सिर काटकर शिव जी को अर्पण करने वाले रावण को क्यों नहीं मिला मोक्ष?

सिर काटकर शिव जी को अर्पण करने वाले रावण को क्यों नहीं मिला मोक्ष?

हिंदू धर्मग्रंथों में रामायण के प्रसिद्ध पात्र रावण के बारे में कई बातें लिखी गई हैं जो आज भी दुनिया में रहस्य बनी हुई हैं। रामायण की घटना त्रेतायुग से संबंधित है। यह हमारे वर्तमान धर्म गुरुओं के अज्ञान का परिणाम है जो काल ब्रह्म के लोक की व्यवस्था को ना तो समझ पाए और ना ही भोली जनता को समझा पाए। इसलिए वे रामायण के पात्र रावण के बारे में सही जानकारी नहीं दे सके। इस कारण रावण से जुड़े कई तथ्यों से दुनिया आज भी अनजान है। इस लेख में इन्हीं तथ्यों पर चर्चा की जाएगी।

यहाँ हम सबसे पेचीदा सवाल का जवाब जानेंगे कि रावण महान विद्वान और भगवान शिव का अडिग भक्त होने के बावजूद धर्मग्रंथों में राक्षस की श्रेणी में क्यों आता है? आखिर क्यों वह चौरासी लाख योनियों में फंसा रहा और मोक्ष प्राप्ति से वंचित रह गया? ऐसे सभी सवालों का जवाब हमें सूक्ष्म वेद में मिलता है। तो चलिए शुरू करते हैं, निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर रावण के बारे में उन अनकहे और छिपे तथ्यों का पता लगाते हैं जो लिखे तो गए थे लेकिन आज तक दुनिया के लिए रहस्य बने रहे।

  • राक्षसों की उत्पत्ति कैसे हुई?
  • रावण का इतिहास क्या है?
  • रावण को राक्षस किसने बनाया?
  • मायावी रावण का छल
  • लंकापति रावण की भूल
  • मंदोदरी का अपने पति रावण को समझाने का प्रयास विफल
  • रावण ने संत मुनीन्द्र के रूप में अवतरित सर्वशक्तिमान कबीर जी के साथ दुर्व्यवहार किया
  • हनुमान ने रावण की सोने की लंका जला दी
  • रावण का दयनीय अंत
  • रावण को किसने मारा- आदि राम या श्री रामचंद्र जी ने
  • लंकेश रावण सीता की पवित्रता को भंग नहीं कर सका
  • रावण द्वारा की गई शास्त्र विरुद्ध पूजा बनाम विभीषण द्वारा की गई शास्त्रानुसार पूजा
  • रावण को देवता तमोगुण शिव की पूजा करने से क्या हासिल हुआ?
  • रावण के ईष्ट देव शिव एक देवता हैं
  • किसकी उपासना से रावण को मोक्ष मिलता?

संदर्भ: पुस्तक मुक्ति बोध लेखक संत रामपाल जी महाराज जी अध्याय "पारख का अंग" पृष्ठ संख्या 248 वाणी संख्या 244-256, 258-317, कबीर चरित्र बोध अध्याय सार पृष्ठ संख्या 494-496.

राक्षसों की उत्पत्ति कैसे हुई?

आध्यात्मिक मार्ग में, एक सच्चा गुरु महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूक्ष्म वेद में लिखित साक्ष्य बताते हैं कि पहले कुछ भक्त गुरुद्रोही बन गए और हठ योग/ ध्यान/ कठोर तपस्या के माध्यम से प्राप्त अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों का दुरुपयोग करने लगे। ऐसे 'गुरुद्रोही' दूसरों को परेशान करने लगे और उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगे। उनके उपद्रव करने के कारण उन्हें राक्षस कहा जाने लगा। पहले वही श्रद्धालु ज्ञान सुनते थे और अपने गुरुओं की आज्ञा का पालन और सम्मान करते थे, लेकिन काल के प्रभाव में अहंकार, पद और शक्ति का अभिमान, शत्रुता, ईर्ष्या आदि जैसे दोष उन पर हावी हो गए और वे अपने गुरु का ही विरोध करने लगे। वे अपनी मनमर्ज़ी के अनुसार कार्य करने लगे। वास्तविकता  में तो उन्हें ऋषियों का पद प्राप्त करना था, इसके विपरीत, वे बुरे कर्म करने के कारण राक्षस बन गए।

इसी संबंध में आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज कहते हैं:

कबीर, संगत में कुसंगत उपजे, जैसे बनखंड में बांस।
आपा घिस-घिस आग लगा दे, करदे बनखण्ड का भी नाश।।

बाद में, ऐसे साधक अन्य ऋषियों के शत्रु बन गए और उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगे और लड़ने लगे। वे यज्ञ और अन्य धार्मिक कार्यों को पूर्ण करने से रोकते थे। इस तरह राक्षसों की उत्पत्ति हुई।

ध्यान दें: ऐसी आत्माओं का कल्याण तब तक कठिन हो जाता है जब तक वे एक सच्चे गुरु की शरण में नहीं आते और भक्ति के निर्धारित नियमों में रहकर कबीर परमेश्वर जी की शास्त्रानुसार पूजा नहीं करते।

आगे बढ़ते हुए, हम रावण के बारे में जानेंगे कि उसने मनमानी पूजा के आधार पर सिद्धियां तो हासिल कीं, लेकिन वह मानव जीवन के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त करने में विफल रहा इसलिए ब्रह्म काल के माया जाल में फंसा रहा। साथ ही वह राक्षस भी कहलाया।

रावण का इतिहास क्या है?

दशग्रीव/लंकेश्वर/दशानंद/लंकापति रावण, दस सिर वाला राक्षस राजा, तमोगुण भगवान शिव का एक महान भक्त था। उसे त्रेता युग का एक शक्तिशाली शासक और वेदों का महान विद्वान माना जाता था। उसे काव्य, ज्योतिष, चिकित्सा आदि अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिभाशाली माना जाता था।

रावण का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, उसके पिता ऋषि विश्वश्रवा थे और उसकी माँ कैकसी राक्षस वंश की रानी थी। हिंदू महाकाव्य रामायण में रावण को मुख्य खलनायक के रूप में दर्शाया गया है। अक्सर पूछा जाता है कि क्या रावण स्वाभाविक रूप से दुष्ट था? इसका उत्तर यह है कि वह आसुरी (राक्षसी) गुणों से युक्त था। वह एक ब्राह्मण पिता से पैदा हुआ था, लेकिन उसके कार्य कभी भी ब्राह्मण के समान नहीं थे।

उसके गुरुओं ने उसके पालन-पोषण पर बहुत प्रभाव डाला और उसकी माँ के परिवार से विरासत में मिले राक्षसी गुणों ने उसे दुष्ट बना दिया। प्राचीन लेखों में वर्णित उसके बुरे चरित्र से पता चलता है कि वह एक विकृत व्यक्ति था। औरतें उसकी कमज़ोरी थीं। उसने कई महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया, जिनमें कुछ दिव्य अप्सराएँ भी शामिल थीं। वह हर रोज़ शराब पीता था और रोज़ाना सौ बैलों का मांस खाता था।

रावण को श्री ब्रह्मा जी से दैवीय वरदान प्राप्त था और इस कारण मनुष्य के अलावा कोई भी देवता या राक्षस उसे नहीं मार सकता था। उसने कुबेर के पुष्पक विमान पर भी कब्ज़ा कर लिया था। वह अत्याचारी था और उसने अपने शासनकाल के दौरान 33 करोड़ देवताओं को कैद कर लिया था। वह एक शक्तिशाली शासक था और कई खास गुणों में निपुण होने के बावजूद, वह भगवान राम से युद्ध हार गया और उसे नरक भोगना पड़ा। ऐसा क्यों हुआ? इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर हमें इस लेख में मिलेगा।

रावण को राक्षस किसने बनाया?

युगों से, अज्ञानी उपदेशकों/ गुरुओं/ मंडलेश्वरों द्वारा अपने शिष्यों को भ्रमित किया गया है। रावण के मामले में भी यही हुआ। आध्यात्मिक ज्ञान की कमी और अज्ञानता के कारण त्रेता युग के सबसे भयानक राक्षस रावण का पतन हुआ।

जन्म से ब्राह्मण, रावण को अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त हुआ था। रावण बहुत महत्वाकांक्षी था और वह राजा बनकर विलासितापूर्ण जीवन जीना चाहता था। उसके गुरुओं द्वारा स्थापित शास्त्र विरुद्ध धर्म कर्म ने उसके मन और हृदय को दूषित कर दिया। धीरे-धीरे उसकी माँ से विरासत में मिली राक्षसी प्रवृत्ति भी उसके अवगुणों को विकसित करने में सहायक सिद्ध हुई। उसके गुरुओं ने उसे बताया कि तमोगुणी भगवान शिव ही सर्वोच्च शक्ति हैं। वह महेश्वर, मृत्युंजय, कालंजय और सिद्धियों के दाता हैं।

सूक्ष्म वेद की निम्नलिखित वाणी इसकी पुष्टि करती है।

संदर्भ: जगद्गुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, पृष्ठ संख्या 134, वाणी संख्या 35

ऋद्धि सिद्धि के दाता शम्भू गोसांई, दालीदर मोच सभै हो जाई।35।

रावण के गुरुओं ने उससे कहा कि यदि शिव/शंकर उस पर प्रसन्न हो जाएं तो वह अपार धन-संपत्ति का स्वामी बन सकता है। उसके अज्ञानी गुरुओं ने उसे बताया कि वेदों में शिव की महिमा कही गई है। वह अज्ञानी यह नहीं जानते थे कि वह परमपिता परमेश्वर, शिव नहीं बल्कि परम अक्षर ब्रह्म हैं। वास्तव में, वेदों में इनका ही महिमामंडन किया गया है और वही सुख और समृद्धि के स्रोत हैं।

अपने गुरुओं की बात मानकर, रावण ने उनके द्वारा बताई गई शास्त्र विरुद्ध पूजा को वास्तविक मानते हुए उसका अभ्यास करना शुरू कर दिया। रावण ने काल ब्रह्म के पुत्र भगवान शिव की ईष्ट देव के रूप में पूजा की, हठ योग/गहन तपस्या की और सिद्धियाँ प्राप्त कीं, जिनका उसने दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। वह अहंकारी हो गया। परिणामस्वरूप सीता का अपहरण और अनेकों अप्सराओं के साथ दुष्कर्म करना, मांस खाना, शराब पीना और युद्ध करना इत्यादि उसके व्यक्तित्व के लक्षण बन गये। उसके अज्ञानी गुरुओं द्वारा बताई साधना ने उसे शैतान बना दिया।

रावण के राक्षसी स्वभाव में परिवर्तन का कारण तथाकथित गुरु थे जिनके आध्यात्मिक ज्ञान का स्तर शून्य था। उनके पास जो थोड़ा बहुत ज्ञान था वह शास्त्र विरुद्ध और मनमाना था।

भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण ने दस बार अपने मस्तक काटकर भगवान शिव को अर्पित किए जिसके बाद भगवान शिव ने उस पर दया करके हर बार उसके सिर वापस जोड़ कर उसे पुनर्जीवित किया। उन्होंने उसे इतना धन दिया कि रावण ने सोने की लंका बनाई। परंतु तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई क्योंकि उसके भक्ति करने का तरीका सही नहीं था। मरने के बाद वह एक ग्राम सोना भी साथ नहीं ले जा सका।

कबीर, सर्व सोने की लंका थी, वो रावण से रणधीरं।

एक फलक में राज विराजै, जम के पड़े जंजीरं।।| 112

उसका पूरा वंश समाप्त हो गया और उसे नरक में डाल दिया गया।

आवत संग न जात संगाती, क्या हुआ दर बांधे हाथी।
इक लख पूत सवा लख नाती, उस रावण के आज दीया न बाती।।

रावण का परिवार बहुत बड़ा था लेकिन वह खत्म हो गया। आज उसका कोई उत्तराधिकारी जीवित नहीं है। काल की इस मृत दुनिया में शास्त्र विरुद्ध साधना करने वालों के साथ ऐसा ही होता है। यहां तक ​​कि वह काल जो 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है, वह स्वयं जन्म मृत्यु के चक्र में हैं। 

ध्यान दें: शिव/शंभू/शंकर मृत व्यक्ति को पुनर्जीवित करने में केवल उतने ही सक्षम हैं, यदि उनके साधक की आयु शेष हो। अन्यथा, वे एक सांस भी उसका जीवनकाल नहीं बढ़ा सकते। रावण का जीवन अभी शेष था, इसलिए शिव उसे दस बार पुनर्जीवित कर पाए।

विशेष: केवल परम अक्षर ब्रह्म ही अपने सच्चे उपासक की आयु बढ़ा सकते हैं। इसका प्रमाण ऋग्वेद मंडल संख्या 10, सूक्त 161, मंत्र संख्या 2 में मिलता है।

रावण का मायावी रूप

धोखा देना और भ्रमित रखना ब्रह्म काल की विशेषता है और यही दोष उसके 21 ब्रह्मांडों में रहने वाली आत्माओं में भी मौजूद है, चाहे वे देवता हों, राक्षस हों या इंसान। हिंदू महाकाव्य रामायण में वर्णित एक कहानी है कि लक्ष्मण ने रावण की बहन चंद्रनखा/सूर्पनखा की नाक काट दी थी। रावण की बहन ने रावण को अपनी दुर्दशा के बारे में बताया और साथ ही सीता की सुंदरता के बारे में तारीफ भी की। परिणामस्वरूप रावण ने सीता का अपहरण करने की योजना बनाई।

इस घिनौने कृत्य के लिए रावण ने अपने मामा मारीच/ मारीछ की मदद ली। मायावी मारीच ने सोने के हिरण का रूप धारण किया और सीता के अपहरण में सहयोगी बना। इसके बाद राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हुआ जिसकी कथा भक्त समाज में आज कलयुग में भी प्रसिद्ध है।

इस वृत्तांत का उद्देश्य काल की दुनिया में उसके वास्तविक रहस्य को उजागर करना है, जहां सब कुछ झूठ है। अभागे जीव त्रिगुणमयी माया में फँसकर मनमाना आचरण करते रहते हैं और इस प्रकार अपने अनमोल मनुष्य जीवन को नष्ट कर जाते हैं। जीव रावण की तरह सारे बुरे काम करता है जिसके परिणामस्वरूप 'चौरासी' भोगता  है। यह सब नकली गुरुओं की देन है। नकली आध्यात्मिक गुरुओं के अज्ञान का वर्णन निम्नलिखित वाणी में किया गया है:

साक्ष्य कबीर सागर, अध्याय जीव धर्म बोध पृष्ठ 106 (2014), कबीर सागर के सारांश में पृष्ठ 597

चंद्रनखा भगनी रावन की। सरूपन खां तेहि कहै विप्रजी॥

लक्ष्मण तास से विवाह कहै नाटा। नाक चंद्रनखा का काहे कूं काटा॥

सब गलती रावन की गिनाई। लक्ष्मण की कुबुद्धि नहीं बताई॥

रामचंद्र को राम बताया। असल राम का नाम मिटाया॥

ये ब्राह्मण की है करतुती। ज्ञान बिन सब प्रजा है सूती॥

अर्थ: लंकापति रावण की बहन का नाम चंद्रनखा था। वह लक्ष्मण से विवाह करना चाहती थी। इसलिए लक्ष्मण ने चंद्रनखा की नाक काट दी और उसे सूर्पणखा बना दिया। दुखी रावण बदला लेने का निश्चय कर यहाँ एक बहुत बड़ी भूल कर बैठा। लेकिन ब्राह्मणों ने इस घटना के बारे में श्रद्धालुओं को रावण के राक्षस होने का एक तरफा संदेश दिया। हालांकि उन्हें लक्ष्मण की मूर्खता का वर्णन भी करना चाहिए था। श्री रामचन्द्र को जगत का रचयिता बता दिया गया जबकि वास्तव में जो रचयिता है उस आदि राम का नाम तो पूरी तरह से भुला दिया गया। इस घटना को सही रूप में प्रस्तुत नहीं करना, ब्राह्मणों की करतूत है।

लंकापति रावण की भूल

काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि बुराइयाँ प्राणियों के विनाश का कारण बनती हैं। काल ब्रह्म ने सत्यलोक में अपनी बहन के साथ अनैतिक कार्य किया था, इसलिए उसे परमेश्वर द्वारा श्राप देकर वहाँ से निष्कासित कर दिया गया था।

इसी तरह रावण भी दुष्ट था और उसने कई अमानवीय कृत्य किये। पराई स्त्री के प्रति उसका मोह व उसे प्राप्त करने की वासना और फिर उसकी पवित्रता को नष्ट करने की अमानवीय प्रवृति उसके पतन का कारण बनी। जब उसकी बहन शूर्पणखा ने उसे सुंदर स्त्री सीता के बारे में बताया, तब रावण ने षडयंत्र रचा और सीता का अपहरण किया। लंका में उसने सीता को अपने प्रति समर्पित करने के लिए पूरी कोशिश की, लेकिन उसके सभी प्रयास व्यर्थ रहे। यह उसका दोष था कि उसने पहले तो धोखे से सीता का अपहरण किया और फिर सीता की पवित्रता भंग करनी चाही और यही उसके विनाश का कारण बना तथा रावण और रामचन्द्र के बीच धर्म और अधर्म का भयंकर युद्ध हुआ।

मंदोदरी का अपने पति रावण को समझाने का प्रयास विफल रहा

परमेश्वर कबीर जी त्रेता युग में ऋषि मुनींद्र जी के रूप में प्रकट हुए थे और उन्होंने रावण की पत्नी मंदोदरी और रावण के भाई विभीषण को अपनी शरण में लिया था। परमेश्वर कबीर जी ने उन दोनों को वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान दिया। तत्वज्ञान से प्रेरित होकर मंदोदरी ने सोचा कि उसे यही ज्ञान अपने पति रावण को भी बताना चाहिए ताकि वह भी मोक्ष प्राप्त कर सके  क्योंकि वह तो ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर मांस खाना, शराब पीना आदि सभी पाप कर रहा है। वह यह भी जानती थी कि सीता का अपहरण रावण ने किया है तथा रावण सीता को पाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। मंदोदरी ने रावण से सीता को भगवान राम को लौटाने का कई बार अनुरोध किया। उसने रावण को समझाया कि उसने सीता का अपहरण करके बहुत बड़ी गलती की है।

ऋषि मुनींद्र जी ने पहले ही मंदोदरी को बता दिया था कि रावण की जान खतरे में है। उसे सीता को पूरे सम्मान के साथ श्री रामचन्द्र जी को लौटा देना चाहिए, क्योंकि सीता कोई साधारण स्त्री नहीं हैं। लेकिन उसे समझाने के सारे प्रयास व्यर्थ गये।

रावण के दुष्कर्म ही उसके चरित्र का हिस्सा बन गए थे। मंदोदरी ने रावण से कहा कि आपकी साधना गलत है। आप तमोगुणी भगवान शिव की पूजा करते हैं जो पूर्ण परमेश्वर नहीं हैं। रावण ने मंदोदरी की बात नहीं सुनी और वह अधिक दृढ़ता से भगवान शिव/शंकर की स्तुति करने लगा। भगवान शिव ने उसे सोने की लंका दी, सिद्धियाँ दीं और मेघनाथ जैसा वीर पुत्र दिया, जिसने देवराज इंद्र को हराकर स्वर्ग पर विजय प्राप्त की।

अहंकारवश रावण ने मंदोदरी से प्रतिप्रश्न किया, कि “क्या मैं भीख माँगने वाले गुरुओं को प्रणाम करूँ?” मंदोदरी ने कहा कि अज्ञानता के कारण आप जिस संत का अपमान कर रहे हैं, उसकी शक्तियों को आप नहीं जानते। अंत तक अहंकारी रावण मंदोदरी की बात से सहमत नहीं हुआ और उसने उसके सभी अनुरोधों को अस्वीकार किया। जब रावण ने उसकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया, तो मंदोदरी ने अपने पूज्य गुरुदेव ऋषि मुनींद्रजी जी से मदद मांगी।

रावण ने ऋषि मुनींद्र जी के रूप में अवतरित सर्वशक्तिमान कबीर साहेब जी के साथ किया था दुर्व्यवहार

ऋषि मुनींद्र जी अपनी शिष्या मंदोदरी के अनुरोध करने पर रावण से मिलने पहुंचे। त्रेता युग में ऋषि मुनींद्र जी के रूप में प्रकट हुए कबीर साहेब जी स्वयं रावण के द्वारपालों के पास गए और उनसे लंकापति के दर्शन करने के लिए निवेदन किया। रावण की पहले से एक गुप्त बैठक चल रही थी, इस कारण से द्वारपालों को रावण के सख्त आदेश थे कि कोई भी अंदर न आने पाए।

कबीर साहेब जी द्वारपालों के पास से अचानक अंतर्ध्यान हो गए और उस स्थान पर प्रकट हुए जहां रावण बैठक कर रहा था। रावण को यह देखकर क्रोध आया कि उसके द्वारपालों ने एक साधु को अंदर कैसे आने दिया? स्थिति को भाँपकर कबीर साहेब जी ने रावण को बताया कि वह कैसे वहाँ पहुंचे। उन्होंने रावण से देवी लक्ष्मी रूप में अवतरित सीता को छोड़ने के लिए और भगवान विष्णु के अवतार भगवान राम से क्षमा मांगने के लिए कहा। यह सुनकर रावण एकदम क्रोधित हो गया और कबीर साहेब जी पर हमला करने के इरादे से अपने सिंहासन से कूद गया। उसने कबीर साहेब जी पर सत्तर बार तलवार चलाई। कबीर साहेब जी ने एक झाड़ू की सींक ले रखी थी, जिससे उन्होंने रावण के हर वार को रोक दिया। झाड़ू की सींक पर हमला करते समय ऐसी आवाज़ निकलती थी जैसे  दो लोहे के खंभों के टकराने से निकलती है।

विशेष: यहां ब्रह्म काल की त्रिगुणमयी माया में फंसी सभी आत्माओं की स्थिति दयनीय है जिन्हें रावण की तरह समझाना मुश्किल है। यहाँ परमेश्वर कबीर साहेब कहते हैं:

कबीर, यह माया अटपटी, सब घट आन अड़ी।

किस-किस को समझाऊँ, या कुए भांग पड़ी।।

रावण, काल के लोक में भौतिक सुखों के नशे में अज्ञान में डूबा हुआ था। वह तमोगुणी शिव जी की पूजा करने से प्राप्त अपार संपदा के परिणामस्वरूप इतना अहंकारी हो गया था कि वह साक्षात् परमेश्वर कविर्देव को संत मुनीन्द्र जी के रूप में पहचानने में असमर्थ रहा।

सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में उल्लेख क है:

कबीर, झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।

खलक चबैना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।।

रावण का भाई विभीषण भी उक्त घटना के समय वहां राजदरबार में मौजूद था और बाद में उसने रानी मंदोदरी को गुरुदेव मुनीन्द्र जी के प्रति रावण के दुर्व्यवहार का पूरा किस्सा सुनाया।

इसके बाद, कबीर साहेब जी ने भी अपनी शिष्या मंदोदरी को बताया कि उन्होंने रावण को समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन फिर भी वह सीता को, भगवान राम को वापस नहीं करेगा। यह सारा वृतांत सुनकर मंदोदरी को अपने विधवा होने की संभावना पर अब कोई शक नहीं रह गया था।

हनुमान जी ने रावण की सोने की लंका जलाई

हनुमानजी श्री रामचन्द्र जी के महान भक्त थे। वह लंका के राजा रावण को युद्ध न करने के लिए मनाने गये थे। उनका उद्देश्य रावण को भगवान राम के सामने आत्मसमर्पण कराना और यह समझाना था कि माता सीता को रामचंद्र जी को वापस लौटा दे ताकि युद्ध न हो, लेकिन अहंकारी रावण ने हनुमान जी की बात नहीं मानी और फिर इस विश्व प्रसिद्ध कहानी का एक निर्णायक मोड़ यह हुआ कि हनुमान जी ने रावण की सोने की लंका जला दी।

यहां विचार करने योग्य बात यह है कि रावण वैसे तो बहुत शक्तिशाली राजा था लेकिन श्री रामचंद्र जी के दूत हनुमान जी के सामने वह असहाय हो गया था। वह अपनी सोने की लंका को आग से तबाह होने से नहीं बचा पाया जो उसने कठिन तपस्या करने के बाद हासिल की थी।

एक प्रसिद्ध कहावत है, "विनाश काले विपरीत बुद्धि" - इसका अर्थ यह है कि जब किसी व्यक्ति का विनाश होना होता है, तो उसकी बुद्धि भी गलत कर्म करने को विवश हो जाती है। रावण दैवीय संकेत समझने में असफल रहा। कुछ सिद्धियां हासिल कर लेने से रावण खुद को अजेय समझने लगा था। वह अपने आप को देवताओं से भी श्रेष्ठ समझने लगा था। हद तो तब हो गई थी जब उसने 33 करोड़ देवताओं को भी कैद कर लिया। रावण की नाभि में अमृत था। इतना ही नहीं, वो राम और सीता को सिर्फ साधारण मनुष्य समझता था। यही उसकी भूल थी जो उसके प्राणों के लिए घातक साबित हुई।

विशेष: युद्ध समाप्त होने के कुछ वर्ष बाद हनुमान जी भी परमात्मा कबीर साहेब जी की शरण में गये। अत: वह मोक्ष का पात्र बने। जैसा कि सूक्ष्म वेद (कबीर सागर पृष्ठ 113, अध्याय 12, हनुमान बोध) में बताया गया है, भक्ति के इस शुभ काल के दौरान, हनुमान जी की आत्मा का पुनर्जन्म होगा और उन्हें सर्वशक्तिमान कबीर जी द्वारा पुनः अपनी शरण में लिया जाएगा।

रावण का दयनीय अंत

आखिरकार श्रीराम जी की पूरी सेना लंका पहुंच गई। वह ऋषि मुनींद्र (सर्वशक्तिमान कबीर जी) की कृपा से बने राम सेतु को पार करके रावण से युद्ध करने लंका आई थी। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंततः रावण मारा गया और श्री राम जी ने युद्ध जीत लिया और अपनी प्रिया सीता को रावण की कैद से छुड़ा लिया।

इस संबंध में सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में उल्लेख किया गया है:

मर्द गर्द में मिल गए, रावण से रणधीरं।

कंश केशी चाणूर से, हिरणाकुश बलबीरं।।

तेरी क्या बुनियाद है, जीव जन्म धर लेत।

गरीबदास हरि नाम बिना, खाली परसी खेत।।

लंका का राजा रावण तमोगुणी शंकर की पूजा करता था। उसने अपनी शक्ति से 33 करोड़ देवताओं को कैद कर लिया था। उसे क्या प्राप्त हुआ? ये बात पूरी दुनिया जानती है। तमोगुणी शिव के उपासक को राक्षस कहा गया और उसे कुत्ते वाली मौत मिली। उसका विनाश हुआ और भयानक अंत हुआ। वह सर्वत्र निन्दित और राक्षस प्रवृत्ति का माना गया।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16:23 के अनुसार शास्त्र विरुद्ध पूजा करने से न तो सुख प्राप्त होता है और न ही मोक्ष। रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। लेकिन श्रीमद्भगवदगीता और वेदों में यह साधना वर्जित है। ऐसी पूजा करना निरर्थक है।

श्रीमद्भगवद्गीता उन लोगों की निंदा करती है जो तीनों गुणों सतगुण-विष्णु, रजगुण-ब्रह्मा और तमोगुण-शिव की पूजा करते हैं। श्रीमद्भगवदगीता अध्याय 7 के श्लोक 20 में प्रमाण है कि जो लोग तीनों गुणों की पूजा करते हैं वे दुष्ट, मूर्ख और राक्षसी प्रकृति के लोग हैं क्योंकि वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पिता ब्रह्म/काल (शैतान) की भी पूजा नहीं करते हैं। रावण ने अपने अहंकार में अपना बहुमूल्य मानव जीवन बर्बाद कर दिया और मानव जीवन के एकमात्र उद्देश्य “मोक्ष” को प्राप्त करने में असफल रहा।

अब हम उस अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य के बारे में पढ़ेंगे जो आज तक दुनिया के लिए अज्ञात था, जिसके बारे में सूक्ष्म वेद में बातया गया है:

रावण को किसने मारा, आदि राम या श्री रामचंद्र ने?

“सच्चिदानंद घन ब्रह्म” की वाणी में उल्लेख किया गया है:

राम राम सब जगत बखाने। आदि राम कोइ बिरला जाने।।

हिंदू श्रद्धालु जो अयोध्या के श्री रामचन्द्र जी की पूजा करते हैं लेकिन एक अन्य आदि राम भी हैं जिनके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है।

आदि राम कौन हैं? पवित्र कबीर सागर में वर्णित सृष्टि रचना का वर्णन इस प्रश्न का उत्तर देता है। परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष/ शाश्वत परमेश्वर कविर्देव आदि राम अनादि काल से विद्यमान हैं। उन्होंने 6 दिनों में संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की और सातवें दिन सिंहासन पर जा बैठे।

आदि राम ने त्रेता युग में ऋषि मुनींद्र जी के रूप में प्रकट होकर नल और नील, मंदोदरी, विभीषण, हनुमान जी, चंद्रभाट और उसके  पूरे परिवार को तथा कुछ अन्य लोगों को भी अपनी शरण में लिया। उन्होंने श्री राम को राम सेतु बनाने में मदद की। उन्होंने गुप्त रूप से रावण की नाभि में तीर मारकर श्री विष्णु अवतार श्री रामचन्द्र जी की रावण को मारने में सहायता की। सच तो यह है कि रावण को मारना श्री रामचन्द्र जी के वश की बात नहीं थी।

सूक्ष्मवेद के निम्नलिखित अमृत वचन इसकी पुष्टि करते हैं:

हम ही रावण मार लंका पर करी चढ़ाई।
हम ही दस सिर मार देवतन की बंध छुड़वाई।।
हम ही राम रहीम करीम पूर्ण करतारा।

हम ही बांधे सेतू चढ़े संग पदम अठाराह।।

आज तक यही भ्रम प्रचलित है कि श्री रामचंद्र जी ने राक्षस राजा रावण को मारा था, यह एक मिथक मात्र है। लेकिन सूक्ष्म वेद में स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि श्री रामचंद्र जी ने नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड के रचयिता आदि राम अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म/ सत्पुरुष/ शब्द स्वरूपी राम, कविर्देव ने गुप्त रूप में रावण को मारा था।

संदर्भ: यथार्थ भक्ति बोध, वाणी संख्या 161, पृष्ठ 142-143.

रावण महारावण से मारे। सेतु बाँध सेना दल तारे।।161

विशेष: परमेश्वर कविर्देव/आदि राम स्वयं संकट के समय इन देवताओं की सहायता करते हैं। विष्णु जी/श्री राम ने रावण को मारने के लिए ऋषि मुनींद्र की मदद मांगी थी। भगवान कबीर स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं लेकिन जगत को दिखाने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव की महिमा करवाते हैं। परमात्मा द्वारा भक्तों का विश्वास बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता है क्योंकि अधिकांश लोग नहीं जानते कि कबीर साहेब जी ही परमेश्वर हैं। त्रिदेव भी परमेश्वर कविर्देव की ही संतान हैं। बात सिर्फ इतनी है कि त्रिदेवों ने अपने विशेष गुणों और पुण्यों के कारण यह उच्च पद प्राप्त किया है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि यह देवता भी ब्रह्म काल के जाल में ही फंसे हुए हैं। समय आने पर पूरी दुनिया को सच्चाई पता चल जाएगी।

रावण सीता की पवित्रता को नष्ट नहीं कर सका

जैसा कि ग्रंथों में वर्णित है, रावण ने एक अप्सरा (रंभा, जो उसकी बहू भी थी) के साथ दुर्व्यवहार किया था जो उसके श्राप का कारण भी बना था। श्राप यह था कि वह कभी भी किसी स्त्री के साथ ज़बरदस्ती यौन संबंध नहीं बना पाएगा। अगर उसने ऐसा करने की कोशिश की तो वह अग्नि से जल जाएगा।

त्रेता युग में अवतरित श्री रामचन्द्र जी की पत्नी सीता को माता लक्ष्मी का अवतार माना जाता है जो साक्षात श्री दुर्गा का ही रूप थीं। राक्षसी धमकियों से सीता को डराने और उसके जीवन को समाप्त कर देने जैसे कई प्रयासों के बावजूद रावण श्राप के प्रभाव के कारण उसे छू तक नहीं सका।

घोर प्रताड़नाएं मिलने के बावजूद, सीता जी ने रावण के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया और उनका पतिव्रतापन बरकरार रहा और अग्निपरीक्षा से उनकी बेगुनाही साबित हुई। एक शक्तिशाली शासक जिसने 33 करोड़ देवताओं को कैद कर लिया हो और जिसके पास एक विशाल साम्राज्य हो, ऐसा रावण सीता के सतीत्व को भंग नहीं कर सका। सती सीता के सामने उसकी सारी शक्तियां क्षीण हो गईं।

रावण की शास्त्र विरुद्ध पूजा और विभीषण द्वारा की गई शास्त्र अनुकूल पूजा

त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी की पूजा करने वाली आत्माओं का कभी मोक्ष नहीं हो सकता है। सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी बताती है:

कबीर, तीन देव की जो करते   भक्ति, उनकी कभी न होवे मुक्ति।।

तमोगुणी शिव का कट्टर भक्त होने के बावजूद रावण काल ब्रह्म के जाल में फंसा रह गया और उसे नरक में डाल दिया गया और उसे चौरासी लाख जन्मों के चक्रव्यूह में फंसे रहना पड़ा। जबकि उसका भाई विभीषण ऋषि मुनींद्र जी की शरण में चला गया और शास्त्रों के अनुसार भक्ति कर उसने पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया। लंका का राज्य, जिसे रावण ने घोर तपस्या के बाद प्राप्त किया था, रावण के विनाशकारी अंत के बाद श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण को दे दिया था। विभीषण में दासता की भावना थी। सर्वशक्तिमान कविर्देव की कृपा से विभीषण को बल मिला। सर्वशक्तिमान कविर्देव ने सच्चे भक्त विभीषण पर कृपा की जिसका प्रमाण पूज्य संत गरीबदास जी महाराज की निम्नलिखित वाणी से मिलता है।

गरीब, आधीनी के पास है पूर्ण ब्रह्म दयाल।
मान बड़ाई मारिए, बे अदबी सिरकाल।।
दासा तन में दर्श है, सब का होजा दास।
हनुमान का हेत ले, रामचन्द्र के पास।।
विभिषण का भाग बड़ेरा, दास भाव आया तिस नेड़ा।।
दास भाव आया बिसवे बीसा, जाकूं लंक देई बकशीशा।।
दास भाव बिन रावण रोया, लंक गंवाई कुल बिगोया।।
भक्ति करी किया अभिमाना, रावण समूल गया जग जाना।।
ऐसा दास भाव है भाई। लंक बखसते बार ना लाई।।

भक्ति के मार्ग में अहंकार बाधा है, इसलिए रावण को दुख भोगना पड़ा। जबकि विभीषण विनम्र था इसलिए उसे इनाम मिला। संत गरीबदास जी महाराज का एक और अमृत वचन कहता है कि;

तातें दास भाव कर भक्ति कीजै, सबही लाभ प्राप्त कीजै।।

गरीब, संत दीवाने दरस के, युग युग भक्ति दिलास।।

सदा राम दास रहते हैं, मन में मोती आस।।

गरीब राम करे सो होत, अपने सिर नहीं लेहे।।

अपने सर जो लेते हैं, ता मुकदर पड़ेंगे।।

गरीब, रावण अपने सर लायी, विभीषण लेयी न कोय।।

दस मस्तक रावण कटै, वे लंकपति वे सोइ।।

गरीब, वो राज विभीषण को दिया, निर्बानि निरबंच।।

उपरोक्त अमृत वचन यह सिद्ध करता है कि काल के लोक में मनमानी पूजा करना बेकार है। केवल शास्त्र सम्मत पूजा ही फलदायी होती है। रावण तमोगुणी शंकर की पूजा कर नरक को प्राप्त हुआ। विभीषण को परमेश्वर कविर्देव की पूजा करने के कारण लंका का राज्य मिला। जब तक वह जीवित रहा उसने पृथ्वी पर शांत, सुखी और सम्मानजनक जीवन व्यतीत किया और मृत्यु के बाद मोक्ष मिलने का आशीर्वाद मिला।

रावण ने तमोगुणी शिव की पूजा करके क्या हासिल किया?

भगवान राम और रावण दोनों ही भगवान शिव के उपासक थे। एक ओर जहाँ, श्री रामचन्द्र जी ने धर्म स्थापित करने के लिए भगवान शिव की पूजा की, वहीं दूसरी ओर रावण ने स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने तथा अधर्म स्थापित करने के लिए भगवान शिव की आराधना की। सूक्ष्म वेद में प्रमाण है कि श्री राम और लंकापति रावण के युद्ध के बीच भगवान शिव ने श्री राम और उनकी सेना का साथ दिया ना कि अहंकारी रावण का।

संदर्भ: पुस्तक यथार्थ भक्ति बोध, वाणी संख्या 44, पृष्ठ संख्या 136

राक्षस भंजन बिरद तुम्हारा, ज्यूं लंका पर पदम अठारा।44।

श्री रामचन्द्र जी की उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने राक्षस रावण की सेना से युद्ध करने के लिए 18 करोड़ सैनिकों की सेना भेजी। भगवान शिव का स्वभाव 'बिरद' अर्थात् राक्षसों का नाश करने वाला है।

वाणी संख्या 45, पृष्ठ संख्या 136

कोट्यौं गंधर्व कमंद चढ़ावैं, शंकर दल गिनती नहीं आवैं।45।

करोड़ों गंधर्व धनुष और बाणों से रावण की सेना से युद्ध कर रहे थे। भगवान शंकर की सेना बहुत विशाल थी।

वाणी संख्या 46, पृष्ठ संख्या 136

मारैं हांक दहाक चिंघारें, अग्नि चक्र बाणों तन जारैं।46।

भगवान शंकर की सेना जयकार कर रही थी, जोश में नारे लगा रही थी। जबकि रावण की सेना के सैनिक भयभीत हो रहे थे। शिव की सेना अग्नि बाणों और अग्नि चक्रों से आक्रमण कर रहे थे और रावण की सेना के सैनिकों के शरीर जला रहे थे। भयंकर विनाश हुआ और आखिरकार रावण मारा गया। सोने की लंका का राजा होने के बावजूद अंत समय में रावण अपने साथ एक ग्राम सोना भी नहीं ले जा सका, जिसे उसने कठिन तपस्या के बाद प्राप्त किया था और जो उसे बहुत प्रिय था।

इस संबंध में सूक्ष्म वेद में उल्लेख किया गया है:

गरीब भक्ति बिन क्या होत है, भ्रम रहा संसार।

रति कंचन पाया नहीं, रावण चलती बार।।

काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मांडों में सारा संसार भ्रमित है। श्रद्धालु परमेश्वर की उपासना करने के सही तरीके से अनजान हैं और रावण की तरह मनमाने तरीके से पूजा करते हैं। शिव जी की पूजा करने से रावण को ब्रह्म काल के लोक के भौतिक सुखों के अलावा कुछ नहीं मिला। वे भोग विलास, राज-पाट सब कुछ क्षणिक सुख मात्र थे।

रावण के पूजनीय देव शिव एक देवता हैं

भक्ति करने के बावजूद, रावण अहंकारी और क्रूर बना रहा। यह विचार करने योग्य है कि भगवान शिव के प्रति रावण की गहरी भक्ति होने पर भी, उसने दूसरों के दुखों के प्रति कोई दया न रखते हुए क्रूर और निर्दयी रवैया क्यों अपनाया? यदि शिव सर्वोच्च शक्ति हैं (जैसा मान्यता है), तो उनकी पूजा रावण के बुरे कार्यों को क्यों नहीं रोक पाई? भगवान शिव ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया और निर्दोषों के खिलाफ रावण के जघन्य अपराधों को क्यों नहीं रोका? शिव रावण को मुक्त क्यों नहीं कर सके? इसका उत्तर यह है कि भगवान शिव, हालांकि एक तमोगुण देव हैं परंतु उनमें किसी की नियति बदलने या ब्रह्मांड की व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की कोई शक्ति नहीं है। वह सीमित शक्ति के देवता हैं।

श्रीमद्भगवदगीता अध्याय 9:20-22 सिद्ध करता है कि जो लोग ब्रह्म काल (भगवद्गीता ज्ञान दाता और भगवान शिव के पिता, 21 ब्रह्मांडों के स्वामी) की पूजा करते हैं, उनका उद्धार नहीं होता है और उन्हें बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र से गुज़रना पड़ता है। तो ज़रा विचार कीजिए फिर भगवान शिव की पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? जो स्वयं जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसे हुए हैं और मुक्त नहीं हैं।

किसकी उपासना करने से रावण को मोक्ष मिल सकता था?

संदर्भ: कबीर सागर अध्याय 6 'सर्वज्ञ सागर', पृष्ठ 127 (403)। जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित कबीर सागर पुस्तक के सारांश में पृष्ठ संख्या 179-180 पर

परमेश्वर ने किस युग में कितने जीवों को मुक्त किया?

त्रेता युग का वर्णन

पुनि त्रेता युग कहौं विचारी। सात हंस त्रेतायुग तारी।।
प्रथम ऋषी श्रृंगी समझाये। दूसरे अयोध्या मधुकर आये।।
तिनसे शब्द कह्यो टकसारा। चैथे बोधे लछन कुमारा।।
पचवें चलि रावण लगि गयऊ। तहां भेंट मन्दोदरि से भयऊ।।
गर्वी रावण शब्द न माना। मन्दोदरी शब्द पहचाना।।
छठैं चलि वशिष्ठ लगि आये। ब्रह्म निरूपन उनहिं सुनाये।।
सतये जंगल में कियो वासा। जहां मिले ऋषी दुर्वासा।।
सात हंस सातौ गुरू कीन्हा। परम तत्त्व उनही भल चीन्हा।।
सातौं गुरू त्रेता में भयऊ। देइ उपदेश सो हंस पठयऊं।।

सर्वशक्तिमान कबीर भगवान त्रेता युग में ऋषि मुनींद्र के रूप में अवतरित हुए थे। वह रावण की रानी मंदोदरी के अनुरोध पर रावण से मिले, जो ऋषि मुनींद्र की शिष्या थी, लेकिन अहंकारी रावण, ब्रह्म काल के माया-मोह के मद में डूबा हुआ था, परम अक्षर ब्रह्म/सतपुरुष को पहचान नहीं सका और तमोगुणी शिव की पूजा छोड़कर परमेश्वर स्वरूप ऋषि मुनीन्द्र की शरण में जाने और सच्ची भक्ति करने के लिए सहमत नहीं हुआ।

यदि वह सहमत हो जाता तो शिव की शास्त्र विरुद्ध पूजा का त्याग कर सच्ची भक्ति करता और वह मोक्ष का पात्र होता, जैसा कि सूक्ष्म वेद की उपरोक्त अमृतवाणी में बताया गया है। जहां यह वर्णन किया गया है कि त्रेता युग के दौरान परमेश्वर कबीर जी की कृपा से कितने जीवों का उद्धार हुआ था। लेकिन रावण ने अज्ञानता और अहंकार के कारण मोक्ष को अपने सिर से छीन लिया।

कबिरदेव/कविर्देव के सर्वशक्तिमान ईश्वर और मुक्तिदाता होने का प्रमाण ऋग्वेद मंडल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र नं. 26, 27, ऋग्वेद मंडल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र नं. 1, 2, 3, ऋग्वेद मंडल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र नं. 3, ऋग्वेद मंडल नं. 7 सूक्त 2 मंत्र नं. 3, आदि पवित्र कबीर सागर में, भगवद गीता 15:1-4, 16-17, 18:62 और 66 और कई अन्य स्थानों पर उल्लिखित किया गया है।

निष्कर्ष

ब्रह्मा, विष्णु और महेश की भक्ति निरर्थक है। इसके अलावा गुरु से विमुख होने से नाश होता है, जैसे राक्षसों/विधर्मियों का अज्ञानता के कारण बेकार गतिविधियों में संलग्न हो जाने से हुआ। जहाँ तक रावण के बुरे कर्मों की बात है तो यह एक प्रसिद्ध उदाहरण बन गया है कि शिव जी की पूजा करने और अज्ञानी गुरुओं का अनुसरण करने से पूर्ण मुक्ति नहीं मिलती।

इसलिए साधकों को परमात्मा कविर्देव की सच्ची भक्ति विधि की शिक्षा देने वाले सतगुरु की शरण लेनी चाहिए, जिससे मानव का कल्याण संभव है। सच्ची भक्ति की कमी के कारण रावण का दुखद अंत हुआ।

गरीब, माया का रस पीय कर, फूट गये दो नैन।

ऐसा सतगुरु हम मिल्या, बास दिया सुख चैन।।

रावण ने सोने की लंका बनाई थी। उसने बहुत सारा धन इकट्ठा किया, लेकिन उसका अंत बहुत भयानक हुआ। अब भी सबका ध्यान केवल धन संचय करने पर ही है। मानव जन्म का एकमात्र उद्देश्य परमेश्वर परमेश्वर कबीर साहेब की सच्ची पूजा करना और मोक्ष प्राप्त करना है। यह ज्ञान सतगुरु अर्थात् केवल तत्वदर्शी संत ही देते हैं।

आज तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी पृथ्वी पर एकमात्र सच्चे संत हैं जो सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते हैं, इनके दिए गए यथार्थ ज्ञान के कारण जीव राक्षस नहीं बनते। रावण की तरह चौरासी लाख योनियों में कष्ट नहीं उठाएंगे बल्कि ब्रह्म काल के जाल से सदैव मुक्त रहेंगे।  

जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे ही सर्वशक्तिमान कबीर (ऋषि मुनींद्र जी) हैं जो आज दिव्य लीला कर रहे हैं। आप सभी उनकी शरण लें, उनके द्वारा बताई सच्ची भक्ति करें और सतलोक धाम का वासी बनने के योग्य बनें।