गोपीचंद और भर्तृहरि को उनके गुरु का आदेश मानने के कारण भक्ति मार्ग में सफलता कैसे मिली?


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गुरु का योगदान भक्ति मार्ग में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। उनके मार्गदर्शन से ही साधक ईश्वर की प्राप्ति की ओर बढ़ता है। भक्तों को अपने गुरु की सभी आज्ञाओं का पूरी निष्ठा से पालन करना चाहिए। उन्हें अपने गुरु पर आंख बंद कर विश्वास (पूर्ण विश्वास) रखना चाहिए तभी वे सफल होते हैं। ऐसी आत्माओं को काल के जाल से मुक्त कराने के लिए कबीर परमेश्वर कई अलौकिक लीला किया करते हैं। यहाँ परमेश्वर कहते हैं:

गरीब, सौ छल छिद्र मैं करूँ अपने जन के काज ।।

इस लेख में हम गोपीचंद और भरथरी नाम के दो महान भक्तों की सच्ची कथा पढ़ेंगे जिन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए राजपाठ और सांसारिक सुखों का त्याग कर दिया और अपने गुरु जी की आज्ञा का पालन किया क्योंकि सच्ची भक्ति का मतलब ही है कि साधक अपने गुरु जी के हर एक वचन का सम्मान रखने के लिए अपना सब कुछ त्याग दे।

जैसा कि कहा गया है:

भाई जो गुरु वचन पे डट गए कट गए फंद चौरासी के।।

वस्तु मिली ठोर की ठोर मिट गई मन पापी की दौड़, भरम मिटे मथुरा काशी के।।

गुरु की महत्ता बताते हुए पूज्य संत गरीबदास जी कहते हैं

सिर सौंपा गुरु देव को, सफल हुआ यो शीश।

नितानंद इस सीस पर, आप बसे जगदीश।।

भावार्थ: जब एक भक्त पूरी तरह से अपने गुरु के प्रति समर्पित हो जाता है, केवल तब ही उसे भक्ति मार्ग में सफलता मिलती है, जिसका उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में भी है।

सिर साटे की भक्ति है, और नहीं कछु बात।

सिर के साटे पाइए अविगत अलख अनाथ॥

भावार्थ: सच्चा भक्त पूर्णतः समर्पित होकर ही केवल उस अविनाशी अविगत परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

भक्ति मार्ग में अगर शिष्य अपने गुरु पर संदेह करता है, तो उसका संबंध गुरु जी से टूट जाता है और उसे किसी भी तरह का लाभ या सुख सुविधाएं नहीं मिलती। वहीं यदि शिष्य दृढ़ और निष्ठावान रहता है, तो उसे सफलता अवश्य मिलती है।

आइए जानें कि गोपीचंद और भरथरी ने अपने गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने पर क्या लाभ प्राप्त किया।

इस लेख के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं

  • मोक्ष प्राप्ति के लिए गोपीचंद और भरथरी द्वारा राज्य त्यागना
  • राजा भरथरी की रानी ने उन्हें धोखा दिया
  • परेशान भरथरी ने गोरखनाथ की शरण ली
  • गोपीचंद और भरथरी ने गुरु गोरखनाथ की आज्ञा का पालन किया
  • संत गरीबदास जी द्वारा दृढ़ भक्त भरथरी और गोपीचंद की महिमा का वर्णन
  • सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में दृढ़ भक्त गोपीचंद-भरथरी की महिमा का वर्णन

मोक्ष प्राप्ति के लिए गोपीचंद और भरथरी द्वारा राज्य त्यागना

किसी भी जीव को राजा का पद पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण मिलता है। राजा में बहुत अहंकार होता है। यहां हम पढ़ेंगे कि कैसे राजा भरथरी का अहंकार नष्ट हुआ और वे सच्चे शिष्य बन गए। साथ ही यह भी जानेंगे कि कैसे गोपीचंद को उनके गुरु जी का आशीर्वाद मिला।

संदर्भ: वाणी  36-37-38 पृष्ठ 117-120 अध्याय पतिव्रता का अंग, पुस्तक मुक्तिबोध, लेखक जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज।

गरीब, गोपीचंद अरु भरथरी, पतिव्रता हैं दोइ। गोरख से सतगुरु मिलें, पत्थर पाहन ढोइ।।36 ।।

गरीब, बारह बरस बिसंभरी, अलवर किला चिनाई। सतगुरु शब्दों बांधिया, अमर भये हैं ताहिं । । 37 ।।

गरीब, सतगुरु शब्द न उलंघिया, जो धारी सो धार। कंचन के मटके भयै, निसतरि गया कुम्हार | |38 ।।

सरलार्थ :- गोपीचंद तथा भरथरी दोनों राजा थे। मामा-भांजा थे। भरथरी जी गोपीचंद के मामा जी थे। दोनों को उनकी गुरु के प्रति समर्पण और मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य के प्रति एकाग्रता के कारण पुरस्कृत किया गया था।

आइए पहले, हम गोपीचंद की भक्ति की सच्ची कहानी पढ़ते हैं, फिर आगे बढ़ते हुए हम राजा भरथरी की कहानी जानेंगे।

गोपीचंद का मोक्ष प्राप्ति के लिए दृढ़ होना

गोपीचंद इकलौता बेटा था। पिता की मृत्यु हो चुकी थी। कई बेटियाँ थीं। एक दिन माँ ने अपने बेटे को नहाते हुए देखा। माँ ऊपर वाली मंजिल पर थी। नीचे गोपीचंद की रानियाँ स्नान की तैयारी कर रही थी। माता ने अपने पुत्र को देखा तथा अपने पति की याद आई। उसने सोचा कि इसी आयु में इसके पिता की मत्यु हो गई थी। वे भी इतने ही सुंदर व युवा थे। उनको काल खा गया। मेरे बेटे को भी काल खाएगा। क्यों न इसको भगवान की भक्ति पर लगा दूँ ताकि मेरा लाल अमर रहे। आँखों से आँसू निकले और गोपीचंद के शरीर पर गिर गए। गोपीचंद ने मां को रोते देखा। माँ ऊपर रो रही थी।

उसी समय वस्त्र पहनकर माँ के पास गया। रोने का कारण पूछा। माँ ने कारण बताया तथा स्वयं गोपीचंद को गोरखनाथ जी के पास लेकर गई और दीक्षा दिला दी। संन्यास दिला दिया। गोपीचंद डेरे में रहने लगे। एक दिन श्री गोरखनाथ जी ने परीक्षार्थ गोपीचंद जी को उसी के घर भिक्षा लेने भेजा तथा कहा कि अपनी पत्नी पाटम देई से माता कहकर भिक्षा माँगकर ला। गोपीचंद जी महल के द्वार पर गए। 'माई भिक्षा देना', आवाज लगाई। रानी तथा कन्याएँ आवाज पहचानकर दौड़ी-दौड़ी आई। सब रोने लगी। कहा कि आप यहीं रह जाओ। मत जाओ डेरे में, हमारा क्या होगा ? उसी समय गोपीचंद वापस डेरे में आ गया तथा गुरू जी को सब वृतांत बताया। फिर गोपीचंद की माता श्री गोरखनाथ जी के पास जाकर गोपीचंद को वापिस माँगने लगी। परंतु गोपीचंद जी ने कहा कि माता जी! अब मैं गुरू जी का बेटा हूँ। आपका अधिकार समाप्त हो गया है। अब मैं किसी भी कीमत पर घर नहीं जाऊँगा। जो गुरू जी ने साधना बताई थी, वह भक्ति करूँगा।

आइए अब पढ़ते हैं राजा भरथरी की कहानी

राजा भरथरी की रानी ने उन्हें धोखा दिया

भरथरी राजा थे। इनके छोटे भाई का नाम विक्रम था। भरथरी की रानी का नाम पींगला था। सुंदरता में परी से कम नहीं थी, परंतु चरित्रहीन थी। राजा भरथरी पींगला से बहुत प्यार करता था तथा अत्यंत विश्वास करता था। एक दिन विक्रम ने अपनी भाभी जी को एक नौकर के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा। नौकर घोड़ों की देख-रेख करने वाले नौकरों का मुखिया था। उसे दरोगा की उपाधि प्राप्त थी। पींगला ने विक्रम को रास्ते से हटाने के लिए षड़यंत्र रचा। खाना-पीना त्याग दिया। राजा ने पूछा तो बताया कि तेरे भाई ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला है। राजा को अपने भाई पर पूर्ण विश्वास था कि विक्रम यह गलती नहीं कर सकता।

परंतु कहावत है कि

"बद त्रीया चरित्र जाने ना कोई। खसम मार कर सती होई।।"

अंत में राजा ने पत्नी मोह में अपने भाई को दोषी करार दे दिया। पींगला ने कहा कि इसको जंगल में जाकर मारकर डाल आएँ। इसकी आँखें निकालकर लाएँ। मुझे दिखाए तो मैं जीवित रहूँगी, नहीं तो मरूँगी। राजा भरथरी ने अपने नौकरों को यही आदेश दे दिया। जब नौकर लेकर चले, तब विक्रम ने कहा कि भाई साहब! आपको यह स्त्री मरवाएगी। आपको ख़त्म कर देगी। एक कवि ने कहा है :-

आज का बोला याद राखिए विक्रम भाई का।

दुनियाँ में से खो देगा, तुझे बहम लुगाई का ।।

विक्रम ने बताया कि यह स्त्री चरित्रवान नहीं है। परंतु भरथरी ने कान बंद कर लिये। विक्रम की एक नहीं सुनी और भाई को मारने का आदेश दे दिया। दयावान वृद्ध मंत्री ने नौकरों से कहा कि विक्रम निर्दोष है। इसको मारना नहीं है। किसी मृग की आँखें निकाल लाना। विक्रम को किसी जिम्मेदार व्यक्ति के पास दूसरे राजा (विक्रम के मामा) के राज्य में छोड़ आओ। ऐसा ही किया गया। पींगला का रास्ते का रोड़ा दूर हो गया। एक दिन राजा भरथरी जंगल में शिकार खेलने गया हुआ था। उसने एक हिरण को तीर से मार दिया। उसी समय श्री गोरखनाथ जी सिद्ध वहाँ से जा रहे थे। उसने राजा से कहा कि निर्दोष को मारने से महापाप लगता है। राज के मद में अँधा न हो प्राणी! संसार छोड़कर भी जाना है।

राजा में अहंकार अधिक होता है। वह अपनी क्रिया में बाधा तथा किसी की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। यदि श्री गोरखनाथ जी संत वेश में न होते तो इसी बात पर उन्हें भी वहीं तीर से मार देता। फिर भी अपनी दुष्टता व्यक्त करते हुए कहा कि यदि इतना जीवों के प्रति दयावान है तो इस मृग को जीवित कर दे, नहीं तो यह संत वेशभूषा उतारकर रख दे। श्री गोरखनाथ जी ने शर्त रखी कि यदि मैं इसी हिरण को जीवित कर दूँ तो आपको मेरा चेला बनना पड़ेगा। राजा भरथरी ने कहा कि ठीक है। श्री गोरखनाथ जी ने उसी समय कान पकड़कर हिरण को खड़ा कर दिया। राजा से कहा कि उतर घोड़े से नीचे। राजा घोड़े से नीचे उतरा और संत के पैर पकड़कर क्षमा याचना की और कहा कि मुझे कुछ समय और राज्य करने दो। फिर आपका शिष्य अवश्य बन जाऊँगा। अभी मेरी पत्नी रो-रोकर मर जाएगी। वह मेरे बिना नहीं रह सकती। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि :-

बाण आले की बाण ना जावै, चाहे चारों वेद पढ़ा ले।

त्रिया अपनी ना होती, चाहे कितने लाड लडाले ।।

परंतु भरथरी तो अपनी दुष्ट पत्नी को देवी मानता था। उसने अपनी पत्नी की बहुत वकालत की। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपकी इच्छा हो और संसार से मन दुःखी हो जाए, तब आ जाना। कुछ समय उपरांत श्री गोरखनाथ जी वेश बदलकर अन्य संत के रूप में राजा भरथरी जी के पास गए। उनको एक अमर फल देकर कहा कि जो इस फल को खा लेगा, वह लंबी आयु जिएगा और युवा बना रहेगा। यह कहकर संत जी कुछ दक्षिणा लेकर चले गए। फल की कीमत नहीं ली। राजा ने विचार किया कि यदि मेरे से पहले मेरी पत्नी की मत्यु हो गई तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगा। इसलिए यह फल पींगला रानी को देता हूँ। उसने वह फल अपनी रानी को दे दिया तथा उसके गुण बताए। रानी का प्रेम उस दरोगा से था। रानी ने वह फल अपने प्रेमी दरोगा को दे दिया और उसके गुण बताए और कहा कि मैं आपकी लम्बी आयु देखना चाहती हूँ। मैं आपके बिना जीवित नहीं रह पाऊँगी।

दरोगा उसी शहर की वैश्या के पास जाता था। उससे अत्यधिक प्रेम करता था। दरोगा ने वह अमर फल अपनी प्रेमिका वैश्या को दे दिया तथा उसके गुण बताए। वैश्या ने विचार किया कि इस नगरी का राजा बहुत दयालु तथा न्यायकारी है। अपने भाई का दोष देखा तो उसे भी क्षमा नहीं किया। ऐसा राजा लम्बी आयु जीवित रहे तो जनता सुखी रहेगी। यदि मैंने खा लिया तो और अधिक समय तक यह पाप करूँगी। उस वैश्या ने वह फल राजा भरथरी को दे दिया तथा उसके गुण बताए। राजा ने पूछा कि आपको यह फल किसने दिया है? वैश्या ने बताया कि आपके घोड़ों के मुखिया (दरोगा) ने दिया है। राजा ने दरोगा को बुलाया। पूछा तो उसने बताया कि रानी ने दिया है। रानी से महल में जाकर पूछा कि क्या आपने वह फल खा लिया था? रानी कुछ नाराज अंदाज से बोली कि हाँ ! खा लिया था। आप हमेशा शक क्यों करते हो? राजा ने उसी समय मंत्री-महामंत्री, अन्य दरबारियों (कार्यालय के उच्च अधिकारियों) को तथा वैश्या और दरोगा को बुलाया। दरोगा से पूछा कि यह फल आपको किसने दिया था? दरोगा ने काँपते हुए कहा कि रानी ने दिया था। राजा का अंधेरा दूर हुआ। अपने भाई की मौत तथा अंतिम वचन को याद करके दहाड़ मारकर रोया। कहा कि दुष्टा ! तूने मेरा भाई भी मरवा दिया। कुछ दिन में मुझे भी मरवा देती। पींगला रानी ने क्षमा याचना की। अपनी सब गलती भी स्वीकार कर ली।

परेशान भरथरी ने गोरखनाथ की शरण ली

भरथरी उस दिन राज्य त्यागकर गोरखनाथ जी के डेरे में चला गया तथा परम भक्त बना। महामंत्री को पता था कि विक्रम जीवित है। विक्रम को राजा बनाया गया। दरोगा को नौकरी से निकाल दिया। पींगला को भिन्न महल में रहने को कहा। उसकी पूरी देखभाल राजा ने रखी। उसे कभी कष्ट नहीं होने दिया।

गोपीचंद और भरथरी ने गुरु गोरखनाथ की आज्ञा का पालन किया

"अलवर शहर के राजा के किले में पत्थर ढ़ोने की नौकरी करना"

एक समय श्री गोरखनाथ जी से गोपीचंद तथा भरथरी जी ने कहा कि गुरूदेव ! हमारा मोक्ष इसी जन्म में हो, ऐसी कृपा करें। आप जो भी साधना बताओगे, हम करेंगे। श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि राजस्थान प्रान्त में एक अलवर शहर है। वहाँ का राजा अपने किले का निर्माण करवा रहा है। तुम दोनों उस राजा के किले का निर्माण पूरा होने तक उसमें पत्थर ढ़ोने का निःशुल्क कार्य करो। अपने खाने के लिए कोई अन्य मजदूरी सुबह-शाम करो। उसी दिन दोनों भक्त आत्मा गुरू जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। उस किले का निर्माण बारह वर्ष तक चला। कोई मेहनताना का रूपया-पैसा नहीं लिया। अपने भोजन के लिए उसी नगरी के एक कुम्हार के पास उसकी मिट्टी खोदने तथा उसके मटके बनाने योग्य गारा तैयार करने लगे।

उसके बदले में सुबह-शाम केवल रोटी खाते थे। कुम्हार की धर्मपत्नी अच्छे संस्कारों की नहीं थी। कुम्हार ने कहा कि दो बेघर व्यक्ति मेरे पास मिट्टी खोदने तथा गारा तैयार करने का कार्य करेंगे। केवल रोटी-रोटी की मजदूरी लेंगे। आज तीन व्यक्तियों का भोजन लेकर आना। मटके बनाने तथा पकाने वाला स्थान नगर से कुछ दूरी पर जंगल में था। कुम्हारी दो व्यक्तियों की रोटी लेकर गई और बोली कि इससे अधिक नहीं मिलेगी। भोजन रखकर घर लौट आई। कुम्हार ने कहा कि बेटा! इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा। तीनों ने बाँटकर रोटी खाई। कई वर्ष ऐसा चला। अंत के वर्ष में तो केवल एक व्यक्ति का भोजन भेजने लगी। तीनों उसी में संतोष कर लेते थे। किले का कार्य बारह वर्ष चला। कुम्हार ने अपने घड़े पकाने के लिए आवे में रख दिए। अंत के वर्ष की बात है। गोपीचंद तथा भरथरी ने कुम्हार से आज्ञा ली कि पिता जी! हमारी साधना पूरी हुई। अब हम अपने गुरू श्री गोरखनाथ जी के पास वापिस जा रहे हैं। मेरा नाम गोपीचंद है। इनका नाम भरथरी है। उस समय कुम्हार की पत्नी भी उपस्थित थी। मटकों की ओर एक हाथ से आशीर्वाद देते हुए दोनों ने एक साथ कहा :-

पिता का हेत माता का कुहेत। आधा कंचन आधा रेत ।।

यह वचन बोलकर दोनों चले गए। जिस समय कुम्हार तथा कुम्हारी दोनों मटके निकाल रहे थे। उन्होंने देखा कि प्रत्येक मटका आधा सोने (Gold) का था, आधा कच्चा था। कुम्हार ने कहा, भाग्यवान! वे तो कोई देवता थे। तेरी त्रुटि के कारण आधा मटका रेत रह गया। मिट्टी की मिट्टी रह गई। आधा स्वर्ण का हो गया। कुम्हारी को अपनी कृतघ्नता का अहसास हुआ तथा रोने लगी। वह बोली कि मुझे पता होता तो उनकी बहुत सेवा करती।

कबीर, करता था तब क्यों किया, करके क्यों पछताय।

बोवे पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय ।।

इस प्रकार गोपीचंद और भरथरी जी अपने गुरू जी के वचन का पालन करके सफल हुए। जो अमरत्व उस साधना से मिलना था, वह भी अटल विश्वास करके साधना करने से हुआ। यदि विवेकहीन तथा विश्वासहीन होते तो विचार करते कि यह कैसी भक्ति ? यह कार्य तो सारा संसार कर रहा है। मोक्ष के लिए तो तपस्या करते हैं या अन्य कठिन व्रत करते हैं। परंतु उन्होंने गुरू जी को गुरू मानकर प्रत्येक साधना की। गुरू जी के कार्य या आदेश में दोष नहीं निकाला तो सफल हुए।

गोरखनाथ जी ने उनको जो नाम जाप करने का मंत्र दे रखा था, उसका जाप वे जब दोनों पत्थर उठाकर निर्माण स्थान तक ले जाते तथा लौटकर पत्थरों को तरासते (काट-छाँट करके सीधा कर) तब करते थे। दोनों युवा थे। कार्य के परिश्रम तथा पूरा पेट न भरने के कारण मन में स्त्री के प्रति विकार नहीं आया और सफलता पाई।

उपरोक्त वर्णित दो सत्य कथाओं का सार

यहाँ प्रश्न यह है कि भले ही वह भक्ति मोक्षदायक नहीं थी, परंतु परमात्मा प्राप्ति के लिए गुरू जी ने जो भी साधना तथा मर्यादा बताई उसे उन्होंने सिर-धड़ की बाजी लगाकर निभाया। यह भिन्न बात है कि वह मुक्त नहीं हुए। परंतु जिस स्तर की साधना की, उसमें प्रथम रहकर उभरे। संसार में नाम हुआ।

किसी न किसी जन्म में परमेश्वर कबीर जी ऐसी दृढ़ आत्माओं को अवश्य शरण में लेते हैं। यदि भक्ति की शुरूआत ही नहीं करते तो नरक में जाना था। राज्य तो वैसे भी नहीं रहना था।

संत गरीबदास जी द्वारा दृढ़ भक्त भरथरी और गोपीचंद की महिमा का वर्णन

संदर्भ: सूक्ष्मवेद, पुस्तक ‘यथार्थ भक्ति बोध’ अमृत वाणी नंबर 4 पृष्ठ 116 लेखक जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज हैं

गोरख दत्त जुगादि जोगी, नाम जलन्धर लीजिये।

भरथरी गोपी चन्दा सीझे, ऐसी दीक्षा दीजिए।।

सरलार्थ :- बड़े साधकों के नामों में गोरख, दत्तात्रेय, जालन्धर नाथ जैसे एक युग तक योगी अर्थात् साधक बनकर साधना करके सिद्ध बने। उनको जैसा ज्ञान था, उसके आधार से उन्होंने सच्चे मन से साधना की। परमात्मा प्राप्ति के लिए सर्व न्यौछावर कर दिया। भले ही उनको पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ, परंतु उनका प्रयत्न एक सच्चे संत तथा साधक वाला था। इस वाणी में संत गरीबदास जी ने समझाया है कि गुरू को ऐसी शिक्षा तथा दीक्षा अपने शिष्य को देनी चाहिए जैसी श्री गोरखनाथ जी ने अपने शिष्यों गोपीचंद तथा भरतरी को दी थी और जैसे ये दोनों सीझे (खरे उतरे), यह गोरखनाथ जी की शिक्षा का परिणाम था।

वाणी 101-102 पृष्ठ संख्या 150 -151

नाथ जलंधर और अजैपाला। गुरु मछंदर गोरख बाला ।। 101 ।।

भरथरी गोपी चन्दा जोगी। सुलतान अधम है सब रस भोगी ।। 102 ।।

परमपूज्य संत गरीब दास जी महाराज ने अपनी अमृत वाणी में अनेक जगह काल ब्रह्म की भक्ति करने वाले ऋषियों, नाथों, भक्तों का नाम लिखकर महिमा की है। नारद ऋषि, कुम्बक ऋषि, मारकण्डेय ऋषि, रूमी ऋषि, इन्द्र ऋषि, बकतालब ऋषि और अन्य साधु, जलन्धर नाथ, अजयपाल नाथ, मछन्दर नाथ जो गोरखनाथ जी के गुरु थे। भरतरी, गोपीचंद, अब्राहम अधम सुल्तान आदि तो शादीशुदा थे, सर्व विषय विकार करते थे, ज्ञान हुआ। फिर भक्ति करके जीवन धन्य किया।

सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में दृढ़ भक्त गोपीचंद-भरथरी की महिमा वर्णन

भगवान को पाने का लक्ष्य रखने वाले साधक कभी नखरे नहीं करते और अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं। भक्ति के मार्ग में चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न आए, दृढ़ भक्त पीछे नहीं हटते। ऐसे ही गोपीचंद और भरथरी दृढ़ भक्त थे, जिनकी महिमा सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में है। कहा जाता है:

लागी का मार्ग और है लागे चोट कालजा करके

बन बीच भरथरी भूप ने एक मारया तान निशाना

कोई घड़ी सधी थी आँवन की, साधु का हो गया आना

कोई मूवा मृग जीवा दीयो न तो तार धरो ने बाना

वो जिंदा कर दिया ढोर था, शिष्य बना परीक्षा करके

लागी का मार्ग और है लागे चोट कालजा करके

गोपीचंद योगी हो गए जिन ले लिया भगवा बाना

गुरु महल जनाना भेजते ड्योढी में अलख जगना

व्यंजन छत्तीसों छोड़ के भिक्षा का भोजन खाना

तन पड़ गया कमजोर था, न खाया रे उदर भरके

लागी का मार्ग और है लागे चोट कालजा करके

राजा भरथरी और गोपीचंद ऐसे दृढ़ भक्त थे जिन्होंने भगवान को पाने के लिए बहुत संघर्ष किया था। उन्होंने सांसारिक सुखों का त्याग किया और मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने गुरुदेव की आज्ञा का पालन किया, उस सुख देने वाले भगवान को पाने की इच्छा की जो सुखों का सागर है। तो जरा सोचिए वह शाश्वत स्थान सतलोक कितना अद्भुत होगा? वह भगवान कैसा होगा जिसको पाने के लिए साधकों ने कठोर तप करके अपने शरीर को बर्बाद कर दिया? परमात्मा कहते हैं कि सांसारिक सुखों के बजाय भगवान से भक्ति मांगो।

भक्ति दान गुरु दीजिए देवन के देवा हो, जन्म पाया भूलूं नहीं कर हूं पद सेवा हो।।

यद्यपि दोनों ने जो मंत्र जपे वे सही मंत्र नहीं थे जिसके कारण उन्हें पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन भगवान और गुरु के प्रति उनका भाव अत्यंत प्रशंसनीय है।

महत्वपूर्ण: दोनों ने जो भक्ति की उससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। वर्तमान में दोनों स्वर्ग में सुख भोग रहे हैं। उनके पुण्य समाप्त होने के बाद दोनों का पुनर्जन्म होगा और वे पुनः पृथ्वी पर राजा बनेंगे और फिर 84 लाख योनियों में कष्ट भोगेंगे। इस तथ्य का उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में किया गया है।

नोट: जन्म-मरण का चक्र शास्त्र अनुकूल भक्ति प्रदान करने वाले सतगुरु की शरण में जाने से ही समाप्त होता है। पूर्ण तत्वदर्शी संत ही परमेश्वर का प्रतिनिधि होता है, जिसके बताए मार्ग पर चलने से मोक्ष प्राप्त होता है। सतगुरु की पहचान पवित्र भगवद गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 और 16-17 में बताई गई है। साथ ही साथ गीता अध्याय 17:23 में वास्तविक मोक्ष मंत्र (सांकेतिक) का भी जिक्र किया गया है जो उस पूर्ण परमात्मा का है जिनसे मोक्ष की प्राप्ति होती है जैसा कि गीता अध्याय 18:62 और 66 में बताया गया है।

निष्कर्ष

पूर्ण परमात्मा ने भक्ति मार्ग में गुरु का बहुत महत्व बताया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए साधक को अपने गुरु पर आंख बंद कर भरोसा करना चाहिए, क्योंकि गुरु ही डॉक्टर है। वह भलीभांति जानते हैं कि किस रोगी को क्या परहेज बताना है? क्या खाने को कहना है? अर्थात रोग और उसका उपचार केवल डॉक्टर ही जानता है। यदि रोगी डॉक्टर की सलाह मानकर दवाई ले (अर्थात वास्तविक मोक्ष मंत्र का विधिवत जाप करे) तो वह स्वस्थ हो जाता है अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार गोपीचंद और भरथरी जी ने अपने गुरु जी की आज्ञा मानकर अपना जीवन सफल बनाया।

इसी प्रकार हमें सतलोक प्राप्ति के लिए अभ्यास करना होगा।

आज जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही एक मात्र वह सतगुरु (डॉक्टर) हैं, जो भलीभांति जानते हैं कि आत्मा की बीमारी क्या है और उसका इलाज कैसे किया जा सकता है।  वे शास्त्र सम्मत भक्ति मार्ग तथा वास्तविक मोक्ष मंत्र बता रहे हैं, जिससे भक्तों का जन्म-मरण का रोग दूर हो सकता है तथा सभी साधक सनातन सुखमय धाम सतलोक में वापस चले जाएंगे तथा उनका पुनः जन्म लेने का रोग हमेशा के लिए दूर हो जाएगा। इसलिए, पाठकों को यह सलाह दी जाती है कि सनातन परम धाम यानी 'शाश्वत स्थान' में आनंदमय जीवन प्राप्त करने के लिए संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में आएं।