रूप में भगवान मिले। यहां पर इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए, कभी सतसुकृत कहा? कभी जोगजीत कहा? जैसे जब परमात्मा प्रथम बार आए, तो उस समय कभी ‘जोगजीत’ रूप में, कभी ‘ज्ञानी’ रूप में, कभी ‘सहज दास’ रूप में। तो एक बार नहीं वह तो कई बार ऐसी लीला हो चुकी है। तो ‘जोगजीत या सतसुकृत’ आपका टारगेट कबीर साहेब पर हो। जैसे हम असुर निकंदन रमैनी पढ़ते हैं क्योंकि संत का जो दिमाग उस समय होता है वह मालिक से जुड़ा होता है और उसमें उनका रूप दिखाई देता है। वह किस रूप में होते हैं। कई बार लिखा और बोला कुछ और ही जाता है। जैसे पुराने लेख में भी फ़र्क हो जाता है।
वाहन गरुड़ कृष्ण असवारा। लक्ष्मी ढोरे चंवर अपारा।।
जबकि वाहन गरुड़, वाहन तो विष्णु जी का है, कृष्ण जी का नहीं है। लेकिन कृष्ण और विष्णु एक है इसलिए यहां कृष्ण शब्द गरीबदास जी ने बोल दिया। तो उनकी दृष्टि विष्णु के ऊपर थी ना कि only (ओनली-सिर्फ) कृष्ण पर। तो आप अपनी बुद्धि अब बिलकुल छोड़ देना। उस पर कोई ज़ोर ना देना। जिस तरह जो ज्ञान समझाया जाए उसके सार को ग्रहण करने की चेष्टा करो। अब सतगुरु जाकर जब मिले उसको, कागभूषण्ड को, उसके बाद उसको राह मिली कुछ भक्ति ठीक करने की। सिद्धियां उसमें आ गई। दीर्घायु हो गई और अब कभी, जब वह जन्म लेगा मनुष्य का, फिर से, उसके बाद फिर यह प्रोसेस शुरू होगा जैसे हम 600 साल पहले मालिक की शरण में आए।
वहां भी रह गए। उसके बाद फिर इस पूरे चक्कर में पड़े-पड़े आज हम यहां पहुंचे हैं। प्रत्येक प्राणी को ऐसे ही मोक्ष की राह मिलती है। आज आप परमेश्वर की कृपा से बच्चों! आप इस प्रोसेस से गुज़र चुके हो। आज आपका बिचली पीढ़ी वाली, परमात्मा की generation (जनरेशन-पीढ़ी) में आपका जन्म है। इसलिए मालिक ने आपके ऊपर यह कमाल किया है। कैसे उपकरण तैयार करवा दिए, कैसे सिस्टम बनवा दिये। घर बैठे आपको ज्ञान से रंगा जा रहा है उस मालिक की कृपा से। बच्चों! हम खाना, रोटी daily (डेली-रोज़) खाते हैं। सुबह, दोपहर, शाम और प्रत्येक टाइम अच्छी भूख लगती है। खाने को रुचि बनती है तो हम स्वस्थ हैं।
रोटी वही होती है, सब्जी में 19-21 फ़र्क हो सकता है। इसी प्रकार यह कथाएं, अमर कथा महापुरुषों की जीवनी, जितनी बार भी सुनें उतनी आत्मा को आत्म विभोर कर देंं, तो हमारी आत्मा स्वस्थ है हमारी पूरी रुचि रहे तो हम, हमारी आत्मा स्वस्थ है, कोई पाप निकट नहीं है। अरुचि बन जाती है तो समझो जैसे भूख में अरुचि बनती है अच्छा नहीं लगता भोजन, तो बुखार, कोई रोग निकट आ गया है। उसका इलाज है की कड़वी-कड़वी दवाई खाओ। रोग मुक्त होते ही फिर भूख लगेगी। आध्यात्मिक मार्ग के अंदर ट्रीटमेंट भी यही है। कोई पाप कर्म आगे अड़ गया। मन में दोष आ जाता है। परमात्मा की कथा-चर्चा में, कुछ अरुचि बनती है। वह ज़रूर सुनें, नहीं चाहते हुए सुनें। कुछ देर के बाद, अपने आप परमात्मा की कृपा होनी शुरू हो जाती है। अब क्या होगा कागभूषण्ड की बहुत लंबी उम्र हो गईं और जब कभी इसकी यह मृत्यु होगी उसके बाद फिर मानव शरीर में आएगा।
फिर से इसकी शुरुआत होवेगी। जैसे अब तो इस पर कलम चढ़ गई यह कहीं जाओ। कितना ही प्रसिद्ध बना रहो। कितनी ही इसकी महिमा बनी रहो मोक्ष नहीं है। यह फिर से मानव शरीर ठीक से धारण करेगा और मालिक फिर इसको मिलेगा। ऐसे फिर चारों युगों में चार्ज करता-करता इसको इस स्थिति में लाएगा जैसे आज आप हो। यह है इसका निष्कर्ष सारा। यह है, वह मूल ज्ञान। यह है तत्वज्ञान। तो आप ओये होये,
गरीब साधों सेती मस्करी, चोरां नाल खुशहाल। मल अखाड़ा जीतेंगे, यह युगन युगन के माल।।
आपने कितने पापड़ बेल रखे होंगे। जो आज इस स्थिति में आए हो, नोट कर लेना। यह कोई डूम भाट के गीत नहीं हैं। यह अमर कथा This is मूल ज्ञान। यह है वह मूल ज्ञान जो अब तक छुपाकर रखा हुआ था। अब किसे की तूती बोलो ब्रह्मा, विष्णु, महेश कितने ही प्रसिद्ध हो रहे हों, दो कौड़ी के जीव नहीं तुम्हारी तुलना में। इनको उस प्रोसेस से फिर गुज़रना होगा जिससे तुम गुज़र कर आ चुके हो। बच्चों! आंख खोल लो। परमात्मा की इस रज़ा को संभाल लो। कुर्बान हो जाओ। लिपट जाओ दाता के चरणों में। हे भगवान! और जीवन ना बढ़ाईयो। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे।।
सत साहेब