इसी का प्रमाण पवित्र गीता जी अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 तक है। ब्रह्म (काल) कह रहा है कि प्रकृति (दुर्गा) तो मेरी पत्नी है, मैं ब्रह्म (काल) इसका पति हूँ। हम दोनों के संयोग से सर्व प्राणियों सहित तीनों गुणों (रजगुण - ब्रह्मा जी, सतगुण – विष्णु जी, तमगुण - शिवजी) की उत्पत्ति हुई है। मैं (ब्रह्म) सर्व प्राणियों का पिता हूँ तथा प्रकृति (दुर्गा) इनकी माता है। मैं इसके उदर में बीज स्थापना करता हूँ जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है। प्रकृति (दुर्गा) से उत्पन्न तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) जीव को कर्म आधार से शरीर में बांधते हैं।
यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16, 17 में भी है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्, छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।
अनुवाद: (ऊध्र्वमूलम्) ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला (अधःशाखम्) नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला (अव्ययम्) अविनाशी (अश्वत्थम्) विस्तारित पीपल का वृक्ष है, (यस्य) जिसके (छन्दांसि) जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से टहनियाँ व (पर्णानि) पत्ते (प्राहुः) कहे हैं (तम्) उस संसाररूप वृक्षको (यः) जो (वेद) इसे विस्तार से जानता है (सः) वह (वेदवित्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 2
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृद्धाः, विषयप्रवालाः, अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।
अनुवाद: (तस्य) उस वृक्षकी (अधः) नीचे (च) और (ऊध्र्वम्) ऊपर (गुणप्रवृद्धाः) तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी (प्रसृता) फैली हुई (विषयप्रवालाः) विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल (शाखाः) डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव (कर्मानुबन्धीनि) जीवको कर्मों में बाँधने की (मूलानि) जड़ें अर्थात् मुख्य कारण हैं (च) तथा (मनुष्यलोके) मनुष्यलोक - अर्थात् पृथ्वी लोक में (अधः) नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में (ऊध्र्वम्) ऊपर स्वर्ग लोक आदि में (अनुसन्ततानि) व्यवस्थित किए हुए हैं।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 3
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च, सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असंगशस्त्रोण, दृढेन, छित्वा।।
अनुवाद: (अस्य) इस रचना का (न) नहीं (आदिः) शुरूवात (च) तथा (न) नहीं (अन्तः) अन्त है (न) नहीं (तथा) वैसा (रूपम्) स्वरूप (उपलभ्यते) पाया जाता है (च) तथा (इह) यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी (न) नहीं है (सम्प्रतिष्ठा) क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है (एनम्) इस (सुविरूढमूलम्) अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला (अश्वत्थम्) मजबूत स्वरूपवाले संसार रूपी वृक्ष के ज्ञान को (असंड्गशस्त्रोण) पूर्ण ज्ञान रूपी (दृढेन्) दृढ़ सूक्षम वेद अर्थात् तत्वज्ञान के द्वारा जानकर (छित्वा) काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक अर्थात् क्षण भंगुर जानकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ब्रह्म तथा परब्रह्म से भी आगे पूर्णब्रह्म की तलाश करनी चाहिए।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 4
ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः, तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृतिः, प्रसृता, पुराणी।।
अनुवाद: जब तत्वदर्शी संत मिल जाए (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमात्मा के (पदम्) पद स्थान अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भली भाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गए हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसार में नहीं आते (च) और (यतः) जिस परमात्मा-परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृतिः) रचना-सृष्टी (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) अज्ञात (आद्यम्) आदि यम अर्थात् मैं काल निरंजन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ तथा उसी की पूजा करता हूँ।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 16
द्वौ, इमौ, पुरुषौ, लोके, क्षरः, च, अक्षरः, एव, च, क्षरः, सर्वाणि, भूतानि, कूटस्थः, अक्षरः, उच्यते।।
अनुवाद: (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (क्षरः) नाशवान् (च) और (अक्षरः) अविनाशी (पुरुषौ) भगवान हैं (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों प्रभुओं के लोकों में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियों के शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 17
उत्तमः, पुरुषः, तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः, यः, लोकत्रायम् आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः।।
अनुवाद: (उत्तमः) उत्तम (पुरुषः) प्रभु (तु) तो (अन्यः) उपरोक्त दोनों प्रभुओं ‘‘क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष’’ से भी अन्य ही है (इति) यह वास्तव में (परमात्मा) परमात्मा (उदाÐतः) कहा गया है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकों में (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) ईश्वर (प्रभुओं में श्रेष्ठ अर्थात् समर्थ प्रभु) है।
भावार्थ - गीता ज्ञान दाता प्रभु ने केवल इतना ही बताया है कि यह संसार उल्टे लटके वृक्ष तुल्य जानो। ऊपर जड़ें (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है। नीचे टहनीयां आदि अन्य हिस्से जानों। इस संसार रूपी वृक्ष के प्रत्येक भाग का भिन्न-भिन्न विवरण जो संत जानता है वह तत्वदर्शी संत है जिसके विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक नं. 2.3 में केवल इतना ही बताया है कि तीन गुण रूपी शाखा हैं। यहां विचारकाल में अर्थात् गीता में आपको मैं (गीता ज्ञान दाता) पूर्ण जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि मुझे इस संसार की रचना के आदि व अंत का ज्ञान नहीं है। उस के लिए गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है कि किसी तत्व दर्शी संत से उस पूर्ण परमात्मा का ज्ञान जानों इस गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में उस तत्वदर्शी संत की पहचान बताई है कि वह संसार रूपी वृक्ष के प्रत्येक भाग का ज्ञान कराएगा। उसी से पूछो। गीता अध्याय 15 के श्लोक 4 में कहा है कि उस तत्वदर्शी संत के मिल जाने के पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए अर्थात् उस तत्वदर्शी संत के बताए अनुसार साधना करनी चाहिए जिससे पूर्ण मोक्ष (अनादि मोक्ष) प्राप्त होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में स्पष्ट किया है कि तीन प्रभु हैं एक क्षर पुरूष (ब्रह्म) दूसरा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) तीसरा परम अक्षर पुरूष (पूर्ण ब्रह्म)। क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष वास्तव में अविनाशी नहीं हैं। वह अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों से अन्य ही है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है।
उपरोक्त श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में यह प्रमाणित हुआ कि उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष की मूल अर्थात् जड़ तो परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है जिससे पूर्ण वृक्ष का पालन होता है तथा वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी के तुरन्त बाहर जमीन के साथ दिखाई देता है वह तना होता है उसे अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म जानों। उस तने से ऊपर चल कर अन्य मोटी डार निकलती है उनमें से एक डार को ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष जानों तथा उसी डार से अन्य तीन शाखाएं निकलती हैं उन्हें ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जानों तथा शाखाओं से आगे पत्ते रूप में सांसारिक प्राणी जानों। उपरोक्त गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में स्पष्ट है कि क्षर पुरुष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरुष (परब्रह्म) तथा इन दोनों के लोकों में जितने प्राणी हैं उनके स्थूल शरीर तो नाशवान हैं तथा जीवात्मा अविनाशी है अर्थात् उपरोक्त दोनों
प्रभु व इनके अन्तर्गत सर्व प्राणी नाशवान हैं। भले ही अक्षर पुरुष (परब्रह्म) को अविनाशी कहा है परन्तु वास्तव में अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों से अन्य है। वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पालन-पोषण करता है। उपरोक्त विवरण में तीन प्रभुओं का भिन्न-भिन्न विवरण दिया है।
FAQs : "पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी में सृष्टी रचना का प्रमाण"
Q.1 श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान किसने दिया था?
गीता जी के अध्याय 11 श्लोक 32 और अध्याय 8 श्लोक 13 में वर्णन है कि गीता जी का ज्ञान ब्रह्म काल ने दिया था। ब्रह्म काल ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश किया और श्रीमद्भगवद गीता जी का ज्ञान सुनाया था।
Q.2 पवित्र गीता जी के अनुसार आत्माएं इस संसार में किस कारण से फंसी हुई हैं?
श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 14 श्लोक 3 के अनुसार तीन गुण - ब्रह्मा जी रजगुणा युक्त हैं , विष्णु जी सतोगुण युक्त हैं और शिव जी तमोगुण युक्त हैं। इन्हीं के गुणों से प्रभावित होकर आत्माएं इस संसार में फँसी हुई हैं।
Q. 3 श्रीमद्भगवद गीता जी के अनुसार तत्वदर्शी संत किसे माना जाता है?
श्रीमद्भगवद गीता जी अध्याय 15 श्लोक 1 में कहा गया है कि तत्वदर्शी संत वह है,जो उल्टे लटके हुए संसार के वृक्ष का स्पष्ट वर्णन कर सके। इसके अलावा उसके विभिन्न भागों को भी समझा सके। ऐसे संत को ही तत्वदर्शी संत कहा जाता है जो इस संसार के वृक्ष के सभी भाग भिन्न भिन्न बता सके।
Q.4 श्रीमद्भगवद गीता में उल्टे लटके पेड़ का क्या महत्व है?
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में उलटे लटके वृक्ष को विश्व वृक्ष के रूप में दर्शाया गया है। यह वृक्ष इस संसार की उत्पत्ति और विभिन्न प्राणियों के बीच के संबंध को दर्शाता है। इसके अलावा इस संसार वृक्ष की व्याख्या भगवान कबीर जी ने बहुत ही गहराई से की है:
कबीर अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार|
तीनों देवा शाखा हैं , पात रूप संसार ||
Q.5 पवित्र गीता जी में किन मुख्य देवताओं का वर्णन है?
श्रीमद्भगवद गीता जी के अध्याय 15 श्लोक 16 तथा 17 के अनुसार मुख्य तीन प्रकार के देवता हैंः
- क्षर पुरुष (नाशवान प्राणी)
- अक्षर पुरुष (नाशवान प्राणी)
- परम अक्षर पुरुष (अविनाशी परमात्मा)
परम अक्षर पुरुष अविनाशी और सर्वोच्च भगवान है, जिसने संपूर्ण ब्रह्मांडों की रचना की है। फिर उस भगवान को कबीर जी के रूप में जाना जाता है, कबीर साहेब जी के बारे में वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में किया गया है।
Q.6 श्रीमद्भगवद गीता जी के अनुसार प्रकृति की रचना कैसे हुई थी?
श्रीमद्भगवद गीता के अध्याय 14 श्लोक 3 और 4 में काल ब्रह्म के 21 ब्रह्माण्डों की रचना के बारे में बताते हैं। इसके अलावा इसमें यह भी वर्णन है कि दुर्गा जी से ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और काल ब्रह्म दुर्गा जी के साथ संबंध बनाता है, जिससे 21 ब्रह्मांडों में सभी प्राणियों का जन्म होता है।
Q.7 श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान दाता किस भगवान की शरण में है?
गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में श्रीमद्भगवद गीता जी का ज्ञान दाता काल ब्रह्म कहता है कि वह उस परमेश्वर की शरण में है, जिसने प्रकृति की रचना की है और यदि कोई व्यक्ति उस पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी की कृपा दृष्टि प्राप्त करना चाहता है तो उसे तत्वदर्शी संत की शरण ग्रहण करनी चाहिए। उसके बाद व्यक्ति को पूर्ण परमात्मा के उस अमर लोक की प्राप्ति हो सकती है, जहां जाकर जन्म और मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।
Q.8 वह भगवान कौन है जो तीनों लोकों में सभी का पालन-पोषण और रक्षा करता है?
श्रीमद्भागवत गीता जी के अध्याय 15 श्लोक 17 के अनुसार जो ईश्वर तीनों लोकों में प्राणियों का पालन-पोषण करता है ,वह श्लोक 16 में वर्णित देवताओं से भिन्न है। इसके अलावा उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की पहचान परम अक्षर ब्रह्म के रूप में पवित्र गीता जी अध्याय 8 श्लोक 3 में बताई गई है। जिनका नाम परमेश्वर कबीर साहेब जी ही है इसी का प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 9 में बताया गया है।
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Gautam
क्या पवित्र गीता ज्ञान देने वाले श्री कृष्ण भगवान सर्वशक्तिमान भगवान हैं?
Satlok Ashram
यह एक मिथक है कि गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने दिया। कबीर साहेब जी सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं और उन्होंने ही सभी ब्रह्मांडों की रचना की है। इसके अलावा भगवान कृष्ण गीता के ज्ञान दाता नहीं हैं, बल्कि यह भगवान विष्णु जी के पिता ब्रह्म काल थे। ब्रह्म काल ने ही महाभारत युद्ध के दौरान एक प्रेत की तरह कृष्ण के शरीर में प्रवेश किया और गीता का ज्ञान दिया था।