भारत में बने तीर्थयात्रा के शीर्ष स्थानों (धामों) की जानकारी


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नकली ऋषियों, संतों, आध्यात्मिक गुरुओं ने जो शैतान ब्रह्म-काल के पक्के एजेंट थे, अज्ञानता के कारण लोक कथाओं, किंवदंतियों और धार्मिक ग्रंथों के गलत अनुवादों को सुना-सुनाकर भक्तों को गुमराह किया है और साधकों को पूर्ण ईश्वर की पूजा से विमुख कर उन्हें केवल मूर्ति पूजा तक ही सीमित कर दिया है। तीर्थ स्थानों पर जाना केवल अंध पूजा है। यह पूजा का एक मनमाना तरीका है और पवित्र श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार ऐसा करना वर्जित है जबकि खलनायक ब्रह्म-काल यही चाहता है कि मनुष्य गलत भक्ति करता रहे और असली भगवान कौन है तथा उसकी पूजा के सही तरीके की जानकारी उसे न हो सके।

ब्रह्म-काल सभी आत्माओं को धोखा देता है और अपने काल जाल में फंसाए रखता है क्योंकि सभी जीवात्माएं उसका भोजन हैं और उसे हमेशा यह डर लगा रहता है कि कहीं सभी आत्माएँ सच्ची पूजा करने से अपने मूल शाश्वत लोक 'सतलोक' को प्राप्त न कर लें और उसके इक्कीस ब्रह्मांड खाली हो जायें।

शैतान/काल के लोक में सुख-शान्ति का नामोनिशान नहीं है। साधक सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों, गुरुद्वारों और कई तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लेकिन क्या पूजा का ये तरीका सही है? क्या इन तथाकथित पवित्र स्थानों और तीर्थों में भगवान विराजमान हैं? आइए आगे प्रमाण सहित जानते हैं।

साधक तीर्थ स्थानों पर क्यों जाते हैं?

ईश्वर मंदिर, मस्जिद, चर्च और किसी तीर्थ स्थान में जाने से नहीं मिलता है। तो, साधक तीर्थ स्थानों पर क्यों जाते हैं? क्या तीर्थ यात्रा करने से भक्तों को कोई लाभ मिलता है? आइए इस पर एक गहन विश्लेषण करें:

  • तीर्थ स्थलों की स्थापना क्यों हुई?
  • तीर्थ यात्री कौन होते हैं?
  • तीर्थ यात्रा क्या है?
  • तीर्थ यात्रा की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?
  • तीर्थ स्थान क्या हैं?
  • लोकप्रिय हिंदू तीर्थ स्थलों की स्थापना कैसे हुई?
  • तीर्थ यात्रा पर जाने के जोखिम क्या हैं?
  • क्या तीर्थ स्थानों के दर्शन करने से मुक्ति संभव है?
  • पवित्र शास्त्रों के अनुसार श्रेष्ठ तीर्थ कौन सा है?
  • विभिन्न धर्मों के तीर्थ स्थान
  • पूज्यनीय भगवान कौन है?

तीर्थस्थलों की स्थापना क्यों हुई?

संदर्भ: पवित्र कबीर सागर अध्याय 'ज्ञान सागर' पृष्ठ 62-63 वाणी'अनुराग सागर' से

ब्रह्म-काल के 21 ब्रह्माण्ड स्थापित होने के बाद, यहां फँसी हुई आत्माएँ अपने मूल लोक 'सतलोक' की तरह यहां पृथ्वी पर भी सुख की कामना करती हैं। परन्तु हमारे दुख को हमेशा के लिए खत्म करने और हमें काल के जाल से आज़ाद कराने के लिए पूर्ण परमात्मा कविर्देव इस इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में अवतरित हुए जहाँ काल का वास है। कबीर परमेश्वर ने हम पर अत्याचार करने के लिए ब्रह्म-काल को डांटा और अपनी प्रिय आत्माओं को वापस 'सतलोक' ले जाने का इससे समझौता किया। काल ने कहा, 'अब, यहां कोई भी आपकी बात नहीं सुनेगा क्योंकि मैंने उन्हें मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों और तीर्थ यात्राओं जैसी व्यर्थ की पूजा-अर्चना करने के तरीकों में उलझाकर उनका आचरण खराब कर दिया है।'

नीचे दिए गए कथन में अलग-अलग तरीकों का वर्णन किया गया है कि कैसे ब्रह्म-काल अपनी भूख मिटाने के लिए जीवित प्राणियों को भूलभुलैयां में ऊलझाए रखता है:

धर्मराय (काल निरंजन) का कथन

बेसक जाओ ज्ञानी संसारा। जीव न मानै कहा तुम्हारा।।

कहा तुम्हारा जीव ना मानै। हमरी और होय बाद बखानै।।

दृढ़ फंदा मैं रचा बनाई। जामें सकल जीव उरझाई ।।

वेद-शास्त्र समर्ति गुणगाना। पुत्र मेरे तीन प्रधाना।।

तीनहू बहु बाजी रचि राखा। हमरी महिमा ज्ञान मुख भाखा।।

देवल देव पाषाण पुजाई। तीर्थ व्रत जप तप मन लाई।।

पूजा विश्व देव अराधी। यह मति जीवों को राखा बाँधि।।

जग (यज्ञ) होम और नेम आचारा। और अनेक फंद मैं डारा।।

ब्रह्म-काल नहीं चाहता कि आत्माओं को परम अक्षर पुरुष के बारे में पता चले इसलिए वह मनमानी पूजा करने के लिए सभी जीवों को गुमराह रखता है। उसने हमें यहां अनेक धर्मों में बाँट दिया है और तीर्थ स्थानों पर जाने जैसी गलत पूजा-पद्धति में फंसाए रखता है। उसने दुनियाभर में कई तीर्थ स्थलों की स्थापना की हुई है, जहां जाना सरासर अनमोल मानव जीवन को बर्बाद करना है। हमारा मनुष्य जीवन यूं ही बर्बाद होता रहे, तीर्थों की स्थापना का यही एक मुख्य कारण भी है।

विवरण के लिए पढ़ें भगवान कबीर की काल से वार्ता

तीर्थ यात्री कौन है?

एक धार्मिक व्यक्ति जो भक्ति-भाव से किसी मंदिर या पवित्र स्थान की यात्रा करता है, उसे 'तीर्थयात्री' कहा जाता है। जिस भक्त में भगवान को पाने की तीव्र इच्छा होती है वह इस आशा के साथ तीर्थों की यात्रा करता है कि शायद वह कभी किसी दिन भगवान से मिल सकेगा और उनकी कृपा को प्राप्त कर सकेगा। ऐसी इच्छा रखने वाले श्रद्धालु यात्री को ही तीर्थ यात्री कहा जाता है।

तीर्थ यात्रा क्या है?

तीर्थ यात्रा एक विशेष धार्मिक विश्वास के साथ और आध्यात्मिक जागृति के लिए की जाती है। भूतकाल में किसी देवी-देवता या सिद्ध पुरुष के साथ हुए चमत्कारों के बाद उस विशेष तीर्थ स्थान की स्थापना हुई जहां लोग अब उन देवताओं का आशीर्वाद व मन इच्छा फल पाने के लिए जाते हैं। ऐसे तथाकथित पवित्र स्थानों को देखने की जिज्ञासा से भक्त उस दिव्य स्थान पर इस विश्वास के साथ बड़ी संख्या में आते हैं जो अब स्मारक का रूप ले चुके हैं, परंतु लोग भ्रमित हैं और ये भूल चुके हैं कि भगवान पत्थरों / मूर्तियों में निवास नहीं करते हैं, बल्कि भगवान के दर्शन साक्षात किए जा सकते हैं।

तीर्थ यात्रा की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?

तीर्थ यात्रा दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों जैसे कि हिंदू, इस्लाम, बौद्ध, ईसाई, सिख, यहूदी में की जाती है। तीर्थ यात्रा में कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे:-

  • सुदूर स्थानों की ओर आवाजाही।
  • विशिष्ट पवित्र स्थानों में विश्वास होना जिसे सामान्य स्थान से अलग माना जाता है क्योंकि यहाँ भूतपूर्व कोई अलौकिक/चमत्कारिक घटना घटी थी जैसे कि किसी पवित्र व्यक्ति/देवता की उपस्थिति या प्रकट होना/कोई विशेष चमत्कार होना इत्यादि।
  • परमात्मा के दर्शन करने के लिए किसी साधु, संत या ऋषि द्वारा तपस्या या हठ योग करना या मौन बैठना
  • तीर्थ यात्रा करने के बाद एक व्यक्ति का आध्यात्मिक रूप से नवीनीकृत तीर्थ यात्री रुप में परिवर्तित होना।

"तीर्थ/धाम" क्या है?

कुछ ऋषि उपासक किसी स्थान पर या किसी जलाशय के निकट बैठकर ईश्वर और सिद्धियां प्राप्ति के लिए वर्षों तप किया करते थे अथवा समय-समय पर अपनी आध्यात्मिक शक्ति सिद्धि का प्रदर्शन भी करते थे। अंत में अपनी भक्ति कमाई करके उसे साथ लेकर अपने पूज्य ईष्ट के लोक में चले जाते थे (अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे)। उनकी मृत्योपरांत वह स्थल "तीर्थस्थल" के रूप में पहचाना जाने लगता था। अब यदि कोई उस स्थान को देखने की इच्छा से या मन इच्छा फल प्राप्ति के लिए वहां जाता भी है, जहां कोई साधक पहले साधना करता था (जब तक वह जीवित था) और उसने साधना करने के दौरान शायद अनेकों या कुछेक का कल्याण भी किया हो सकता है तो वह स्थान अब किसी काम का नहीं क्योंकि वहां अब कोई संत नहीं रहता जिससे अब कोई व्यक्ति लाभ या ज्ञान प्राप्त कर सके। वह साधक तो कमाई करके चला गया, मृत्यु को प्राप्त हो गया। अब उस स्थान पर जाने से किसी को कोई लाभ नहीं मिल सकता।

कृपया विचार करें:- तीर्थ स्थानों को उदाहरण के लिए ओखली और मूसल (पदार्थों और औषधियों को पीसने के लिए उपयोग किया जाने वाली वस्तु) समझें। एक व्यक्ति ने अपने पड़ोसी से ओखली और मूसल उधार ली। उन्होंने उसमें कुछ सुगंधित पदार्थ/जड़ी-बूटियाँ पीस लीं और धोकर वापस कर दिया। जिस कमरे में ओखली-मूसल रखे हुए थे, उस कमरे में सुगंध आने लगी। परिवार के सदस्यों को आश्चर्य हुआ कि यह सुगंध कहाँ से आ रही है और उन्होंने पाया कि यह ओखली और मूसल में से आ रही थी। उन्होंने समझ लिया, जिस पड़ोसी ने उधार लिया था; उसने अवश्य ही कोई सुगंधित पदार्थ पीसा होगा। कुछ दिनों बाद वह खुशबू भी आनी बंद हो गई।

इसी प्रकार तीर्थ को भी ओखली-मूसल के समान समझो। एक व्यक्ति ने कुछ सुगंधित पदार्थ पीसकर खाली ओखली और मूसल उस व्यक्ति को लौटा दी जिससे उसने इसे उधार लिया था। अब यदि सामने वाला व्यक्ति उस ओखली-मूसल को सूंघकर ही संतुष्ट हो जाए तो यह उसकी मूर्खता होगी। पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए उसे ओखली मूसल में वास्तविक सुगन्धित पदार्थ ही पीसना होगा।

इसी प्रकार किसी "तीर्थ स्थान" पर रहने वाली एक पवित्र आत्मा "भगवान के नाम" की सामग्री को पीसकर और पोंछकर अपनी सारी कमाई अपने साथ ले गया। बाद में यदि अज्ञानी भक्त उस स्थान पर जाने में ही अपना कल्याण समझते हैं तो यह उनका भोलापन और मूर्खता है तथा उनके मार्गदर्शकों (गुरुओं) द्वारा बताई गई आधारहीन पूजा पद्धति का परिणाम है।

लोकप्रिय हिंदू तीर्थ स्थलों की स्थापना कैसे हुई?

हमारे पुराण, हिंदू तीर्थ यात्राओं की स्थापना के संबंध में सच्ची कहानियों पर प्रकाश डालते हैं। उनके अध्ययन और विश्लेषण से यह सिद्ध होता है कि इन तीर्थ स्थानों पर जाना महज़ एक अंधी पूजा पद्धति है, अत: व्यर्थ है और जिसे अंधश्रद्धा भक्ति कहेंगे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

आइए हिंदू तीर्थ/धाम की स्थापना से संबंधित तथ्यों का अध्ययन करें।

  • शुक्र तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?
  • सरस्वती संगम तीर्थ एवं पुरूरवा तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?
  • वृद्ध संगम तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?
  • अश्व तीर्थ अथवा भानु तीर्थ एवं पंचवटी आश्रम की स्थापना कैसे हुई?
  • जन स्थान तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?
  • पुरी-उड़ीसा में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
  • श्री अमरनाथ धाम की स्थापना कैसे हुई?
  • वैष्णो देवी के मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
  • नैना देवी मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
  • ज्वाला जी के मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
  • अन्नपूर्णा देवी के मंदिर की स्थापना कैसे हुई?
  • भारत में केदारनाथ और नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

शुक्र तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?

संदर्भ: श्री ब्रह्म पुराण के रचयिता कृष्णद्विपायन हैं अर्थात् व्यास जी। प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ 167-168 है।

गोमती नदी के तट के पास का वह स्थान जहाँ ऋषि भृगु के पुत्र 'शुक्र' ने भगवान महेश्वर की पूजा की और ज्ञान प्राप्त किया, वह स्थान 'शुक्र तीर्थ' (तीर्थ यात्रा) के रूप में जाना जाता है।

सरस्वती संगम तीर्थ एवं पुरुरवा तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?

संदर्भ: श्री ब्रह्म पुराण पृष्ठ 172-173

पुरुरवा नाम का एक राजा था जो एक दिन ब्रह्मा जी की सभा में गया और उसने  वहां उनकी खुबसूरत पुत्री सरस्वती को देखा। उसके सौन्दर्य से मोहित होकर उसने उससे मिलने का प्रस्ताव रखा जिसे पाकर सरस्वती ने स्वीकृति दे दी। वे दोनों सरस्वती नदी के तट के पास मिले और वर्षों तक उनके बीच संबंध बने रहे। एक दिन श्री ब्रह्मा जी ने उन्हें शर्मनाक स्थिति में पकड़ लिया और झुंझलाकर उन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती को श्राप दे दिया। वह नदी के रूप में विलीन हो गयी। जिस स्थान पर राजा पुरुरवा और सरस्वती के, नदी के तट पर घनिष्ठ संबंध हुआ करते थे वह स्थान 'सरस्वती संगम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिस स्थान पर बाद में राजा पुरुरवा ने 'महादेव' की पूजा की वह स्थान 'पुरूरवा तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

वृद्ध संगम तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?

संदर्भ: श्री ब्रह्म पुराण पृष्ठ 173-175

गौतम नाम के एक ऋषि थे। उन्होंने 10,000 वर्ष की आयु तक विवाह नहीं किया। ( उस समय इंसानों की उम्र बहुत लंबी हुआ करती थी)। वह वेदों को नहीं जानते थे और केवल 'गायत्री मंत्र' जानते थे जिसका वह जाप करते थे। एक दिन वह एक गुफा में गए जो पहाड़ी पर थी। वहां उनकी मुलाकात 90,000 वर्ष की एक वृद्ध महिला से हुई। वह विवाह करने के लिए तपस्या कर रही थी। जब वह ऋषि गौतम से मिली तो उन दोनों ने शादी कर ली। एक दिन ऋषि 'वशिष्ठ' और ऋषि 'वामदेव' अन्य ऋषियों के साथ उस गुफा में आये। उन्होंने ऋषि 'गौतम' का मज़ाक उड़ाते हुए कहा, 'क्या यह बुढ़िया आपकी माँ है या दादी है? उन ऋषियों की टिप्पणी से गौतम ऋषि और बुढ़िया दुखी हो गये।' उन ऋषियों के चले जाने के बाद; ऋषि 'अगस्त' के सुझाव पर वे दोनों गोदावरी नदी के पास गौतमी नदी के तट पर गये और वहां उन्होंने घोर तपस्या की। उन्होंने गंगा नदी से भगवान शिव और भगवान विष्णु का भी स्मरण किया।

उनकी पूजा से प्रसन्न होकर, गंगा नदी ने ऋषि गौतम से कहा, “हे ब्राह्मण! तुम मेरे जल से अपनी पत्नी पर मन्त्र जपते हुए अभिषेक करो। इससे वह जवान और खूबसूरत हो जायेगी”। गंगा नदी की आज्ञा मानकर उन दोनों ने वह अनुष्ठान किया। दोनों पति-पत्नी जवान और सुन्दर दिखने लगे। उस मन्त्र-जल से 'वृद्ध' नामक नदी बहने लगी। उसी स्थान पर गौतम ऋषि का उसी वृद्धा से संबंध हुआ जो युवा और सुंदर हो गई थी। तभी से उस स्थान का नाम 'वृद्ध संगम तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ऋषि गौतम ने पूजा हेतु उस स्थान पर 'शिवलिंग' की स्थापना की जो 'वृद्धेश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अश्व तीर्थ अथवा भानु तीर्थ एवं पंचवटी आश्रम की स्थापना कैसे हुई?

संदर्भः श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 162-163 तथा श्री मार्कण्डेय पुराण पृष्ठ 173 से 175 पर लिखा है ‘‘महर्षि कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र आदित्य (सूर्य देव) है, उनकी पत्नी का नाम उषा है (मार्कण्डेय पुराण में सूर्य की पत्नी का नाम संज्ञा लिखा है जो महर्षि विश्वकर्मा की बेटी है) सूर्य पत्नी अपने पति सूर्य के तेज को सहन न कर सकने के कारण दुःखी रहती थी। एक दिन अपनी सिद्धि शक्ति से अन्य स्त्री अपनी ही स्वरूप की उत्पन्न की उसे कहा आप मेरे पति की पत्नी बन कर रहो तेरी तथा मेरी शक्ल समान है। आप यह भेद मेरी सन्तान तथा पति को भी नहीं बताना यह कह कर संज्ञा (उषा) तप करने के उद्देश्य से उत्तर कुरूक्षेत्र में चली गई वहाँ घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या करने लगी। भेद खुलने पर सूर्य भी घोड़े का रूप धारण करके वहाँ गया जहाँ संज्ञा (उषा) घोड़ी रूप में तपस्या कर रही थी। घोड़े रूप में सूर्य ने घोड़ी रूप धारी संज्ञा से संभोग करना चाहा।

उषा (संज्ञा) घोड़ी रूप में वहाँ से भाग कर गौतमी नदी के तट पर आई घोड़ा रूप धारी सूर्य ने भी पीछा किया। वहाँ आकर घोड़ी रूप में अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूप धारी पति को न पहचान कर उस की ओर अपना पृष्ठ भाग न करके मुख की ओर से ही सामना किया। दोनों की नासिका मिली। सूर्य वासना के वेग को रोक नहीं सके तथा घोड़ी रूप धारी उषा (संज्ञा) के मुख ओर ही संभोग करने के उद्देश्य से प्रयत्न किया। नासिका द्वारा वीर्य प्रवेश से घोड़ी रूप धारी उषा के मुख से दो पुत्र अश्वनी कुमार (नासत्य तथा दस्र) उत्पन्न हुए तथा शेष वीर्य जमीन पर गिरने से रेवन्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह स्थान अश्व तीर्थ भानु तीर्थ तथा पंचवटी आश्रम नाम से विख्यात हुआ। उसी स्थान पर सूर्य की बेटियों का अरूणा तथा वरूणा नामक नदियों के रूप में समागम हुआ। उसमें भिन्न-भिन्न देवताओं और तीर्थों का पथक-पथक समागम हुआ है। उक्त संगम में सताईस हजार तीर्थों का समुदाय है।

जन स्थान तीर्थ की स्थापना कैसे हुई?

सन्दर्भ: गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री ब्रह्म पुराण पृष्ठ 161-162

राजा जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा, “हे द्विज श्रेष्ठ! महर्षियों ने यह निश्चय किया है कि भोग और मोक्ष दोनों ही श्रेष्ठ हैं। आप समझाइए! भोग से मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है?” ऋषि 'याज्ञवल्क्य' ने कहा कि इसका उत्तर 'ससुर' वरुण जी ही ठीक से दे सकते हैं। आइए हम उनसे मिलें और पूछें। दोनों देवता वरुण जी के पास गए जिन्होंने उन्हें बताया कि “वेदों में काम की उपेक्षा करने; और कर्म करना बेहतर है” इस मार्ग को निर्धारित किया है। धर्म, अर्थ, भोग और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ से बंधे हैं। नृपश्रेष्ठ! कर्म से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए मनुष्य को सभी प्रकार से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। इससे उन्हें इस लोक में सुख और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। काम न करने की अपेक्षा कर्म करना अधिक लाभदायक है। इसके बाद राजा जनक ने ऋषि 'याज्ञवल्क्य' को 'पुरोहित' बनाया और गंगा नदी के तट पर कई यज्ञ किये। अत: वह स्थान “जन स्थान तीर्थ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पुराणों में पूर्वोक्त लेख का निष्कर्ष

साक्ष्य संख्या 1 में कहा गया है कि ऋषि भृगु के पुत्र 'शुक्र' ने गौतमी नदी के तट पर पूजा की थी जिसके कारण वह स्थान 'शुक्र तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यदि कोई यह मानता है कि केवल स्नान करने मात्र से या निकम्मे, अधर्मी लोगों, नकली संतों, ऋषियों व अन्य किसी को भी यूं ही दान देने से मोक्ष मिल जाता है तो वह व्यक्ति अज्ञानी है। भगवान की जो पूजा 'शुक्राचार्य' ने की थी, अगर वही पूजा कोई करेगा तो उसे वही लाभ मिलेगा जो 'शुक्राचार्य' को मिला था।

साक्ष्य संख्या 5 के लिए उसी स्थिति पर विचार करें। गंगा नदी के तट पर जिस स्थान पर राजा जनक ने कई अश्वमेघ यज्ञ किये थे जिसमें उस समय करोड़ों रूपए खर्च हुए थे (वर्तमान में वह खर्च अरबों में है) तब राजा जनक को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। यदि कोई अज्ञानी यह दावा करता है कि ‘जन स्थान तीर्थ’ में जाकर स्नान करने तथा शराबियों को दान देने से वही लाभ होगा जिससे स्वर्ग प्राप्त हो सकता है; तो क्या इसे उचित ठहराया जा सकता है? इतना करने के बाद भी राजा जनक की मुक्ति नहीं हो सकी। उसी आत्मा ने कलयुग में कालूराम मेहता के घर, नानक देव जी के रूप में जन्म लिया। नानक देव जी को परमात्मा कबीर साहेब जी मिले, सत्य ज्ञान समझाया, नाम दीक्षा दी और तब सत्य भक्ति करके नानक जी ने मोक्ष प्राप्त किया।

साक्ष्य संख्या नं. 2 में ब्रह्मा जी की पुत्री सरस्वती को उसके पिता ने श्राप दिया था क्योंकि उसने राजा पुरूरवा के साथ अवैध संबंध बनाए थे। वह स्थान जहां सरस्वती और राजा पुरूरवा ने घोर पाप (बिना विवाह के शारीरिक संबंध बनाना) किया था, वह स्थान सरस्वती संगम तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

कृपया विचार करें- क्या ऐसे स्थान पर जाने और स्नान करने से कोई लाभ हो सकता है जहां दोनों ने गलत काम किया हो?

ऐसा साक्ष्य संख्या 3 में कहा गया है कि गौतम ऋषि का विवाह 10,000 वर्ष की आयु में 90,000 वर्ष की वृद्धा से हुआ था। युवा बनने की इच्छा से दोनों ने गोदावरी नदी के पास गौतमी नदी के तट पर तपस्या की। दोनों ने एक-दूसरे पर मंत्रित जल का अभिषेक किया और युवा हो गये। फिर वे पति-पत्नी की तरह व्यवहार करते हैं और वह स्थान 'वृद्ध संगम तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

कृपया विचार करें- ऐसे तीर्थों के दर्शन से आत्म-कल्याण के स्थान पर विनाश ही होगा। कोई अंतिम मुक्ति संभव ही नहीं है।

ऐसा साक्ष्य संख्या 4 में कहा गया है कि सूर्य देव की पत्नी घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या कर रही थी। उत्साहित सूर्य देव घोड़े का रूप धारण कर अपनी पत्नी के पास पहुंचे जो घोड़ी के रूप में थी जिसने अपने पति को न पहचानकर उसे संबंध बनाने की अनुमति नहीं दी। संबंध बनाए रखने के गलत तरीके के कारण घोड़ी के मुँह से दो पुत्र और उसके गिरे हुए वीर्य से एक पुत्र ने जन्म लिया। वह स्थान अश्व तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहां सूर्य देव की दो पुत्रियां नदियां बन कर बहने लगीं जिससे वह स्थान 'पंचवटी आश्रम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वही स्थान 'भानु तीर्थ' के नाम से भी प्रसिद्ध है।

कृपया विचार करें - क्या ऐसी व्यर्थ कथाएँ सुनने और इन तीर्थों के दर्शन करने से कोई लाभ मिल सकता है?

विशेष - पूर्ण मोक्ष केवल शास्त्रानुकूल भक्ति करने से ही संभव है, न कि इन शर्मनाक कहानियों को सुनने या इन तथाकथित तीर्थ स्थानों पर जाने से।

पुरी-उड़ीसा में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

सर्वशक्तिमान कविर्देव ने ब्रह्म-काल के साथ एक समझौता किया था। जब परमात्मा पहली बार शैतान-काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मांडों में आए थे और समझौते अनुसार उन्होंने जगन्नाथ मंदिर के निर्माण में मदद की। भगवान कृष्ण द्वारा उड़ीसा के राजा इंद्रदमन को स्वप्न में दिए गए निर्देश पर; उन्होंने अपने राज्य की अधिकतम संपत्ति का उपयोग करके पांच बार जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया लेकिन हर बार समुद्र ने उस मंदिर को ध्वस्त कर दिया। वचन के अनुसार कबीर परमेश्वर ने राजा इंद्रदमन को मंदिर बनाने में सहायता की। यह भारत का एकमात्र मंदिर है जहां प्रारंभ से ही कोई छुआछूत नहीं रही है। भगवान श्री कृष्ण, श्री बलराम जी और उनकी बहन सुभद्रा जी की मूर्तियाँ केवल देखने के लिए रखी गई हैं। किसी भी मूर्ति के दोनों हाथों में उंगली नहीं हैं, वे शारीरिक रूप से दोषपूर्ण हैं। उन मूर्तियों की आज तक पूजा नहीं की जाती।

महत्वपूर्ण - पवित्र स्मारक सम्माननीय हो सकते हैं लेकिन आत्म-कल्याण तो केवल तत्वदर्शी संत द्वारा प्रदान की गई सच्ची पूजा करने से ही संभव है।

श्री अमरनाथ धाम की स्थापना कैसे हुई?

भगवान शिव जी ने अपनी पत्नी पार्वती जी को एकांत स्थान में मंत्र दीक्षा दी थी जिससे वे तब तक मुक्त हो गईं जब तक भगवान शिव जी की मृत्यु नहीं होगी। इससे पहले पार्वती जी ने 107 मानव जन्म लिये थे। लेकिन ब्रह्म-काल के सभी 21 ब्रह्मांड नश्वर हैं। शिव शंकर जी की उम्र भी तय है। वह जन्म और मृत्यु के चक्र में है। शिव जी द्वारा पार्वती जी को दिये गये सत्य मंत्र से उनकी आयु भगवान शिव के बराबर हो गयी। वास्तविक घटनाएं जो फिलहाल के कुछ सालों में घटित हो चुकी हैं भक्तों को ज्ञात हैं जहां अमरनाथ धाम में प्राकृतिक आपदाएं आई थीं और लोग बर्फीले तूफान में दब कर मर गए थे। यह पूजा पद्धति शास्त्र विरुद्ध है इसलिए भक्तों के मन में संदेह उत्पन्न करती है:

  • क्या श्री अमरनाथ धाम की यात्रा और पूजा करने से भक्तों को कोई आध्यात्मिक लाभ मिलता है?
  • क्या अमरनाथ धाम के दर्शन से मुक्ति संभव है?

विवरण के लिए पढ़ें अमरनाथ धाम की स्थापना कैसे हुई?

वैष्णो देवी मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

एक बार 'दक्ष' की पुत्री जिसका नाम 'सती' था, जो भगवान शिव जी की पत्नी थी, अपने पति से नाराज़ होकर घर छोड़ कर पिता के घर आ गयी थी। वह अपने माता-पिता के घर आई जहां उनके पिता 'दक्ष' यज्ञ करवा रहे थे और उन्होंने कई प्रसिद्ध ऋषियों, संतों, मंडलेश्वरों, देवताओं, राजाओं को आमंत्रित किया हुआ था। लेकिन 'शिव जी और सती' को वहां आमंत्रित नहीं किया गया था। दक्ष ने घर आई पुत्री सती का सम्मान नहीं किया बल्कि उनका और उनके पति शिव जी का अपमान किया। इससे क्षुब्ध होकर सती उस अग्निकुंड में कूद गईं जिसमें धार्मिक अनुष्ठान (हवन) चल रहा था और उसमें जलकर मर गईं। जब भगवान शिव को इस दुर्घटना के बारे में पता चला तो वे बहुत दुखी हुए और उन्होंने सती का जला हुआ शव उठा लिया और उसके कंकाल को लेकर 10,000 वर्षों तक पूरी पृथ्वी पर घूमते रहे। बाद में भगवान विष्णु ने अपने 'सुदर्शन चक्र' से उस मृत शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब शंकर जी का मोहभंग हो गया। सती जी के शरीर के टूटे हुए अंग कई स्थानों पर गिरे।

जहां उस कंकाल का धड़ गिरा, वहां भक्तों ने इस धार्मिक घटना की स्मृति बनाए रखने के लिए उसे ज़मीन में गाड़ दिया और एक मंदिर जैसा स्मारक बना दिया। कालान्तर में लोग उस स्थान पर जाने लगे और पूजा करने लगे। अत: वह स्थान प्रसिद्ध हो गया और वैष्णो देवी का मंदिर स्थापित हो गया।

नैना देवी मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

वह स्थान जहाँ 'सती जी' की आँखें गिरी थीं; वहां भक्तों ने उनकी आंखों को दफना दिया और एक मंदिरनुमा स्मारक बना दी ताकि आने वाली पीढ़ियों तक इस धार्मिक घटना का सबूत बना रहे और पुराणों में वर्णित कहानी पर कोई संदेह न कर सके। इस तरह नैना देवी के मंदिर की स्थापना हुई।

ज्वाला जी के मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

हिमाचल प्रदेश के 'कांगड़ा' में जिस स्थान पर 'सती जी' की जलती हुई जीभ गिरी थी, वहां भक्तों ने स्मृति स्वरूप एक मंदिर बना दिया। इस प्रकार 'ज्वाला जी' के मंदिर की स्थापना हुई।

अन्नपूर्णा देवी के मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

वह स्थान जहाँ 'सती जी' का नाभि भाग गिरा था; इस धार्मिक घटना की स्मृति में वहां एक मंदिर की स्थापना की गई और मनमानी पूजा शुरू हो गई। इस प्रकार 'अन्नपूर्णा देवी' के मंदिर की स्थापना हुई।

कृपया विचार करें- इन सभी स्थानों पर 'सती जी' मौजूद नहीं हैं, केवल उस घटना की स्मृति प्रमाण के रूप में मौजूद है। इसलिए इन मंदिरों में दर्शन और पूजा करने से भक्तों को कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल सकता है। वे तो केवल दर्शन कर सकते हैं परन्तु साधकों का कल्याण नहीं हो सकता। यह केवल अंधभक्ति है और जिसे करते रहना व्यर्थ है।

भारत में केदारनाथ और नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर की स्थापना कैसे हुई?

महाकाव्य महाभारत इस बात का प्रमाण देता है कि पांडवों (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव) ने अपने अंतिम दिनों में किस तरह हिमालय में अपना समय बिताया और तपस्या की। एक दिन सदाशिव अर्थात ब्रह्म-काल ने एक दुधारू भैंस का रूप धारण किया और उस क्षेत्र में घूमने लगा। भीम दूध लेने के इरादे से उसे पकड़ने के लिए दौड़े तो भैंस धरती में घुसने लगी। भीम ने ज़मीन से बाहर खड़े भैंसे की पीठ को मज़बूती से पकड़ लिया। वह पत्थर बन गया और धरती के ऊपर ही रह गया। बाद में फिर वह 'केदारनाथ धाम बन गया। उसी भैंस के शरीर के अन्य अंग जैसे आगे और पीछे के पैर आदि जहां भी प्रकट हुए वे दूसरे 'केदार' बन गए। इस प्रकार सात केदार हिमालय में स्थापित हो गये।

उस भैंसे का सिर 'काठमांडू'-नेपाल में प्रकट हुआ जिसे 'पशुपतिनाथ' कहा जाता है। दोनों स्थानों पर स्मृति स्वरूप मंदिर बना दिया गया।

विशेष- सभी तीर्थों की ऐसी ही कथाएं हैं जिनके दर्शन तो किए जा सकते हैं लेकिन इन स्थानों पर पूजा करना व्यर्थ है। लगभग 100 वर्ष पहले, केदारनाथ पर अधिक वर्षा के कारण दलदल बढ़ गया था। लगभग 60 वर्षों तक यहां कोई पूजा नहीं हुई, ना ही किसी ने यहां का दौरा किया। बाद में पिछले 30-40 वर्षों से फिर से पर्यटक वहाँ जाने लगे हैं।

साल 2013  में केदारनाथ में भारी बाढ़ के कारण लाखों श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। अंधभक्ति के कारण कई परिवार बर्बाद हो गए। यह मनमानी पूजा है। यदि यह पूजा पवित्र गीता जी में बताई गई विधि के अनुसार होती तो उनके गुणों के आधार पर, मरने के बाद भी सभी भक्त भगवान के दरबार में पहुंच जाते। परन्तु उन्होंने पवित्र शास्त्रों के अनुसार आचरण न करके तथा मनमानी पूजा करके अपना अनमोल मनुष्य जन्म नष्ट कर लिया है।

तीर्थ यात्रा पर जाने के जोखिम क्या हैं?

तीरथ बाट चले जो प्राणी, सो तो जन्म जन्म उरझानी।

जाय तीरथ करि हैं दानं, आवत जात जीव मरै अरबानं।।

सर्वशक्तिमान कबीर जी अपनी अमृतवाणी में कहते हैं कि जो भक्त तीर्थ यात्रा के लिए जाते हैं वे रास्ते में लाखों सूक्ष्म जीवों को मारते हैं, जिससे उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता है; उल्टे पाप भोगना पड़ता है। अत: दान करने, स्नान करने और तीर्थ स्थानों पर जाने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता है। ऐसे साधक मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते हैं और 84 लाख योनियों में कष्ट भोगते हुए ब्रह्म-काल के जाल में फंसे रहते हैं।

केदारनाथ, अमरनाथ जैसे धामों में घटित हुई प्राकृतिक आपदाओं ने यह साबित कर दिया है कि भक्तों को जीवन का खतरा हमेशा बना रहता है, साथ ही भगदड़ का भी डर रहता है जो एक समय में लाखों लोगों की मौत का कारण बनता है।

क्या तीर्थ यात्रा करने से मुक्ति संभव है?

देवी-देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करने पर भी हमें कष्ट क्यों भोगने पड़ते हैं? यह इस बात का प्रतीक है कि हमारी पूजा पद्धति सही नहीं है। हर कोई शांति और ईश्वर को पाने के लिए पूजा करता है, लेकिन शास्त्र अनुकूल सतभक्ति न करने से जीव ब्रह्म-काल के जाल में फंसकर जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र में फंसे रहते हैं। काल के जाल से मुक्ति पाने के लिए सतगुरु द्वारा बताई गई शास्त्रानुकूल सच्ची भक्ति करने की आवश्यकता होती है जो भगवान की कृपा से घोर पापों को भी नष्ट कर देती है।

मासा घटे न तिल बढे, विधना लिखे जो लेख।

साचा सतगुरु मेट कर, ऊपर मार दे मेख।।

कबीर, सतगुरु शरण में आने से, आई टलै बला।

जै भाग्य में सूली हो, कांटे में टल जाय।।

तीर्थ/धाम पर जाने से मोक्ष नहीं मिलता। सर्वशक्तिमान कविर्देव की सच्ची भक्ति करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।

कबीर, अमर करुँ सतलोक पठाउँ, ताते बंदी छोड़ कहाउं।

बंदी छोड़ हमारा नामं, अजर अमर है अस्थिर ठामं।।

पवित्र शास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ तीर्थ कौन सा है?

किसी तीर्थ स्थान पर जाने की अपेक्षा ईश्वर की आराधना करने से ही कल्याण संभव है। उसके लिए तत्वदर्शी संत को ढूंढना चाहिए; उनसे नाम-दीक्षा (मंत्र) लेकर और फिर जीवनभर उनके द्वारा बताई सतभक्ति करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

आइए अध्ययन करें कि पवित्र ग्रंथ इस बारे में क्या मार्गदर्शन करते हैं?

चित्त शुद्ध तीर्थ / प्रबुद्ध संत का प्रवचन सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है

संदर्भ: श्री देवी पुराण स्कंद 6 अध्याय 10 पृष्ठ 417

व्यास जी ने राजा जन्मेजय जी से कहा हे,“राजन्! यह तो निश्चित है कि तीर्थ यात्री शरीर का मैल तो साफ कर देते हैं परंतु मन का मैल धोने की शक्ति तीर्थ यात्रियों में नहीं होती। 'चित्तशुद्ध' (आत्मा को शुद्ध करने वाला तीर्थ) गंगा आदि से भी अधिक पवित्र माना जाता है। यदि सौभाग्य से किसी को सच्चे आध्यात्मिक गुरु के प्रवचन रूपी तीर्थ में भाग लेना पड़े तो उसके मन की गंदगी साफ होने में कोई संदेह नहीं रहता है। परन्तु राजा! हृदय और आत्मा को शुद्ध करने वाले सत्संग (चित्तशुद्ध तीर्थ) को प्राप्त करने के लिए तत्वदर्शी संत के प्रवचन में भाग लेना आवश्यक है। वेद, शास्त्र, व्रत, तप और दान से आत्मा को शुद्ध करना बहुत कठिन है।' ऋषि 'वशिष्ठ' ब्रह्मा जी के पुत्र थे। उन्होंने वेदों का समुचित अध्ययन किया था। वह नदी के किनारे निवास करते थे। वस्तुतः द्वेष के कारण उनके 'विश्वामित्र' से अप्रिय संबंध हो गये थे। दोनों ने एक दूसरे को श्राप दिया और युद्ध किया। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा को सच्चे संत के सत्संग से ही शुद्ध करना चाहिए अन्यथा वेद, ज्ञान, तप, व्रत, दान, धर्म आदि सभी साधन कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकते।

कृपया विचार करें - उपरोक्त, श्री देवी पुराण के वर्णन से यह स्पष्ट है कि कोई भी तीर्थ किसी प्रबुद्ध संत के आध्यात्मिक प्रवचन से श्रेष्ठ नहीं है और कल्याण केवल 'तत्वदृष्टा' (प्रबुद्ध) संत द्वारा बताई गई साधना से ही संभव है। तीर्थ, व्रत, तप, दान आदि सब व्यर्थ प्रयत्न हैं। तत्वदर्शी संत के अभाव में केवल चार वेदों में बताई गई भक्ति विधि से पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।

सर्वशक्तिमान कबीर जी ने कहा है;

कबीर, गुरू बिन वेद पढै़ जो प्राणी। समझै न सार रहे अज्ञानी।।

कबीर, गुरू बिन काहु न पाया ज्ञाना। ज्यों थोथा भुस छडे़ मूढ़ किसाना।

अड़सठ तीर्थ भ्रम भ्रम आवे। सो फल गुरु के चरना पावे।।

तीर्थ कर कर जग मुवा, ठंडे पानी नहाय।

सतनाम‌ जपा नहीं, काल घसीटे जाए।।

इसका उल्लेख सूक्ष्मवेद में किया गया है:

अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै। सो फल सतगुरू चरणों पावै।।

गंगा, यमुना, बद्री समेते। जगन्नाथ धाम हैं जेते।।

भ्रमें फल प्राप्त होय न जेतो। गुरू सेवा में फल पावै तेतो।।

कोटिक तीर्थ सब कर आवै। गुरू चरणां फल तुरंत ही पावै।।

सतगुरू मिलै तो अगम बतावै। जम की आंच ताहि नहीं आवै।।

भक्ति मुक्ति का पंथ बतावै। बुरा होन को पंथ छुड़ावै।।

सतगुरू भक्ति मुक्ति के दानी। सतगुरू बिना ना छूटै खानी।।

सतगुरू गुरू सुर तरू सुर धेनु समाना। पावै चरणन मुक्ति प्रवाना।।

व्याख्या- सूक्ष्मवेद में कहा गया है कि तीर्थों के दर्शन मात्र करने से कोई लाभ नहीं मिलता। सतगुरु (तत्वदर्शी संत) के सत्संग सुनना ही असली तीर्थ है। जिस स्थान पर सतगुरु का सत्संग होता है वह स्थान सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। यही प्रमाण संक्षिप्त श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में दिया गया है। इसके छठे स्कंद के अध्याय 10 में बताया गया है कि सर्वोत्तम तीर्थ 'चित्त शुद्ध तीर्थ' (आत्मा की शुद्धि) है जहां एक प्रबुद्ध संत का आध्यात्मिक प्रवचन होता है। उस सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान से आत्मा शुद्ध होती है। जिसे सुनकर शास्त्र आधारित सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान और उपासना बढ़ती है; जिससे आत्मा का कल्याण होता है। बाकी सभी तीर्थ भ्रम मात्र हैं। इसी पुराण में कहा गया है कि सतगुरु रूप तीर्थ अत्यंत दुर्लभ है।

सूक्ष्मवेद में बताया गया है कि सतगुरु पुराणों में वर्णित 'कल्पवृक्ष' और 'कामधेनु' के समान हैं जो हर इच्छा पूरी करते हैं। उसी प्रकार सतगुरु सच्ची भक्ति प्रदान करके साधकों को जीवन में सभी सुख-सुविधाएँ प्रदान करते हैं और अपने आशीर्वाद से अनेकों लाभ देते हैं। सच्ची भक्ति देकर सतगुरु अपनी सबसे प्रिय आत्मा की मुक्ति का मार्ग आसान कर देते हैं। इसलिए ऐसा कहा गया है;

कबीर, एकै साथै सब सधै, सब साधै सब जाय।

माली सींचै मूल कूँ, फूलै फलै अघाय।।

अर्थ- सतगुरु रूपी तीर्थ के दर्शन करने से सभी प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं अन्य तीर्थयात्रा और अंधभक्ति करने से मिलने वाले सारे लाभ भी समाप्त हो जाते हैं।

विभिन्न धर्मों के तीर्थ स्थान

सभी धर्मों के अनुयायी अपनी आस्था के अनुसार तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हैं और यही अवधारणा सभी धर्मों पर लागू होती है कि उन तीर्थों में से किसी एक में भी अल्लाह/भगवान/रब विराजमान नहीं है।

  • बौद्ध भारत में बोधगया-बिहार, सारनाथ-वाराणसी, यूपी का दौरा करते हैं।  नेपाल में पाटलिपुत्र, नालंदा, गया, कपिलवस्तु, कोसंबी, लुंबिनी और दुनिया में जापान, तिब्बत, इंडोनेशिया, चीन, श्रीलंका, कंबोडिया आदि जैसे कई स्थानों पर गए।
  • मुसलमान हज पर जाते हैं, मक्का-मदीना, पुर्तगाल में मैरियन तीर्थ यात्रा करते हैं। भारत में, मुसलमानों के तीर्थ स्थलों में अजमेर में ख्वाजा मोइन-उद-दीन चिश्ती की दरगाह, मुंबई में हाजी-अली दरगाह, दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह आदि शामिल हैं।
  • ईसाई वेटिकन सिटी, चर्च ऑफ होली सेपुलचर, द गार्डन ऑफ गेथसेमेन, वाया डोलोरोसा, जेरूसलम, इज़राइल में चर्च ऑफ द एसेंशन आदि का दौरा करते हैं।
  • सिख धर्म का तीर्थ स्थान स्वर्ण मंदिर अमृतसर, आनंदपुर साहिब, फतेहगढ़ साहिब, दमदमा साहिब, बंगला साहिब गुरुद्वारा, दिल्ली आदि हैं।
  • यहूदी - टेम्पल माउंट यहूदी धर्म में सबसे पवित्र स्थल है, पश्चिमी दीवार, राचेल का मकबरा, बाइबिल माउंट सिनाई आदि हैं।

इन तीर्थों पर लोग केवल दर्शनार्थ के लिए ही जा सकते हैं, परमात्मा से मिलने के इरादे से नहीं। सभी धर्मों के अनुयायियों को हमारी यही सलाह है कि ईश्वर को पहचानो। सच्ची शास्त्रानुकूल भक्ति करके अपने अनमोल मानव जन्म का अधिकतम लाभ उठायें और इसके मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य को पूरा करें।

अब जब यह स्पष्ट हो गया है कि तीर्थ यात्रा करने से कोई लाभ नहीं होता बल्कि पाप ही लगता है तो यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि पूजनीय भगवान कौन है?

पूजनीय भगवान कौन है?

गीता अध्याय 4 श्लोक 32, 34 में कहा गया है कि उस पूर्ण परमेश्वर के सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान को जानने के लिए तत्वदर्शी संत से उस तत्वज्ञान को समझें जिसे भगवान ने स्वयं अपने मुखकमल से अपनी अमृतवाणी में कहा है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में ब्रह्म-काल कहता है कि हे भारत! तू हर प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा। जिसकी कृपा से ही तुम्हें शाश्वत स्थान यानि परमधाम की प्राप्ति होगी।' पूज्य सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्रमाण अध्याय 8 श्लोक 8-10, अध्याय 18 श्लोक 62, अध्याय 15 श्लोक 1-4 व 17 आदि में भी दिया गया है।

इसलिए उस एक ईश्वर की भक्ति करो जो परम अक्षर ब्रह्म, पूर्ण परमेश्वर हैं क्योंकि 'कुल का मालिक एक है' (कुल का स्वामी एक है-कबीर देव) उनका नाम कबीर देव है। 

निष्कर्ष

अंधभक्ति इंसान के लिए बेहद खतरनाक है। शिक्षित समाज से अनुरोध है कि ऐसे फर्जी आध्यात्मिक गुरुओं से सावधान रहें जो ऐसे पूजा-पाठ करने को कहते हैं जो हमारे पवित्र ग्रंथों के विरुद्ध है। नकली गुरुओं द्वारा निर्देशित; तीर्थ स्थानों पर जाना मानव जन्म की सरासर बर्बादी है। भक्तों को ऐसे गुरुओं का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए जो केवल आज अपना व्यवसाय चला रहे हैं और भक्तों के अनमोल मानव जन्म को बर्बाद करवा रहे हैं।

सर्वशक्तिमान कविर्देव कहते हैं:

मोती मुक्ता दर्शत नाहीं, यह जग है सब अंध रे।

दीखत के तो नयन चिशम हैं, फिरा मोतिया बिंद रे।।

इसका मतलब यह है कि ये नकली गुरु दिखने में तो बुद्धिमान लगते हैं लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान में शून्य हैं। वे अध्यात्म की एबीसी भी नहीं जानते। भक्तों को इन अज्ञानियों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। साधकों को परमात्मा प्राप्ति के लिए तीर्थ स्थानों पर नहीं जाना चाहिए।

सर्वशक्तिमान कविर्देव अपनी अमृतवाणी द्वारा आत्माओं को जागृत करते हुए फिर कहते है कि–

कबीर, मानव जन्म दुर्लभ है, मिले ना बारम्बार। जैसे तरूवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लगता डार।।

कबीर, कहता हूँ कहि जात हूँ, कहूं बजा कर ढ़ोल। स्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।

सच्चे संत द्वारा दी गई सच्ची भक्ति करने से ही मानव का कल्याण संभव है। मानव जन्म अनमोल है। यह 84 लाख योनियों में कष्ट सहने के बाद प्राप्त होता है। जैसे पेड़ से गिरा हुआ पत्ता दोबारा पेड़ पर नहीं जुड़ पाता; उसी प्रकार, प्रत्येक सांस का अत्यधिक महत्व है, इसका उपयोग केवल सर्वशक्तिमान कबीर जी की सच्ची भक्ति करने में किया जाना चाहिए।

आज शास्त्र अनुकूल सत्य भक्ति विधि केवल सतगुरु रामपाल जी महाराज जी के पास ही उपलब्ध है। (प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23, यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25, सामवेद मन्त्र नं. 822 सामवेद उत्तराचिक अध्याय 3 खण्ड नं. 5 श्लोक नं. 8,) कुरान में प्रमाण सूरत (सूरह)-शूरा 42 आयत 1)। अब परमात्मा को पहचानने में और देर न कीजिए व तुरंत संत रामपाल जी महाराज जी के द्वारा बताए जा रहे तत्वज्ञान को जानने के लिए Sant Rampal Ji Maharaj YouTube channel Subscribe करें।


 

FAQs : "पवित्र तीर्थ तथा धाम की जानकारी"

Q.1 क्या तीर्थयात्रा पर जाने के बारे में गीता जी में कहा गया है?

तीर्थ स्थानों पर जाना केवल अंध पूजा है। यह पूजा का एक मनमाना तरीका है और पवित्र श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में तीर्थ स्थलों पर जाना, व्रत आदि करने की मनाही की गई है और अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार यह वर्जित है जबकि यहां का भगवान ब्रह्म-काल यही चाहता है की सभी प्राणी गलत पूजा करते रहें ताकि किसी को पता न चल सके कि असली भगवान कौन है? पूजा का सही तरीका क्या है जिससे आत्माओं को मुक्ति मिल सकती है?

Q.2 तीर्थ स्थान क्या हैं?

तीर्थ स्थान वह स्थान होता है जिसको धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उस स्थान को संतों, देवताओं या किसी चमत्कारी घटना से जोड़ा जाता है। तीर्थ स्थल वहां जाने वाले भक्तों के लिए आस्था और धार्मिकता का केंद्र होते हैं। परंतु कोई भी तीर्थ स्थल हमारे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार प्रमाणित नहीं है। यहां धार्मिक लाभ की इच्छा से जाने वालों को किसी प्रकार का कोई लाभ प्राप्त नहीं हो सकता।

Q. 3 तीर्थ यात्रा का क्या महत्व है?

तीर्थ यात्रा उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण है जो इस बात पर विश्वास रखते हैं कि तीर्थ यात्रा करने से आध्यात्मिक लाभ और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन हमारे किसी भी धार्मिक शास्त्र में इस बात का प्रमाण नहीं है कि तीर्थ यात्रा करने से किसी भी तरह के लाभ की प्राप्ति होती है। परमेश्वर कबीर जी के अनुसार लाभ केवल पूर्ण गुरु के द्वारा दिए मोक्ष मंत्रों से ही प्राप्त हो सकता है। इसका प्रमाण कबीर साहेब की बाणी में भी मिलता है।

Q.4 तीर्थ यात्राएं कैसे शुरू हुई थीं?

तीर्थ यात्रा की परंपरा किसी खास स्थान से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं, संतों या देवताओं की याद में शुरु हुई थी। फिर समय के साथ इसका रुझान बढ़ता ही चला गया। लोग इन यात्राओं के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान, भौतिक लाभ और मोक्ष की चाहत रखने लगे। लेकिन मोक्ष प्राप्त करने के लिए तीर्थ यात्रा पर जाना व्यर्थ है क्योंकि ऐसा करने से लोग अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि लोगों में आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है और इसी के कारण लोगों को वास्तविक आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलता।

Q.5 तीर्थ यात्रा की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?

तीर्थ यात्रा करने के लिए भक्त/साधक किसी पवित्र स्थान पर जाते हैं। फिर वह भौतिक लाभ और मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से तपस्या, प्रार्थना या अनुष्ठान जैसी क्रियाएं शुरू कर लेते हैं। लेकिन सच तो यही है कि वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष केवल पूर्ण संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में जाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। उसके बाद उनके प्रवचनों को सुनने और उनसे नाम दीक्षा प्राप्त करके ही सभी तरह के लाभ मिल सकते हैैं। केवल तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी वर्तमान में शास्त्र-आधारित उपासना प्रदान कर रहे हैं तथा तीर्थ यात्रा और तीर्थ स्थलों की वास्तविक जानकारी भी बता रहे हैं।

Q.6 भारत में सबसे बड़ी तीर्थ यात्रा कौन सी मानी जाती है?

कुंभ का मेला भारत में मानी जाने वाली सबसे बड़ी तीर्थ यात्रा है। लेकिन यह आध्यात्मिक दृष्टि और तत्वज्ञान के अभाव में शुरू हुई। यह शास्त्र विरुद्ध साधना का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। मनमानी प्रथाओं और आध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण इस मेले में अकसर झड़पें होती रहती हैं। आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाने वाली यह यात्रा मनुष्य के सिर पर पापों का बोझ डालने वाली है। अधिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी का सत्संग यूट्यूब चैनल पर देखें।

Q.7 किन धर्मों में तीर्थ यात्रा की जाती है?

हिंदू, इस्लाम, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और यहूदी धर्म सहित कई अन्य धर्मों में तीर्थ यात्रा को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन इन सभी यात्राओं को करने का मुख्य कारण आध्यात्मिक ज्ञान की कमी होती है। तीर्थ यात्रा करने से होने वाले लाभों के बारे में समाज में गलत धारणा बनी हुई है। जबकि लोग अपना कीमती मानव जीवन बर्बाद कर रहे हैं। तीर्थ यात्रा करने का प्रमाण हमारे किसी भी धार्मिक शास्त्र में उपलब्ध नहीं है।


 

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Supriya Singh

क्या किसी धार्मिक संत का अपने ही बेटे को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना सही है?फिर चाहे वह जिम्मेदारी निभाने के काबिल हो या नहीं?

Satlok Ashram

महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभाने के लिए किसी योग्य व्यक्ति की आवश्यकता होती है। फिर वह योग्य व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने वाला होना चाहिए। सांसारिक कार्यों की देखरेख के लिए किसी भी कर्मठ व्यक्ति को उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है, फिर चाहे वह पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, परिवार का कोई अन्य सदस्य या कोई शिष्य भी हो सकता है जो सहनशील, सद्बुद्धि वाला , न्यायपूर्ण कार्य करने वाला , कामी, क्रोधी, लालची, अंहकारी न हो, सदाचारी, और कार्यकुशल हो। परंतु धार्मिक संत अपना उत्तराधिकारी अपने पुत्र/पुत्री या अन्य को धार्मिक गद्दी पर नियुक्त नहीं कर सकता क्योंकि सच्चा अधिकारी संत परमात्मा स्वयं मानव-कल्याण के लिए नियुक्त करते हैं या वे स्वयं वह भूमिका निभाने के लिए पृथ्वी लोक पर आते हैं। आध्यात्मिक संत ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। वह व्यक्ति को सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाता है और उससे ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

Manish Kumar

एक धार्मिक संत में क्या गुण होते हैं?

Satlok Ashram

एक सच्चे धार्मिक संत को सभी पवित्र शास्त्रों का ज्ञान होता है। सच्चा संत असली मोक्ष मंत्र प्रदान करता है। इसका प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में भी है। वर्तमान में केवल एक ही तत्वदर्शी संत हैं अन्य कोई भी धार्मिक संत सच्चा ज्ञान नहीं दे रहा है इसलिए बाकियों को तुरंत उस पद से हटा देना चाहिए। यह एक कड़वा सच है कि कई ऋषि, महामुनि, महंत, मंडलेश्वर महत्वपूर्ण धार्मिक पदों पर विराजमान हैं, जो कि वास्तव में अयोग्य हैं। अगर आज पृथ्वी पर कोई सच्चा संत है तो वो केवल तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी हैं। केवल वे ही शास्त्रों के अनुसार सच्चा ज्ञान और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान कर रहे हैं।

Satish Singh

वर्तमान में सच्चा संत कौन है?

Satlok Ashram

इसमें कोई शक नहीं है कि केवल तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी सच्चे संत हैं। केवल संत रामपाल जी महाराज जी ही पवित्र शास्त्रों में से प्रमाणित सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। बाकी सभी संत नकली हैं जिनको आध्यात्मिक ज्ञान का 'ए, बी, सी' भी नहीं पता है और वह सभी भक्त समाज को गुमराह कर रहे हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनिया पहचान जाएगी कि सच्चा संत कौन है? क्योंकि संत रामपाल जी महाराज जी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। जल्द ही सभी नकली धार्मिक उपदेशकों/कथावाचकों की दुकानें बंद हो जाएंगी। इतना ही नहीं वो दिन जल्दी ही आयेगा जब जनता नकली गुरुओं को त्यागकर सच्चे संत यानि कि संत रामपाल जी महाराज जी की शरण ग्रहण करेगी।