भारत संतों, भक्तों की भूमि रही है जहां बड़े-बड़े भक्त हुए हैं। कोई श्रीराम का भक्त रहा तो कोई कृष्ण भक्त रहा तो कोई श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्री दुर्गा, ज्योति निरंजन काल ब्रह्म का भक्त रहा तो बहुत से पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब के भी भक्त रहे। उन्हीं में से एक थे श्रीकृष्ण जी के परम भक्त नरसी जी जिनके पास 56 करोड़ की संपत्ति थी लेकिन स्वभाव से वे बहुत कंजूस थे। फिर पूर्ण परमात्मा ने किस तरह कंजूस नरसी सेठ को भक्त बनाया? पढ़िये इस लेख में नरसी भक्त की सम्पूर्ण कथा। इस लेख में आप जानेंगे:
आज से लगभग 500-600 वर्ष पहले की बात है। एक नरसी नाम के भक्त थे वे श्रीकृष्ण जी के परम भक्त थे। परंतु बहुत ही कंजूस थे और 56 करोड़ की संपत्ति के मालिक थे। परमात्मा कहते हैं माया को सिर पर नहीं रखना चाहिए जैसे मोटरसाइकिल को सिर पर नहीं रखते, उसको चलाते हैं परंतु सेठ नरसी मेहता माया से चिपक कर बैठे हुए थे अर्थात दान नहीं करते थे बल्कि बहुत कंजूस थे। उनकी केवल एक लड़की थी और उसकी भी शादी नरसी जी ने कर दी थी। साथ ही, उसके नाम की हुण्डी चला करती थी जैसे आज बैंकों द्वारा ड्राफ्ट बनाए जाते हैं। पैसे जमा करके एक कागज में बैंक ड्राफ्ट बनाते हैं कि हमारे पास इसके इतने रुपए जमा हो चुके हैं और उस ड्राफ्ट को आप किसी दूसरे शहर में जाकर बैंक में दे दो उतने ही पैसे मिल जाया करते हैं, ऐसे ही पहले के समय में हुंडी काम करती थी।
इसके लिए राजाओं द्वारा धनी व्यक्तियों की संपत्ति के हिसाब से उन्हें हुंडी बनाने की मान्यता प्रदान की जाती थी कि कोई व्यक्ति इतने रुपये तक की हुंडी (ड्राफ्ट) बना सकता है। सेठ लोग फिर आपस में महीने, 6 महीने, एक वर्ष में एक दूसरे से कागज और धन आदान-प्रदान कर लिया करते थे। वहीं नरसी जी के पास 56 करोड़ की संपत्ति थी यदि आज के समय से अनुमान लगाएं तो अरबों खरबों की संपत्ति थी और धन इकट्ठा करने के चक्कर में वह इतना कंजूस हो गये थे कि वह चवन्नी भी दान नहीं करते थे। लेकिन परमात्मा तो परमात्मा ही होता है उन्होंने उस प्यारी आत्मा से माया का वह जाल छुड़वाया जोकि उसके जी का जंजाल बना हुआ था।
एक दिन सेठ नरसी की पत्नी ने कहा कि हमें आप गंगा स्नान करवा कर लाइए। लेकिन नरसी सेठ कहने लगा क्यों पैसे बर्बाद करती हो यहीं नहा लो, क्या रखा है वहां? इतनी दूर जाओगी, नरसी ने सोचा अगर यह वहां जाएगी तो 10-20 रूपए खर्च होंगे। जब नरसी की पत्नी ने नरसी से ज्यादा कहा तो नरसी जी ने सोचा अब यह मुझे ज्यादा दु:खी करेगी, सिर में दर्द रखेगी, ऐसा सोचकर वह पत्नी के कहने से गंगा स्नान के लिए चल पड़ा।
जब वे गंगा में जाकर स्नान करने लगे इतने में ही पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी ने वहां साधु रूप में प्रकट होकर उन्हें श्रीकृष्ण की महिमा सुनाई। क्योंकि नरसी और उसकी पत्नी कृष्ण जी के पुजारी थे। आप इस लेख को पढ़ते रहिए, धीरे-धीरे आप को प्रमाणों से समझ में आ जाएगा कि परमात्मा ने उनके सामने श्रीकृष्ण जी की महिमा क्यों गाई थी?
पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा गया है कि उत्तम पुरुष तो अन्य है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है। संत गरीबदास जी कहते हैं:
गरीब, जो जन मेरी शरण है, ताका हूँ मैं दास।
गैल- गैल लागा रहूँ, जब तक धरणी आकाश।।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है जो जन (व्यक्ति) किसी जन्म में मेरी शरण में आ गया है। उसके मोक्ष के लिए उसके पीछे-पीछे फिरता रहता हूँ। जब तक धरती आकाश रहेगा ( महाप्रलय तक), तब तक उसको काल जाल से निकालने की कोशिश करता रहूंगा। फिर गरीबदास जी ने कहा है :-
गरीब, ज्यूं बच्छा गऊ की नजर में, यूं सांई कूं संत।
भक्तों के पीछे फिरै, भक्त वच्छल भगवन्त।।
जैसे गाय अपने बच्चे (बछड़े-बछड़ी) पर अपनी दृष्टि रखती है बच्चा भागता है तो उसके पीछे-पीछे भागती है। अन्य पशुओं से उसकी रक्षा करती है। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी अपने भक्त के साथ रहता है। यदि वर्तमान जन्म में उस पूर्व जन्म के भक्त ने दीक्षा नहीं ले रखी तो भी परमेश्वर जी उसके पूर्व जन्म के भक्ति कर्मों के पुण्य से उनके लिए चमत्कार करके रक्षा करते हैं।
इसी विधान अनुसार उत्तम पुरुष, सतपुरुष, पूर्णब्रह्म कबीर साहेब ब्राह्मण रूप बनाकर आए और कहने लगे सेठ नरसी जी गंगा स्नान करने आए हो तो कुछ दान करो, क्योंकि जैसी परंपरा बना रखी थी उसी को आधार बनाकर परमात्मा ब्राह्मण रूप में बोले। नरसी सेठ बोला मेरे पास पैसे थोड़े ही हैं आप जाओ किसी और से ले लो। परमात्मा कहने लगे सेठ जी वैसे ही नहाने से क्या फायदा कुछ दान किया करो। नरसी की पत्नी कहने लगी "दे दो ना 1, 2 रुपए दान ब्राह्मण को।" नरसी ने अपनी पत्नी से कहा, “नहा ले चुप करके यहां तक ले आया यह कम थोड़े है, यही बड़ी बात समझ तू, पैसे दान कर दे, पैसे कहां से आते हैं, मैं यहां ज़्यादा पैसे थोड़ी लेकर आया था।” अंत में भगवान ने कहा "आठ आने दे दे।" नरसी बोला मेरे पास आठ आने भी नहीं हैं। भगवान ने बोला चार आने का तो कर दो दान, वह कहने लगा मेरे पास चार आने भी नहीं हैं, नरसी कहने लगा एक टका दूंगा, सिर्फ एक टका, परमात्मा ने कहा चल एक टका ही दे दो। नरसी बोला एक टका तो दे दूंगा लेकिन मेरे घर आना पड़ेगा यहाँ मैं थोड़ा लाया हूँ। भगवान बोले चलो घर पर दे देना।
जब सेठ नरसी जी गंगा से स्नान करके अपने घर पहुंचे तो पीछे से ब्राह्मण वेशधारी परमात्मा ने जाकर सेठ जी के द्वार खटखटा दिए, दरवाजे पर नौकर आये, नौकरों ने पूछा क्या बात है ब्राह्मण जी? ब्राह्मण वेश में परमात्मा बोले, आपके सेठ ने मुझे एक टका दान किया है और उसने मुझे घर आकर लेने के लिए कहा था। नौकर ने जाकर सेठ जी से बताया कि सेठ जी एक ब्राह्मण आया है और कह रहा है कि आपने गंगा पर उन्हें एक टका दान देने के लिए कहा था वही लेने आया है। अब नरसी ने सोचा यह तो बड़ा ही ढीठ है मेरे पीछे-पीछे आ गया। सेठ नरसी ने नौकर से कहा कि ब्राह्मण से जाकर बोल दो, आज सेठ जी थकेहारे हैं कल देंगे। नौकर ने आकर ब्राह्मण को संदेशा सुना दिया। ब्राह्मण वेशधारी परमात्मा बोले कोई बात ना, आज विश्राम कर लेता हूं। कल लेकर ही यहां से जाऊंगा।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
ये सब खेल हमारे किए। हम से मिले सो निश्चय जीये।।
नरसी जी के मकान के बाहर एक हरा भरा बाग था, उसी बाग में ब्राह्मण रूप में परमात्मा चादर बिछा कर लेट गए। सुबह उठते ही परमात्मा ने फिर सेठ जी का दरवाजा खटखटा दिया और परमात्मा ने नौकरों से कहा कि सेठ जी से कहो कि वह मेरा एक टका दे दे। नौकर ने अंदर जाकर सेठ नरसी को बताया कि, "वह ब्राह्मण द्वार पर खड़ा है अपना एक टका मांग रहा है।” सेठ ने सोचा बड़ा ढीठ है यह तो गया ही नहीं।
अब नरसी जी ने सोचा आज यह एक टके की ज़िद्द लगा रहा है, कल हो सकता है कि यह 100 रूपए की ज़िद्द लगा कर बैठ जाए, इसको तो मौका मिल गया। इसका काम कर देता हूं नहीं तो आगे फिर दु:खी करेगा। नौकर से नरसी सेठ ने कहा ब्राह्मण से कह दो कि हमारे सेठ जी सफर से आए थे इसलिए बुखार हो गया है और जब ठीक हो जाएंगे तब आपका एक टका दे देंगे। ब्राह्मण ने कहा बार-बार तो आया नहीं जाता, कोई बात ना एक-दो दिन और इंतजार कर लेते हैं अब पैसे लेकर ही जाऊंगा। परमात्मा दिन में घूम फिर आए और शाम को आकर सेठ जी के बाग में लेट गए। नरसी जी ने 1 दिन देखा, 2 दिन देखा 3 दिन देखा, फिर नौकरों से पूछा कि वह गया कि यहीं पर है? नौकर कहने लगे कि वह तो यहीं सामने बाग में बिस्तर लगाए बैठा है और कह रहा था कि बार बार तो आया नहीं जाता, अब लेकर ही जाऊंगा।
अब नरसी सेठ जी ने सोचकर कहा कि ब्राह्मण से कह दो कि सेठ जी बीमार थे उनकी मौत हो गई। नौकरों ने जाकर ब्राह्मण रूपी परमात्मा को बताया कि हमारे सेठ जी बीमार थे जिससे उनकी मृत्यु हो गई। ब्राह्मण रूप में आए परमात्मा ने कहा यह तो बड़े दु:ख की बात है। सेठ जी बेचारे गंगा स्नान करके आए थे। फिर भगवान बोले कोई बात नही, यहां तो मरना जीना लगा रहता है, मृत्यु तो हो ही गई है तो अब मैं सेठ जी का अंतिम संस्कार करा कर ही जाऊंगा। नौकर ने नरसी सेठ से आकर बताया कि ब्राह्मण तो बोल रहा है कि मैं अंतिम संस्कार करा कर ही जाऊँगा। नरसी जी ने कहा कि तुम लकड़ी ढोना शुरू कर दो, शायद उसके समझ में आ जाए कि वास्तव में मैं मर गया, तो नौकरों ने लकड़ियां ढोना शुरू कर दिया। विचार करने वाली बात है कि यदि शहर नगर का इतना बड़ा धनी सेठ मर जाए तो पूरा शहर इकट्ठा हो जाया करता है। लेकिन सेठ जी ने अपनी अल्पबुद्धि से परमात्मा जो पल पल की जानने वाला है उसे भगाने के लिए यह तरकीब लगाई। सूक्ष्मवेद में परमेश्वर के विषय में कहा गया है:
कबीर, अंतरयामी एक तू, आतमके आधार।
जो तुम छाडौ हाथ, तो कौन उतारै पार।।
वहां पर वह चार नौकर लकड़ी ढो रहे हैं। जब नौकरों ने लकड़ी ढो लीं तो नरसी जी ने पूछा कि वह गया या नहीं, नौकरों ने बताया वह भी एक लकड़ी हाथ में उठाए हुए है और श्मशान घाट की तरफ जाने को तैयार है। अब नरसी जी कहने लगे तुम मेरी नकली अर्थी (जनाजा) तैयार करो। उसमें सेठ जी लेट गए और जनाजे को लेकर चारों नौकर चल पड़े। सेठ नरसी जी ने नौकरों से बोला कि तुम लोग आग मत लगाना। सेठ जी को नौकरों ने चिता के ऊपर रख दिया तब परमात्मा ने कंधे पर उठाई हुई लकड़ी को नीचे डाल दिया और सेठ जी से कहा कि आप तो एक टके पर जान देने जा रहे हो।
ब्राह्मण रूप में परमात्मा ने कहा, सेठ जी मैंने माफ कर दिया एक टका, आपका दान अब हम नहीं लेंगे और परमात्मा वहां से चले गए। तब नरसी सेठ ने नौकरों से सारी लकड़ियां उठवांईं। वह माया के चक्कर में इतना कंजूस हो गए थे कि बची कुची छोटी मोटी लकड़ियों को भी अपनी धोती के कपड़े में डालकर वापस घर ले आए।
अगले दिन नरसी जी ने सोचा कि ब्राह्मण तो चला गया। आज मैं दूर तक घूम फिर कर आऊंगा। नरसी सेठ दूर तक जंगल में घूमने निकल गए, पीछे से पूर्णब्रह्म परमात्मा नरसी का रूप बनाकर आ गए और नौकरों से बोला कि वह ब्राह्मण मुझे कई दिनों से तंग कर रहा है आज वह मेरा रूप बनाकर आ सकता है उसको अंदर मत आने देना। यदि मेरा रूप बनाकर आए तो उससे कह देना कि चला जा और नहीं माने तो उसकी पिटाई कर देना। अब सेठ जी का रूप बनाकर परमात्मा तो घर के अंदर प्रवेश कर गए। जब सेठ नरसी जी आधे घंटे बाद सैर सपाटा करके लौटे। तो द्वार पर खड़े नौकर ने उन असली सेठ जी को कहा “वहीं खड़ा हो जा बहरूपिए। तू बहरूपिया है, हमारे सेठ जी को बहुत परेशान कर दिया तूने, अब पता चला हमारे सेठ जी सही कह रहे थे कि कहीं मेरा रूप बनाकर ना आ जाए वह बहरूपिया, लेकिन तूने वही काम कर दिया।”
लेकिन सेठ जी नौकर के कहने से नहीं रुके और नौकर के बिल्कुल सामने आ गए, तो नौकर ने कहा तूने सुना नहीं और उन्होंने नरसी की तरफ लठ उठा लिया। नरसी जी कहने लगे अरे, यह क्या कर रहा है तू, मैं तेरा सेठ हूं नरसी, यह तू मेरे से कैसे बात कर रहा है, नौकर बोला हमारे सेठ जी तो अंदर पहुंच चुके हैं और उन्होंने हमें कह दिया है कि वह ब्राह्मण मेरा रूप बनाकर आये तो उसकी पिटाई कर देना। हमारे सेठ तो अंदर हैं तू चला जा नही तो पिट जाएगा। नरसी जी बोले कैसी बात कर रहे हो। मैं तुम्हारा सेठ हूं, मैं तुम्हें नौकरी से निकाल दूंगा। तब नौकर लठ उठाकर असली नरसी सेठ को मारने के लिए चले तो सेठ जी वहां से भाग गए। सेठ जी ने सोचा यह तो वाकई बात गड़बड़ हो गई, जरूर उस ब्राह्मण ने पहले आकर सबको अपने काबू में कर लिया, अब वह मेरी सारी संपत्ति हड़प कर लेगा।
तब नरसी सेठ ने थाने में रिपोर्ट की कि बहरूपिये ने मेरी सारी संपत्ति हड़प ली। कोर्ट ने उसी दिन नरसी सेठ की बही ज़ब्त कर ली, ताकि यदि नकली नरसी है तो कहीं बही में कुछ गड़बड़ी ना कर दे उसे कहीं पढ़ ना ले। अगले दिन पेशी लगी। कोर्ट में असली नरसी और नरसी रूपी परमात्मा खड़े हुए, परंतु दोनों की शक्ल एक सी थी। कोर्ट ने पहले शिकायतकर्ता असली नरसी जी की गवाही ली कि आप बताओ इस बही में क्या-क्या लिखा है? वह दो चार बातें बताकर चुप हो गए और कहने लगे “और तो मुझे याद नहीं।” जज ने कहा ठीक है। फिर जज ने नकली नरसी जी को बुलाया जो स्वयं भगवान थे। जज कहने लगा इस बही में ऐसा कोई लेख बता दो जिससे प्रमाणित कर सकें कि आप असली है तो भगवान ने सब कुछ सुना दिया। इस कारण कोर्ट ने नकली को तो असली सिद्ध कर दिया और असली को नकली सिद्ध कर दिया।
तब असली नरसी सेठ जंगल में जाकर बैठ गए और कहने लगे भगवान इसने मेरी सारी ही संपत्ति हड़प कर ली। यह मेरे साथ क्यों हुआ। उधर से वह सत पुरुष, पूर्ण परमात्मा उसके पास उसी ब्राह्मण रूप में आ जाते हैं और नरसी जी से पूछते हैं कि अब बताओ बेटा यह संपत्ति आपकी है या मेरी। नरसी जी बोले “थी तो मेरी पर अब मेरी चल नहीं रही।” भगवान बोले नादान यह पहले भी मेरी ही थी और आज भी मेरी है, आप तो सूखा बंजारा थे। आप से तो यह खर्ची भी नहीं गई, दो पैसे दान भी आपने नही किया, इस कारण आप गधा बनते। परमात्मा ने कहा कि एक शर्त पर आपको यह संपत्ति दे सकता हूं अगर आप इस सारी संपत्ति को धर्म, भंडारे में लगा दो तो। परमात्मा ने समझाया:
गरीब, एक पापी एक पुन्यी आया, एक है सूम दलेल रे।
बिना भजन कोई काम नहीं आवै, सब है जम की जेल रे।।
तब नरसी जी को सारी बात समझ में आ गई। वह बोले परमात्मा जैसे आप कहोगे वैसे ही कर दूंगा। अब परमात्मा उसके गुरु बने और उसको नाम दीक्षा दी। उस परमपिता ने कहा बेटा अब इसका भंडारा कर दो, नहीं तो यह संपत्ति आपकी जान की दुश्मन हो जाएगी, आपसे ना तो मरा जाएगा ना जिया जाएगा, उसी दिन से नरसी जी ने परमात्मा के नाम पर भंडारे शुरू कर दिए और नरसी जी पाई-पाई को धर्म भण्डारे में लगाकर परमात्मा का आसरा लेकर जंगल में झोपड़ी डालकर बैठ गए और परमात्मा के भक्त बन गए अर्थात राम नाम के धन के धनी हो गए। परमात्मा कहते हैं:
कबीर, सब जग निर्धना, धनवंता ना कोय।
धनवंता सो जानिये, जा पै राम नाम धन होय।।
सरलार्थ: परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि जो व्यक्ति संसार में अधिक धन संपत्ति के स्वामी हैं, सामान्यतः जनता उनको धनवान कहती है। कबीर जी ने बताया है कि उस धनवान व्यक्ति की मृत्यु हो गई, सारा धन यहीं छोड़ गया। जब धन यहीं रह गया तो वह संसार से निर्धन बनकर गया। जो भक्त भक्ति करता है, वह राम नाम की कमाई करके राम नाम का धन संग्रहित करता है। भक्त को यहाँ पर भी परमात्मा धन देता है, मृत्यु के उपरांत भक्ति धन उसके साथ जाता है। धनवंता अर्थात् साहूकार तो वह है जिसके पास राम नाम की भक्ति का धन है।
भक्त नरसी जी की केवल एक ही लड़की थी जिसका विवाह नरसी ने पहले ही कर रखा था। एक समय नरसी जी की लड़की की लड़की यानि नातिन (द्योति) की शादी थी। नरसी जी का कोई लड़का नहीं था और सांसारिक तौर पर नरसी जी गरीब हो चुके थे तो गरीब के साथ भात भरने कोई नहीं आया? नरसी जी के पास आसपास के 16 सूरदास (अंधे) आया करते थे जो नरसी के साथ प्रभु की चर्चा किया करते थे। उन्होंने नरसी को समझाया, नरसी हिम्मत मत हारों, भगवान ने जब इतनी लीला की है आपके साथ, तो वह दूर नहीं आप से। नरसी जी ने लड़की के घर जाने के लिए किसी से गाड़ी मांगी, किसी का बैल मांगा। प्रथम तो गरीब को कोई उधार नहीं देता और देता है तो बेकार सा दे देते हैं। ऐसा ही नरसी जी के साथ हुआ क्योंकि उस समय नरसी जी के पास भौतिक धन नहीं था। यही वजह है कि गरीब जानकर नरसी जी को किसी ने पुरानी सी गाड़ी और बूढ़े बैल थमा दिए। नरसी को बैलगाड़ी चलानी भी नहीं आती थी और वह गाड़ी लचर पचर करती हुई चल रही थी। गाड़ी में 16 अंधे और साथ में नरसी जी बैठे थे। वह गाड़ी ढंग से नहीं चल पा रही थी।
16 अंधों ने कहा नरसी जी ऐसे तो पहुंचने में कई दिन लग जायेंगे। तब नरसी जी ने परमात्मा को याद किया कि हे परमपिता! हम तो नीच आत्मा थे और हे मालिक आज ये आपत्ति आ गई मुझे तो बैलगाड़ी भी चलानी नहीं आती। ऐसे में वहां तक हम पहुंच भी नहीं पाएंगे और यदि पहुंच भी जाएंगे वहां पर तो हमारे पास कुछ देने के लिए नहीं है, पर आपकी कृपा से पहुंचना जरूर चाहते हैं। लड़की अपने पिता को देखकर प्रसन्न तो हो जाएगी, उसको पता है मेरे पिता के पास कुछ नहीं है।
इतने में वह परमेश्वर कारीगर (बढ़ई) का रूप बनाकर एक थैले में औज़ार लेकर वहां पहुंच गए और हाथ देकर कहने लगे गाड़ी वाले भाई रोकना गाड़ी को। नरसी जी गाड़ी हांक रहे थे उन्होंने बोला यह तो रुकी रुकाई है, यह बैल चलते ही नहीं हैं। कभी खड़े हो जाते हैं, कभी बैठ जाते हैं और यह बैलगाड़ी भी टेढ़ी-मेढ़ी चलती है। बढ़ई रूप में परमात्मा नरसी से कहने लगे कि ‘भाई मैं आपके साथ कुछ दूर तक चलना चाहता हूं। रास्ते में मेरा गांव पड़ता है, मुझे बैठा लो गाड़ी में।’ नरसी जी कहने लगे कि ‘गाड़ी में तो बैठा लेंगे पर यह चल तो नहीं रही, यह तो बिल्कुल बेकार हुई पड़ी है। परमात्मा बोले, ‘मैं मिस्त्री हूं, मैं इसको ठीक कर लूंगा।’
नरसी जी, बढ़ई रूप में आये परमेश्वर से कहने लगे, ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, मैं कुछ नहीं दे सकूंगा।’ परमात्मा ने कहा ‘मैं आपसे पैसे नहीं मांग रहा हूं। मैं आपकी गाड़ी मैं बैठकर भी तो चलूंगा।’ नरसी जी बोले तो ठीक है फिर आप इसे ठीक कर लो मैं आपको रास्ते भर परमात्मा का भजन सुनाता चलूंगा। परमात्मा ने दो चार हथौड़े इधर उधर से मारकर अपनी शक्ति से वह बैलगाड़ी बिल्कुल सही कर दी और परमात्मा उस गाड़ी में बैठ गए और कहने लगे भक्त जी आप बैठकर भजन कर लो मैं गाड़ी चला दूंगा। कारीगर रूप में आये परमात्मा और नरसी भक्त के बीच हुई बातचीत को किसी कवि/संत द्वारा इस प्रकार चित्रित किया गया है:
गाड़ी आले मने बिठाले एक बार गाड़ी थाम, भाई रे मैं हार लिया।
नृसिंह जी जब यू बोले, गाड़ी मेरी पुरानी है।
कृष्ण जी जब यू बोले, के मेरे से छानी है।
नाम कृष्णा जात का खाती मैं जाणु सारा काम, भाई रे मैं हार लिया।
गाड़ी आले मने बिठाले….
कृष्ण जी जब लगे संवारन, लई हाथ मे आरी जी।
नृसिंह जी की वा टूटी गाड़ी, हर ने आ के सँवारी जी।
नृसिंह बोल्या शब्द सुनादू ना देवण ने दाम, भाई रे मैं हार लिया।
गाड़ी आले मने बिठाले….
सोलह सूरदास बैठ गाड़ी में, रटे राम की माला जी।
पवन समान गाड़ी चाली, कृष्ण बण्या गाड़ीवाला जी।
भक्तो का रखवाला जी वो मन में हो घनश्याम, भाई रे मैं हार लिया।
गाड़ी आले मने बिठाले….
बैलों ऊपर हाथ फेर दिया, बल बैलों में आया जी।
कई दिनों का पंथ विकट था, पल माही पहुँचाया जी।
वो कृष्ण खाती चल्या गया भाई कर संता प्रणाम, भाई रे मैं हार लिया।
गाड़ी आले मने बिठाले….
परमेश्वर ने एक मिस्त्री रूप में नरसी जी की बैलगाड़ी को ड्राइवर बनकर गंतव्य स्थान से सात कोस दूर रात रात में दो चार घंटे में ही पहुंचा दिया और कहने लगे भक्त जी मेरा तो स्थान आ गया। आप अपनी गाड़ी संभालो। जहां आपको जाना हैं वह स्थान यहां से सात कोस दूरी पर रह गया है। आप आराम से पहुंच जाओगे। पहले तो जब भगवान गाड़ी चला रहे थे तो गाड़ी ऐसे चली थी जैसे हवाई जहाज हो और सबका भक्ति में मन लग रहा था जिससे 16 सूरदास और नरसी जी भक्ति में लीन हो गए थे क्योंकि परमात्मा पास बैठे थे।
जब भगवान उतर कर चले गए तो वह गाड़ी झटकम पटकम, लचरम पचरम फिर वैसे ही चलने लगी। तो अंधे कहने लगे नरसी जी, यह गाड़ी आप कहां ले गए, रास्ते से नीचे उतार दी क्या, बहुत ज्यादा इसमें झटके लग रहे हैं। नरसी जी कहने लगे गाड़ी तो ठीक चल रही है रास्ते पर। गाड़ी में बैठे अंधों ने पूछा कि कितनी दूर आ गए। नरसी जी बोले जो ड्राइवर था वह चला गया। वह कह रहा था कि सात कोस रह गया है यहां से आपका स्थान। अंधों ने कहा, सात कोस कैसे रह सकता है। अभी तो आज की सारी रात लगेगी कल का सारा दिन लगेगा और फिर अगली रात तक पहुंचेंगे। इतने में एक व्यक्ति आ गया, उससे पूछा कि जूनागढ़ कितनी दूर है? वह व्यक्ति कहने लगा सात कोस दूर है यहां से।
एक अंधा समझदार था उसका शिक्षण (शिक्षन) नाम था। उस शिक्षन नाम के अंधे ने कहा, नरसी जी वह आदमी कहां गया जो गाड़ी चला रहा था जिसने गाड़ी ठीक करी थी। नरसी जी बोले वह तो उतर के चला गया। शिक्षन बोला देखो, अब ज्यादा से ज्यादा तीन चार पांच मिनट ही हुए हैं। उन्होंने देखा तो किधर भी वह आदमी दिखाई नहीं दिया, सारे खेत खाली पड़े थे। शिक्षण बोला वह तो भगवान थे, अरे हम तो अंधे थे आपके तो आंख थी आप भी नही पहचाने उस परमेश्वर को । वह तो भगवान थे।
अब नरसी जी और उनके साथ गए 16 सूरदास लड़की के यहां पहुंच गए। जहां उनके पास भात भरने के लिए कुछ भी नहीं था और पाटले पर पहुंच गए। समधन (लड़की की सास) ने नरसी पर ताना कस दिया। पड़ोसन कहने लगी क्या लाया तेरा भाती, क्या देगा भात में तेरे को। समधन कहने लगी जो कि थाली लेकर खड़ी थी, यह क्या देगा कंगाल, डले देगा डले (पत्थर)। 56 करोड़ का मालिक था लुटा दी सारी संपत्ति इसने। आज हमारी बेइज्जती करवाने आया है। यह पत्थर लेकर आया है और क्या डालेगा थाली में पत्थर डालेगा। यह सुनकर नरसी जी की आंखों में पानी आ गया और कहने लगे परमात्मा ज्यों राखोगे त्यों ही रहेंगे।’ तो परमात्मा भी कहते हैं:
आदर अनादर, करो क्यों न कोई।
मम संत शरण, जगत जान छोई।।
अर्थात मेरी शरण में आकर चाहे तुम्हारी कोई इज्जत (आदर) करे या बेज्जती (अनादर) करे तुम चिंता ना करना। मेरी शरण में जो आ गया तो जगत तो समझो राख (छोई) है। यह बकवाद ही किया करते हैं, पर आने दो मेरा समय मैं अपने भक्त के साथ खड़ा पाऊंगा। कबीर परमात्मा आगे कहते हैं:
कल्पे कारण कौन है, कर सेवा निष्काम।
मन इच्छा फल देऊंगा, जब पड़े धनी से काम।।
जब समधन ने बार बार कहा कि इसने डले डाले हैं तो नरसी जी की आंखों में आंसू आ गए। तभी आकाश से सोने और चांदी के दो पत्थर गिरे और समधन की थाली में आकर पड़े और नोटों की बारिश सी होने लगी। साथ ही, परमात्मा एक सामान से भरी हुई गाड़ी लेकर वहां पहुंच गए जिसमें लड़कियों को शादी में देने वाला दहेज का सारा सामान था। उस गाड़ी में कम से कम डेढ़ सौ तील थे ( लड़की, लड़की के ससुराल वालों, रिश्तेदारों को देने वाले नए कपड़े थे)। परमात्मा ने कपड़ों से भरी गाड़ी वहां छोड़ दी और कहा कि ले उतार ले भिखारिन, हमारे भक्त के बारे में ऐसा गलत नहीं कहेगी। इतना कहकर गाड़ी और बैल छोड़कर वहां से परमात्मा अंतर्ध्यान हो गए और परमपिता दिखाई नहीं दिए। नरसी जी श्रीकृष्ण के भक्त थे तो वह सोच रहे थे कि यह सब श्रीकृष्ण जी कर रहे हैं। इस संदर्भ में सूक्ष्मवेद में कहा गया है:
करे करावे साइयां, मन में लहर उठाए।
दादू सृजन जीव के, आप बगल हो जाए।।
अर्थात वह परमेश्वर बड़ाई भी इन्हीं तीन लोक के प्रभुओं श्री विष्णु, श्री शिव, श्रीकृष्ण और श्रीराम जी की करवा देते हैं जबकि सब कुछ वह स्वयं करते हैं। आगे इसी लेख में पढ़िए कि कैसे परमेश्वर कबीर जी ने नरसी भक्त की फिर किस तरह मदद की थी?
सूक्ष्मवेद में कहा गया है:
रोटी चार भारिजा घाली, नरसीला की हुण्डी झाली।
सांवलशाह सदा का शाही, जाकी हुण्डी तत पर लही।।
अर्थात जिस समय नरसी भक्त सर्व सम्पत्ति धर्म में लगाकर झोंपड़ी डालकर नगर के बाहर अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। उस समय उनके पास एक रूपया भी नहीं था। पहले जब वह 56 करोड़ के मालिक थे तो राजा ने उनको हुण्डी (ड्राफ्ट) बनाने के लिए पंजीकृत कर रखा था। हुण्डी जैसे वर्तमान में बैंक ड्राफ्ट बनाया जाता है। उसी प्रकार हुण्डी बनती थी। जिस समय नरसी मेहता जी निर्धन हो गए थे तो उनका पंजीकरण पत्र समाप्त कर दिया गया था। 500 रूपये लेकर चार संत नरसी जी से हुण्डी बनवाने के लिए नगर में आए हुए थे। नगर के व्यक्तियों ने उन साधुओं से मजाक कर दिया कि सेठ नरसी आजकल सीधे मुँह बात नहीं करते और बणी (वन) में बैठकर ड्रामा कर रहे है कि मैं निर्धन हो गया हूँ। अधिक जोर देकर कोई कहता है तो हुण्डी बनाते है। आप वहाँ जाईये।
संतजन नरसी जी के पास आए तथा 500 रूपये सामने रखकर हुण्डी बनाने को कहा। नरसी ने मना कर दिया कि साधुओं अब मेरी हुण्डी नहीं चलती। संतों ने कहा कि नगर वाले ठीक ही कह रहे थे, कि आप सीधे मुँह बात नहीं करते। हम हुण्डी बनवाकर रहेंगे। नरसी जी समझ गए कि नगर वालों ने मजाक कर दिया है अब ये साधु नहीं मानेंगे और नरसी जी डर गए कि संतजन भ्रमित हैं, कहीं मुझे ओर श्राप (शाप) न दे दें। उसी समय कागज मँगवाकर हुण्डी देने वाले के स्थान पर सांवरिया सेठ (शांवल शाह क्योंकि नरसी जी श्रीकृष्ण के पुजारी थे) का नाम लिख दिया। सन्तों ने द्वारिका में दर्शनार्थ जाना था। इसलिए शहर द्वारिका लिखकर 500 रूपये की हुण्डी बनाकर सन्तों को दे दी। पीछे से नरसी जी ने उन 500 रुपये का घी, चावल, दूध, खांड आदि खरीद कर उसका भंडारा कर दिया।
संतजन ने द्वारिका में जाकर वहां के सेठों से सेठ सांवल शाह (सांवरिया सेठ) का पता किया और हुण्डी के पैसे लेने का कारण बताया। द्वारिका के सेठों ने देखा यह हुण्डी तो नरसी निर्धन की है, अब तो वह दिवालिया हो गए है। वहां के सेठों ने उनसे कहा आपको नरसी ने ठग लिया है लेकिन उनकी बातों पर संतों को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि नरसी जी ने तो हुण्डी बनाने से मना किया था। लेकिन संतों ने सारी द्वारिका में पता किया, परंतु सांवल नाम का कोई सेठ नहीं था। संतों ने बड़ी कठिनाई महसूस की। धन बिना अन्य निकट के तीर्थों पर कैसे जाएंगे? नरसी जी ने ध्यान लगाकर देखा कि परमेश्वर ने मुझ गरीब की हुण्डी कैश (नकद) की है या नहीं? देखा कि संत बहुत दु:खी हैं। उस कागज को बार-बार देख रहे हैं। नरसी जी ने अपनी पत्नी से पता किया कि उन 500 रूपये का जो सामान लाए थे, वह सब भण्डारे में लग गया या कुछ बचा है। पत्नी ने कहा थोड़ा-सा पलोथन (सूखा आटा जो हाथों से लगाकर आटे की गोली यानि लोई की रोटी बनाते हैं) शेष है। नरसी जी ने कहा कि उसकी रोटी बना, मैं किसी भूखे यात्री को लाता हूँ। परमेश्वर स्वयं एक संत का रूप बनाकर नरसी जी को मिले। नरसी जी विनय करके संत को घर ले आए। उस पलोथन रूपी आटे की चार रोटियां बनी। वे चारों रोटी परमेश्वर रूपी संत को नरसी जी ने खिला दी।
चार रोटी खाकर परमात्मा सांवल शाह सेठ रूप में द्वारिका में प्रकट हो गए। परमात्मा ने साधुओं के पास जाकर कहा कैसे बैठे हो साधुओं। महात्माओं ने कहा क्या बैठे हैं सेठ जी, हम तो किधर भी जाने योग्य नहीं रहे, ऐसे ऐसे बात है नरसी जी की हुंडी यहां चलती नहीं। उन्होंने हमारी हुंडी बना दी, पर उनका दोष नहीं, हमने ही उन्हें मजबूर कर दिया और यहां कोई सेठ नहीं है सांवल नाम का। परमात्मा कहने लगे किसने कहा तुम्हारे को, वो सांवल नाम का सेठ मैं हूं। आ जाओ, मेरी दुकान पर चलो मैं दूंगा तुम्हारे 500 रुपए। नरसी जी की हुंडी बिल्कुल सही चलती है कौन मना कर रहा था। वह कागज लेकर उस द्वारिका (द्वारका) के बाजार में, जहां चारों तरफ बनिये, सेठों की दुकानें थी, परमात्मा कहने लगे यहां पर बिछाओ चादर। सेठ रूप में परमात्मा चाँदी के नए-नए सिक्के लगे पटककर मारने और ऊँचे स्वर में एक, दो, तीन, चार कह कर गिन रहे थे। जिसकी आवाज दूर तक जा रही थी। यह सुनकर वहां के सेठ इकठ्ठे हो गए।
सभी सेठ देखने लगे कि यह सेठ तो द्वारिका का नहीं है फिर यह क्यों ऐसा कर रहा है। तब परमेश्वर जी ने सांवल सेठ रूप में 500 रूपये गिनकर व देकर संतों से कहा कि भाई मैं सांवल सेठ हूं, नरसी जी से कहना चाहे लाख हुण्डी भेज देना, सब नकद (Cash) कर दूंगा उसका दास हाजिर खड़ा पायेगा। यह वचन बोलकर वहीं से परमेश्वर अन्तर्ध्यान हो गए।
पूर्ण परमात्मा स्वयं आकर ही भक्तों के सब काम करता है भले हम उसका श्रेय कभी श्रीकृष्ण को तो कभी श्रीराम को देते हैं। परंतु पूर्ण परमात्मा केवल एक है जो सबके काम सारने वाला है और सारे दु:खों का निवारण करने वाले है। वह परमात्मा ही सर्व लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करते है। जिस साधक की जिस भी भगवान में आस्था रहती है परमात्मा स्वयं उसकी मदद करके उसका श्रेय इन भगवानों को दिलवाते हैं। परंतु जब साधक में एक पूर्ण परमात्मा को देखने, पहचानने और उनसे मिलने की तड़प पैदा हो जाती है तो परमात्मा स्वयं आकर उनसे मिलते हैं तथा उन्हें अपनी संपूर्ण जानकारी देते हैं।
पाठकजन से निवेदन है कि आप भी उस परमपिता परमेश्वर के गुणों से परिचित हों और जानें कि परमात्मा प्रत्येक मनुष्य और जीव की मदद किस तरह करते हैं क्योंकि परमात्मा बालकों की तरह भक्तों का ध्यान भी रखते हैं। तो आज ही अपने मोबाइल के प्लेस्टोर से Sant Rampal Ji Maharaj App डाउनलोड करें।
आज से लगभग 500-600 वर्ष पहले की बात है। एक नरसी नाम के भक्त हुए थे, वे श्रीकृष्ण जी के परम भक्त थे। परंतु बहुत ही कंजूस थे और 56 करोड़ की संपत्ति के मालिक थे। उस समय उनके नाम की हुण्डी चला करती थी जैसे आज बैंकों द्वारा ड्राफ्ट बनाए जाते हैं। नरसी जी को कबीर साहेब जी ने अपनी शरण में लिया और उनका कल्याण भी किया।
नरसी जी के पास 56 करोड़ की संपत्ति थी यदि आज के समय से अनुमान लगाएं तो अरबों-खरबों की संपत्ति थी और धन इकट्ठा करने के चक्कर में वह इतना कंजूस हो गये थे कि वह चवन्नी भी दान नहीं करते थे। लेकिन नरसी जी परमात्मा की बहुत निर्मल आत्मा थे। नरसी जी का मानव जीवन बर्बाद होने से बचाने के लिए कबीर साहेब जी स्वयं उन्हें आकर मिले थे और सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया था।
नरसी जी जब गंगा नदी में डुबकी लगा रहे थे, तब कबीर साहेब जी ने उनसे ब्राह्मण रुप बनाकर दान मांगा था। लेकिन नरसी जी ने अपने स्वभाववश उन्हें दान देने से इंकार कर दिया था। इससे यह भी पता चलता है कि वे बहुत ही कंजूस व्यक्ति थे।
नरसी ने ब्राह्मण रूप में प्रकट हुए कबीर साहेब जी को एक पैसे का दान देने से बचने के लिए मृत होने का नाटक किया और नकली अंतिम संस्कार भी करवाया।
कबीर साहेब जी ने नरसी जी का रूप धारण किया और नरसी के सेवकों को विश्वास दिलाया कि असली वाला नरसी एक ढोंगी है और वह ही असली नरसी हैं। सेवकों को विश्वास दिलाकर वे उनके घर में प्रवेश कर गए। फिर जब असली नरसी मेहता जी आए तो सेवकों ने उन्हें बहुरूपिया समझकर पीट दिया और उन्हें उनके अपने घर में घुसने नहीं दिया।
जब नरसी जी ने अपनी सारी संपत्ति खो दी तो उन्हें समझ आ गया कि भौतिक धन तो नाशवान है। उन्हें सच्ची भक्ति की महत्ता का ज्ञान हुआ।
नरसी मेहता जी ने अपनी सारी संपत्ति को दान धर्म में लगा दिया। वे एक दृढ़ भक्त बन गए और उन्होंने अपना कल्याण करवाया।
नरसी जी बहुत दृढ़ भक्त थे। इसी कारण कबीर परमेश्वर ने एक बढ़ई का वेश धारण करके उन्हें उनकी नातिन के विवाह में समय पर पहुंचने में मदद की थी। उन्होंने वहां पर जो चमत्कार किया, उसे देखने के बाद तो नरसिंह जी का परमात्मा में अटूट विश्वास बन गया। परमात्मा एक सामान से भरी हुई गाड़ी लेकर वहां पहुंच गए जिसमें लड़कियों को शादी में देने वाला दहेज का सारा सामान था। उस गाड़ी में कम से कम डेढ़ सौ तील थे (लड़की, लड़की के ससुराल वालों, रिश्तेदारों को देने वाले नए कपड़े थे)।
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Sanjeev Tiwari
यह बात तो हर व्यक्ति जानता है कि नरसी मेहता जी श्री कृष्ण जी के भक्त थे और श्री कृष्ण जी ने ही उनकी सहायता की थी। मुझे तो आपकी बताई कहानी मनगढ़ंत लगती है। मैं क्या, किसी को भी आपके लेख में वर्णित कथा पर विश्वास नहीं होगा।
Satlok Ashram
संजीव जी, आप जी ने हमारे लेख को पढ़कर अपने विचार व्यक्त किए, उसके लिए आपका बहुत धन्यवाद। हमारे लेख में वर्णित जानकारी हमारे धार्मिक शास्त्रों से प्रमाणित होती है और यह बात भी सच है कि कबीर साहेब जी ने ही नरसी भक्त की सहायता की थी। हमारे सभी लेख शत-प्रतिशत सतज्ञान आधारित होते हैं। इनमें लेशमात्र भी काल्पनिक और लोकवेद आधारित ज्ञान नहीं मिलाया जाता। नरसी जी श्रीकृष्ण जी के भक्त थे तो वह भी यही सोच रहे थे कि यह सब श्रीकृष्ण जी कर रहे हैं। देखिए जो भक्त जिस भी ईष्ट भगवान पर दृढ़ होकर भक्ति करता है वह यही सोचता है कि जीवन में सारे लाभ उसे वह ईष्ट भगवान दे रहे हैं। यह तीन मुख्य ईष्ट भगवान तीन लोक के प्रभारी हैं। इसलिए कबीर परमेश्वर महिमा भी इन्हीं तीन लोक के प्रभुओं श्री विष्णु, श्री शिव, श्रीकृष्ण और श्रीराम जी की करवा देते हैं जबकि अपने भक्तों के लिए सब कुछ वे स्वयं ही करते हैं। वास्तविक आध्यात्मिक जानकारी प्राप्त करने के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के आध्यात्मिक प्रवचनों को यूट्यूब चैनल पर सुन सकते हैं। इसके अलावा आप "ज्ञान गंगा" पुस्तक भी पढ़ सकते हैं।