हिन्दू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण: सनातनी पूजा का अंत और पुनः उत्थान
Published on Dec 31, 2023
दुनियाभर में धर्म को मानने वालों की कोई कमी नहीं है लेकिन आज पूरे विश्व में धर्म के नाम पर पाखण्ड और अंधविश्वास चरम सीमा पर देखने को मिल रहा है जिससे मानव को कोई सुख प्राप्त नहीं होता। धर्मगुरुओं को अपने ही धर्मशास्त्रों का ज्ञान हुआ नहीं, जिसके कारण उन्होंने मानव को शास्त्रविरुद्ध क्रियाओं जैसे व्रत, उपवास, तीर्थ, हठयोग आदि शास्त्रविरुद्ध मनमाने आचरण में लगा दिया, जिसने आगे पाखण्ड और अंधविश्वास का रूप ले लिया। वहीं पाखण्ड और अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने तथा मानव को धर्मग्रंथों के सत्यज्ञान से परिचित कराने के लिए संत रामपाल जी महाराज द्वारा अनेकों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं जिनका प्रचार उनके अनुयायियों द्वारा देश हो या विदेश गाँव, नगर, कस्बों, शहरों में घर-घर जाकर किया जा रहा हैं तो वहीं सोशल मीडिया के माध्यम से भी इन पुस्तकों का प्रचार उनके समर्थकों द्वारा किया जा रहा है ताकि लोग पाखण्डवाद, अंधविश्वास, शास्त्रविरुद्ध कर्मकांडो को त्यागकर सतमार्ग ग्रहण कर सकें।
इसी बात के मद्देनजर जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा एक पवित्र पुस्तक हिन्दू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण लिखी गई है जो हिन्दू समाज के लिए संजीवनी है तथा वरदान सिद्ध होने वाली है जिसमें सूक्ष्मवेद यानि तत्त्वज्ञान दिया गया है। साथ ही, मानव को समझने के लिए वेदों, गीता तथा पुराणों आदि शास्त्रों के प्रमाण दिए गए हैं। जिसमें मानव की प्रत्येक शंका का समाधान संत रामपाल जी महाराज द्वारा प्रमाण सहित किया गया है। वहीं इस लेख के माध्यम से आपको जानने को मिलेगा:
- क्या संत रामपाल जी ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति छुड़वाते हैं?
- संत रामपाल जी महाराज का उद्देश्य
- एक आदि सनातन (पंथ) धर्म से कैसे हुए अनेक?
- शास्त्रानुकूल पूजा और शास्त्रविरुद्ध पूजा में अंतर
- कैसे हुआ शास्त्रानुकूल सनातनी पूजा का अंत?
- पवित्र गीता का ज्ञान कब बोला गया?
- शास्त्रानुकूल सनातनी पूजा का पुनः उत्थान
- संत रामपाल जी प्रदान कर रहे तत्त्वज्ञान
क्या संत रामपाल जी ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति छुड़ाते हैं?
संत रामपाल जी महाराज कहते हैं,
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशा। तीनूं देव दयालु हमेशा।।
तीन लोक का राज है। ब्रह्मा, विष्णु महेश।।
तीनों देवता कमल दल बसै, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
प्रथम इनकी बंदना, फिर सुन सतगुरू उपदेश।।
अर्थात् तीनों देवता श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी बहुत दयालु हैं। इनकी केवल तीन लोक (स्वर्ग लोक, पाताल लोक, पृथ्वी लोक) में सत्ता यानि प्रभुता है, ये तीन लोक के मालिक हैं, परंतु लोक तो बहुत सारे हैं जिनका मालिक परम अक्षर ब्रह्म है जिसकी सत्ता तीनों लोकों समेत सब पर है। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रथम इन तीनों देवताओं की बंदना यानि साधना करनी होती है। फिर सतगुरू का उपदेश सुनो जो परम अक्षर ब्रह्म की पूजा साधना बताएगा। उस संत से तत्त्वज्ञान सुनो। तत्त्वदर्शी संत पूर्ण मोक्ष प्राप्ति की साधना / पूजा बताता है। पूर्ण मोक्ष के लिए इन तीनों देवताओं की शास्त्रोक्त यानि शास्त्रानुकूल साधना करनी होती है, परंतु पूजा गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8-10, अध्याय 15 श्लोक 17, अध्याय 18 श्लोक 62 में बताए "परम अक्षर ब्रह्म" की ही करनी होती है। परम अक्षर ब्रह्म को गीता अध्याय 8 श्लोक 9 तथा अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने अपने से अन्य बताया है तथा कहा है कि उत्तम पुरुष यानि पुरूषोत्तम तो मेरे से अन्य है, वही सबका धारण-पोषण करने वाला अविनाशी परमेश्वर है जिससे स्पष्ट है कि संत रामपाल जी महाराज ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी की भक्ति नहीं छुड़वाते बल्कि शास्त्रानुकूल भक्ति बताते हैं।
संत रामपाल जी महाराज का उद्देश्य
सतगुरु रामपाल जी महाराज का उद्देश्य विश्व के मानव को सत्यज्ञान बताकर सनातनी बनाना है जो केवल शास्त्रोक्त भक्ति साधना करे, मनमानी साधना न करे। क्योंकि हम सभी मानव एक परमात्मा की संतान हैं और हमारा एक ही आदि सनातन धर्म यानि मानव धर्म था और आज भी एक ही है। संत रामपाल जी महाराज कहते हैं,
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म नहीं कोई न्यारा ।।
एक आदि सनातन (पंथ) धर्म से कैसे हुए अनेक?
हमारा पिछला इतिहास बताता है कि पहले केवल एक आदि सनातन पंथ (धर्म) था। और सतयुग में मानव समाज शास्त्रोक्त (शास्त्रानुकूल) भक्ति साधना करता था। उस समय पाँच वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा सूक्ष्मवेद शास्त्र थे। चार वेद ब्रह्मा जी को मिले, जिनमें सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान नहीं था। परम अक्षर ब्रह्म सत्ययुग में लीला करने के लिए शिशु रूप धारण करके आए। बड़े होकर सूक्ष्मवेद का प्रचार किया। तब तक उस समय के ऋषियों ने चारों वेदों वाला ज्ञान पढ़ लिया था। सूक्ष्मवेद वाला कुछ ज्ञान चारों वेदों में न होने के कारण उसको गलत माना। इसलिए सूक्ष्मवेद को धीरे-धीरे छोड़ दिया, परंतु लगभग एक लाख वर्ष तक सत्ययुग में शास्त्रोक्त भक्ति की गई। इसके पश्चात् शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण प्रारंभ हो गया। पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा गया है कि जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, उसको न सिद्धि प्राप्त होती है, न उसकी गति होती है, न उसे सुख मिलता है। जबकि इन तीन वस्तुओं के लिए ही प्रत्येक व्यक्ति भक्ति करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24
लेकिन जब मनमाने आचरण से कोई लाभ नहीं हुआ तो तत्त्वज्ञान के अभाव से हम धर्मों, पंथों में बंटते चले गए जो विश्व में अशांति का कारण बन गया जिससे मानव एक-दूसरे का जानी दुःश्मन बन गया है। संत गरीबदास जी ने सूक्ष्मवेद में बताया है,
आदि सनातन पंथ हमारा। जानत नहीं इसे संसारा।।
षट्दर्शन सब खट-पट होई। हमरा पंथ ना पावे कोई।।
इन पथों से वह पंथ अलहदा। पंथों बीच सब ज्ञान है बहदा।।
शास्त्रानुकूल पूजा और शास्त्रविरुद्ध पूजा में अंतर
पांच वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और सूक्ष्मवेद, श्रीमद्भगवद्गीता अनुसार की जाने वाली भक्ति, पूजा को शास्त्रानुकूल पूजा या सनातनी पूजा कहा जाता है जबकि जो पूजा मनमाने ढंग से की जाती है जिसका आधार वेद, गीता आदि धर्मशास्त्र नहीं होते, उसे शास्त्रविरुद्ध या मनमानी पूजा कहा जाता है। जैसे व्रत रखना, तपस्या करना, श्राद्ध निकालना शास्त्रविरुद्ध मनमानी पूजा है जिसका प्रमाण किसी भी वेद या गीता में नहीं है।
कैसे हुआ सनातनी पूजा का अंत?
गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 में स्पष्ट किया है कि हे अर्जुन! यह योग यानि गीता वाला अर्थात् चारों वेदों वाला ज्ञान मैंने सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकू को कहा। इसके पश्चात् यह ज्ञान कुछ राज ऋषियों ने समझा। उसके पश्चात् यह ज्ञान नष्ट हो गया यानि लुप्त हो गया जिसका प्रमाण "जैन संस्कृति कोष" नामक पुस्तक के पृष्ठ 175-177 में दिया गया है जिसमें कहा गया है कि तीर्थंकर ऋषभदेव अंतिम कुलकर अयोध्या के राजा इक्ष्वाकूवंशी नाभिराज के पुत्र थे। ऋषभदेव ने समय आने पर अपने पुत्रों को उनकी योग्यतानुसार राज्य सौंपकर संसार त्याग दिया और दीक्षा लेकर साधना में लीन हो गये। साधना काल में पाणि पात्री ऋषभदेव एक वर्ष तक निराहार रहे। बाद में बाहुबली के पौत्र श्रेयांस कुमार ने इक्षुरस देकर उनकी इस निराहार-वृत्ति को तोड़ा। लगातार एक हजार वर्ष तक तपस्या करने वाले मुनि ऋषभदेव ने अंत में केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्मदेशना प्रारंभ की। प्रथम धर्मदेशना भरत के पुत्र मरीचि को दी जो बाद में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर वर्धमान बने। इसका प्रमाण आप जी को संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित पवित्र पुस्तक हिन्दू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण के पृष्ठ 52-55 में पढ़ने को मिलेगा। जिसकी फोटो कॉपी नीचे दी गई है।
जबकि पवित्र गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में कहा गया है कि हे अर्जुन! यह योग यानि भक्ति साधना न तो बिल्कुल न खाने वाले की सिद्ध होती है, न अधिक खाने वाले की, न अधिक सोने वाले की, न अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है।
तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है, जो मनुष्य शास्त्रविधि रहित यानि शास्त्रविधि को त्यागकर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में प्राणियों व कमल चक्रों में विराजमान शक्तियों को तथा हृदय में स्थित मुझको भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव के जान।
जिससे स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव जी ने गीता ज्ञान यानि वेदों, शास्त्रों में बताई साधना के विपरीत शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण निराहार, तपस्या अपनी इच्छा से किया जिससे उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, न होना था। क्योंकि उपरोक्त गीता शास्त्र के उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि इक्ष्वाकू वंशी नाभिराज तक वेदों यानि गीता वाले ज्ञानानुसार पूजा की जाती थी। लेकिन उसके पुत्र ऋषभदेव जी से शास्त्रविरुद्ध मनमाना आचरण प्रारंभ हुआ। इस तरह सनातनी पूजा का अंत हुआ। जिससे उनका जीवन नष्ट हो गया और उनका मोक्ष नहीं हुआ। जिसका प्रमाण श्रीमद्भागवत सुधासागर (शुकसागर) पुराण में है कि "एक समय ऋषभदेव जी मुख में पत्थर का टुकड़ा लेकर नग्नावस्था में वन में घूम रहे थे। जंगल में आग लग गई। उस दावानल में ऋषभदेव जी जलकर मर गए।" जोकि शास्त्रविरुद्ध मनमाने आचरण का ही परिणाम था।
पवित्र गीता का ज्ञान कब बोला गया?
ऋषभदेव जी के समय से ही यह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण व्रत, उपवास, तपस्या, समाधिस्थ होना, हठयोग करना सब ऋषिजन करने लगे, क्योंकि राजा नाभिराज तक सत्ययुग लगभग एक लाख वर्ष व्यतीत हो गया था। गीता का ज्ञान द्वापरयुग के अंत में यानि कलयुग से लगभग 100 वर्ष पहले बोला गया था। अर्थात नाभिराज के बाद यह गीता का ज्ञान 37 लाख 87 हजार 900 वर्ष बाद बोला गया। इस दौरान सब ऋषियों ने वेदों के विपरीत साधना की, जिसका प्रमाण तथा परिणाम 18 पुराण हैं। जिसमें ऋषियों द्वारा की गई मनमानी साधना का विवरण है जोकि वेदों, गीता से मेल नहीं खाता।
सनातनी पूजा का पुनः उत्थान
पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि "उस ज्ञान को यानि सूक्ष्मवेद वाले ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर प्राप्त कर।" जिससे स्पष्ट है कि तत्त्वज्ञान गीता में नहीं है। यदि होता तो गीता ज्ञान देने वाला यह नहीं कहता कि तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संतों से जान।
तत्त्वदर्शी संत के अभाव में मानव समाज मनमाना आचरण करके अपना मानव जीवन नष्ट कर रहा है। क्योंकि जब गीता अनुसार तत्त्वदर्शी संत मिल जाता है, तो वह सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान बताता है जिसको सुन-समझकर बुद्धिमान मानव अपनी साधना शास्त्रों के अनुसार करता है, जीवन धन्य कर लेता है और एक मानव धर्म बन जाता है। संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है
गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर।
और ज्ञान मंडलीक है, चकवै ज्ञान कबीर।।
अर्थात् सच्चा नाम ऐसा कारगर है जो आत्मा को निर्मल कर देता है। अध्यात्म ज्ञान शरीर के कष्ट भी दूर करता है। कबीर साहेब का अध्यात्म ज्ञान (चकवै) चक्रवर्ती (All rounder) है। अन्य ज्ञान (मंडलीक) क्षेत्रीय यानि लोक वेद हैं। वहीं हमारे धर्म शास्त्र बताते हैं कि प्रत्येक मानव स्त्री-पुरूष के शरीर में कमल दल यानि कमल चक्र बने हैं और मानव शरीर में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। मोक्ष प्राप्ति यानि उस अमरलोक में जाने का एक ही मार्ग है, जिसमें परमात्मा यानि परम अक्षर ब्रह्म निवास करता है। वह स्थान वह परमपद है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा गया है कि तत्त्वज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् "परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिसने सृष्टि की उत्पत्ति की है। जो सबका धारण-पोषण करने वाला है, उसकी भक्ति करो।"
संत रामपाल जी प्रदान कर रहे तत्त्वज्ञान
वहीं अथर्ववेद कांड नं. 4 अनुवाक 1 मंत्र 7, ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त 1 मंत्र 5, ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1-2, ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 94 मंत्र 3, यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 स्पष्ट करता है कि वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात परमेश्वर कविर्देव (कबीर साहेब) जी हैं जो सर्व सृष्टि रचनहार तथा सर्व का पालनकर्ता है, जो पूजा के योग्य है जिनकी सतभक्ति करने से हमारे सर्व पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं जिससे हमारा जीवन सुखी हो जाता है।
ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3 में उसी परमेश्वर के विषय में कहा गया है कि 'यह चन्द्रमा जैसा शीतल अमर परमेश्वर सूर्य के समान सर्व को पवित्र करता हुआ सर्व ब्रह्माण्डों के ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर बैठा है।'
ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3
इसी का प्रमाण देते हुए आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज ने कहा है,
अर्श कुर्श पर सफेद गुमट है, जहाँ परमेश्वर का डेरा।
श्वेत छत्र सिर मुकुट विराजे, देखत न उस चेहरे नूं।।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, एक रति नहीं भार। सतगुरु पुरुष कबीर हैं, कुल के सृजन हार।।
हरदम खोज हनोज हाजर, त्रिवैणी के तीर हैं। दास गरीब तबीब सतगुरु, बन्दी छोड़ कबीर हैं।।
हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया। जात जुलाहा भेद नहीं पाया, काशी माहे कबीर हुआ।।
निष्कर्ष
उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है वर्तमान में यह तत्त्वज्ञान संत रामपाल जी महाराज जी बता रहे हैं जो इस समय पूरी पृथ्वी में एकमात्र तत्त्वदर्शी संत हैं। जोकि परम अक्षर ब्रह्म कविर्देव (कबीर साहेब) की वास्तविक शास्त्रानुकूल भक्ति विधि बताते हैं जिसका संकेत गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में 'ओम्-तत्-सत्' के रूप में किया गया है जिससे मानव को लाभ होते हैं। यानि सनातनी पूजा का एक बार पुनः उत्थान जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा किया जा रहा है। अतः आप सभी पाठकजन से निवेदन है कि जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा दिए जा रहे तत्त्वज्ञान को जाने, समझे और शास्त्रोक्त भक्ति विधि अपनाएं। तत्त्वज्ञान को विस्तार पूर्वक जानने के लिए आप जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित पवित्र पुस्तक हिन्दू साहेबान! नहीं समझे गीता, वेद, पुराण को Sant Rampal Ji Maharaj App से डाउनलोड करके पढ़ें और अपने मानव जीवन का कल्याण करवायें।