गीता अध्याय 18 श्लोक 64 में कहा है कि एक सर्व गुप्त से गुप्त ज्ञान एक बार फिर सुन कि यही पूर्ण परमात्मा (जिसके विषय में अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है) मेरा पक्का पूज्य देव है अर्थात् मैं (ब्रह्म क्षर पुरुष) भी उसी की पूजा करता हूँ। यह तेरे हित में कहूँगा। (क्यांेकि यही जानकारी गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी दी है। जिसमें कहा है कि मैं उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। इसलिए यहाँ कहा कि यही गुप्त से भी अतिगुप्त ज्ञान फिर सुन।)
विशेष - अन्य गीता के अनुवाद कर्ताओं ने गलत अनुवाद किया है। ‘‘इष्टः असि मे दृढ़म् इति‘‘ का अर्थ किया है कि तू मेरा प्रिय है। जबकि अर्थ बनता है
अध्याय 18 का श्लोक 64
सर्वगुह्यतमम्, भूयः, श्रृणु, मे, परमम्, वचः, इष्टः, असि, मे, दृढम्, इति, ततः, वक्ष्यामि, ते, हितम्।।
अनुवाद: (सर्वगुह्यतमम्) सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय (मे) मेरे (परमम्) परम रहस्ययुक्त (हितम्) हितकारक (वचः) वचन (ते) तुझे (भूयः) फिर (वक्ष्यामि) कहूँगा (ततः) इसे (श्रृणु) सुन (इति) यह पूर्ण ब्रह्म (मे) मेरा (दृढम्) पक्का निश्चित (इष्टः) पूज्यदेव (असि) है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 65 में गीता ज्ञान दाता प्रभु (काल भगवान क्षर पुरुष) कह रहा है कि यदि मेरी शरण में रहना है तो मेरी पूजा अनन्य मन से कर। अन्य देवताओं(ब्रह्मा, विष्णु, शिव) तथा पितरों आदि की पूजा त्याग दे। फिर मुझे ही प्राप्त ही होगा अर्थात् ब्रह्म लोक बने महास्वर्ग में चला जाएगा। मैं तुझे सत प्रतिज्ञा करता हूँ। तू मेरा प्रिय है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में कहा है कि यदि (एकम्) उस अद्वितीय अर्थात् जिसकी तुलना में अन्य न हो उस एक सर्व शक्तिमान, सर्व ब्रह्मण्डों के रचनहार, सर्व के धारण-पोषण करने वाले परमेश्वर की शरण में जाना है तो मेरे स्तर की साधना जो ॐ नाम के जाप की कमाई तथा अन्य धार्मिक शास्त्र अनुकूल यज्ञ साधनाएँ मुझ में छोड़(जिसे तूं मेरे ऋण से मुक्त हो जाएगा)। उस (एकम्) अद्वितीय अर्थात् जिसका कोई सानी नहीं है, की शरण में (व्रज) जा। मैं तुझे सर्व पापों (काल के ऋणों) से मुक्त कर दूंगा, तू चिंता मत कर।
विशेष - गीता के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने श्लोक 66 का अनुवाद गलत किया है। व्रज का अर्थ आना किया है जबकि व्रज का अर्थ जाना होता है। कृप्या वास्तविक अनुवाद निम्न पढ़ें -
अध्याय 18 का श्लोक 66
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।
अनुवाद: (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर।
FAQs : "गीता ज्ञान दाता ब्रह्म का ईष्ट (पूज्य) देव पूर्णब्रह्म है"
Q.1 गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञानदाता अर्जुन को क्या कहता है?
गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञानदाता ने अर्जुन को पूर्ण परमात्मा की शरण में जाने को कहा है। इसमें गीता ज्ञानदाता कहता है कि उस परमेश्वर की कृपा से ही अर्जुन तुझे परम शांति और अमरलोक की प्राप्ति होगी।
Q.2 भगवद गीता के 18वें अध्याय का सार क्या है?
18वें अध्याय में गीता ज्ञानदाता बहुत गहरा ज्ञान देता है। इसमें वह अर्जुन से कहता है कि यदि वह एक भाव से उसकी (गीता ज्ञानदाता की) पूजा करेगा तो वह उसे प्राप्त कर लेगा। लेकिन अमरलोक और परम आनंद की प्राप्ति के लिए तो पूर्ण परमात्मा की शरण में जाना होगा।
Q. 3 गीता का अंतिम अध्याय कौन सा है?
श्रीमद्भगवद्गीता का अंतिम अध्याय 18वां अध्याय है।
Q.4 गीता के अध्याय 18 श्लोक 66 का सार क्या है?
इसमें गीता ज्ञानदाता कहता है कि सभी धार्मिक अनुष्ठानों को त्यागकर केवल एक पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी की ही शरण में जाना चाहिए। केवल पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी ही सभी पापों से मुक्ति दे सकता है।
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Vinay Katiyar
गीता का सार कहता है कि सब कुछ ईश्वर ही करता है, इसीलिए जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। भविष्य में जो होगा वह भी अच्छा होगा। हमें अपना कर्म करते रहना चाहिए। यही सही भक्ति है।
Satlok Ashram
श्री कृष्ण जी गीता ज्ञानदाता नहीं हैं। गीता का सार यह है कि मनुष्य को सर्वप्रथम तत्वदर्शी संत की खोज करके उनकी शरण में जाना चाहिए। उसके बाद तत्वदर्शी संत के बताए अनुसार सच्ची भक्ति करनी चाहिए और मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।