काल ब्रह्म के इस लोक में भगवान विष्णु जी पालनहार भगवान के रूप में हिंदुओं द्वारा अत्यधिक पूजनीय हैं। सतोगुण के स्वामी श्री विष्णु जी को नारायण और वासुदेव के नाम से भी जाना जाता है और उन्हें सर्व प्राणियों का रचनाहार, सभी प्राणियों का पालन करने वाला भगवान माना जाता है। वैष्णव संप्रदाय के भक्त और अनुयायी मानते हैं कि विष्णु जी ही ब्रह्मांड के स्वामी हैं, विराट-पुरुष हैं, जो हर जगह व्याप्त हैं। वह परमात्मा अर्थात् सर्वोच्च आत्मा, मोक्ष प्राप्त आत्माओं के परम साध्य ईश्वर हैं।
परन्तु, हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों के गहन अध्ययन से, कई छिपे हुए आध्यात्मिक तथ्य सामने आए हैं, जो साबित करते हैं कि भगवान विष्णु जी और हिंदू धर्म के 33 करोड़ देवी-देवता ये सभी नाशवान हैं। सतोगुणी भगवान विष्णु जी, जिनकी सदियों से अविनाशी (अव्ययः) के रूप में पूजा की जाती रही है, वे तो वास्तव में जन्म और मृत्यु के चक्र में हैं। वे नाशवान हैं, उनकी आयु निश्चित है। वे बार-बार अवतार लेते हैं। इसलिए उन्हें देवताओं (अर्धदेव) की श्रेणी में गिना जाता है, क्योंकि पवित्र हिंदू ग्रंथों, पवित्र वेदों और गीता जी में परमात्मा की परिभाषा में उनकी अमर-अविनाशी रूप में महिमा गाई गई है। जबकि उस सर्वज्ञ भगवान की परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष/ पूर्ण परमात्मा के नाम से महिमा की गई है, वह स्वयंभू है तथा परमधाम सतलोक (धूलोक) के तीसरे भाग में रहता है। वह तीनों लोकों का पालन-पोषण करता है। तो यहाँ सवाल उठता है - हिंदू धर्म में देवता/ अर्धदेव कौन है? क्या विष्णु जी पूर्ण भगवान है?
इस लेख के माध्यम से हम ये समझने का प्रयास करेंगे कि
- अविनाशी परमात्मा और विष्णु जी के बीच में क्या अंतर है?
- वह पूजनीय प्रभु कौन है, जो रक्षक भी है और मुक्ति दाता भी है?
सबसे पहले हम जानेंगे कि,
- ऐसे अर्धदेव विष्णु जी की पूजा करने का क्या अर्थ है, जो स्वयं जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे हुए हैं और शैतान, ब्रह्म काल के जाल में फंसी आत्माओं को मुक्त नहीं कर सकते?
- भक्त होने के बावजूद भी कुछ हिंदू अपने अर्धदेवों की पूजा में क्यों लगे रहते हैं?
- संकट आने पर विष्णु जी किनसे मदद मांगते हैं?
- सूक्ष्मवेद में श्री विष्णु जी से अन्य कौन से पूर्ण परमेश्वर की पूजा के बारे में प्रमाण दिया गया है?
इस लेख में निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है -
- भगवान विष्णु जी का स्वरूप और वाहन
- विष्णु जी किस के भगवान हैं?
- प्रथम पुरुष (भगवान) कौन है?
- विष्णु जी के दादा कौन हैं?
- भगवान विष्णु जी के पिता कौन हैं?
- भगवान विष्णु जी की माता कौन है?
- विष्णु जी की उत्पत्ति किसने की?
- विष्णु जी की पत्नी कौन है?
- विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी की उत्पत्ति
- विष्णु जी का मोहिनी रूप
- भगवान विष्णु जी की आयु
- विष्णु जी की शक्ति
- मानव शरीर में बने कमल चक्रों में विष्णु जी का स्थान
- मानव शरीर में बने कमल चक्रों में विष्णु जी के पिता काल ब्रह्म का स्थान
- मानव शरीर में बने कमल चक्रों में विष्णु जी की माता का स्थान
- भगवान विष्णु जी के पिता महाविष्णु (काल ब्रह्म) का मंत्र क्या है?
- विष्णु जी का मंत्र क्या है?
- विष्णु जी के माता-पिता कहाँ रहते हैं?
- विष्णु जी कहाँ रहते हैं?
- भगवान विष्णु जी का रंग नीला क्यों है?
- ब्रह्मा और विष्णु जी के बीच में युद्ध क्यों हुआ?
- क्या विष्णु जी ने गंगा जी से विवाह किया है?
- विष्णु जी ने सुखदेव ऋषि को क्यों डांटा?
- विष्णु जी का सबसे बड़ा शत्रु कौन है?
- विष्णु जी ने नरसिंह अवतार क्यों लिया?
- क्या विष्णु जी ने राक्षस शंखासुर को मारा था?
- विष्णु जी को क्या श्राप लगा था?
- 51 शक्तिपीठों की स्थापना में विष्णु जी की भूमिका
- सभी देवताओं के पिता कौन है, क्या वे विष्णु जी हैं?
- विष्णु जी किसका ध्यान करते हैं?
- विष्णु जी सर्वशक्तिमान परमात्मा को नहीं जानते थे, राम उर्फ विष्णु जी को राम सेतु बनाने में किसने मदद की?
- राम उर्फ विष्णु जी को नागफांस से किसने मुक्ति दिलाई?
- राम उर्फ विष्णु जी की रावण को मारने में किसने मदद की?
- गोवर्धन पर्वत उठाने में कृष्ण उर्फ विष्णु जी की सहायता किसने की?
- क्या कृष्ण उर्फ विष्णु जी ने बढ़ाई थी द्रौपदी की साड़ी?
- क्या श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ही भगवत गीता के ज्ञानदाता हैं?
- विष्णु जी को लात क्यों मारी गई?
- कौन सा भगवान नारायण है - क्या विष्णु जी हैं?
- असली वासुदेव कौन है - क्या वह विष्णु जी हैं?
- सर्वशक्तिमान परमात्मा ने विष्णु रूप धारण करके भगवान शिव को राक्षस भस्मागिरि से बचाया
- क्या बुद्ध विष्णु जी के अवतार हैं?
- क्या विष्णु जी होंगे कल्कि अवतार?
- विष्णु पुराण का सार
- नाशवान भगवान महाविष्णु और विष्णु मोक्ष नहीं दे सकते
- ब्रह्मांड का स्वामी कौन है?
पाठकों, सूक्ष्म वेद के विषय मे बहुत कम लोगों को जानकारी है। यह एक पवित्र ग्रंथ है, दरअसल यह पांचवां वेद है, जो सच्चिदानंद घन ब्रह्म के अमृत वचनों का एक संग्रह है, जिसमें सत्पुरुष/ परम अक्षर ब्रह्म और उनके द्वारा की गई ब्रह्मांड की अद्भुत रचना के बारे में जानकारी है और यह सभी आध्यात्मिक तथ्यों का आधार है। यहाँ उसी के विचार को ध्यान में रखकर भक्त समाज को श्री विष्णु जी के बारे में बहुत ही कम ज्ञात सत्य से रुबरु करवाया गया है। यहां दर्शित अमृत वाणियां आदरणीय संत गरीब दास जी महाराज ने अपने मुख कमल से बोली है, जिसका आधार संपूर्ण जगत के रचयिता परमात्मा कविर्देव द्वारा उन्हें दिया गया सत्य आध्यात्मिक ज्ञान है।
भगवान विष्णु जी का स्वरूप और वाहन
संदर्भ: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, वाणी नं. 59, पृष्ठ नं.142 पर,
शंख चक्र गदा पदं विराजै। भाल तिलक जाकै उर साजै।।59
अर्थ: विष्णु जी शंख, चक्र, गदा और पदम धारण करते है। उनके मस्तिष्क के बीच में लगा हुआ तिलक बहुत ही सुंदर लगता है।
वाणी नं. 60
वाहन गरुड़ कृष्ण असवारा। लक्ष्मी ढोरे चंवर अपारा।। 60
अर्थ: गरूड़ आपका वाहन है। आपने ही कृष्ण के रूप में जन्म लिया। आपकी पत्नी लक्ष्मी जी आपके ऊपर चंवर करके आपका सम्मान करती है।
जैसा कि ऊपर बताई गई वाणी में पालनहार, अर्धदेव, कमल-नयन विष्णु जी के स्वरूप का खूबसूरती से वर्णन किया गया है। उन्हें 'गरुड़ध्वज' कहा जाता है, जिसका अर्थ है, पक्षियों के राजा गरुड़ पर सवारी करने वाला।
विष्णु जी को केशव अर्थात सुंदर बालों वाला कहकर नमस्कार किया जाता है। वह 'पुष्कराक्ष' है, जिसका अर्थ है सुंदर कमल जैसी आंखों वाला।
काल ब्रह्म के 21 ब्रह्मांड में विष्णु जी की क्या भूमिका है?
भगवान विष्णु जी सतोगुण से युक्त हैं। उनकी भूमिका अपने पिता ब्रह्म काल के 21 ब्रह्मांडों में प्राणियों की रक्षा करना और उन्हें एक-दूसरे के साथ प्रेम मोह-ममता में बांधे रखना है। वो पालनहार देवता हैं। वो काल लोक में प्राणियों की रक्षा करते हैं।
प्रथम पुरूष (भगवान) कौन है?
सर्वशक्तिमान परमात्मा कविर्देव, कर्मफल के दाता (विधाता), मुक्ति दाता ही प्रथम एवं एकमात्र पूर्ण परमेश्वर हैं, जो अनादि काल से हैं। जब कुछ भी नहीं था, दुनिया खाली और वीरान पड़ी थी, कोई जीव-जंतु नहीं थे, कोई नहीं था, कोई ग्रह नहीं थे, पांच तत्व यानी आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, कोई जानवर, पौधे, कोई अवतार आदि नहीं थे, यहां तक कि तीन गुण भी नहीं थे। तीन गुण ― रजोगुण ब्रह्मा, सतोगुण विष्णु, तमोगुण शिव, यहां तक कि विश्वकर्मा, शेषनाग, गणेश, 84 सिद्ध पुरुष, 33 कोटि देवता भी उस समय अस्तित्व में नहीं थे। एकमात्र परमेश्वर जिनको सूक्ष्म वेद में परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष के रूप में वर्णित किया गया है, केवल वही अस्तित्व में थे। वह स्वयंभू हैं और अविनाशी लोक, सतलोक में रहते हैं।
इसका प्रमाण पवित्र कबीर सागर, अध्याय कबीर वाणी, बोध सागर में और संत गरीब दास जी महाराज की अमृत वाणी में आदि रमैनी (सदग्रंथ, पृष्ठ नं. 690 से 692) और पवित्र श्रीमद् भगवद गीता में मिलता है।
सन्दर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक वाणी नं. 2-11, पृष्ठ नं.171-172 पर,
जा दिन ना थे पिंड ना प्राणा, नहिं पानी पवन जिमि असमाना।।2
कच्छ मच्छ कुरम्भ न काया, चंद सूर न दीप बनाया।।3
शेष महेश गणेश न ब्रह्मा, नारद शारद न विश्वकर्मा।।4
सिद्ध चौरासी न तेंतीसों, नौ औतार नहीं चौबीसों।।5
पांच तत्त नाहीं गुन तीना, नाद बिंद नाहीं घट सीना।।6
चित्रगुप्त नहीं कृत्रिम बाजी, धर्मराय नहीं पंडित काजी।।7
धुंधुकार अनंत जुग बीते, जा दिन कागज कहो किन चीते।।8
जा दिन थे हम तखत खवासा, तन के पाजी सेवक दासा।।9
संख जुगन परलौ परवाना, सतपुरुष के संग रहाना।।10
दास गरीब कबीर का चेरा, सतलोक अमरापुर डेरा।।11
प्रथम ईश्वर, एक ईश्वर के बारे में पवित्र कुरान शरीफ, सुरत फुर्कानि 25: आयत 52-59, पवित्र बाइबिल उत्पत्ति ग्रंथ अय्यूब 36:5 (और्थोडौक्स यहूदी बाइबल - OJB) तथा पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी प्रमाण मिलता है।
विष्णु जी के दादा, पिता तथा माता कौन हैं?
सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता, सर्व आत्माओं के जनक पूर्ण परमात्मा कविर्देव विष्णु जी के दादा हैं। ब्रह्म काल/ ज्योति निरंजन/ शैतान, 21 ब्रह्माण्ड का मालिक, भगवान विष्णु जी के पिता हैं। देवी दुर्गा / शेरावाली / अष्टांगी / प्रकृति देवी हैं जिन्होंने विष्णु जी को जन्म दिया।
विष्णु जी के माता-पिता का प्रमाण श्रीमद् देवी भागवत महापुराण तृतीय स्कंद, पृष्ठ 114-118, पृष्ठ 11-12, अध्याय 5 श्लोक 12, पृष्ठ 14 इसी अध्याय के श्लोक 43 में तथा पवित्र शिव पुराण, रूद्र संहिता, 6ठे एवं 7वें अध्याय पृष्ठ 98-103, में वर्णित है। संपादक हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार, प्रकाशक हैं, गीता प्रेस गोरखपुर, गोबिंद भवन कार्यालय, कोलकाता संस्थान, गोरखपुर।
इसी का उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में किया गया है।
माया रूप देख अति शोभा, देव निरंजन तन मन लोभा।।
धरमराय किन्हा भोग विलासा, माया को रही तब आसा।।
तीन पुत्र अष्टांगी जाए, ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।।
पवित्र कबीर सागर (सूक्ष्म वेद) अध्याय ज्ञान बोध, खंड बोध सागर में, खंड 1, जो कबीर पंथी, भारत पथिक स्वामी युगलानंद बिहारी द्वारा संपादित है, प्रकाशक और मुद्रक हैं खेमराज श्री कृष्णदास प्रकाशन, अध्यक्ष श्री वेंकटेश्वर प्रेस, खेमराज श्री कृष्णदास रोड, मुंबई। इसमें प्रमाण है, भगवान सदाशिव/ ब्रह्म-काल का विवाह देवी दुर्गा से हुआ है। वे पति-पत्नी हैं।
विष्णु जी की उत्पत्ति किसने की?
यद्यपि सभी आत्माओं की उत्पत्ति सर्वशक्तिमान परमात्मा कविर्देव ने अपनी शब्द शक्ति से अमरलोक सतलोक में की थी, जहाँ से निष्कासित करने के बाद उन्हें देवी दुर्गा के अंदर बीज रूप में डाल दिया गया था, भगवद् गीता अध्याय 14, श्लोक 3-5 से साबित होता है कि ब्रह्म काल, आदि प्रकृति/ दुर्गा के गर्भ में बीज देने वाला पिता है, फिर उनके मिलन से सभी प्राणी इनके 21 ब्रह्मांडों में उत्पन्न होते हैं।
यही स्थिति सतोगुणी भगवान श्री विष्णु जी की भी है। इन दोनों (ब्रह्म काल और दुर्गा) के द्वारा ही विष्णु जी की उत्पत्ति हुई। इसके अलावा, उनके बड़े भाई रजोगुण ब्रह्मा और छोटे भाई तमोगुण शिव/ शंकर को भी ब्रह्म काल और दुर्गा ने जन्म दिया था।
विष्णु जी की पत्नी कौन है?
संदर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, वाणी नं 9-10, पृष्ठ नं.130 पर,
ब्रह्मा विष्णु और शम्भू शेषा। तीनों देव दयालु हमेशा।।9
सावित्री और लक्ष्मी गौरा। तीनों देवा सिर कर है चौरा।।10
अर्थ: त्रिदेव भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव दयालु हैं। उनकी पत्नियाँ उन पर आदर और सम्मान से चंवर डुराती हैं। सावित्री देवी अपने पति श्री ब्रह्मा जी के ऊपर और लक्ष्मी देवी श्री विष्णु जी के ऊपर चंवर डुराती हैं। इसी प्रकार माता पार्वती श्री शिव जी पर चंवर करती हैं।
वाणी नं. 60, पृष्ठ नं.142 पर,
वाहन गरुड़ कृष्ण असवारा। लक्ष्मी ढोरे चंवर अपारा।।60
अर्थ: विष्णु जी की सवारी गरुड़ है। उनकी पत्नी लक्ष्मी जी उनके ऊपर चंवर डुराकर उनका सम्मान करती है। देवी लक्ष्मी के पति होने के कारण भगवान विष्णु को 'माधव' और 'श्रीमन' कहा जाता है।
विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी की उत्पत्ति
संदर्भ: सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी,
देवी लक्ष्मी देवी दुर्गा का ही रूप हैं, जो सागर मंथन के समय समुद्र से निकली थीं। जब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव युवा हुए तो उनके पिता ब्रह्म काल ने अपनी पत्नी दुर्गा जी को निर्देश दिया कि वह अपने तीन पुत्रों को सागर मंथन करने के लिए भेजें और उनका विवाह भी करें ताकि उसके 21 ब्रह्मांडों में सृजन, पालन और विनाश का कार्य सुचारू रूप से चल सके। तब देवी दुर्गा ने अपने तीन रूप बनाए और गुप्त रूप से उन्हें समुद्र में छिपा दिया। निश्चित समय पर जब सागर का मंथन किया गया, तो तीन युवा लड़कियाँ निकलीं, जिनकी शादी त्रिदेवों से हुई थी। बाहर आने वाली पहली कन्या से ब्रह्मा जी का विवाह हुआ। उसका नाम सावित्री रखा गया। दूसरी कन्या लक्ष्मी थी, जिसका विवाह विष्णु जी से और तीसरी कन्या उमा थी, जिसका विवाह शिव जी से हुआ।
विष्णु जी का मोहिनी रूप
ब्रह्म काल का जाल बहुत ही खतरनाक है, जिससे 21 ब्रह्मांडों में न तो राक्षस और न ही देवता अछूते रहते हैं। यह उस घटना से स्पष्ट होता है, जब भगवान विष्णु जी ने राक्षसों के साथ-साथ अपने छोटे भाई शिव/ शंकर को भी छलते हुए एक मनोरम मोहिनी रूप धारण किया था।
ब्रह्म-काल के लोक में मृत्यु सनातन सत्य है। आत्मा अमर है किन्तु अज्ञानतावश इस नाशवान संसार में अमरता प्राप्त करने की तलाश में भटकती रहती है। ब्रह्म काल छल करता रहता है। उसने पालन करने की जिम्मेदारी अपने बेटे विष्णु को सौंपी है।
आइए जानते है, एक बार समुद्र मंथन के प्रसिद्ध प्रसंग में श्री विष्णु जी के माध्यम से काल ब्रह्म द्वारा राक्षसों के साथ किया गया छल
देवताओं और राक्षसों ने क्षीर सागर का मंथन किया, जिसमें से कई बहुमूल्य रत्न, मोती, विष आदि निकले। भगवान शिव ने विष पी लिया और उसे अपने कंठ में धारण कर लिया। ये बात तो सभी जानते हैं। इसके बाद पुनः समुद्र मंथन किया गया। जब अमृत से भरा कलश बाहर आया तो 21 ब्रह्मांडों के देवताओं के साथ-साथ राक्षसों ने भी अमरता प्राप्त करने के इरादे से उसे हथियाने की कोशिश की। उस समय विष्णु जी ने राक्षसों को छलने के लिए लुभावनी स्त्री का मोहिनी रूप धारण किया ताकि दुष्ट आत्माएं अमृत पीने से वंचित रह जाएं। क्योंकि यदि वे अमर हो जाएंगे तो अराजकता और विनाश करेंगे। विष्णु जी के सुंदर मोहिनी रूप ने राक्षसों को कामुक बना दिया और छल से विष्णु जी ने अमृत देवताओं को पीने के लिए दे दिया।
यहां गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रह्म के लोक में कोई भी अमर नहीं है, यहां तक कि वह स्वयं भी नहीं। लेकिन देवता इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं। अमृत पीने से उन्हें अमरता प्राप्त होती है, यह एक मिथक है। यह बहुत बड़ा काल का जाल है, जिसका खुलासा परमात्मा कविर्देव ने किया है।
यहां तक कि 21 ब्रह्मांडों के महान योगी यानी भगवान शिव भी विष्णु जी के स्त्री रूप यानी मोहिनी रूप के मनोरम आकर्षण से खुद को नहीं बचा सके, जबकि उन्होंने काम जैसे विकार पर विजय पाने के इरादे से युगों तक तपस्या करने के बाद कामदेव को जीतने का दावा किया था, जब वो उमा/ सती/ पार्वती की मृत्यु से व्यथित थे।
इन दोनों प्रसंगों में जहाँ विष्णु जी ने मोहिनी रूप धारण करके छल किया, यह स्पष्ट करता है कि प्राणियों में विकार कभी समाप्त नहीं होते, चाहे वे किसी भी रूप में हों और कुटिल काल ब्रह्म, परमात्मा के बच्चों के साथ बेईमानी करता रहता है।
विकार मरे मत जानियो, ज्यूँ भूभल में आग ।।
भगवान विष्णु जी की आयु
श्री विष्णु जी जन्म और मृत्यु के चक्र में हैं। जो श्रद्धालु उन्हें परमात्मा और अविनाशी मानते हैं, वे अज्ञान-अंधकार में जी रहे हैं। सूक्ष्मवेद के प्रमाण से सिद्ध होता है कि विष्णु जी की आयु सीमित है, जो उनके बड़े भाई श्री ब्रह्मा जी की आयु से सात गुना अधिक है।
इन प्रभुओं की आयु की गणना दिव्य वर्ष/ देव वर्ष में की जाती है। ब्रह्मा जी का एक दिन एक हजार चतुर्युग (4 युग) के बराबर होता है। रात्रि की अवधि भी इतनी ही होती है। ब्रह्मा की आयु - 720000 × 100 = 72000000 (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग होती है।
इस गणना के अनुसार भगवान विष्णु जी की आयु ब्रह्मा जी से सात गुना अधिक है। यानी 72000000 × 7 = 504000000 (पचास करोड़ चालीस लाख) चतुर्युग।
इस अवधि को पूरा करने के बाद विष्णु जी की आत्मा ब्रह्म काल के लोक में अन्य सामान्य प्राणियों के समान 84 लाख योनियों में पीड़ा भोगती है। फिर दूसरी योग्य आत्मा को दुर्गा और काल द्वारा सतोगुण विभाग के मंत्री (प्रधान) की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है।
श्री विष्णु जी की शक्तियां
21 ब्रह्मांडों में सतोगुण विभाग को संभालने वाले कमल-नयन श्री विष्णु पालनहार भगवान हैं। वह देवताओं और प्राणियों की रक्षा करने के लिए राक्षसों से युद्ध करते हैं और शांति स्थापित करते हैं। सूक्ष्मवेद की निम्नलिखित वाणी इसे और अधिक विस्तृत तरीके से बताती है।
सन्दर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक की वाणी नं. 57, पृष्ठ नं. 142,
विष्णुनाथ है असुर निकंदन। संतो के सब काटै फंदन।।57
अर्थ: श्री विष्णु नाथ जी राक्षसों का नाश करने वाले हैं और अपने भक्तों-साधकों के सभी बंधन काट देते हैं।
वाणी नं. 62-63, पृष्ठ 143 पर,
जरासिंध और बालि खपाये। कंस केशी चाणौर हराये।।62
कालीदह में नागि नाथा । शिशुपाल चक्र से काटा माथा ।।63
अर्थ: विष्णु जी ने जरासिंध और बाली (त्रेता युग में रामचन्द्र अवतार में सुग्रीव के भाई) का वध किया था। उन्होंने केशी राक्षस का वध किया, जो द्वापर युग में घोड़े का रूप धारण कर बालक कृष्ण को मारने गया था। विष्णु जी ने (कृष्ण अवतार में) कंस और पहलवान केशी तथा चाणौर का वध किया। कालीदह की कृष्णा नदी में उन्होंने कालिया नाग के फन पर चढ़कर नृत्य किया, फिर बैल के नाक की तरह उसके नाक में रस्सी बांध दी, साथ ही उन्होंने शिशुपाल को सुदर्शन चक्र से मार डाला।
वाणी नं. 64-65, पृष्ठ 143 पर,
कालयवन मथुरा पर धाये। 18 कोटि कटक दल चढ़ आये।।64
मुचकन्द पर पीताम्बर डारीया। कालयवन जहाँ बेग सिन्घार्या।।65
अर्थ: जब कृष्ण जी ने कंस का वध कर दिया तो कालयवन ने श्रीकृष्ण जी को मारने के इरादे से 18 करोड़ सैनिकों की सेना लेकर तेजी से मथुरा की ओर कूच किया और आक्रमण कर दिया। उस वक्त राजा अग्रसेन (कंस के पिता) ने कृष्ण जी (देवकी के पुत्र) को मथुरा का राजा नियुक्त किया था। युद्ध के दौरान कृष्ण जी ने देखा कि उनकी सेना संख्या में कम थी और कालयवन की विशाल सेना को हराने में असमर्थ थी। इसलिए वह युद्ध करना छोड़ कर, रण-मैदान से भाग गए। जिसके कारण उनका नाम भगवान 'रणछोड़' पड़ा।
वास्तव में यह कालयवन को राजा मुचकन्द द्वारा मरवाने की युक्ति थी। क्योंकि मुचकन्द राजा ने एक सिद्धि प्राप्त की थी। वह एक गुफा के अंदर रहता था और छह महीने सोता था और छह महीने जागता था। यदि इससे पहले ही उसको जगा दिया गया जाए तो उसकी आंखों से अग्नि बाण अपने आप छूट जाते और उसकी नींद को भंग करने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता। कृष्ण जी ने मुचकन्द को अपने पीताम्बर (पीली चादर) से ढक दिया और अंधेरे में गुफा के एक कोने में छिप गये। कालयवन ने मुचकन्द को ही कृष्ण समझ लिया और उसकी नींद में खलल डालकर उसे उठा दिया। मुचकन्द क्रोधित होकर खड़ा हो गया तभी उसकी आँखों से अग्नि बाण छूटे, जिससे कालयवन भस्म हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद कृष्ण जी ने मथुरा छोड़ दी और गुजरात के द्वारका में आकर बस गये।
पृष्ठ नं.144 पर, वाणी नं.66,
परसुराम बावन अवतारा। कोई न जाने भेद तुम्हारा।।66
अर्थ: माना जाता है कि परशुराम विष्णु जी के अवतार थे, जिन्होंने सभी अहंकारी क्षत्रियों को अपनी कुल्हाड़ी से मार डाला था। आपके (विष्णु जी के) रहस्यों को कोई नहीं जानता।
वाणी नं. 68, पृष्ठ नं.146-147 पर,
राम अवतार रावण की बेरा। हनुमंत हाका सुनि सुमेरा।।68
अर्थ: विष्णु जी ने राक्षस रावण को मारने के लिए त्रेता युग में अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ रामचन्द्र के रूप में अवतार लिया। भक्त हनुमान भी उनकी मदद के लिए आये थे। हनुमान जब गर्जना करके रावण को मारने दौड़े तो वह दहाड़ सुमेरु पर्वत पर निवास करने वाले देवताओं ने भी सुनी थी।
विष्णु जी की शक्ति की महिमा यह है कि वह राक्षसों और दुष्टों का नाश करने वाले तथा देवताओं और प्राणियों के रक्षक हैं।
मानव शरीर में बने कमल चक्र में विष्णु जी का स्थान
संदर्भ: पवित्र कबीर सागर, कबीर वाणी अध्याय में पृष्ठ नं.111 पर,
पूज्य संत गरीबदास जी महाराज ने 'ब्रह्मबेदी' में मनुष्य के शरीर में रीढ़ की हड्डी के भीतरी भाग में निवास करने वाले देवी-देवताओं का सुंदर वर्णन किया है।
भगवान विष्णु जी अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ 'नाभि कमल/चक्र' में निवास करते हैं। वह 8 पंखुड़ियों वाले इस कमल चक्र का नेतृत्व करते हैं। इसका जाप 6000 बार किया जाता है। निम्नलिखित अमृत वाणी इसी बात को प्रमाणित करती है।
नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहाँ लक्ष्मी संग वास है।।
हरियम नाम जपंत हंसा, जानत बिरला दास है।।
मानव शरीर में बने कमल चक्र में विष्णु जी के पिता महाविष्णु का स्थान
ब्रह्म-काल, सतोगुण भगवान विष्णु जी का पिता है, जो 21 ब्रह्मांडों में बने गुप्त सतोगुण प्रधान क्षेत्र में रहता है, उसे महाविष्णु कहा जाता है। मानव शरीर में ब्रह्म काल/ महाविष्णु करोड़ों अन्य युवा देवताओं के साथ 'संगम कमल', जिसकी 3 पंखुड़ियाँ हैं, उसकी एक पंखुड़ी में विराजमान है। यह मन द्वारा शासित होता है। सर्वशक्तिमान परमात्मा कबीर जी भी यहां दूसरी पंखुड़ी में निवास करते है और 72 करोड सुंदर देवियों के साथ सरस्वती रूप में देवी दुर्गा भी यहां अन्य पंखुड़ी में निवास करती हैं।
काल ब्रह्म सहस्त्र कमल चक्र में भी रहता है। यह चक्र सिर के पीछे ऊपर की ओर स्थित होता है, जहां कुछ लोग चोटी बनाकर रखते हैं। इसमें 1000 पंखुड़ियाँ हैं। इसका प्रमाण भवतारण बोध के पृष्ठ 111 (957) तथा पृष्ठ 57 (903) पर वर्णित है।
सन्दर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, वाणी नं. 8, पृष्ठ नं.102
सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यों फूलन मध्य गंध है। पुर रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।।8
मानव शरीर में बने कमल चक्रों में विष्णु जी की माता का स्थान
भगवान विष्णु जी की माता देवी दुर्गा जी रीढ़ की हड्डी में गर्दन के पीछे हृदय कमल के ऊपर स्थित कंठ कमल में निवास करती हैं। इसकी 16 पंखुड़ियाँ हैं। इसका जाप 1000 बार किया जाता है। यहां दुर्गा (अविद्या) अपने पति काल के साथ सूक्ष्म रूप में निवास करती हैं। यह निम्नलिखित वाणी संख्या 6 का अर्थ है-
कंठ कमल में बसे अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही।। लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।।6
भगवान विष्णु जी के पिता महाविष्णु का मंत्र क्या है?
श्रीमद्भगवदगीता का ज्ञान दाता महाविष्णु/ ब्रह्म-काल है। परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष को प्राप्त करने का सच्चा मोक्ष मंत्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया गया है, जो कि “ॐ तत् सत्” (सांकेतिक) है। तत्वदर्शी संत ही उसका भेद बताते हैं। इसमें ॐ मंत्र, क्षर ब्रह्म/ ज्योति निरंजन/ काल/ महाविष्णु का है। वह अध्याय 8 श्लोक 13 में भी कहता है -
ॐ, इति, एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरण, माम, अनुस्मरण, यः, प्रयाति, त्यजन्, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम्।।13।।
अर्थ: पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग के मंत्र में अर्थात् सांकेतिक तीन-शब्द वाले मंत्र ओम-तत्-सत् में, मेरा (ब्रह्म का) मंत्र ओम है और कुछ नहीं। ॐ का जाप करते हुए जो शरीर त्यागने तक (मृत्युपर्यंत) इसका स्मरण करता है, वह मुझ (ब्रह्म) को प्राप्त होता है, अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। लेकिन उस साधक को पूर्ण मोक्ष नहीं मिलता है। अतः उसे प्राप्त फल घटिया/ अनुत्तम है, जैसा कि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में बताया गया है। साधक पुनरावृत्ति (जन्म-मरण के चक्र) में रहता है।
विष्णु जी का मंत्र क्या है?
अज्ञानी भक्त विष्णु जी के निम्नलिखित मंत्र जपते है।
ॐ नमोः नारायणाय।
ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय।।
इस मंत्र का या विष्णु जी के किसी अन्य मंत्र का किसी भी पवित्र ग्रंथ में कोई प्रमाण नहीं है। यह एक मनमाना आचरण है, जिसे पवित्र श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में शास्त्र विरुद्ध साधना बताया गया है। यह किसी काम का नहीं। भगवान विष्णु जी का एक विशिष्ट मंत्र और है, जिसे तत्वदर्शी संत से दीक्षा में लेकर विधिवत तरीके से जप करने से ही श्री विष्णु जी कृपा बरसाते हैं। सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में भी यही प्रमाण है।
आज जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही एकमात्र सच्चे सतगुरु हैं, जो विष्णु जी का सच्चा मंत्र देने के अधिकारी हैं। ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य रखने वाले साधकों को बिना देर किए उनकी शरण में जाना चाहिए और अमरलोक, सतलोक में स्थायी निवासी बनने के योग्य बनना चाहिए।
विष्णु जी के माता-पिता कहाँ रहते हैं?
ब्रह्म काल और देवी दुर्गा, ये विष्णु जी के माता-पिता हैं, हालांकि उनके अलग-अलग लोक हैं, क्रमशः ब्रह्मलोक और दुर्गालोक। लेकिन उन्होंने अपने 21 ब्रह्मांडों में तीन गुप्त स्थान भी बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान है, जहां काल महाब्रह्मा रूप में रहता है और अपनी पत्नी देवी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। दूसरा गुप्त स्थान सतोगुण प्रधान है, जहां ब्रह्म काल महाविष्णु रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रखता है।
तीसरा स्थान तमोगुण प्रधान है। यहां वो महाशिव रूप में निवास करता है और अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता है। इन गुप्त स्थानों को बनाने का उद्देश्य उनके 21 ब्रह्मांडों में विस्तार करना है, क्योंकि इन तीन गुप्त स्थानों में वे पति-पत्नी की तरह व्यवहार करते हैं। इनके मिलन से एक ऐसे पुत्र का जन्म होता है, जो स्वत: ही उस निर्दिष्ट गुण से युक्त हो जाता है। जैसे रजोगुण प्रधान क्षेत्र में जन्म लेने वाला पुत्र रजोगुण से युक्त हो जाता है। उसका नाम ब्रह्मा रखा जाता है। इसी प्रकार सतोगुण प्रधान क्षेत्र में जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम विष्णु रखा जाता है। तमोगुण प्रधान क्षेत्र में जन्मे पुत्र का नाम शिव/शंकर रखा जाता है।
विष्णु जी कहाँ रहते हैं?
ब्रह्म काल और देवी दुर्गा के संयोग से सतोगुण प्रधान क्षेत्र में जन्मे पुत्र को, वे युवा होने तक अपनी सिद्धियों से अचेत रखते हैं। इस पुत्र का नाम विष्णु रखा गया। फिर वे दोनों उसे सचेत करते हैं और उसे अपने 21 ब्रह्मांडों में सतोगुण विभाग का मंत्री बना देते हैं। विष्णु जी बैकुंठ, क्षीर सागर में निवास करते हैं।
भगवान विष्णु का रंग नीला क्यों है?
एक बार भगवान विष्णु जी अपनी माता दुर्गा/अष्टांगी के आदेश पर अपने पिता की खोज के लिए पाताल लोक में गये। वहां शेषनाग पहले से ही मौजूद था। विष्णु जी को अपने क्षेत्र में प्रवेश करते देख शेषनाग ने विष्णु जी पर क्रोधित होकर अपना जहर भरा फुंकार मार दिया, जिसके कारण विष्णु जी की त्वचा का रंग नीला/सांवला हो गया। इस सत्य घटना का प्रमाण सूक्ष्मवेद से लिया गया है।
ब्रह्मा और विष्णु के बीच युद्ध क्यों हुआ?
संदर्भ: शिव पुराण, विद्येश्वर संहिता, अध्याय 6,
अहंकार, पद, सत्ता और प्रतिष्ठा की भूख, क्रोध, लोभ आदि बुराइयां ब्रह्म काल के 21 ब्रह्मांडों में सभी प्राणियों पर हावी हैं। यहाँ तक कि त्रिमूर्ति देवता भी विकारों से अछूते नहीं हैं। शिव पुराण से प्राप्त प्रमाण ये बताते हैं कि एक बार भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु में इस मामूली मुद्दे पर लड़ाई हो गई कि दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। दोनों एक-दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे और उचित सम्मान दिए जाने की उम्मीद कर रहे थे। बहस इतनी बढ़ गई कि दोनों देवता एक-दूसरे से लड़ने लगे। उनका युद्ध देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से आ गए।
लेकिन विष्णु जी और ब्रह्मा जी को अलग करके शांति स्थापित करने के बजाय उनका ये अद्भुत दृश्य देखकर वो उन पर फूल बरसाने लगे। उस समय उनके पिता ब्रह्म काल ने दोनों के बीच में एक अत्यंत प्रकाशवान विशाल स्तंभ स्थापित कर दिया। तब उन्होंने लड़ना बंद कर दिया और उस खंभ के छोर की खोज शुरू कर दी, लेकिन वो असफल रहे। तब काल स्वयं ही उनके छोटे भाई शिव का रूप धारण करके प्रकट हुआ और दोनों से कहा कि आप दोनों में से कोई भी श्रेष्ठ नहीं है।
यह प्रकरण काल के लोक की अत्यंत निंदनीय प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ भगवान भी श्रेष्ठता को लेकर लड़ते हैं और इसके लोक में सामान्य प्राणियों के बारे में क्या कह सकते हैं!
क्या विष्णु जी ने गंगा से विवाह किया है?
गंगा नदी सर्वशक्तिमान कबीर परमात्मा की कृपा से अमर लोक सतलोक से सूक्ष्म रूप में काल के लोक से विष्णुलोक में, फिर शिवलोक में और अंत में पृथ्वी पर आई है। अत: विष्णु द्वारा गंगा से विवाह करने की बात ही उत्पन्न नहीं होती। यह कहानी केवल नकली धार्मिक प्रचारकों की अज्ञानता का परिणाम है। जो गंगा नदी की उत्पत्ति के बारे में नहीं जानते हैं और इसे श्री विष्णु जी से संबंधित देवी होने का दावा करते हैं।
विष्णु जी ने सुखदेव ऋषि को क्यों डांटा?
ऋषि सुखदेव अपने समय के प्रसिद्ध ऋषि थे, जिन्होंने राजा परीक्षित की सहायता की थी। सुखदेव एक पुण्य आत्मा थे, जिन्होंने पूर्व संस्कारों के कारण तोते के के अंडे के अंदर रहते हुए सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया और फिर उन्होंने ही बाद में ऋषि वेद व्यास की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया। उन्होंने गुफा के अंदर श्री शिव जी से सच्चा ज्ञान सुनने के बाद भगवान शिव और देवी पार्वती की उम्र जितनी अस्थायी अमरता प्राप्त की। जहां पर शिव जी ने देवी पार्वती को वही सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान दिया था, वह स्थल वर्तमान में अमरनाथ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।
दरअसल सिद्धियां ईश्वर प्राप्ति में बाधक होती हैं। क्योंकि इनके पीछे पीछे अज्ञानतावश ही साधक में अहंकार आ जाता है। भगवान शिव से अप्रत्यक्ष रूप से मोक्ष मंत्र प्राप्त करने के बाद, ऋषि सुखदेव को कुछ शक्तियां प्राप्त हुईं। वे हवा में उड़ सकते थे। अतः एक बार वो यह सोच कर विष्णुलोक पहुँच गए कि श्री विष्णु जी उन्हें आया देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। लेकिन ऋषि सुखदेव को निराशा हाथ लगी। क्योंकि उन्होंने एक बहुत बड़ी गलती की थी कि उन्होंने कोई गुरु ही नहीं बनाया था। जिसके कारण उन्हें विष्णु जी के लोक में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई, बल्कि उन्हें डांटा गया। विष्णु जी के आदेश से बाद में ऋषि सुखदेव ने राजा जनक को अपना गुरु बनाया। क्योंकि भगवान के नियम के अनुसार 'निगुरे' अर्थात जिन साधकों ने गुरु नहीं बनाये हैं, वे मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हैं।
विष्णु जी का सबसे बड़ा शत्रु कौन है?
संदर्भ: श्री देवी भागवत पुराण, प्रथम स्कंद, पृष्ठ संख्या 28 से आगे, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित।
नारद जी और व्यास जी के बीच चर्चा:
काल के लोक में किसी को भी लेशमात्र सुख और शान्ति नहीं है। न मनुष्यों को और न ही देवताओं को।
परमात्मा कविर्देव अपनी अमृत वाणी में बताते हैं,
तन धर सुखिया कोई न देख्या, जो देख्या सो दुखिया हो।
उदय अस्त की बात करे, मैंने सबका किया विवेका हो।।
सांच कहूँ तो जग ना माने, पर झूठ कही ना जाई हो।
ब्रह्मा विष्णु शिव जी दुखिया, जिन ये राह चलायी हो।।
दुर्गा पुराण में वर्णित संवाद में भगवान विष्णु जी स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि वे अधिकांश समय शक्ति (देवी दुर्गा) के ध्यान में लीन रहते हैं। वह सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं और फिर विकराल राक्षसों से लड़ते हैं। लेकिन इन सभी हत्याओं का बोझ उनके ही पाप कर्मों के खाते में लिखा जाता है। उनके पापों का लेखा बढ़ता ही जाता है और फिर इसका कष्ट उस विष्णु जी वाली आत्मा को अगले जन्मों में 84 लाख योनियों में भोगना पड़ता है।
यहाँ, एक प्रश्न उठता है कि विष्णु जी को कौन हरा सकता है?
विष्णु जी आगे कहते है कि उन्हें शायद ही कभी शांति मिल पाती है। क्योंकि दुष्ट आत्माओं, राक्षसों से लड़ना उनका मुख्य कर्तव्य है। अगर कभी उन्हें मौका मिलता है तो वह अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ कुछ पल शांतिपूर्ण तरीके से बिताते हैं।
सतयुग में हिरण्यकश्यप विष्णु जी से शत्रुता रखता था। क्योंकि उसने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करके स्वयं को भगवान घोषित कर दिया था। वह अपने पुत्र प्रहलाद के साथ दुर्व्यवहार करता था, जो भगवान विष्णु का दृढ उपासक था। पालनहार और रक्षक, सतोगुणी भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्री राम के रूप में और द्वापर युग में श्री कृष्ण के रूप में अवतरित होकर क्रमशः दुष्ट आत्माओं रावण, कंस और केशी का तथा और भी अनेक राक्षसों का वध किया और शांति स्थापित की। विष्णु जी को कोई भी पराजित नहीं कर सका। इससे सिद्ध होता है कि राक्षस उनके सबसे बड़े शत्रु हैं।
विष्णु जी ने नरसिंह अवतार क्यों लिया?
परमात्मा कविर्देव ही संकट आने पर विष्णु और शिव जी की मदद करते हैं और भक्तों की भगवान और भक्ति में श्रद्धा बनाये रखने के लिए उन देवताओं की ही महिमा करवाते हैं। सतयुग में राक्षस हिरण्यकश्यप श्री ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करके बहुत शक्तिशाली हो गया और श्री विष्णु जी से ईर्ष्या करने लगा। उसने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया और अन्य देवताओं विशेषकर श्री विष्णु जी की पूजा बंद करवा दी, जिनकी पूजा उसका पुत्र प्रह्लाद पूरी श्रद्धा से करता था।
सर्वशक्तिमान परमात्मा कविर्देव ने नरसिंह रूप (आधा मनुष्य और आधा सिंहरूप वाला अवतार) धारण करके हिरण्यकश्यप का वध किया। इस सन्दर्भ में कबीर परमेश्वर कहते है:
हिरण्याकुश छाती तुडवायी, ब्राह्मण बाणा करम कसाई।।
यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक के पृष्ठ नं. 142 पर, निम्नलिखित वाणी नं. 58 इसी बात को प्रमाणित करती है।
नरसिंह रूप धरे गुरुराया, हिरण्याकुश कुं मारन धाया।।58।।
यह वाणी सपष्ट करती है कि वह सर्वशक्तिमान कबीर परमात्मा जी ही थे, जिन्होंने भगवान नरसिंह का रूप धारण करके राक्षस हिरण्यकश्यप को मार डाला था। बाद में विष्णु जी को महिमा दे दी। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी प्रमाण है कि जो तीनों लोक में प्रवेश कर के सबका धारण पोषण करता है वह पूर्ण परमात्मा तो कोई अन्य ही है।
नोट: अब तक यह दंतकथा थी कि नरसिंह अवतार, श्री विष्णु जी का था और उन्होंने राक्षस हिरण्यकश्यप का वध किया था।
क्या विष्णु जी ने राक्षस शंखासुर को मारा?
वराह (सूअर) अवतार को श्री विष्णु जी के दशावतार में से तीसरा अवतार माना जाता है। क्योंकि विष्णु जी ब्रह्म काल के लोक में पालनहार देवता हैं, इसलिए उन्हें हमेशा सभी राक्षसों को संहार करने का श्रेय दे दिया जाता है, जो कि एक मिथक है। भक्त समाज इस बात से अनभिज्ञ है कि परमात्मा कविर्देव सभी प्राणियों के और देवताओं के भी रक्षक हैं।
एक बार शंखासुर नाम का एक राक्षस था, जो देवताओं को भक्तिहीन करने के लिए वेदों को चुराकर समुद्र में छिप गया था। वह एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसे हराने में देवता असमर्थ थे। इसलिए उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की। परमात्मा कविर्देव ने वराह रूप (जंगली सुअर) बनाकर राक्षस शंखासुर का वध किया। परमात्मा ने वेदों को गहरे समुद्र से निकालकर पृथ्वी पर रखा। फिर परमात्मा कविर्देव ने विष्णु जी का रूप बनाकर उनकी महिमा करवाई और अन्तर्धान हो गये। सूक्ष्मवेद की निम्नलिखित वाणी प्रमाणित करती है कि वह परमात्मा कबीर जी ही थे जिन्होंने राक्षस शंखासुर को मारा था, न कि विष्णु जी ने। वराह (जंगली सूअर) अवतार श्री विष्णु जी का नहीं था।
सन्दर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक पृष्ठ नं.146 वाणी नं. 67
शंखासुर मारे निरबानी। वराह रूप धरे परवानी ।।67।।
विष्णु जी को क्या श्राप लगा था?
काल के लोक में हठ योग से विकार नष्ट नहीं हो सकते। एक बार ऋषि नारद ने कई वर्षों तक हठ योग किया और सोचा कि उन्होंने काम आदि विकारों पर विजय पा ली है। उन्होंने अपनी उपलब्धि के बारे में अपने पिता ब्रह्मा जी को बताया तो उन्होंने नारद जी से कहा कि वो इस बात को श्री विष्णु जी को न बताएं। ऋषि नारद अपनी उपलब्धि को लेकर अति विश्वास और उत्साह में थे और खुद को रोक नहीं पाये। इसलिए उन्होंने यह बात विष्णु जी को बता दी। काल ब्रह्म का जाल बहुत खतरनाक है।
काल की प्रेरणा से विष्णु जी ने नारद जी की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने एक मायावी दुनिया बनाई, जहां एक खूबसूरत राजकुमारी का भव्य 'स्वयंवर' आयोजित किया गया था। ऋषि नारद राजकुमारी की सुंदरता से आकर्षित हो गए और उससे विवाह करने की इच्छा कर बैठे। लेकिन वह दिखने में आकर्षक नहीं थे। इसलिए उन्होंने विष्णु जी से उनका सुंदर रूप मांगा। कमल नयन विष्णु जी अत्यंत आकर्षक हैं। उन्हें 'हरि' भी कहा जाता है। नारद जी ने उनसे उनका 'हरिरूप' माँगा। विष्णु जी ने एक शरारत की और नारद जी को बंदर का चेहरा दे दिया।
संस्कृत में 'हरि' का अर्थ बंदर भी होता है। नारद जी श्री विष्णु जी की इस शरारत से अनजान थे और सोच रहे थे कि वह बहुत सुंदर लग रहे हैं, जबकि बंदर के चेहरे के साथ वह मजाकिया लग रहे थे। जब नारद जी राजकुमारी द्वारा माला पहनाने के लिए कतार में बैठे थे तो सुंदर राजकुमारी ने नारद जी को अस्वीकार कर दिया। दो बार प्रयास करने पर भी नारद जी को निराशा ही हाथ लगी। तभी किसी व्यक्ति ने उन्हे दर्पण दिखाकर उनके बंदर वाले रूप का मजाक उड़ाया। तब नारद जी को पता चला और उन्होंने क्रोधित होकर विष्णु जी को श्राप दे दिया कि 'जिस तरह मैं एक स्त्री के वियोग में दुःखी हुआ, तुम भी अपनी पत्नी के वियोग में पृथ्वी पर एक दुःखदायी जीवन बिताओगे।'
त्रेता युग में भगवान विष्णु का श्री रामचन्द्र के रूप में अवतार हुआ और अपनी पत्नी सीता के वियोग में उन्होंने एक दुःखमय जीवन बिताया, जो ऋषि नारद के श्राप का ही परिणाम था। 14 वर्ष का वनवास, रावण द्वारा सीता का हरण, राम-रावण का युद्ध, श्री राम द्वारा सीता की अग्निपरीक्षा, गर्भवती सीता को अयोध्या लौटने के बाद वनवास, पुत्र लव-कुश से युद्ध में श्री राम की पराजय, सीता का धरती में प्रवेश और अंत में सरयू नदी में श्री राम की दुःखी होकर जल समाधि। यह सब घटनाएं सिद्ध करती हैं कि किस तरह नारद मुनि के श्राप की वजह से भगवान विष्णु उर्फ़ श्री रामचन्द्र की एक दुःखदायी जिंदगी बीती।
यह सब ब्रह्म काल द्वारा सुनियोजित घटना थी, जो यह साबित करती है कि न केवल मनुष्य ही बल्कि उसके लोक के देवता भी उसके हाथ की कठपुतली मात्र हैं और सभी दुःखी हैं। पहले तो साधक, नारद जी की तरह हठयोग से सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं और बाद में श्राप देकर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं और इस तरह सभी ब्रह्म के जाल में फंसे रह जाते हैं। क्योंकि काल-ब्रह्म ने सभी आत्माओं को प्रायः अपराजित कर्म चक्र में फंसा रखा है, भगवान विष्णु भी इस में अपवाद नहीं हैं।
विशेष: भगवान विष्णु जी स्वयं ही खुद को लगे श्राप के प्रभाव को खत्म नहीं कर सके, वह अपने भक्तों का कैसे कर सकते हैं? वह अपने उपासकों को कैसे सुख प्रदान कर सकते हैं? यह स्पष्ट है।
नोट: केवल कबीर परमेश्वर के पास ही विषेधाधिकार (Veto Power) है। समग्र सृष्टि में प्राणियों को लगे श्राप (तीन ताप) के प्रभाव को बेअसर करने की शक्ति केवल उनके (कबीर परमेश्वर के) पास है, और किसी के पास नहीं।
51 शक्तिपीठों की स्थापना में विष्णु जी की भूमिका
श्री विष्णु जी के जीवन की एक और सच्ची घटना जहां इस ठग ब्रह्म काल ने धूर्तता की।
नारद मुनि के श्राप के कारण दुःखी विष्णु जी को राम अवतार में 14 वर्षों के वनवास के दौरान, एक बार भगवान शिव और देवी पार्वती ने, उन्हें रावण द्वारा सीता जी के अपहरण के बाद उसके लिए विलाप करते देखा, जिसके बारे में राम बेख़बर थे। यहाँ पर काल ने खेल खेला।
देवी पार्वती उर्फ सती अपने पति शिव जी की मर्जी के विरुद्ध सीता जी का रूप धारण करके श्री राम की परीक्षा लेने के लिए उनके पास गईं। जिस राम जी को यही नहीं पता था कि उनकी पत्नी सीता को कौन ले गया? वह कहां खो गई? उन्होंने तुरंत ही पहचान लिया कि यह सीता जी के रूप में पार्वती थी।
क्योंकि काल ने राम जी की बुद्धि खोल दी थी। पार्वती को अपने पति की इच्छा के विरुद्ध जाकर रूप बदलकर राम जी की परीक्षा लेने के अपने कृत्य पर शर्मिंदगी महसूस हुई। दूसरी ओर, ब्रह्म काल ने शिव जी को प्रेरणा कर दी कि पार्वती द्वारा राम जी की परीक्षा लेने से इनकार करना झूठ है। शिव जी ने तब से पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया। क्योंकि पार्वती ने उनकी भाभी का रूप धारण कर लिया था, जो उनकी माँ के समान सम्माननीय हैं।
इसके बाद पार्वती का जीवन नर्क के समान हो गया। अपने पति शिव जी द्वारा अस्वीकार होने से दु:खी होकर पार्वती ने अपने मायके जाने का फैसला किया। वहाँ भी उन्हें अपने पिता दक्ष की नाराजगी का सामना करना पड़ा, जिन्होंने उस समय एक विशाल धार्मिक यज्ञ (हवन यज्ञ) का आयोजन किया था, जिसमें देवताओं, गंधर्वों, ऋषियों, महर्षियों आदि के साथ सभी प्रसिद्ध गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया था, परंतु शिव और पार्वती को नहीं।
अपनी इच्छा के विरुद्ध शिव जी से विवाह करने के कारण नाराज दक्ष ने पार्वती का अपमान किया, जिससे रुष्ट पार्वती ने सोचा कि वह न तो अपने पति को स्वीकार्य है और न ही अपने पिता को, उसका जीवन दु:खमय हो गया है। इसलिए परेशान होकर वह विशाल अग्नि कुंड में कूद गईं। उसका पूरा शरीर जल गया और उनकी मृत्यु हो गई। जब पार्वती की भयानक मृत्यु की खबर शिव जी तक पहुंची तो वे क्रोधित हो गए। भयंकर युद्ध हुआ। शिव जी ने दक्ष की गर्दन काट दी। बाद में, शिव जी ने दक्ष के धड़ पर एक बकरे का सिर लगा दिया और उसे पुन:जीवित कर दिया।
शिव जी पार्वती के मोह में पागलों की तरह उसके कंकाल को लेकर दस हजार वर्षों तक घूमते रहे। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से पार्वती के कंकाल के 51 टुकड़े कर दिये। अंत में, शिव जी पार्वती से अलग हो गए और अपने होश में आए।
जहां-जहां पार्वती के कंकाल के 51 टुकड़े गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गए। इसकी स्थापना में विष्णु जी की यही भूमिका थी।
विशेष: देवी पार्वती के उपासक उनका आशीर्वाद पाने के इरादे से इन पीठों की यात्रा करते हैं। परंतु, वहाँ जाने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि वे केवल यादगार मात्र हैं। यहां देवी विराजमान नहीं हैं। इसके अलावा, तीर्थयात्रा एक मनमानी परम्परा है, जिसे करने का किसी भी प्राचीन ग्रंथ में कोई प्रमाण नहीं है। पवित्र श्रीमद्भगवदगीता अध्याय 16:23 के अनुसार यह निषेध है।
सभी देवताओं का पिता कौन है, क्या वह विष्णु जी हैं?
भगवान विष्णु जी के दादा पूर्ण परमेश्वर कविर्देव सभी देवताओं के पिता है। वह संपूर्ण सृष्टि के रचनहार हैं। सभी धर्मों के सभी पवित्र ग्रंथ इसके लिए पर्याप्त प्रमाण प्रदान करते हैं। अभी तक भक्त समाज भगवान विष्णु जी को ही परमात्मा मानते थे, जो कि एक मिथक है। आइए देखते है कि सूक्ष्म वेद इस संबंध में क्या प्रमाण देता है।
संदर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, पृष्ठ नं. 161, वाणी नं.1-3,
राम निरंजन आरती तेरी, अविगत गति कुछ समझ पड़े नही, क्यों पहुंचे मति मेरी।1। नराकार निर्लेप निरंजन, गुणह अतीत तिहुं देवा। ज्ञान ध्यान से रहे निराला, जानि जाये न सेवा।2।
सनक सनंदन नारद मुनिजन, शेष पार नही पावे। शंकर ध्यान धरे निषवासर, अजहूं ताहि सुलझावे।3।
सरलार्थ :- हे निरंजन राम! अर्थात् माया रहित परमात्मा! मैं आपकी आरती करता हूँ। हे अविगत! आपकी स्थिति का कोई ज्ञान मुझे समझ में नहीं आता। मेरी बुद्धि वहाँ तक कैसे पहुँचे? परमेश्वर कबीर जी ने साधक को समझाने के लिए स्वयं भक्त का अभिनय करके समझाया है कि भक्त को ऐसे विनम्र भाव से विनय करनी चाहिए, तब परमात्मा कबीर जी प्रसन्न होते है। अपने को अज्ञानी मानें, परमात्मा तो विज्ञानी हैं ही, जीव को अभिमान नहीं होना चाहिए।
नोट:- पाठकजनों को शंका उत्पन्न होगी कि निरंजन तो काल को कहते है। यह काल तो ज्योति निरंजन है। निरंजन का अर्थ होता है माया रहित अर्थात् निर्लेप प्रभु। परंतु काल ब्रह्म मायासहित है, यह गुप्त रहता है। इसलिए इसको भी निरंजन कहा जाने लगा। यह लोकवेद के आधार से निरंजन प्रसिद्ध है, वास्तव में यह निरंजन नहीं है। वास्तविक निरंजन तो परमेश्वर कबीर जी हैं, जो पूर्ण ब्रह्म कहे जाते हैं। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में है। काल ब्रह्म स्वयं कहता है कि मैं तो लोकवेद में पुरूषोत्तम (उत्तम पुरूष) प्रसिद्ध हूँ, क्योंकि मेरे अंतर्गत जितने भी प्राणी हैं, (21 ब्रह्माण्ड में) मैं उन सबसे उत्तम अर्थात् प्रत्येक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ हूँ। गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 15 श्लोक 17 में वास्तविक पुरूषोत्तम (उत्तम पुरूषः) सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विषय में बताया है कि वह क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह अविनाशी परमात्मा है। वह मानव सदृश रूप में है। पूर्ण परमात्मा 'निर्लेप निरंजन' है तथा ऊपर के लोक में रहता है।
हे पूर्ण परमात्मा ! आप निर्लेप निरंजन हो। आप नराकार में हो। आप तीनों गुणरूप देवताओं अर्थात् श्री ब्रह्मा (रजगुण), श्री विष्णु (सतगुण) और श्री शिव (तमगुण) से अतीत अर्थात् परे हैं, भिन्न हैं। आप के ऊपर तीनों गुणों का प्रभाव नहीं है। आप में एक अविनाशी परम गुण है। आप अविनाशी हैं, आपका लोक अविनाशी है, आपके लोक का निवासी भी अविनाशी है, जो आपके ही परमगुण का प्रभाव है। संसार में प्रचलित ज्ञान (लोकवेद) तथा उसके आधार से किया जाने वाला ध्यान, उससे आप निराले रहते हो। आपकी सेवा (पूजा/भक्ति की विधि) कोई नहीं जान पा रहा।
आपको प्राप्त करने के उद्देश्य से, अपने पिता ब्रह्मा जी से प्राप्त आध्यात्म ज्ञान के आधार से सनकादिक अर्थात् चारों पुत्र (सनक, सनन्दन, सनातन तथा संत कुमार) तथा ब्रह्मा जी का ही पुत्र नारद ऋषि तथा शेषनाग भी ऋषियों से सुने ज्ञान के आधार से (लोकवेद के आधार से) साधना कर रहे हैं। वो भी आपका पार नहीं पा सके अर्थात् आप नहीं मिले और न ही आपकी महिमा का अंत पाया। काल लोक के महायोगी शिव शंकर जी भी दिन और रात ध्यान कर रहे हैं, आज तक आध्यात्मिक रहस्य की गुत्थी सुलझाने का यत्न कर रहे हैं, परंतु उन्हें भी सफलता नहीं मिली है।
वेद परमात्मा की महिमा गा रहे हैं। उसमें लिखा है कि ‘नृवत् अग्ने’ अर्थात परमेश्वर मनुष्य सदृश है। ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27 में, सूक्त 82 मंत्र 1-2 में, सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तथा सूक्त 94 मंत्र 1, सूक्त 95 मंत्र 2 में, सूक्त 54 मंत्र 3 में, सूक्त 20 मंत्र 1 में तथा अनेकों स्थानों पर लिखा है कि परमेश्वर ऊपर के लोकों में रहता है। वहाँ से गति करके (चलकर सशरीर) पृथ्वी पर आता है, अच्छी आत्माओं को मिलता है, उनको तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) सुनाता है।
विशेष: उपरोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि सभी देवताओं के पिता, पूरी सृष्टि में सर्वशक्तिमान परमात्मा कविर्देव हैं, न कि श्री विष्णु जी। श्री विष्णु के संबंध में कोई भी पवित्र ग्रंथ इसका प्रमाण नहीं देता है। अत: अब यह मिथक यहीं समाप्त होता है।
विष्णु जी किसका ध्यान करते हैं?
प्रारंभ में, जब परमात्मा कविर्देव इस कसाई ब्रह्म काल के नाशवान लोक में आए और त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव से मिले। उन्होंने तीनों को सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया और प्रत्येक को एक विशिष्ट मंत्र दिया। जिसका सूक्ष्मवेद में प्रमाण मिलता है। तीनों देव उसी मंत्र का जप करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु अपने दो भाइयों ब्रह्मा और शिव की तरह पूर्ण परमात्मा कबीर का ध्यान करते हैं।
विष्णु जी को पूर्ण परमात्मा के बारे में कोई ज्ञान नहीं
संदर्भ: श्रीमद् देवी भागवत महापुराण स्कंद 1, पृष्ठ 28-29
ब्रह्म काल ने अपने लोक में सभी जीवों की बुद्धि को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है कि सभी गलत आचरण करते हैं और सभी देवताओं की पूजा करते हैं। देवों के देव, परम अक्षर ब्रह्म - परमात्मा से सभी देवता और त्रिदेव भी अनजान हैं। पवित्र श्रीमद् देवी भागवत पुराण से, विष्णु जी के आध्यात्मिक ज्ञान को और उनकी अज्ञानता को प्रमाणित करते हैं। यहां वो स्वीकार करते है कि उन्हें हर तरह से शक्ति की अधीनता में रहना पड़ता है। वह निरंतर भगवती शक्ति का स्मरण करते हैं और अपने बड़े भाई श्री ब्रह्मा जी से कहते हैं कि उनकी जानकारी में इस भगवती शक्ति दुर्गा से बढ़कर कोई दूसरा देव नहीं है। उनके अनुसार, वही परमात्मा हैं और कोई नहीं।
भगवान विष्णु इस बात से अनजान हैं कि सर्वशक्तिमान प्रभु कविर्देव ही पूर्ण परमेश्वर हैं।
श्री राम उर्फ विष्णु जी को राम सेतु बनाने में किसने मदद की?
अज्ञानता के कारण त्रेता युग से भक्तजन प्रसिद्ध ‘राम सेतु’ के निर्माण का श्रेय भगवान राम को देते आ रहे हैं, जो कि एक मिथक है। सच्चाई यह है कि परमात्मा कबीर जी ऋषि मुनीन्द्र के रूप में प्रकट हुए थे और उन्होंने श्री राम को अपनी शक्ति से आसपास के पहाड़ के पत्थरों को लकड़ी की तरह हल्के बनाकर सेतु बनाने का आशीर्वाद दिया था, जिसका उपयोग उनकी सेना में शामिल वास्तुकार नल और नील ने सेतु निर्माण में किया था। उन हल्के वजन वाले पत्थरों की पहचान करने के लिए हनुमान जी ने प्रत्येक पर राम लिख दिया। जिससे भक्तों को लगता है कि श्री रामचन्द्र ने ही राम सेतु बनवा दिया था। सत्य कुछ और है, यह सूक्ष्म वेद में प्रमाणित है।
हम ही राम रहीम करीम पुरन करतारा।
हम ही बांधे सेतु, चढ़े संग पदम अठ्ठारा।।
श्री रामचन्द्र ने तीन दिन तक लगातार घुटनों तक पानी में खड़े होकर समुद्र से प्रार्थना की थी। लेकिन समुद्र ने उन्हें रास्ता नहीं दिया था। तब क्रोधित होकर श्रीराम ने समुद्र को नष्ट करने के लिए अग्निबाण निकाला, तब समुद्र एक ब्राह्मण का रूप धारण करके प्रकट हुआ और उसने श्री राम को उनकी सेना में शामिल नल-नील के बारे में बताया, जिनके पास ऐसी शक्ति थी कि उनके हाथ से समुद्र पर डाली गई कोई भी वस्तु डूबती नहीं, बल्कि तैरती रहती थी। यह वरदान उन्हें अपने गुरुदेव ऋषि मुनीन्द्र से प्राप्त हुआ था। परंतु अहंकार के कारण उन्होंने यह शक्ति खो दी थी। तब ऋषि मुनींद्र से ही अनुरोध किया गया था कि वो सेतु बनाने में राम जी की मदद करें। संत कबीर साहेब जी कहते हैं कि:
साधु दर्शन राम का, मुख पर बसे सुहाग।
दर्शन उन्हीं को होत है, जिनके पुरण भाग्य।।
भगवान विष्णु उर्फ श्री राम भी परमात्मा कबीर (आदि राम) की संतान है, जो विकट परिस्थितियों में उनके साथ खड़े रहते हैं। यह सच्चाई आज तक हमसे छुपी रही, जब तक कि जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ने इसे सूक्ष्म वेद में वर्णित प्रमाण दिखाकर प्रकट नहीं किया। परमात्मा ने इस महान कार्य के लिए श्री विष्णु उर्फ राम जी की महिमा करवाई। वास्तव में, परमात्मा सब कुछ करता है, लेकिन पर्दे के पीछे रहता है। वे श्री रामचन्द्र जैसे देवताओं की पूजा करने पर भी भक्तों की आस्था को अखंड रखना चाहते है। पृष्ठ नं. 142-143 पर निम्नलिखित वाणी संख्या 61 यही बताती है,
रावण महीरावण से मारे। सेतु बांध सेना दल तारे।।61
अर्थ: हे भगवान विष्णु! आपने रावण के भाई महीरावण का वध किया। आपने रावण से युद्ध करने के लिए समुद्र पर राम सेतु पुल बनाया और इस प्रकार सेना पार हो गई।. परमात्मा कबीर ने सूक्ष्मवेद में वर्णित अपनी अमृतवाणी में बताया है कि
कबीर, समुन्द्र पाट लंका गये, सीता को भर्तार।
सात समुंद्र अगस्त्य मुनि पी गयो, इनमें कौन करतार।।
चूंकि, लोककथाओं में राम सेतु के निर्माण का श्रेय राम को दिया जाता है, इसलिए उन्हें भगवान के रूप में गिना जाता है। दूसरी ओर ऋषि अगस्त्य ने अपनी सिद्धियों से एक ही घूंट में सात महासागरों को पी लिया। क्या वह भगवान थे?
विचार करने योग्य बिंदु:
क्या सतोगुणी विष्णु जी के पास इतनी शक्तियाँ हैं कि उन्हें परमात्मा माना जा सके?
श्री राम उर्फ विष्णु जी को रावण को मारने में किसने मदद की?
त्रेता युग में, शक्तिशाली राक्षस राजा रावण सीता जी का अपहरण कर लेता है और उसे अपने सामने आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर करने की पूरी कोशिश करता है। लेकिन उसके सभी प्रयास व्यर्थ रहते हैं। रावण ने तमोगुण शिव/शंकर जी की आराधना करके शक्तियां प्राप्त की थीं। उसने स्वर्ग के 33 कोटि देवताओं को भी कैद कर लिया था और अपनी नाभि में अमृत जमा कर लिया था, जिसके कारण कई प्रयास करने के बावजूद भी श्री राम, दस सिर वाले रावण को मारने में असफल रहे। तब उन्होंने आदि राम/ परमात्मा कविर्देव से मदद मांगी, जिन्होंने गुप्त रूप से रावण की नाभि में तीर मारकर श्री राम की मदद की। अंततः रावण की मृत्यु हो गई और उसका भयानक अंत हुआ। यहाँ कबीर परमेश्वर कहते हैं,
हम ही रावण मार लंका पर करी चढ़ाई।
हम ही दस सिर मार, देवतां की बंद छुड़ाई।।
पाठकों, यह स्वयं परमात्मा द्वारा बताया गया सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है।
विचारणीय:
सतोगुणी विभाग के मंत्री भगवान विष्णु/ श्री रामचन्द्र रावण को मारने में असफल क्यों हुए? इससे पता चलता है कि विष्णु जी बहुत सीमित शक्तियों वाले देवता हैं। परमेश्वर अनंत शक्तियों वाले सर्वशक्तिमान परमात्मा कबीर हैं।
श्रीकृष्ण उर्फ विष्णु जी की गोवर्धन पर्वत उठाने में किसने मदद की?
जब द्वापर युग में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो उन्होंने देवताओं की पूजा पर रोक लगा दी, यहां तक कि भगवान इंद्र की पूजा पर भी रोक लगा दी और कहा कि ये देवता केवल नियत कर्म ही प्रदान कर सकते हैं। वे पूजा के लायक नहीं हैं। भक्तों को केवल एक परमेश्वर की पूजा करनी चाहिए। वृन्दावन के निवासियों ने श्री कृष्ण के निर्देशों का पालन किया और इंद्र देव की पूजा करना बंद कर दी। अपनी पूजा छोड़ देने से क्रोधित होकर इंद्र देव ने पूरे गांव को डुबाने की इच्छा से भारी वर्षा कर की लेकिन अपने बच्चों को बचाने के लिए परमात्मा कबीर ने श्री कृष्ण को अपने दाहिने हाथ की छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाने में सहायता की, जिसकी शरण में सभी ग्रामीण सात दिन और रात तक सुरक्षित रहे।
राम कृष्ण सतगुरु शहजादे, भक्ति हेत भये पियादे।।
राम और कृष्ण भी कबीर परमेश्वर की बच्चे हैं। जब वे उन्हें दिल से याद करते हैं तो वह उनकी मदद करते हैं।
अंत में, इंद्र देव ने अपने दुर्व्यवहार और अहंकार के लिए माफी मांगी और मूसलाधार बारिश रोक दी। इसका उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में किया गया है।
गोवर्धन श्री कृष्ण ने धारा, द्रोणागिरि हनुमंत।
और शेषनाग सारी सृष्टि उठाई, इनमें कौन भगवंत।।
मूल बात यह है कि भगवान विष्णु जन्म और मृत्यु के चक्र में हैं। वह राम, कृष्ण आदि के रूप में आये। वह पूर्ण परमात्मा कोई और है, विष्णु जी नहीं।
क्या श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी ने बढ़ाई थी द्रौपदी की साड़ी?
भक्तों का मानना है कि द्वापर युग में कौरवों और पांडवों के बीच हुए जुए के खेल के दौरान जब पांडव द्रौपदी को जुए में हार गए और कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी का अपमान करने की कोशिश की तो श्री कृष्ण ने ही उनकी साड़ी बढ़ाई और उसकी लाज बचाई थी। लेकिन सूक्ष्मवेद में प्रमाण है कि वह परमात्मा कविर्देव ही थे, जिन्होंने द्रौपदी की साड़ी बढ़ाकर उसकी लाज बचाई थी।
द्रुपद सुता कुं दीन्हे लीर, जाके अनंत बढ़ाए चीर ।।
जब द्रौपदी कुंवारी थी तब उसने एक अंध महात्मा, जो नग्न अवस्था में होने के कारण खुद को नदी के अंदर छिपा रहे थे, उनको उस समय अपनी साड़ी से कपड़े का एक टुकड़ा दे कर उनका सम्मान बचाया था। वह महात्मा स्वयं कबीर परमेश्वर ही थे, जिन्होंने ऐसी अनोखी लीला की और फिर बदले में परमात्मा ने भरी सभा में द्रौपदी की साड़ी बढ़ाकर उसकी इज्जत बचाई थी।
क्या श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी भगवद गीता के ज्ञान दाता हैं?
श्रीमद्भगवदगीता का ज्ञान दाता 21 ब्रह्माण्डों का स्वामी अर्थात् ब्रह्म काल है, न कि श्री कृष्ण उर्फ श्री विष्णु जी। द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान जब श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों युद्ध के मैदान में थे तो काल ब्रह्म प्रेत की तरह श्री कृष्ण के शरीर के अंदर प्रवेश कर गया। यह काल गीता अध्याय 11:32 में अपना परिचय देते हुए कह रहा है कि 'मैं बढ़ा हुआ काल हूं और सभी लोकों को खाने के लिए अब प्रकट हुआ हूं।' गीता अध्याय 7:25 में यही काल ब्रह्म कहता है, 'मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूं। मैं अपने मूल रूप में किसी के सामने नहीं आता। यह मेरा अटल अविनाशी नियम है। मेरे अव्यक्त रहने के घटिया नियम से अनजान मूर्ख लोग मुझे कृष्ण रूप में प्रकट हुआ मानते हैं। मैं कृष्ण नहीं हूं।‘
गीता अध्याय 11:47 में वह कहता है 'यह मेरा वास्तविक काल रूप है। वेदों में वर्णित किसी भी अभ्यास से या जप-तप या किसी भी क्रिया से कोई भी मुझे देख/ प्राप्त नहीं कर सकता।’ गीता अध्याय 18:62 में वह पूजनीय पूर्ण परमात्मा के बारे में बताता है। अध्याय 18:64 में वह कहता हैं कि 'वह पूर्ण परमात्मा (सर्वशक्तिमान कबीर, सभी ब्रह्मांडों के निर्माता) उसके भी पूज्य भगवान हैं।’ महाभारत युद्ध में भगवान विष्णु/ श्री कृष्ण की भागीदारी नगण्य थी। वह युद्ध को टालने के लिए दो बार शांति दूत बनकर गये। महाभारत युद्ध के दौरान हुआ नरसंहार शैतान ब्रह्म काल की कुटिल इच्छा का परिणाम था।
भृगु ऋषि ने विष्णु जी को लात क्यों मारी?
सतोगुणी भगवान विष्णु विनम्र हैं। यह बात प्राचीन ग्रंथों में वर्णित एक सत्य घटना से सिद्ध होती है। श्री ब्रह्मा जी के एक मानस पुत्र ऋषि भृगु थे, जिन्होंने एक बार त्रिदेवों की परीक्षा ली थी। त्रिदेवों में से कौन श्रेष्ठ है, जिसमें विष्णु जी की विनम्रता ने उन्हें अपने दो भाइयों श्री ब्रह्मा जी और श्री शिव जी से श्रेष्ठ बना दिया था। श्री विष्णु जी की परीक्षा करते हुए ऋषि भृगु ने एक बार उनकी छाती पर लात मारी थी, जब वह अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ विश्राम कर रहे थे। तब श्री विष्णु जी ने ऋषि भृगु जी के पैर को सहलाया और कहा, "हे ऋषिवर! कहीं आपके कोमल पैर को मेरी कठोर पत्थर जैसी छाती से टकराने से चोट तो नहीं लगी?" दूसरी तरफ, परीक्षा के दौरान, ब्रह्मा जी और शिव जी दोनों क्रोधित हो गए। और इस प्रकार, असफल रहे। श्री विष्णु जी ने धैर्य दिखाया अन्यथा उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से श्री भृगु ऋषि जी को अनेक टुकड़ों में काट दिया होता।
कौन से भगवान हैं, जो नारायण हैं - क्या वो विष्णु जी हैं?
परमेश्वर कबीर जी हर युग में इस नाशवान संसार में प्रकट होते हैं और कमल के फूल पर शिशु रूप धारण करके विराजमान होते हैं (प्रमाण: ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 1 मंत्र 8-9)। यह दिव्य लीला वह हर युग में करते हैं। कमल का फूल पानी में उगता है, जहाँ मिट्टी और कीचड़ नहीं होता है। चूंकि भगवान, जल (नार) पर अवतरित (आते है और बैठते हैं) होते हैं, नार+आयन (जल के ऊपर आकर निवास करने वाला)। इसलिए, परमात्मा को नारायण कहा जाता है। सतपुरुष/ परम अक्षर ब्रह्म को यह उपाधि दी गई है। संसार के लोग अज्ञानवश श्री विष्णु को भी नारायण कहने लगे, क्योंकि वे समुद्र के अंदर शेषनाग पर विराजमान हैं। वास्तव में, पूर्ण परमात्मा ही नारायण हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक तरफ एक अधिकारी (साहब) है और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री हैं। दोनों ही एक-एक पद पर हैं। दोनों ही साहब हैं, लेकिन दोनों साहब की ताकत में बहुत बड़ा अंतर है। इसी प्रकार, श्री विष्णु काल के लोक में नारायण (साहिब) है। जबकि पूर्ण परमात्मा पूरी सृष्टि का नारायण (साहिब) है।
कौन है, असली वासुदेव - क्या वो श्री कृष्ण उर्फ विष्णु जी हैं?
श्रीमद्भगवदगीता के 7वें अध्याय के 19वें श्लोक में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म काल कहता है,
बहुनाम, जन्मानाम, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपध्यते, वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः ।।19।।
अर्थ: कई-कई जन्मों के बाद के किसी जन्म में, जिसने सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान (तत्वज्ञान) प्राप्त किया है, वह मेरी पूजा करता है। वासुदेव अर्थात् सर्वव्यापक पूर्ण परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) ही सब कुछ है, जो इस बात को जानता है, वह महात्मा (संत) तो अत्यंत दुर्लभ है।
पूर्ण ब्रह्म ही पापों का नाश करने वाला तथा मुक्ति दाता है। परमेश्वर संपूर्ण ब्रह्मांडों का रचनहार है। उनकी भक्ति से ही मोक्ष मिलेगा। वासुदेव, वास्तव में वेदों में यह परमात्मा का एक महिमात्मक नाम है। यह उनका पर्यायवाची है।
वासुदेव का अर्थ है, जो हर जगह निवास करता है। वासुदेव वह भगवान है, जिनका हर जीवों और हर चीज़ पर नियंत्रण है, वे सबके स्वामी हैं। जिस पर कोई दूसरा मालिक नहीं है। सबका पालनहार, सबका नियंता, कुल का मालिक।
जैसे, विष्णु जी काल के लोक में एकमात्र सतोगुण विभाग के स्वामी हैं, जिनका 21 ब्रह्मांडों में केवल पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल पर नियंत्रण है। इसके अलावा और भी क्षेत्र हैं, जो उनके पिता ज्योति निरंजन के नियंत्रण में आते हैं।
इसी प्रकार, क्षर पुरुष से भी ऊपर का भगवान, स्वामी अक्षर पुरुष है, जो भी केवल सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
इनमें से कोई भी वासुदेव नहीं है। इनमें से कोई भी पूर्ण नियंता नहीं है।
गीता के 8वें अध्याय के 9वें श्लोक में लिखा है, 'सर्वस्य धातारं' अर्थात जो सबका पालन-पोषण करता है, वह मुझसे (गीता ज्ञान दाता) अन्य है। ― वह परमेश्वर कबीर, सतपुरुष/ अकालपुरुष/ शब्द स्वरूपी राम है। वह असंख्य ब्रह्माण्डों का पूर्ण नियन्ता है। वासुदेव अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म ही कर्मों के दण्ड को नष्ट करने वाला है। वह भाग्य के लेख बदल सकता है। इसका मतलब है कि वह हर चीज का मालिक है और वह जो चाहे सो कर सकता है।
पूरा संसार अनजाने में श्रीकृष्ण उर्फ विष्णु जी को ही वासुदेव मानते हैं। दरअसल उनके पिता का नाम वासुदेव था। अत: विष्णु जी वासुदेव नहीं हैं।
नोट: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही वर्तमान में एकमात्र सच्चे संत हैं, जो पूर्ण परमात्मा/ वासुदेव की भक्ति बताते हैं।
परमात्मा ने भगवान शिव को विष्णु रूप धारण करके भस्मागिरि राक्षस से बचाया
भगवान विष्णु रक्षक हैं, उनकी भूमिका प्राणियों की रक्षा करना है। उनके छोटे भाई शिव/ शंकर संहारक हैं। उनकी शक्तियाँ सीमित हैं और जब वे विकट परिस्थितियों में फंस जाते हैं तो वो भी अपनी मदद के लिए परमेश्वर को याद करते हैं। एक बार भस्मागिरी नाम का एक राक्षस था, जिसने 12 वर्षों तक कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के निवास के द्वार के सामने शीर्षासन पर तपस्या की और अपने तप के बदले में शिव जी से उनका भस्मकड़ा प्राप्त किया। उसका उद्देश्य था कि माता पार्वती को अपनी पत्नी बनाऊ। शिव जी से भस्मकड़ा (कंगन) प्राप्त करने के बाद वह शिव/ शंकर जी को ही मारने के लिए दौड़ा। डरे हुए शिव जी, जिन्हें उनके भक्त मृत्युंजय/ कालिंजय/ त्रिकालदर्शी मानते हैं, ने भागकर बचने की कोशिश की। तब आगे जाकर परमात्मा उनके बड़े भाई सतोगुणी विष्णु जी का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुए और फिर शिव जी को भस्मागिरी की राख दिखाई, जिसे परमात्मा ने पहले ही पार्वती रूप बनाकर भस्म कर दिया था। तब शिव जी की धड़कन सामान्य हुई अन्यथा शिव/ शंकर को अपनी मृत्यु का डर बन गया था।
अब तक यह मिथक था कि भगवान विष्णु ने भस्मागिरि को मारकर शिव जी की जान बचाई, जबकि सच्चाई यह है कि परमात्मा ने पार्वती और फिर विष्णु जी का रूप धारण करके शिव जी को बचाया।
विशेष: यह घटना स्पष्ट करती है कि शिव जी नाशवान हैं, वह त्रिकालदर्शी नहीं हैं अन्यथा वह राक्षस भस्मागिरि की कुटिल मंशा को क्यों नहीं समझ सके? इसके आलावा, विष्णु जी भी असमर्थ थे। इसलिए, शिव जी को बचाने के लिए परमात्मा को ही आना पड़ा। यह सत्य प्रमाण सूक्ष्मवेद में वर्णित है। इसका उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में इस तरह किया गया है-
गरीब, शिव कुण ऐसा बुर दिया, अपनी परी आया।
भागी फिर तिहुं लोक में, भस्मगिरि लिये ताये।।
गरीब, विष्णु रूप धरि छल किया, मारे भस्म भूत।
रूप मोहिनी धरि लिया, बेगि सिंघारे दूत ।।
क्या बुद्ध विष्णु जी के अवतार हैं?
महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के स्थापक हैं, जिन्हें जगत के आम लोग श्री विष्णु जी का नौवां अवतार मानते हैं। यह मान्यता अज्ञानता के कारण है, यह एक मिथक है। वास्तव में भगवान बुद्ध एक पुण्यात्मा थे, जो विष्णुलोक से आए थे। लेकिन वे भगवान विष्णु के अवतार नहीं थे। स्वर्ग में अपना समय पूरा करने के बाद उस पुण्यात्मा ने ब्रह्म काल के लोक में 84 लाख योनियों में जीवन प्राप्त करने के नियम अनुसार मानव जन्म लिया था।
क्या कल्कि विष्णु जी के अवतार होंगे?
माना जाता है कि भगवान विष्णु ने नौ बार पृथ्वी पर अवतार लिया है। उनका दसवां अवतार कल्कि का माना जाता है, जो अभी तक नहीं हुआ है।
संदर्भ: श्रीमद्भागवत, द्वादश स्कन्ध, द्वितीय अध्याय 'कलयुग का धर्म', पृष्ठ नं.935-936 में घोर कलयुग के दौरान होने वाले लोगों के दयनीय जीवन और खतरनाक वातावरण का वर्णन किया गया है। सूक्ष्म वेद के प्रमाण बताते हैं कि कलियुग के अंत तक राजा हरिश्चंद्र की आत्मा, जो वर्तमान में सतयुग में किए गए पुण्य कर्मों के आधार पर विष्णुलोक में निवास कर रही है, ब्रह्म काल/ क्षर पुरुष द्वारा भेजी जाएगी। वह कल्कि/ निहकलंक अवतार होगा। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में होगा। उनके पिता विष्णु दत्त शर्मा होंगे, जो यूपी के मुरादाबाद के नजदीकी शहर संभल के प्रमुख होंगे।
कल्कि उस समय अधर्म का नाश करके शांति स्थापित करेंगे, जब प्रजा ही नहीं राजा भी अन्यायी हो जायेंगे। कल्कि सभी अत्याचारियों और अन्यायियों को मार डालेंगे। इस चराचर जगत का वह उद्धारकर्ता और भगवान होगा।
इससे प्रमाणित होता है कि श्री विष्णु जी खुद नहीं बल्कि वर्तमान में विष्णुलोक में निवास करने वाले राजा हरिश्चंद्रवाली पुण्य आत्मा ही कल्कि अवतार बनकर आयेगी।
विष्णु पुराण का सार
सांसारिक लोगों का आध्यात्मिक ज्ञान केवल विष्णु जी, इस संसार में उनकी भूमिका, उत्तरदायित्व, उनके अवतार, उनकी पूजा-पद्धति आदि तक ही सीमित है। वो महाविष्णु यानी भगवान विष्णु के पिता ब्रह्म काल के बारे में कुछ भी नहीं जानते, जो वास्तव में एक धोखेबाज, कसाई और बेईमान है (क्योंकि इसे रोज 1 लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार करने का श्राप लगा हुआ है, जिसकी पूर्ति के लिये वह ऐसे बुरे कर्म करता व करवाता है)। विष्णु पुराण ब्रह्म काल के ऐसे अलौकिक बुरे कर्मों के बारे में प्रमाण प्रदान करता है, चाहे, वह राजा शशाद के पुत्र राजकुमार पुरंजय के शरीर में प्रवेश कर के राक्षसों का रक्तपात करने में खलनायक के रूप में उसकी भूमिका हो या युवनाश्व के पुत्र पुरुकुत्स के शरीर में प्रवेश करने के बाद गंधर्वों का किया गया नरसंहार हो, आदि।
विष्णु पुराण महाविष्णु और उनकी पत्नी महालक्ष्मी के जीवन के इर्द-गिर्द घूमता है। दोनों ने अपने 21 ब्रह्मांडों की रचना कैसे की? उनसे भगवान विष्णु की उत्पत्ति आदि कैसे हुई? इन विषयों से भक्त समाज अनजान है। वे विष्णु पुराण में वर्णित सभी प्रसंग और विवरण को श्री विष्णु जी का ही मानते हैं।
नाशवान महाविष्णु और भगवान विष्णु मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते
मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति ही है। भक्त ब्रह्म, ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे देवताओं के मंत्रों का जाप करते हैं, जो स्वयं नाशवान हैं। वे जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं और मोक्ष दाता नहीं है। इसका उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में किया गया है,
तीन देव की जो करते भक्ति, उनकी कदे न होवे मुक्ति।।
सतोगुणी भगवान विष्णु त्रिदेवों में से एक हैं। वह आत्माओं को पूर्ण मुक्ति प्रदान नहीं कर सकते, क्योंकि वह खुद ही अभी तक मुक्त नहीं हुए हैं। इसलिए, उनके पिता काल-ब्रह्म गीता अध्याय 8:16 में कहते हैं कि उनकी प्राप्ति अश्रेष्ठ/अनुत्तम है क्योंकि ब्रह्मलोक में गए हुए साधक पुनरावृत्ति में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) रहते हैं।
अत: सिद्ध हुआ कि न तो नाशवान विष्णु जी और न ही उनके पिता महाविष्णु, कोई भी मोक्ष दाता नहीं है। वह कबीर परमेश्वर ही हैं, जो कसाई ब्रह्म काल के जाल में फंसे प्राणियों को मुक्ति दिलाते हैं और उन्हें शाश्वत लोक सतलोक में स्थायी स्थान प्रदान करते हैं।
सकल सृष्टि का स्वामी कौन है?
विष्णु जी को अनजाने में लोकवेद के आधार से परमात्मा मान लिया गया है। कोई भी पवित्र ग्रंथ इसका प्रमाण नहीं देता। जबकि सूक्ष्मवेद सिद्ध करता है कि कविर्देव ही संपुर्ण सृष्टि के स्वामी हैं। वह (कविर्देव) खुद अपने निवास स्थान के बारे में जानकारी देते हुए कहते हैं,
कबीर, सोलह शंख पर हमरा तकिया, हम गगन मंडल के जिन्दा ।।
हुकम हिसाबी हम चले आये, काटन जम का फंदा ।।
इसके अतिरिक्त सूक्ष्मवेद में वर्णित अमृतवाणी से भी जानकारी मिलती है।
संदर्भ: यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक वाणी नं. 13 व 14, पृष्ठ नं 131 पर,
कच्छ, मच्छ, कुरम्भ और धौला। सिरजनहार पुरुष है मौला।। 13
लख चौरासी साज बनाया। भगलीगर कूं, भगल उपाया।।14
भावार्थ: पौराणिक लोग कच्छ-मच्छ, कुरम्भ तथा धौल के अवतार मानते हैं, जिनके ऊपर पृथ्वी रखी गई है, इसके विषय में आदरणीय संत गरीब दास जी महाराज कहते हैं कि इनका भी रचयिता मौला (सतपुरुष) है। परमात्मा को भगलीगर (जादूगर) की उपाधि देकर कहा गया है कि कुछ लोग कहते हैं कि सबसे पहले बीज था, फिर उसी से वृक्ष की उत्पत्ति हुई। तो कुछ लोग पूछते हैं, 'बीज किसने बनाया? बीज कहां से आया?'
संत गरीबदास दास जी ने स्पष्ट किया है कि जादूगर कभी अपनी मुठ्ठी में गेहूँ बना लेता है तो कभी सिक्का। इसी प्रकार परमात्मा ने 84 लाख योनियाँ बनाई है। फिर उन्होंने विधान बना दिया, उसी के आधार पर, फिर आगे सृजन और विनाश अपने आप घटित होता रहता है।
वाणी नं 15
उपजै-बिनसैं आवैं जाहीं। मूल बीज कूं, संशय नाहीं।।15
अर्थ: परमात्मा ने एक जादूगर की तरह सृष्टि की रचना की है। फिर उन्होंने विधान बना दिया, जीव अपने कर्मों के अनुसार आते रहते हैं, यानी जन्म लेते हैं और फिर दुनिया छोड़ देते हैं यानी मर जाते हैं, लेकिन मूल आत्मा यथावत रहती है। इसका मतलब है कि आत्मा अमर है। इसे कोई खतरा नहीं है। परमेश्वर ने अपनी शब्द शक्ति से, अपने ही भीतर से आत्माओं की रचना की है जो परमेश्वर के समान अमर गुणों से युक्त है। काल के लोक में आत्माएं पंचभौतिक शरीर धारण कर लेती हैं और जीवात्मा कहलाती हैं। आत्मा अविनाशी है, जीव नाशवान है। जीव का ऐसा शरीर है, जो जन्म लेता रहता है और मर जाता है। जब आत्मा को मुक्ति मिल जाती है तो फिर वह जीव नहीं रहता अन्यथा वह रूप बदलता रहता है।
यह सर्व रचना सृष्टिकर्ता परमात्मा ने की है, जो कोई और नहीं सतपुरुष कबीर साहेब हैं, श्री विष्णु नहीं।
निष्कर्ष
उपरोक्त, रचनांशों से साबित होता है कि
- भगवान विष्णु नाशवान हैं। वह जन्म और मृत्यु के चक्र में हैं। पालनहार भगवान विष्णु 21 ब्रह्माण्डों में केवल सतोगुण विभाग के मंत्री (प्रधान) हैं।
- कसाई ब्रह्म काल उसका पिता है और देवी दुर्गा उसकी माता है।
- विष्णु जी के दादा सर्व सृष्टि के रचनहार भगवान अर्थात् परमात्मा कविर्देव हैं।
- विष्णु जी मोक्ष नहीं दे सकते क्योंकि वे शैतान काल के जाल (जन्म-मृत्यु के चक्र) में स्वयं फंसे हुए हैं।
- विष्णु जी का सच्चा मंत्र कोई तत्वदर्शी संत बताता है, जिसके जाप से विष्णु जी कृपा बरसाते हैं।
- जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही इस समय पृथ्वी पर सच्चे सतगुरु हैं। वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान और वास्तविक मोक्ष मंत्र प्रदान कर रहे हैं।
- जीवों के लिए परम शांति प्राप्त करने योग्य लोक सतलोक है, न कि विष्णुलोक।