गुणमयी माया के प्रभाव के कारण भक्त/साधक ज्योति निरंजन काल/क्षर पुरुष के लोक में त्रिदेवों (तीन गुणों) ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को ही सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं। वे नहीं जानते कि पूर्ण परमात्मा इनसे भिन्न है जो पृथ्वी से बहुत दूर अमर लोक अर्थात सतलोक (सनातन लोक) में रहता है। पूर्ण परमात्मा को परम अक्षर ब्रह्म/सतपुरुष/अकाल पुरुष/शब्द स्वरूपी राम भी कहा जाता है एवं परमात्मा सतलोक में 'धुलोक' के तीसरे भाग में रहता है जिसका प्रमाण पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं.10 सूक्त 90 मंत्र नं. 3 तथा श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17, अध्याय 18 श्लोक 62, 66 में एवं अन्य कई स्थानों पर भी मिलता है।
सभी धर्मों के शास्त्र यही प्रमाणित करते हैं कि पूर्ण परमात्मा का नाम कविर्देव/कबीर साहेब है जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं। काल की दुनिया में देवताओं के पास बहुत ही सीमित शक्तियाँ हैं। मुसीबत की स्थिति में वे भी सर्वशक्तिमान कबीर साहेब जी से ही मदद मांगते हैं। अपनेभक्तों की रक्षा के लिए परमात्मा कई दिव्य लीलाएं करते हैं। हमारे पवित्र शास्त्रों के अनुसार सच्ची भक्ति करने वाले साधक को परमात्मा कसाई ब्रह्म काल के जाल से मुक्त कराते हैं।
भगवान कविर्देव ज्योति निरंजन के 21 ब्रह्मांडों में बार-बार अवतरित होते हैं और उन राक्षसों का विनाश करके शांति स्थापित करते हैं, जो सच्ची भक्ति करने वाले साधकों के दुश्मन बन जाते हैं और अज्ञानता से किसी तरह से शास्त्र विरुद्ध भक्ति जैसे कठोर तपस्या/ध्यान करके कुछ सिद्धियां प्राप्त करके और देवताओं जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव से वरदान प्राप्त करके खुद को भगवान मान लेते हैं।
इस लेख में प्रह्लाद नामक एक महान भक्त के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त होगी। अहंकार के कारण उसका पिता श्री ब्रह्मा जी जी से वरदान प्राप्त कर स्वयं को भगवान मान बैठा था। वह अपने पुत्र, दृढ़ भक्त प्रह्लाद को परेशान करता था, जिसे सर्वशक्तिमान कबीर परमात्मा ने कई बार कठिन परिस्थितियों में बचाया और राक्षस हिरण्यकश्यप का वध किया।
आगे बढ़ने से पूर्व यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अज्ञानतावश भक्त समाज सतोगुण युक्त भगवान विष्णु को ही भगवान मानता हैं, जिसका कार्य अपने पिता काल ब्रह्म के राज्य में प्राणियों का पालन एवं स्थिति को बनाए रखना है। ऐसा मानना कि विष्णु जी रक्षक और उद्धारकर्ता है, एक मिथक है। संपूर्ण ब्रह्मांड का उद्धारकर्ता एकमात्र भगवान कविर्देव है।
भक्त प्रह्लाद के बारे में इस लेख में मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
शैतान ब्रह्म काल चाहता है कि सभी लोग नास्तिक बन जाएं और भक्ति चाहने वाले प्राणी गलत भक्ति में लग जाए, जिससे उसे कोई आध्यात्मिक लाभ न मिले, इसलिए वह जीव आत्माओं को देवताओं की पूजा करने के लिए गुमराह करता है। उसे डर है कि अगर जीवों को भगवान कौन है इसके बारे में पता चल जाएगा तो फिर सब उसकी भक्ति करेंगे और सतलोक चले जाएंगे। जिससे उसका लोक खाली हो जाएगा फिर वह क्या खाएगा? इसलिए वह (काल) नहीं चाहता कि कोई भी साधक पूर्ण परमात्मा के बारे में तथा उसकी सच्ची भक्ति विधि के बारे में जाने ताकि आत्माएं मोक्ष प्राप्त करने से वंचित रह जाएं।
टिप्पणी: ब्रह्म काल को प्रतिदिन एक लाख प्राणियों के सूक्ष्म मानव शरीर से निकले मैल को खाने और प्रतिदिन 1.25 लाख प्राणी पैदा करने का श्राप लगा है। उसे डर है कि अगर प्राणी उसके जाल से मुक्त हो गए तो वह भूख से मर जाएगा।
दूसरी ओर सर्वशक्तिमान परमात्मा चाहते हैं कि साधकों की आस्था ईश्वर में बनी रहे, चाहे वह किसी भी कारण से हो। चाहे साधक इन देवताओं की पूजा करें लेकिन उनकी प्रिय आत्माएं/भक्त भक्ति में दृढ़ रहें और नास्तिक न बनें, इसलिए सर्वशक्तिमान परमात्मा जब तक कि वह निर्धारित समय न आ जाए (निर्धारित समय में जब हर कोई पहचान लेगा कि कबीर ही भगवान हैं और कोई नहीं।) तब तक इन देवताओं का रूप धारण करके दिव्य लीलाएं करते हैं।
आइए निम्न बिंदुओ के आधार पर परमात्मा की लीला को सिद्ध करें
हमारे लेख में ऐसी सच्ची कहानियाँ वर्णित हैं। पवित्र ग्रंथ भी बताते हैं कि संकट के समय भगवान विष्णु रक्षक के रूप में उभरे और उन्होंने अद्भुत कार्य किए, लेकिन यह एक मिथक है क्योंकि वे महान कार्य सर्वशक्तिमान की कृपा से संपन्न हुए थे, न कि श्री विष्णु जी द्वारा। सर्वशक्तिमान ने ऐसा विष्णु जी का रूप धारण करके किया था।
आइये हम इसे सूक्ष्मवेद में वर्णित एक वाणी से सिद्ध करते हैं।
शंखासुर मारे निर्बाणी । बराह रूप धरे परवानी ।।67।।
अर्थ: एक शंखासुर नाम का राक्षस था। उसने देवताओं को भक्तिहीन करने के लिए वेदों को चुरा लिया और वेदों को समुद्र में ले गया। सर्व देवताओं ने परमात्मा से विनय की और उनकी विनय सुनकर पूर्ण परमात्मा सूअर (बराह) का रूप धारण करके प्रकट हुए और शंखासुर को मारकर वेद वापिस पृथ्वी पर लाकर रख दिए। महिमा श्री विष्णु जी की बनाकर अन्तर्धान हो गए। (निर्बाणी = मुक्त, परवानी = कार्य को सिरे चढ़ाने वाले तथा उसे अधूरा न छोड़ने वाले)। आप पूर्ण रूप से मुक्त है तथा सर्व कार्यों को पूर्ण करने वाले हो।
अब तक यह मिथक बना हुआ था कि भगवान विष्णु ने बराह का रूप धारण करके शंखासुर का वध किया था।
मिथक भगवान विष्णु ने राक्षस भस्मागिरी को मारा बनाम तथ्य कबीर परमात्मा ने भस्मासुर को मार डाला और भगवान शिव को बचाया
इसी प्रकार पवित्र सूक्ष्मवेद (कबीर सागर) में वर्णित प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि कबीर परमेश्वर ने देवी पार्वती का रूप धारण करके भगवान शिव को भस्मागिरी/भस्मासुर नामक राक्षस से बचाया था, जिससे सिद्ध होता है कि तथाकथित मृत्युंजय, कालंजय, सनातन भगवान शंकर भी असहाय हो गए थे तथा भस्मागिरी राक्षस से भयभीत हो गए थे। यानी भगवान शिव अपनी जान बचाने में असमर्थ थे।
मिथक भगवान राम यानी भगवान विष्णु ने रावण को मारा बनाम तथ्य कबीर परमात्मा ने श्री रामचंद्र जी को रावण को मारने में मदद की
सर्वशक्तिमान कबीर परमेश्वर ही थे जिन्होंने भगवान राम यानी भगवान विष्णु को 'रामसेतु' पुल बनाने में मदद की थी तथा राक्षस रावण को मार डाला था। रावण ने 33 कोटि देवताओं को बंदी बना लिया था जिन्हें पूर्ण परमात्मा ने ही मुक्त कराया था। सूक्ष्म वेद की वाणी भी यही प्रमाण देती हैं -
हम ही रावण मार लंका पर करी चढ़ाई।
हम ही दस सर मार देवतन की बंध छुटाई।।
हम ही राम रहीम करीम पुरन करतारा।
हम ही बंधे सेतु चढ़े संग पदम अठारह।।
मिथक भगवान कृष्ण यानी भगवान विष्णु ने गोवर्धन पर्वत उठाया था बनाम तथ्य गिरिराज पर्वत श्री कबीर परमात्मा की कृपा से उठाया गया था
भगवान कृष्ण ने कबीर परमात्मा की कृपा से गोवर्धन/गिरिराज पर्वत को उठाया जिसका प्रमाण वीडियो में विस्तार से बताया गया है।
मिथक भगवान कृष्ण यानी भगवान विष्णु ने द्रौपदी की साड़ी बढ़ाई बनाम तथ्य कबीर परमात्मा ने द्रौपदी की साड़ी बढ़ाकर उसका सम्मान बचाया
द्रुपद सुता कुं दीन्हें लीर, जाके अनंत बढ़ाए चीर ।।
अर्थ: जब दुशासन ने युधिष्ठिर द्वारा जुए के खेल में हारने के बाद भरी सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करके अपमानित करने का प्रयास किया था, उस समय श्री कृष्ण नहीं बल्कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव ने द्रौपदी की लाज बचाई थी। एक बार द्रौपदी ने अपनी साड़ी से एक कपड़ा देकर अंधे साधु की सम्मान की रक्षा की थी। इस उपकार के बदले अंधे साधु ने उसे आशीर्वाद दिया था। (इस दिव्य लीला में स्वयं सर्वशक्तिमान कबीर परमेश्वर ने अंधे साधु का रूप धारण करके द्रौपदी के पुण्य कर्मों को बढ़ाया।) भक्त समाज अब तक भ्रम में था कि भगवान कृष्ण ने द्रौपदी को लज्जित होने से बचाया था। लेकिन सर्वशक्तिमान ने भक्तों की भक्ति में आस्था को बरकरार रखने के लिए उस समय भगवान कृष्ण यानी भगवान विष्णु बढ़ाई दिलाई।
भक्त प्रह्लाद की वास्तविक कहानी सुनाने से पूर्ण परमात्मा की लीला की जानकारी देना जरूरी था। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि इस ब्रह्मांड में कुछ भी सर्वशक्तिमान परमात्मा की कृपा के बिना नहीं हो सकता। ब्रह्मांड में संतुलन बनाए रखने के लिए भगवान ही वह कठिन से कठिन कार्य करते हैं। भगवान कबीर कहते हैं -
राम कृष्ण सतगुरु शहजादे, भक्ति हेत भये पियादे।।
अर्थ: सच्चिदानंद घन ब्रह्म के मुख कमल से निकली यह वाणी प्रमाणित करती है कि सभी प्राणी कबीर परमेश्वर की संतान हैं और भगवान राम और भगवान कृष्ण भी कठिन परिस्थितियों में उनसे मदद मांगते हैं।
पवित्र श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 में कहा है कि तीन गुणों (त्रिगुणमयी माया) की पूजा से जिनकी बुद्धि हरी जा चुकी है, वे साधक अभिमान के भूखे हैं, वे राक्षस स्वभाव वाले, दुष्कर्मी, मनुष्यों में नीच तथा मूर्ख लोग हैं जो 21 ब्रह्माण्ड के स्वामी अर्थात् अपने पिता ब्रह्म काल की भी पूजा नहीं करते। इसलिए उनकी पूजा व्यर्थ है। (पूज्य परमेश्वर केवल कविर्देव ही हैं।)
यह जानते हुए कि त्रिदेवों की शक्तियाँ सीमित हैं और वे कठिन कार्य करने में असमर्थ हैं तथा सर्वशक्तिमान से सहायता लेने में भी असमर्थ हैं, इसलिए आगे बढ़ते हुए इस लेख में यह सिद्ध होगा कि सर्वशक्तिमान कविर्देव ने ही नरसिंह भगवान का रूप धारण करके, राक्षस हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा भक्त प्रहलाद को बचाया। अब तक यह एक मिथक बना हुआ था कि भगवान विष्णु ने यह सब किया था।
यहाँ भगवान कबीर जी कहते हैं:
गरीब, सौ छल छिद्र मैं करूं, अपने जन के काज।
हरणाकुश ज्यूं मार हुं, नरसिंह धरहूँ साज।।
पूज्य संत गरीब दास जी महाराज ने बताया है कि परमेश्वर कबीर जी कहते हैं कि जो मेरी शरण में किसी जन्म में आया है, मुक्त नही हो पाया, मैं उसको मुक्त करने के लिए कुछ भी लीला कर देता हूँ। जैसे प्रहलाद भक्त की रक्षा के लिए नरसिंह रूप {मुख और हाथ शेर (Lion) के, शेष शरीर नर यानि मनुष्य का धारण करके हिरण्यकशिपु को मारा था।
भक्त प्रह्लाद सतोगुण भगवान विष्णु के परम उपासक थे, जिनका जन्म सतयुग में राक्षस कुल में हिरण्यकश्यप (पिता) और कयाधु (माता) के घर हुआ था। दृढ़ भक्त प्रह्लाद भगवान की प्रिय आत्मा थे, क्योंकि उन्होंने पिछले किसी मानव जन्म में उनकी भक्ति की थी। राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद, प्रह्लाद के मन में भगवान को पाने की गहरी इच्छा थी, इसलिए भगवान ने कई बार उनके दुष्ट पिता के अत्याचारों से उनकी रक्षा की, जिन्हें बाद में भगवान ने नरसिंह अवतार लेकर मारा था। साथ ही, भगवान कविर्देव ने भक्त प्रह्लाद के पोते राजा बलि को पाताल लोक का राज्य प्रदान किया। प्रह्लाद की आगे की कथा में इसका विवरण संक्षेप में दिया गया है।
संदर्भ: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित मुक्तिबोध पुस्तक पृष्ठ संख्या 112-116 अध्याय 'पतिव्रता का अंग' वाणी संख्या 29-30 से
गरीब, पतिब्रता प्रहलाद है, ऐसी पतिब्रता होई। चौरासी कठिन तिरासना, सिर पर बीती लोइ।।29।।
गरीब, राम नाम छांड्या नहीं, अबिगत अगम अगाध। दाव न चुक्या चौपटे, पतिब्रता प्रहलाद।।30।।
भावार्थ:- भक्त प्रहलाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु ने राम नाम छुड़वाने के लिए अनेकों कष्ट दिए, परंतु अपना उद्देश्य नहीं बदला। भक्त प्रहलाद दृढ़ रहा तो परमात्मा ने पल-पल (क्षण-क्षण) रक्षा की।
सतयुग में हिरण्यकशिपु राक्षस कुल का था जो अमर होना चाहता था, इसलिए उसने घोर तपस्या की और रजोगुण भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न किया। उसने हिरण्यकशिपु को वरदान दिया कि वह न दिन में मरेगा, न रात में, न अपने निवास के अन्दर और न बाहर, न श्री ब्रह्मा जी द्वारा बनाए गए किसी भी प्राणी, देवता, दानव या जानवर से, यहाँ तक कि वह न धरती पर मरेगा और न आकाश में, न ही किसी अस्त्र से। वह अद्वितीय होगा, उसकी शक्तियाँ अपरिमित होंगी और वह सृष्टि का एकमात्र शासक होगा।
इस वरदान को प्राप्त करने के बाद, दुष्ट राक्षस हिरण्यकश्यप ख़ुद को अजेय मानने लगा। उसने स्वर्ग का राजा जिसका अर्थ है इंद्रलोक और तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की। उसने सभी को सख्त आदेश दिया कि उसे भगवान मानकर उसकी भक्ति करो। वह भगवान विष्णु का दुश्मन बन गया और इस तरह अपने बेटे भक्त प्रह्लाद को प्रताड़ित करने लगे। प्रह्लाद श्री विष्णु की पूजा करता था। उसने अपने पिता हिरण्यकश्यप को भगवान मानने से इनकार कर दिया था। बाद में भगवान नरसिंह ने उसे अपने पंजों से मार डाला और इस तरह उसको मिला व्यापक वरदान समाप्त हो गया। इस तरह भक्त प्रहलाद समेत तीनों लोकों के प्राणियों को उसके अत्याचार से मुक्ति मिली।
प्रह्लाद के पिता राजा हिरण्यकश्यप ने उन्हें शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए नगर के बाहर विद्यालय में भेजा था जहाँ दो शिक्षक थे, एक साना और दूसरा मुरका। वे धार्मिक शिक्षा देते थे। हिरण्यकश्यप के आदेशानुसार वे सभी को हिरण्यकश्यप-हिरण्यकश्यप मंत्र का जाप करने को कहते थे। वे कहते थे कि न तो राम-विष्णु का नाम जपना है और न ही किसी अन्य देवता का।
हिरण्यकशिपु (हरणाकुश) ही भगवान है। प्रह्लाद भी अपने पिता का नाम जपता था। अगर कोई हिरण्यकशिपु के अलावा कोई दूसरा नाम जैसे राम-राम या अन्य देवताओं का मंत्र जपता पाया जाता तो उसे सबके सामने मृत्युदंड दिया जाता था।
प्रहलाद को अक्षर ज्ञान तथा भक्ति ज्ञान के लिए उनके पिता राजा हिरण्यकशिपु ने शहर से बाहर बनी पाठशाला में भेजा जहाँ पर दो पाधे (उपाध्य यानि आचार्य) एक साना तथा दूसरा मुर्का पढ़ाया करते थे। धर्म की शिक्षा दिया करते थे। हिरण्यकशिपु के आदेश से सबको हिरण्यकशिपु-हिरण्यकशिपु नाम जाप करने का मंत्र बताते थे। कहते थे कि राम-विष्णु नाम नहीं जपना है या अन्य किसी भी देव का नाम नहीं जपना है। हिरण्यकशिपु (हरणाकुश) ही परमात्मा है। प्रहलाद भी अपने पिता का नाम जाप करते थे। यदि कोई हिरण्यकशिपु के स्थान पर राम-राम या अन्य नाम जो प्रभु के हैं, जाप करता मिल जाता तो उसे मौत की सजा सबके सामने दी जाती थी।
पाठशाला के रास्ते में एक कुम्हार ने मटके पकाने के लिए आवे में रखे थे। लकड़ी तथा उपलों से ढ़क रखा था। सुबह अग्नि लगानी थी। रात्रि में एक बिल्ली ने अपने बच्चे उसी आवे (मटके पकाने का स्थान) में एक मटके में रख दिए। प्रातः काल बिल्ली अन्य घर में भोजन के लिए चली गई। कुम्हार ने आवे को अग्नि लगा दी। आग प्रबल होकर जलने लगी। कुछ समय पश्चात् बिल्ली आई और अपने बच्चे को आपत्ति में देखकर म्याऊँ-म्याऊँ करने लगी। कुम्हारी को समझते देर ना लगी। वह भी परमात्मा से अर्ज करने लगी और रोने लगी। हे प्रभु! हे राम! हमारे को महापाप लगेगा। इस बिल्ली के बच्चों की रक्षा करो। बार-बार यह कहकर पुकार कर रही थी। उस समय भक्त प्रहलाद उसी रास्ते से पाठशाला जा रहा था। कुम्हारी को रोते हुए देखा तो उसके निकट गया। वह हे राम! हे विष्णु भगवान! हे परमेश्वर! इन बिल्ली के बच्चों को बचाओ, हमारे को पाप लगेगा, कह रही थी। प्रहलाद ने उस माई से कहा कि हे माता! आप राम ना कहो। मेरे पिता जी का नाम लो, नहीं तो आपको मार डालेगा। कुम्हारी ने बताया कि इस आवे में बिल्ली के बच्चे रह गए हैं। हमको पता नहीं चला। भगवान से इन बच्चों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रही हूँ। इस भयंकर अग्नि से राजा हिरण्यकशिपु नहीं बचा सकते, परमात्मा ही बचा सकते हैं।
प्रहलाद भक्त ने कहा, माई! जब आप घड़े निकालें तो मुझे बुलाना। ऐसी शीतल हवा चली कि अग्नि बुझ गई। कहते हैं कि एक महीने में आवे में रखे घड़े पकते थे। उस समय अढ़ाई दिन में आवा पक गया। प्रहलाद भक्त को बुलाकर आवे से मटके निकाले गए। जिस घड़े में बिल्ली के बच्चे थे, वह घड़ा कच्चा था। बिल्ली के बच्चे सुरक्षित थे। अन्य सब घड़े पके हुए थे। यह दृश्य देखकर प्रहलाद ने मान लिया कि ऐसी विकट परिस्थिति में मानव कुछ नहीं कर सकता। परमात्मा ही समर्थ हैं।
कुम्हारी से भक्त प्रहलाद जी ने कहा था कि माता जी! यदि भगवान ने बिल्ली के बच्चे बचा दिए तो मैं भी परमात्मा का ही नाम जपा करूँगा। अपने पिता का नाम जाप नहीं करूँगा। उस दिन के पश्चात् प्रहलाद भक्त राम का नाम जाप करने लगा। यह घटना सत्ययुग की है। श्री रामचन्द्र पुत्र दशरथ जी का तो जन्म भी नहीं हुआ था।
जब गुरु साना और मुरका को पता चला कि प्रहलाद राम का नाम जपता है तो उसे बहुत समझाया कि तुम राजा हिरण्यकशिपु का नाम जपा करो। प्रहलाद ने कहा, "गुरुदेव! मेरे पिता मनुष्य हैं और राजा भी हैं, पर भगवान नहीं। विशेष परिस्थितियों में भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। जीव का कल्याण भगवान से ही हो सकता है। राजा प्रजा को क्या देता है? उल्टा वह प्रजा से कर लेता है।"
भगवान सबका पालन-पोषण करते हैं। जब वे वर्षा करते हैं, तब मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। राजा होना अनिवार्य है, परंतु उसे अन्यायी नहीं होना चाहिए। राजा कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनाया गया है। दुष्टों से अपनी प्रजा की रक्षा करना राजा का प्रमुख कर्तव्य है। राजा भगवान की भक्ति करके राज्य प्राप्त करता है। यदि राजा अपनी प्रजा को कष्ट देता है, तो भगवान उसे दण्ड देते हैं। उसे नर्क में डाल देते हैं। फिर वह पशु-पक्षी योनियों में कष्ट भोगता है। इसलिए राजा को भी भगवान की मंत्र दीक्षा लेनी चाहिए। उसे भगवान से डरकर काम करना चाहिए।
आप हमारे शिष्य हैं, गुरु नहीं। आप हमें ज्ञान दे रहे हैं।' प्रहलाद ने कहा 'मुझे क्षमा करें गुरुदेव, मैं आपको ज्ञान नहीं दे रहा, मैं तो आपको राजा का कर्तव्य बता रहा हूँ।' मुर्का पांडे ने कहा 'हे राजकुमार! आपको यह ज्ञान किसने दिया?' प्रहलाद ने कहा 'गुरुदेव! मुझे स्मृतियाँ याद आ गई हैं। जब मैं अपनी माँ के गर्भ में था। नारद जी सूक्ष्म रूप धारण करके मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझे ईश्वर की महिमा और मानव कर्तव्य के बारे में बताया था। उन्होंने मुझे जपने के लिए एक मंत्र भी दिया था। अब मैं वही जपूँगा।'
साना -मुर्का पुजारियों ने राजा को भक्त प्रह्लाद की शिकायत की उन्होंने उससे कहा कि आपका बेटा राम का मंत्र जपता है। वह हमसे सहमत नहीं है। जब हम उसे शिक्षा देते हैं तो वह हमें ज्ञान देना शुरू कर देता है।
जब हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को बुलाकर राम-मंत्र का जाप न करने को कहा तो उसने साफ कह दिया, 'पिताजी! केवल भगवान ही सर्वशक्तिमान हैं। भगवान ही हमें सभी संकटों से बचा सकते हैं। मनुष्य समर्थ नहीं हैं। यदि कोई भक्त तपस्या करके भगवान से कोई सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य मनुष्यों से श्रेष्ठ हो जाता है, परंतु वह भगवान से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। भगवान ही श्रेष्ठ हैं। वे ही सर्व समर्थ हैं।
भक्त प्रहलाद की यह बात सुनकर अहंकारी हिरण्यकशिपु क्रोध से लाल हो गया और सेवकों तथा सैनिकों से बोला 'इसे मेरी आंखों के सामने से हटाकर जंगल में सांपों के बीच फेंक दो। यह सांप के काटने से मर जाएगा।' ऐसा ही किया गया, लेकिन प्रहलाद नहीं मरा, सांपों ने उसे नहीं काटा। जबकि प्रहलाद शांति से सो रहा था। सुबह-सुबह सांपों ने भक्त प्रहलाद के ऊपर अपना फन फैला लिया था और उसे छाया प्रदान करके धूप से बचा रहे थे।
राजा ने कहा 'जंगल में जाकर लाश ले आओ।' जब सैनिक गए तो प्रहलाद सुरक्षित था। सांप इधर-उधर भाग गए। सैनिकों ने सब कुछ देख लिया था। प्रहलाद को मरा हुआ मानकर जब उन्होंने उसे उठाने की कोशिश की तो प्रहलाद अपने आप उठ खड़ा हुआ। उस समय प्रहलाद की उम्र 10 साल थी।
भगवान कविर्देव कहते हैं:
मन तू पावेगा अपना किया रे भोगेगा अपना किया रे।
प्रह्लाद पैज परवान करि है धर नरसिंह अवतारे।।
दीनदयाल दया करि उतरे हिरणाकुश उदर विदारे।।
मन तू पावेगा अपना किया रे भोगेगा अपना किया रे।
राक्षस हिरण्यकश्यप का अत्याचार जारी रहा। फिर प्रहलाद को पहाड़ से नीचे फेंक दिया गया। प्रहलाद घने पौधों के फूलों पर गिरा लेकिन मरा नहीं।
संदर्भ: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 147-148, वाणी संख्या 73
आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज ध्रुव और प्रह्लाद जैसे दृढ़ भक्तों की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि ये महापुरुष सम्मान और प्रशंसा के पात्र हैं।
ध्रुव प्रहलाद और जनक विदेही।
सुखदेव संगे परम सनेही ।।73।।
आइए जानते हैं कि भक्त प्रहलाद को उनकी मौसी ने किस प्रकार प्रताड़ित किया।
होलिका, राक्षस हिरण्यकश्यप की बहन यानी भक्त प्रह्लाद की बुआ थी। उसने प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया, लेकिन पूर्ण परमात्मा ने उसे सबक सिखाया।
प्रहलाद की बुआ होलिका अपने भाई हिरण्यकशिपु की आज्ञा से चिता के ऊपर प्रहलाद जी को गोद में (गोडों में) लेकर बैठ गई। होलिका के पास एक चद्दर थी। यदि कोई व्यक्ति उसको ओढ़कर अग्नि में प्रवेश कर जाए तो वह जलता नहीं था। उसने उस चद्दर को ओढ़कर और अपने आपको पूरी तरह से ढककर प्रहलाद को अपनी गोद में बैठा लिया। वह बोली 'बेटा! देख मैं भी बैठी हूँ। तुझे कुछ नहीं होगा। अग्नि प्रज्वलित हुई। कबीर परमेश्वर ने ठंडी हवा का झोंका बहा दिया और तेज आंधी आई। होलिका के शरीर से चादर उड़ गई और भक्त प्रहलाद को पूरी तरह से ढक दिया। होलिका जलकर राख हो गई। वह भस्म हो गई। भक्त प्रहलाद ज्वाला से बच गए।
यह सब कबीर भगवान की लीला थी। प्रहलाद जी की आस्था बढ़ती ही जा रही थी। ऐसे 84 अत्याचार भक्त प्रहलाद को दिए गए, लेकिन भक्त के दृढ़ विश्वास को देखकर, उसकी दृढ़ता से प्रसन्न होकर, उसके पतिव्रता धर्म से प्रभावित होकर भगवान ने हर मुश्किल में उसकी रक्षा की।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, हिरण्यकशिपु ने श्री ब्रह्मा जी की भक्ति करके वरदान प्राप्त कर रखा था कि मैं सुबह मरूँ ना शाम मरूँ, दिन में मरूँ न रात्रि में मरूँ, बारह महीने में से किसी में ना मरूँ, न अस्त्र-शस्त्र से मरूँ, पृथ्वी पर मरूँ ना आकाश में मरूँ। न पशु से मरूँ, ना पक्षी, ना कीट से मरूँ, न मानव से मरूँ। न घर में मरूँ, न बाहर मरूँ। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को मारने के लिए एक लोहे का खम्बा अग्नि से गर्म करके तथा तपाकर लाल कर दिया।
प्रहलाद जी को उस खम्बे के पास खड़ा करके हिरण्यकशिपु ने कहा कि क्या तेरा प्रभु इस तपते खम्बे से भी इससे तेरी जलने से रक्षा कर देगा? हजारों दर्शक यह अत्याचार देख रहे थे। प्रहलाद भक्त भयभीत हो गए कि परमात्मा इस जलते खम्बे में कैसे आएगा? उसी समय प्रहलाद ने देखा कि उस खम्बे पर बालु कीड़ी (भूरे रंग की छोटी-छोटी चींटियाँ) पंक्ति बनाकर चल रही थी। ऊपर-नीचे आ-जा रही थी। प्रहलाद ने विचार किया कि जब चीटियाँ नहीं जल रही तो मैं भी नहीं जलूँगा। हिरण्यकशिपु ने कहा, प्रहलाद! इस खम्बे को दोनों हाथों से पकड़कर लिपट, देखूँ तेरा भगवान तेरी कैसे रक्षा करता है? यदि खम्बा नहीं पकड़ा
तो देख यह तलवार, इससे तेरी गर्दन काट दूँगा। डर के कारण प्रहलाद जी ने परमात्मा का नाम स्मरण करके खम्बे को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए।
संदर्भ: 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 142, वाणी संख्या 58
नरसिंह रूप धरे गुरुराया, हिरण्यकुश कुं मारन धाया ।।58।।
उसी के अंदर से नरसिंह रूप धारण करके प्रभु प्रकट हुए। हिरण्यकशिपु भयभीत होकर भागने लगा। नरसिंह प्रभु ने उसे पकड़कर अपने गोडों (घुटनों) के पास हवा में लटका दिया। हिरण्यकशिुप चीखने लगा कि मुझे क्षमा कर दो, मैं कभी किसी को नहीं सताऊँगा। तब प्रभु ने कहा, क्या मेरे भक्त ने तेरे से क्षमा याचना नहीं की थी? तूने एक नहीं सुनी। अब तेरी जान पर पड़ी तो डर लग रहा है। हे अपराधी! देख न मैं मानव हूँ, न पशु, न आकाश है, न पृथ्वी पर, न सुबह है न शाम है। न बारह महीने, यह तेरहवां महीना है, (हरियाणा की भाषा में लौंद का महीना कहते हैं) न अस्त्र ले रखा है, न शस्त्र मेरे पास है। घर के दरवाजे के मध्यम में खड़े है। न घर में, न बाहर हूँ। अब तेरा अंत निकट है। यह कहकर नरसिंह भगवान ने उस राक्षस का पेट फाड़कर आँतें निकाल दी और जमीन पर उस राक्षस को फ़ेक दिया।
यहाँ भगवान कबीर कहते हैं:
हिरण्याकुश छाती तुड़वायी। ब्राह्मण बाणा करम कसाई ||
टिप्पणी: यहां ब्राह्मण का अर्थ है भक्त/पूजा करने वाला है।
सूक्ष्मवेद में इसका उल्लेख किया गया है
मर्द गर्द में मिल गए, रावण से रणधीर। कंस केश चाणूर से, हिरनाकुश बलबीर।
तेरी क्या बुनियाद है, जीव जन्म धरलेत। गरीबदास हरि नाम बिन, खाली परसी खेत।
अर्थात् ब्रह्म काल के लोक में राक्षस जो घोर तपस्या/ध्यान/हठ योग से सिद्धियां प्राप्त करने के बाद यह भूल कर बैठे है कि वे भगवान बन गए, इसी अज्ञानता और अहंकार के कारण उन्होंने लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण रावण, कंस, केशी, चाणौर और हिरण्यकश्यप है, जो कि अंत में मारे गए और राख हो गए।
नरसिंह रूप में सर्वशक्तिमान भगवान ने प्रहलाद को गोद में उठा लिया, उसे चाटा और दुलारा। प्रह्लाद अपने पिता हिरण्यकश्यप के अत्याचार से मुक्त हो गया था, उसने राहत की सांस ली। वह उस नगर का राजा बन गया। उसने विवाह किया और उसका एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम 'बैलोचन' (विरेचन) रखा गया।
संदर्भ: 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पर
पृष्ठ संख्या 145-147, वाणी संख्या 66
परशुराम बावन अवतारा।
कोई ना जाने भेद तुम्हारा।।66।।
राजा बलि (महाबली/इंद्रसेन/मावेली) बैलोचन के पुत्र थे, जिन्होंने स्वर्ग के राजा इंद्र का सिंहासन प्राप्त करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ किया था। उन्होंने 99 यज्ञ पूरे किए और यह 100वां था। भगवान इंद्र को अपना राजपद खोने की चिंता होने लगी, इसलिए वे समाधान के लिए श्री विष्णु जी के पास गए। चूँकि, भगवान विष्णु ने इंद्रदेव को राज्य बचाने का वचन दिया था, इसलिए वे बाध्य थे, लेकिन असहाय थे क्योंकि उनकी शक्तियाँ सीमित थीं और राजा बलि सिंहासन प्राप्त करने की पात्रता पूरी करने वाले थे। इसलिए, उन्होंने सर्वशक्तिमान से मदद मांगी।
पूर्ण परमात्मा कविर्देव भगत की पुकार सुनकर ब्राह्मण रूप धारण करके यज्ञ में आये तथा तीन पैर जमीन दान में मांगी। सर्वशक्तिमान ने एक कदम में पूरी पृथ्वी और दूसरे कदम में स्वर्ग को नाप लिया।
संदर्भ: 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक वाणी संख्या 11-12, पृष्ठ संख्या 197 पर इसी बात की पुष्टि होती है।
जण कुं दूध पिलाया जान, पूजा खाए गए पाषाण |
बली कुं जग रचि अश्वमेघ, बावना होकर आये उम्मेद ||11||
तीन पैड जग दिया दान, बावन कुं बली चले निदान |
नित बुन कपड़ा देते भाई, जाके नौलद बालक आई ||12||
भगवान ने तीसरा पग रखने के लिए स्थान मांगा तो बलि ने कहा, 'आप इसे मेरी पीठ पर रख दीजिए।' यह कहकर वह धरती की ओर मुंह करके लेट गया। तब भगवान प्रसन्न हुए और पूछा, 'मांगो, क्या चाहिए?' बलि ने कहा, 'मैंने इंद्र का राज्य प्राप्त करने के लिए सौवां यज्ञ किया है।' भगवान ने कहा, 'इंद्र को अपना कार्यकाल पूरा करने दीजिए, फिर मैं आपको 'इंद्रासन' प्रदान करूंगा। आप मेरी शर्त पूरी नहीं कर सके, इसलिए मैं इंद्र को पद से नहीं हटा सकता। फिर भी आपने मुझे सबकुछ दिया है, इसलिए इसके बाद आपको 'इंद्रासन' दिया जाएगा। तब तक मैं आपको पाताल लोक का राजा बनाता हूं। वहां शासन करो। मैंने इंद्र को उनका राज्य बनाए रखने का वचन दिया है।’
बलि ने कहा 'मेरी एक शर्त है, उसके लिए वचन दीजिए।' भगवान ने कहा 'मांगो'। बलि ने कहा 'जब तक मैं पाताल में रहूंगा तब तक आप इसी 'बावन' रूप में मेरे साथ रहेंगे और मेरे द्वार के सामने खड़े रहेंगे। भगवान विष्णु के रूप में परमेश्वर ने कहा 'तथास्तु! ऐसा ही होगा।' भक्त प्रहलाद के पौत्र यानी राजा बलि को पाताल का राज्य प्रदान किया गया।
भक्त प्रहलाद अपने धर्म पर अडिग रहे अर्थात् अपने पूज्य देवता के प्रति निष्ठावान रहे, इसलिए सर्वशक्तिमान ने उनकी सहायता की।
संदर्भ: 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 153-154, वाणी संख्या 120-121 पर
कलयुग की आदि में चानौर कंस मारे थे।
त्रेता की आदि में हिरणाकुश पछारे थे।।120
बलि की विलास यज्ञ सुरपति पुकारे थे।
बामन स्वरूप धर किन्हीं सुरपति पुकार, बली बैन निस्तारे थे ।।121
अर्थ:- श्री विष्णु की स्तुति करके पुनः महिमा दोहराई कि आप जी ने द्वापरयुग के अंत में जब कलयुग का प्रभाव आरम्भ हो गया था, उस समय मथुरा के राजा कंस को मारा तथा कंस के राज्य का पहलवान जो मथुरा केसरी था, जो चमार जाति में जन्मा था। ये श्री कृष्ण रूप में मारे थे। सतयुग के अंत में त्रेतायुग का प्रभाव होने लगा था, उस समय हिरणाकुश को नरसिंह रूप धारकर मारा था।
उन्होंने बामन (बौना) रूप धारण करके ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा बलि का यज्ञ पूर्ण किया, जैसा कि वाणी संख्या 66 में विस्तार से बताया गया है। वास्तव में कबीर परमात्मा ने यह सब श्री विष्णु के रूप में किया था।
संदर्भ: 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 148-149, वाणी संख्या 88-90 पर
चिंहडोल चुणक दुर्वासा देवा। असुर निकंदन बूड़त खेवा।।88
बलि अरु शेष पतालौं साखा। सनक सनन्दन सुरगों हाका।।89
दहुं दिश बाजु ध्रु प्रहलादा। कोटि कटक दल कटा प्यादा।।90
उपर्युक्त वाणी का सारांश महाभारत युद्ध की ओर संकेत करता है। महाभारत युद्ध में किसने योगदान दिया? देवताओं, ऋषियों और महान ऋषियों सहित कई योद्धाओं के नाम बताए गए हैं। राजा बलि, ध्रुव और प्रहलाद। इन सभी ने पांडवों का साथ दिया और कौरवों के खिलाफ युद्ध लड़ा। पाँचों पांडव 'सूर्यवंशी' कहलाए और भक्त थे जबकि कौरवों ने राक्षस रूप धारण कर लिया था। पाँचो पाण्डव सूर्यवंशी कहलाते थे। यदि परमात्मा पाण्डव भक्तों की रक्षा नहीं करते तो काल ब्रह्म उनको भी मीच (मृत्यु) रूपी डांडो (डंडा) मारता।
टिप्पणी: जब तक सूर्य-चांद रहेंगे, इन महापुरुषों का नाम चमकता रहेगा।
'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 115 पर, पूज्य संत गरीब दास जी महाराज अपने अमृत वाणी संख्या 40 में बताते हैं
ध्रुव प्रहलाद अगाध अग है, जनक बिदेही जोर है।
चले विमान निदान बीत्या, धर्मराज की बन्ध तौड़ हैं।।40
सरलार्थ:- काल की भक्ति करने वाले धु्रव तथा प्रहलाद जैसे बहुत अगाध यानि सर्वोपरि भक्ति वाले अगह यानि आगे पहुँचे हुए माने जाते हैं और जनक विदेही को भी इसी श्रेणी में लेते हैं जो विमान में बैठकर स्वर्ग गए थे।
परन्तु ये सभी भी काल जाल में ही रह गए तथा कठिन भक्ति करने पर भी मुक्त नहीं हो सके। इसलिए सच्चे अध्यात्म ज्ञान में कहा गया है कि
आत्म प्राण उधारहीं, ऐसा धर्म नहीं और। भावार्थ है कि यदि जीवात्मा का जन्म-मरण (कभी स्वर्ग-कभी नरक) का चक्कर कोई छुड़वाता है तो उससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। यह कार्य परम संत ही कर सकते हैं।
आज संत रामपाल जी महाराज ही वह तत्वदर्शी संत हैं जिनकी भक्ति विधि प्रमाणित है तथा वे भक्तों को सही मार्ग की ओर अग्रसर कर रहे हैं। जो भी उनकी शरण में आएगा वह शास्त्रोक्त साधना करके शैतान ब्रह्म काल के जाल से मुक्त हो जाएगा। आप भी उनकी शरण में आकर शाश्वत निवास स्थान सतलोक की प्राप्ति कर सकते हैं।