अध्याय 10 के श्लोक 2 में कहा है कि अर्जुन मेरी उत्पत्ति (जन्म) को न तो देवता जानते हैं, न ही महर्षि जन जानते हैं क्योंकि यह सब मेरे से पैदा हुए हैं। इससे स्वसिद्ध है कि ब्रह्म (काल) की उत्पति तो हुई है परंतु देवता व ऋषि नहीं जानते। जैसे पिता जी की उत्पत्ति को बच्चे नहीं बता सकते, परन्तु दादा जी जानता है। इसी प्रकार इक्कीस ब्रह्मण्ड में सर्व देव-ऋषि आदि ज्योति निरंजन - ब्रह्म अर्थात् काल तथा प्रकृति (दुर्गा) के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए कह रहा है कि मेरी उत्पत्ति को इक्कीस ब्रह्मण्डों में कोई नहीं जानता, क्योंकि सर्व की उत्पत्ति मेरे से हुई है। केवल पूर्ण ब्रह्म ही काल (ब्रह्म) की उत्पत्ति बता सकता है। क्योंकि ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति परम अक्षर ब्रह्म (पूर्ण ब्रह्म) से हुई है। जिसका गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में ब्रह्म की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अध्याय 10 के श्लोक 3 जो तत्वदर्शी अर्थात् विद्वान व्यक्ति मुझे तथा कभी न जन्म लेने वाले सर्व लोकों के महेश्वर अर्थात् अविनाशी परमात्मा को जानता है वह तीनों वेदों (ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद) को जानता है वह तत्वदर्शी सन्त है। उस के द्वारा बताए भक्ति मार्ग से साधना करने से सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं। गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16 17,18 में वर्णन है कि पूर्ण परमात्मा अविनाशी तो अन्य ही है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। मुझ (काल) को तो केवल इसलिए पुरुषोत्तम कहते हैं क्योंकि मैं इक्कीस ब्रह्मण्डों में मेरे आधीन स्थूल शरीर में नाशवान प्राणियों तथा अविनाशी जीवात्मा से उत्तम हूँ। इसलिए मुझे लोक वेद अर्थात् दन्त कथाओं के आधार से पुरुषोत्तम कहा है परंतु वास्तव में मैं अविनाशी या पालन कत्र्ता नहीं हूँ। गीता जी के अध्याय नं. 3 के श्लोक 14,15 में कहा है कि सर्वजीव अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, यज्ञ शुभकर्मों से, कर्म ब्रह्म से उत्पन्न हुए। ब्रह्म अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ। वही अविनाशी सर्वव्यापक परमात्मा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है, यज्ञों में पूज्य है, वही यज्ञों का फल भी देता है अर्थात् वास्तव में अधियज्ञ भी वही है।
फिर गीता जी के अध्याय 10 के श्लोक नं 2 में कहा है कि मेरी उत्पत्ति (प्रभवम्) को कोई नहीं जानता है। इससे सिद्ध है कि काल (ब्रह्म) भी उत्पन्न हुआ है। इसलिए यह कहीं पर आकार में भी है। नहीं तो कृष्ण जी तो अर्जुन के सामने ही खड़े थे। वे तो कह ही नहीं सकते कि मैं अनादि अजम (अजन्मा) हूँ। यह सर्व काल (अदृश ब्रह्म) ही श्री कृष्ण जी के शरीर में जीवस्थ रूप (प्रेतवत् प्रवेश करके) से बोल कर अपनी प्रतिष्ठा (स्थिति) की सही जानकारी गीता रूप में दे गया। उपरोक्त विवरण से गीता जी में सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की उत्पत्ति पूर्णब्रह्म से हुई है। यही प्रमाण अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्र 3 में भी है, कृपया निम्न पढ़ें-
काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र नं. 3:-
प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति।
ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ।।3।।
प्र-यः-जज्ञे-विद्वानस्य-बन्धुः-विश्वा-देवानाम्-जनिमा-विवक्ति-ब्रह्मः-ब्रह्मणः- उज्जभार-मध्यात्-निचैः-उच्चैः-स्वधा-अभिः-प्रतस्थौ
अनुवाद:- (प्र) सर्व प्रथम (देवानाम्) देवताओं व ब्रह्मण्डों की (जज्ञे) उत्पति के ज्ञान को (विद्वानस्य) जिज्ञासु भक्त का (यः) जो (बन्धुः) वास्तविक साथी अर्थात् पूर्ण परमात्मा ही अपने निज सेवक को (जनिमा) सर्व की उत्पत्ति कत्र्ता अपने द्वारा सृजन किए हुए को (विवक्ति) स्वयं ही ठीक-ठीक विस्तार पूर्वक बताता है कि (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा ने (मध्यात्) अपने मध्य से अर्थात् शब्द शक्ति से (ब्रह्मः) ब्रह्म-क्षर पुरूष अर्थात् काल को (उज्जभार) उत्पन्न करके (विश्वा) सारे संसार को अर्थात् सर्व लोकों को (उच्चैः) ऊपर सतलोक आदि (निचैः) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सर्व ब्रह्मण्ड (स्वधा) अपनी धारण करने वाली (अभिः) आकर्षण शक्ति से (प्रतस्थौ) दोनों को अच्छी प्रकार स्थित किया।
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात् अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष-काल) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्मण्डों को ऊपर सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हुआ है।
जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने अपने निजी सेवक अर्थात् सखा श्री धर्मदास जी, आदरणीय गरीबदास जी आदि को अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया। उपरोक्त वेद मंत्र भी यही समर्थन कर रहा है।
काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र 7
योऽथर्वाणं पितरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्।।7।।
यः-अथर्वाणम्-पितरम्-देवबन्धुम्-बृहस्पतिम्-नमसा-अव-च-गच्छात्-त्वम्- विश्वेषाम्-जनिता-यथा-सः-कविर्देवः-न-दभायत्-स्वधावान्
अनुवाद:- (यः) जो (अथर्वाणम्) अचल अर्थात् अविनाशी (पितरम्) जगत पिता (देवबन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार (बृहस्पतिम्) जगतगुरु (च) तथा (नमसा) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को (अव) सुरक्षा के साथ (गच्छात्) सतलोक गए हुओं को सतलोक ले जाने वाला (विश्वेषाम्) सर्व ब्रह्मण्डों की (जनिता) रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त (न दभायत्) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला (यथा) ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः कविर्-देवः) कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।
भावार्थ:- इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है, जिसने सर्व रचना की है।
जो परमेश्वर अचल अर्थात् वास्तव में अविनाशी (गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी प्रमाण है) जगत् गुरु, आत्माधार, जो पूर्ण मुक्त होकर सतलोक गए हैं उनको सतलोक ले जाने वाला, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, काल (ब्रह्म) की तरह धोखा न देने वाला ज्यों का त्यों वह स्वयं कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है। यही परमेश्वर सर्व ब्रह्मण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाता है तथा (पितरम्) पिता तथा (बन्धु) भाई भी वास्तव में यही है तथा (देव) परमेश्वर भी यही है। इसलिए इसी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तुति किया करते हैं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम् देव देव। इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त नं. 24 में विस्तृत विवरण है।
FAQs : "गीता ज्ञान दाता ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति का संकेत"
Q.1 ब्रह्म काल कौन है?
ब्रह्म काल 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है और इस लोक के सभी प्राणी इसके अंतर्गत आते हैं। ब्रह्म काल ने ही श्रीमद्भागवत गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवश प्रवेश कर दिया था। ब्रह्म काल ही ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी का पिता है और दुर्गा जी का पति है।
Q.2 वेदों में ब्रह्म काल की उत्पत्ति के बारे में क्या बताया गया है?
अथर्ववेद के काण्ड नं. 4 अनुवाक् नं.1 मन्त्र नं. 3 में यह वर्णन किया गया है कि: पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास (धर्म दास जी और सखा गरीबदास जी) को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात् अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्मण्डों को ऊपर सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हुआ है।
Q. 3 ब्रह्म और ब्रह्मा जी में क्या अंतर है?
ब्रह्म जिसे ज्योति निरंजन या फिर काल के नाम से भी जाना जाता है, यह 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है। यह ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी का पिता और देवी दुर्गा जी का पति है। रजोगुण ब्रह्मा जी देवी दुर्गा और ब्रह्म काल के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वह अपने पिता ब्रह्म काल के आधीन तीनों लोकों में निर्माण (संतानोत्पत्ति) का कार्य करते हैं।
Q.4 ब्रह्मा जी सहित सभी प्राणियों के जन्मदाता कौन हैं?
पूर्ण परमात्मा कबीर जी ही ब्रह्म सहित सभी देवी देवताओं के जन्मदाता हैं। इसका प्रमाण अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक् नं.1 मन्त्र नं. 7 में भी मिलता है। इसमें बताया गया है कि कबीर जी ही आत्माओं का सच्चा साथी और पिता, ब्रह्मांड का गुरु और जन्म–मृत्यु के चक्र से आत्माओं को मुक्त करने वाला अविनाशी परमेश्वर है। कबीर परमेश्वर सर्व ब्रह्मण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाता है तथा (पित्तरम्) पिता तथा (बन्धु) भाई भी वास्तव में यही है तथा (देव) परमेश्वर भी यही है। इसलिए इसी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तुति किया करते हैं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम् देव देव।। इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त नं. 24 में भी विस्तृत विवरण है।
Q.5 क्या ब्रह्म काल अमर है?
ब्रह्म काल नाश्वान है, लेकिन उसकी आयु 21 ब्रह्मांडों में सभी जीवित प्राणियों से अधिक है। लेकिन फिर भी अंत में यह मृत्यु को प्राप्त होता है। इसका प्रमाण पवित्र श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में है। यहां ब्रह्म काल स्वयं कहता है कि इसकी भी जन्म और मृत्यु होती है। गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में भी यह कहता है कि उसके और अर्जुन के कई जन्म हो चुके हैं। यह अर्जुन को कहता है कि जन्म –मृत्यु के बारे में तू नहीं जानता मैं जानता हूं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि ब्रह्म काल नाश्वान है और इसकी भी जन्म मृत्यु होती है।
Recent Comments
Latest Comments by users
यदि उपरोक्त सामग्री के संबंध में आपके कोई प्रश्न या सुझावहैं, तो कृपया हमें [email protected] पर ईमेल करें, हम इसे प्रमाण के साथ हल करने का प्रयास करेंगे।
Meghna
क्या श्री कृष्ण भगवान पुरुषोत्तम हैं?
Satlok Ashram
नहीं, यह सत्य नहीं है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम तो कोई अन्य ही है, जिसे परमात्मा कहा गया है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह वास्तव में अविनाशी है। गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म‘‘ है अर्थात् परम अक्षर पुरूष है। (पुरूष कहो चाहे ब्रह्म) गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में जो ’’उत्तम पुरूषः तु अन्यः परमात्मा इति उदाहृतः’’ कहा है, वह “परम अक्षर ब्रह्म” है, इसी को पुरूषोत्तम कहा है।